मायावती का चरित्रहनन और राजनीतिक पतन का मर्सिया

भारत के 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती को भारतीय जनता पार्टी का एक वरिष्ठ नेता सार्वजनिक तौर पर जिस घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करता है. आखिर इस बयान की जद में क्या है यह जानने की गुंजाइश इसलिये बनती है कि मायावती इस आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के, इतना बड़ा राजनीतिक मुकाम बनाने वाली दलित ही नहीं, समूचे सबल्टर्न समाज की शायद अकेली कद्दावर महिला शख्सियत हैं. वैसे भारत की राजनीति में अभी तक की सबसे बड़ी हैसियत बनाने वाली एकमात्र महिला जो प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँची वो इंदिरा गाँधी थीं. इंदिराजी को महात्मा गाँधी की गोद में खेलने का अवसर मिला था और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध जीतने के बाद तो इंदिरा गाँधी की नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें  दुर्गा या दुर्गावतार घोषित किया था. इंदिरा कभी दुर्गा थी तो बहुजन नायक महिषासुर के लोकप्रसंग में दुर्गा भी उसी श्रेणी में आती हैं जैसे मायावती को कहा गया. मायावती के संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि वो भारतीय लोकतंत्र में बहुजन जमात की एक प्रतिनिधि राजनीतिक नायिका हैं.

इस बयान का मनोविज्ञान यह बतलाता है कि ऐसा बोलने वाला शख्स पुरूषवादी मानसिकता से ग्रस्त तो है ही जातिवादी भी है और एक औरत को भोग की वस्तु समझता है. हालांकि यह भी सच है कि वेश्यावृति के लोकप्रचलित पेशे को सत्ता-व्यवस्था से जुड़े सफेदपोश लोगों ने संरक्षण देकर स्थापित किया और जिन लोगों ने समाज में नैतिकता की ठेकेदारी की उन्होंने अपनी अय्याशी के लिये देवों के नाम पर यौन कुंठा को तृप्त करने के लिये देवदासी प्रथा को भी स्थापित किया. देवदासी प्रथा की भुक्तभोगी तमाम महिलायें वंचित समाज से आती थी. इस प्रथा को पूरी तरह खत्म करने और इसके अभिशप्त लोगों की सामाजिक बहिष्करण/तकलीफ से मुक्ति की कोशिश आज तक जारी है. वहीं सफेदपोशों के द्वारा पोषित वेश्यावृति में देशभर के कमजोर तबके की लड़कियों को ढकेलने के लिये मानव तस्करी तमाम कानूनों के बावजूद जारी है. हर जगह के रेड लाइट इलाकों में सही- गलत धंधे पुलिस- प्रशासन के सहयोग से ही चलता है तो बड़े अय्याश लोगों के लिये एक सप्लाई-चेन मैनेजमेंट की तर्ज पर लड़कियों की सप्लाई शहरों में संगठित गिरोह का रूप ले चुकी है. इस सबमें बहुजन पीड़ित, शोषित, मजबूर या भुक्तभोगी की ही भूमिका में है और इसके उपभोग करने वाले सरगना मुख्यत: सवर्ण, संभ्रांत, सामंती चरित्र वाले लोग ही हैं. ऐसे में मायावती के खिलाफ बयान के पीछे वेश्यावृति के बदनाम पेशे का स्याह सच बकौल एक सवर्ण सामने आता है जो दलितों-आदिवासी-पिछड़ों यानि समस्त बहुजनों को वेश्या घोषित करने पर आमादा है. दलित होने के कारण वर्ण व्यवस्था में मायावती सबसे नीचले पायदान पर हैं तो लिहाजा वो संघ- बीजेपी की राजनीतिक रणनीति में चरित्रहनन के लिये एक सॉफ्ट टारगेट बनाई गईं. ये बातें आजाद भारत की हैं लेकिन आजादी के पहले के कालखंड का रूख करें तो दिलचस्प ये है कि वर्ण व्यवस्था में उपर के लोगों ने समाज में अपने वर्चस्ववादी- यथास्थितिवादी रूतबे को कायम करने के लिये कालांतर में जाति ही नहीं धर्म तक देखे बिना हर तरह के गठजोड़ बनाने से लेकर राजघरानों में बेटी- रोटी के संबंध स्थापित कर सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित की. वो हर व्यवस्था जो आज 85% बहुजन समाज पर जबरन थोपा जा रहा है, जिसे वंचित- शोषित समाज कईबार मजबूरी में स्वीकार करने को भी बाध्य है उसे सवर्णों ने सत्ता में भागीदारी के लिये जागरूक व शौकिया तौर पर अपना रखा था.

दयाशंकर के इस पूरे बयान में दलित विरोधी मानसिकता से मायावती को अपमानित करने की नीति है और चरित्रहनन की खतरनाक गंदी साजिश भी है. इस पूरे विमर्श में महिला है, राजनीतिक महिला का चरित्र है, जाति- समाज है, राजनीति है और यौन कुंठायुक्त सेक्स आधारित विमर्श भी शामिल है जिसे समझना बहुत जरूरी है. इसी संदर्भ में भारत की राजनीति में कई अदभुत प्रयोग के सफल- असफल होने उदाहरण मिलते हैं. तमिलनाडू में जनता तो ऐसी है कि एमoजीoरामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के विस्मृत होते जाने के बीच उनकी ऑन-स्क्रीन प्रेमिका जयललिता पांचवी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाती हैं. लेकिन वही जनता एनoटीoरामाराव की पत्नी व बेटे को खारिज कर देती है और बगावती दामाद चंद्रबाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद पर दुबारा बिठाती है. पश्चिम बंगाल के भद्रलोक में सामाजिक संरचना पर भारी बौद्धिक-वैचारिक द्वंद्व के बीच पार्टियों से परे सवर्ण नेताओं का राजनीतिक शीर्ष पर पक्ष-विपक्ष में छाये रहने की कलाबाजी गजब दिलचस्प है. विधान चंद्र राय, सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कांग्रेसी के बाद घोर वामपंथी ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य और अब तृणमूल पार्टी की दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी ममता बनर्जी का फर्क दलों के दलदल व विचार से परे सत्ता के कॉमन सवर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर समझना कोई बड़ी बात नहीं है. आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया की कौन सी बड़ी खासियत उन्हें अपने राज्य व पार्टी में कद्दावर बनाकर मुख्यमंत्री के ओहदे पर शुमार करती है. शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति में पुराने विरासत के बूते ही टपककर एक कद्दावर मुख्यमंत्री के रूप में शुमार हुई. लेकिन इन तमाम सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वमान्य नामों के बीच मंडलवादी लालू यादव के राजनीतिक संक्रमण काल में उनकी पत्नी राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनने की घटना पर चुटकुले पेश कर आज भी सवर्ण समाज अपनी कुंठा तृप्त करता है. इस कुंठा की हद तो ये हैं कि एक दौर में टेलीविजन के एक प्रोमों में लालू- राबड़ी का नाम क्रमश: पुरूष-स्त्री शौचालय के दरवाजे पर लिखकर दिखाया जाता था. सवाल उठता है कि इस तरह के प्रतिबिंबन के पीछे क्या सिर्फ सवर्ण समाज के भाषा-ज्ञान-बुद्धि की श्रेष्ठता ही है या वर्ण व्यवस्था में श्रेष्ठता पर आधारित जातिवाद की मानसिकता है?

मीरा कुमार कांग्रेस की सुर्खियों में हमेशा इसलिए बनी रहती हैं कि वो एक वक्त में कांग्रेस के लिये गले की हड्डी बने दिवंगत जगजीवन राम की बेटी हैं और उनकी पार्टी नाम, विरासत, चेहरे को भंजाना बखूबी जानती है. लेकिन कांग्रेस यह भी जानती है कि ओबीसी सीताराम केसरी को क्यों और कैसे निपटाया जाता है. जाहिर है ये दोनों अगर दलित- पिछड़े नहीं होते तो शायद देश के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे. वैसे ही बीजेपी जानती है कि गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे को कैसे निपटाना है और तेलगी मामले से बच गये छगन भुजबल को महाराष्ट्र सदन में बहुजन नेताओं की मूर्ति स्थापित करने की सजा कैसे देनी है? इन सबके पीछे जाति है जो तमाम सवालों के बीच जाती नहीं बल्कि सभी बातों में मूल रूप से समाई हुई है.

एक दौर रहा है जब राजनीति में ट्रेनिंग और ग्रूमिंग का एक कल्चर हुआ करता था. इसके तहत लोहिया, जेपी, कर्पूरी जैसे तमाम नेताओं के सानिध्य में रहकर स्त्री- पुरूष नेताओं की एक बड़ी फौज राजनीति का ककहारा सीखकर लोकसभा-विधानसभा की शोभा बढ़ाते रहे हैं. मायावती के खिलाफ दिये गये बयान के नजरिये से महिला राजनीतिकों की बात करें तो सुषमा स्वराज 70 के दशक में हरियाणा में सबसे कम उम्र की कैबिनेट मिनिस्टर बनीं जिन्हें प्रारंभिक तौर पर देवीलाल, चंद्रशेखर जैसे लोगों ने आगे बढ़ाया. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का संरक्षण प्राप्त अनेकों महिलाओं ने राजनीति में काफी अच्छा नाम कमाया है जिनमें लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन जैसी कद्दावर नेता शामिल हैं. बीजेपी में आज की वरिष्ठ महिला नेता स्मृति इरानी को आगे बढ़ाने में प्रमोद महाजन और नरेन्द्र भाई मोदी का नाम लिया जाता है. कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू, नारायण दत्त तिवारी, राजीव गाँधी ने भी अनगिनत महिलाओं को सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया जिसकी एक लम्बी फेहरिश्त है. जाहिर है कि इन महिलाओं की अपनी क्षमता भी इनकी राजनीतिक सफलता में शामिल रही है. अब इस सूची में जितना चाहें नाम जोर सकते हैं कि किस नेता ने किस महिला को संरक्षण  या सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया लेकिन कभी भी किसी के चरित्र पर किसी पार्टी संगठन के नेता ने सार्वजनिक तौर पर सवाल नहीं उठाया है. यही नहीं मिडिया भी अपने जातिवादी चरित्र के बावजूद इस मामले में अबतक काफी संवेदनशील रूख अपनाती रही है. लेकिन हाल के दिनों में पक्ष- विपक्ष की राजनीति में एक- दूसरे का सम्मान करना तो दूर छीछालेदर और चरित्रहनन करने को हथियार समझा जाने लगा है.

इंदिरा गाँधी की हत्या जिस साल हुई थी उसी साल कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी थी. बहुजनवादी विचार, सशक्त संगठन व सामाजिक संघर्ष की बुनियाद पर राजनीति की नींव कांशीराम जी ने रखी. उस संघर्ष में उन्होंने मायावती को तब से जोड़ रखा था जब किसी के लिये ऐसा सोचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था कि बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय पार्टी तो दूर कभी राज्य स्तर की पार्टी भी बनेगी. इस लिहाज से कांशीराम जी की दूरदर्शिता का अंदाजा लगाना मुश्किल है जिसने मायावती को पार्टी का चेहरा बनाया जो इस मुकाम तक पहुँची. इस संघर्ष से निकली राजनीति के दौर में कांशीराम के सक्रिय न रहने के बाद तो मायावती भी बहुत बदल चुकी थी. बीएसपी की राजनीति को सफल बनाने के लिये मायावती ने सवर्णों से समझौते का रास्ता अपनाया जो कांशीराम की नीति और रणनीति कभी नहीं रही थी. ये मंडल के बाद की राजनीति का दौर था जब एक पत्रकार आशुतोष ने मायावती- कांशीराम पर अभद्र, अमर्यादित, अश्लील टिप्पणी की जिसके लिये आशुतोष को कांशीराम ने जोड़दार थप्पड़ जड़ा था. उस थप्पड़ की गूँज अब मद्धिम पर गई है लेकिन मीडिया के सवर्णों की अकड़ आज भी कायम है. उधर थप्पड़ खाने वाला पत्रकार खुद नेता बनने चल पड़ा है. आशुतोष जेएनयू में मंडल के उतरार्ध काल में मंडल समर्थक समारोह के दौरान शरद यादव की धोती खींचने, दलित- पिछड़ा आरक्षण विरोधी जातिवादी नारे लगाने और शरद यादव की गाड़ी पर पत्थर मारने की घटनाओं में भी लिप्त रहा था. अब यूथ फॉर इक्वालिटी के आरक्षण विरोधी नायक अरविंद केजरीवाल के साथ आशुतोष का राजनीतिक गठजोड़ करना ये सारी बातें यही साबित करती हैं की पत्रकार के ज्ञान और वैचारिक मुखौटे से परे उसकी जाति देखना भी अब उतना ही महत्वपूर्ण है. यही नहीं आशुतोष चांदनी चौक से चुनाव लड़ने जाता है तो वोट के लिये सवर्ण बनिया होने का प्रचार करने के लिये जाति गुप्ता के टाइटल वाले पोस्टर चिपकवाता है. ये सारी बातें शहरी, संभ्रात, शिक्षित और मॉडरेट, मॉडेस्ट, सोफेस्टिकेटेड, प्रोग्रेसिव चेहरों के भीतर सत्तातंत्रों में छिपे सवर्ण जातिवादी भेंड़ियों की पहचान के लिये भी जानना जरूरी है.

मायावती को लेकर किसी दयाशंकर की टिप्पणी के सिर्फ पुरूषवादी होने की बात कहकर मामले को खत्म कर देना भी ठीक नहीं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस की महिला नेता रीता बहुगुणा जोशी ने एक बलात्कार की घटना के बाद टिप्पणी करते हुये एक बार मायावती के भी बलात्कार होने पर ही एक पीड़ित की पीड़ा को महसूस करने की बात कही थी. यही नहीं रीता जोशी ने मायावती की स्थापित मूर्तियों को लेकर कह डाला था कि- मायावती पाँच करोड़ में अपनी एक मूर्ति बनवाती हैं और वह भी काली. उसमें भी पता नहीं चलता कि नाक कहाँ है और कान कहाँ? ये टिप्पणी रंगभेदी, नस्लवादी, जातिवादी श्रेणी में आती है लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ शायद ही कभी बनी हों. इन तमाम मामलों में जाहिर है कि मायावती के महिला या राजनीतिक होने से ज्यादा ये बयान जाति संदर्भ में थे. क्या आप भारत के लोकतंत्र में सोच सकते हैं कि राज्य व देश के सदन में भी दलित- आदिवासी- पिछड़ों के खिलाफ सामाजिक मनोवैज्ञानिक भेदभाव होता होगा जिसमें महिलायें स्वाभाविक तौर पर ज्यादा भुक्तभोगी होंगी. फूलन देवी (उत्तर प्रदेश) और भगवतिया देवी (बिहार) ने लोकसभा में अपने अनुभव के बारे में एकबार नीजी संवाद के दौरान कमोबेश एक ही तरह की बातें शेयर की थी-पुरूषों को कौन पूछे कई महिला सांसद नाक- भौं सिकोड़ते हुये, मुँह बिचका कर बचते हुये निकलती हैं जैसे उन्हें बदबू या घिन आ रही हो. बगल में बैठना हो तो कन्नी काट जाती हैं, दूर से निकल जाती हैं. संसद में भी पुरूष और महिला लोग पार्टी से भी ज्यादा जाति- समाज देखकर खुलती हैं और भेंट- बात करती हैं. एक ओबीसी महिला सांसद का हाल ही में कहना है कि- स्पीकर चेयर पर जब वो (एक महिला) होती हैं तो दलित- ओबीसी के सवाल उठाने पर बहुत इंटरप्शन करती है और जानबूझकर मुद्दा देखकर बोलने ही नहीं देना चाहती हैं. कई बार तो भ्रम होता है कि मेरे चेहरे से इसको चिढ़ या मुझसे कोई नफरत तो नहीं. जाहिर है कि सभी औरतें एक नहीं हैं और वे भी दलित-आदिवासी-ओबीसी-पसमांदा समाज और उनकी जातियों में बँटी हुई हैं. सवर्ण महिलाओं और पुरूषों के राजनीतिक एजेंडे एक होते हैं जो उनके अपने सामाजिक-राजनीतिक व जातीय हित से जुड़ी होती हैं. जहाँ तक आधी आबादी का सवाल है तो सभी सामाजिक वर्ग- समूहों के भीतर ही उनके हक-हकूक-सम्मान के सवाल हल होते ज्यादा आसानी से दिखते हैं और महिला के तौर पर भी उन्हें पहली सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति अपने जाति-समाज के समूहों के भीतर ही मिलती दिखती है.

2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद दलितों को मनोवैज्ञानिक तौर पर लुभाने के लिये संविधान दिवस और अम्बेडकर शताब्दी जैसे कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया जा रहा है. लेकिन इन प्रतिकात्मक हवाबाजी के बीच रोहित वेमुला की घटना, बीजेपी शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न, गाय के नाम पर पहले मुसलमान और अब दलितों को निशाना बनाना, दलित- पिछड़ों के आरक्षण को खत्म व खारिज किये जाने की कोशिशे भी तेज हैं. बीजेपी- संघ के नेताओं के हिन्दूवादी- जातिवादी बयान सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं दलित-पिछड़ों के आरक्षण को निशाना बनाये जाने का सबूत पेश करता है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार चुनाव के वक्त लालू यादव की बेटी मीसा भारती का मिमिक्री करते हुये बेचारी कहकर उपहास किया था तो उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था. इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव की पृष्ठभूमि जब तैयार हो रही है तो संघ- बीजेपी अपने जातिवादी गोलबंदी के पत्ते अभी से खोलने लग गई है. बीजेपी की एक वरिष्ठ महिला नेता मधु मिश्रा ने संविधान-दलितों-आरक्षण के खिलाफ जातिवादी बयान देते हुये कहा कि- संविधान के कारण ब्राह्मणों की यह स्थिति हो गई है जो कभी जूते सीलते थे वो राज चलाने लगे हैं. गुजरात में हार्दिक पटेल से किसी तरह छुटकारा पाने की जुगत में लगी बीजेपी का गाय और दलितों को लेकर बवाल में फँसना–इनसे मुक्ति का मार्ग तलाशने के लिये इसबार दयाशंकर ही मोहरा बना है. ठीक उसी तरह जैसे कि रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और एचसीयू में हो रहे बवाल से मुक्ति के लिये कन्हैया और जेएनयू एक मुक्ति का मार्ग बना था. अब यूपी बीजेपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष दयाशंकर का बयान साबित करता है कि ये अकारण नहीं है बीजेपी की रणनीति का ही अंग है. उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में मायावती पर अश्लील टिप्पणी के बाद दयाशंकर से पहले पल्ला झाड़ लेना लेकिन फिर उसके परिवार के सम्मान का मुद्दा बनाकर बीजेपी अब यूपी की राजनीति में दलितों को अपमानित कर सवर्णों को अपने पाले में गोलबंद करने की कोशिश कर रही है.

देशभर की सवर्ण मीडिया भी बीजेपी के मुहिम में मायावती के खिलाफ ज्यादा सक्रीय और दयाशंकर के परिवार के प्रति किसी भी हद तक जाकर- गिरकर सहानुभूति का माहौल तैयार करती दिखाई दे रही है. लेकिन इसी बीच लोकतंत्र के सभी स्तंभ तथ्यपरक विश्लेषण से दूर होते जा रहे हैं और हर सत्ताकेन्द्र सामाजिक संरचना के हिसाब से अपना पक्ष- विपक्ष- रूख तय कर रहे हैं. इसी कड़ी में रायपुर का नवभारत अखबार की हेडिंग माया का चरित्र वेश्या से बदतर भारतीय मीडिया के घोर सवर्णवादी सामाजिक चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर करता दिखता है. मायावती दलित हैं और बहुजनवादी लोग मीडिया में नहीं हैं तो उसके लोग सड़कों पर उतर कर विरोध दर्ज करा रहे हैं या फिर अल्टरनेटिव सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं. वहीं संघ-बीजेपी और सवर्ण मीडिया मिलकर देश की राजनीति को अपने पाले और मुट्ठी में करने के लिये मर्यादा- नीति- नैतिकता को ताक पर रखकर दोजख बनाने पर तुल गया हैं. संघ-बीजेपी की मुसलमानों से अदावत तो जगजाहिर है लेकिन दलित, आदिवासी इनके नंबर एक निशाने पर है फिर ओबीसी को भी ये व्यवस्था के बाहर हाशिये पर ढकेलने व निपटाने में जोर- शोर से लग गये है. बहुजन समाज पार्टी के लोग जो अपनी नेता के सम्मान मे कर रहे हैं उस पर नैतिकता का प्रवचन बाँच रहे लोगों को याद कर लेना चाहिये कि ये सब स्वाभाविक प्रतिक्रिया के ही तौर पर है जिसकी दुहाई नरेंद्र मोदी, संघ-बीजेपी के लोग गुजरात दंगों के समर्थन में आजतक देते है. देशभर में जो भी इस वक्त हो रहा है इन सबका सूत्रधार संघ-बीजेपी है.

अगर दयाशंकर की बहन- बेटी की इज्जत है तो बहन मायावती की भी इज्जत है और सम्मान तो सभी महिलाओं का बराबर होना चाहिये. लेकिन सवाल महिलाओं का नहीं जाति का है. अगर महिला का सवाल जाति से बड़ा होता तो दयाशंकर की माँ व पत्नी मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर अपने पति और बेटे के समर्थन में चुप्पी नहीं साधती. साथ ही दयाशंकर की बेटी को आगे करके उसके सम्मान का सवाल उठाते हुये मामले को इमोशनल टर्न दिलाने की कोशिश नहीं की जा रही होती. फिर एक माँ-पत्नी-बेटी को सामने खड़ा करके दयाशंकर के बहाने उच्च जाति को गोलबंद करने की मेगा इवेंट मैनेजमेंट पर आधारित रणनीति बीजेपी- संघ और सवर्ण मिडिया खुल्लमखुल्ला नहीं करती. मायावती और बीएसपी कार्यकर्ताओं के आक्रमक तेवर से सवर्ण समाज काफी बेचैन दिखाई दे रहा हैं लेकिन काश देशभर में दलित-आदिवासी- पिछड़े बहुजनों के बलात्कार, हत्या, शोषण, अत्याचार पर देश का पूरा सवर्ण समाज अपने बलात्कारी भाइयों के खिलाफ ऐसे ही खड़ा हो पाता. सत्ता, संसाधनों, तंत्रों, व्यवस्था पर ठेकेदारी अबतक सिर्फ उच्च जाति की रही है और वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित समाज में सारी कुव्यवस्था का  जनक-पोषक सिर्फ देश का मनुवादी- ब्राह्मणवादी तबका रहा है जिसमें बहुजन सिर्फ भुक्तभोगी है. यही कारण है कि समस्त बहुजन समूहों (दलित-आदिवासी-पिछड़ा-पसमांदा) के लिये सभी संसाधनों और सत्ताकेन्द्रों के सभी स्तरों पर सामाजिक न्याय, बराबरी, भागीदारी का सवाल सबसे अहम और अव्वल है.

फिलहाल राजनीति में विचार- चरित्र- नैतिकता को तार- तार कर देने वाले इन बयानों के बीच दलित बीएसपी के पक्ष में गोलबंद हो रहा है तो शीला दीक्षित को आगे करने की रणनीति से ब्राह्मणों को कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होता देख बीजेपी सवर्णों को येन- केन- प्रकारेण एकजुट करने में लगी है. वहीं अखिलेश अपने परिवार के दुर्गम- दुरूह राजनीतिक किले को बचाने की जुगत में लगे हैं.

निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार हैं. इनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.

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