कहीं पर निशाना, कहीं पर निगााहें

अफवाहों और सुनी-सुनाई झूठी बातों में विश्वास करना अज्ञान और अंधविश्वास में डूबे मध्यमं युगीन अशिक्षित समाज की एक आम प्रवृत्ति रही थी किंतु लगता है कि पढ़-लिखकर साक्षर हो जाने और स्माकर्टफोन जैसे आधुनिक यंत्र का इस्तेमाल करने पर भी हम वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न नहीं बन पाये हैं। रह-रहकर हम अफवाहों के शिकार होते रहते हैं। कभी हम किसी मंकी मैन की अफवाह में आ जाते हैं तो कभी चोटी कटवा की। आजकल बच्चा चोरों की अफवाहों का बाज़ार गर्म है। शरारती तत्वों  द्वारा व्हाकट्अप से फैलाई गई बच्चे उठाये जाने की अफवाहों के कारण उन्माधदी बन जाने वाली भीड़े के हाथों पिछले एक-डेढ़ महीने में 20 से भी ज्यांदा निर्दोष लोगों को पीट-पीटकर मौत के घाट उतारा जा चुका है। व्हाट्अप जैसे आधुनिक जनसंचार माध्यम का इस्तेमाल जिस प्रकार भीड़ को उत्तेजित करके लामबंद करने और अपने से अलग दिखने वाले, अपने से अलग धर्म, संस्कृति को मानने वाले लोगों के खिलाफ हिंसा को भड़काने के लिए किया जा रहा है, उससे कानून और व्यवस्था की व्यापक समस्यांएँ पैदा हो गई हैं। लोगों के अंदर एक कृत्रिम भय और आक्रोश पैदा करके उन्हें कानून हाथ में लेने के लिए उकसाने की घटनाओं में हुई इस वृद्धि से स्व‍यं केंद्र सरकार भी चिंतित है और 2 जुलाई को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्री किरण रिजिजू ने भी व्हाेट्सअप से फैलाई जा रही इन अफवाहों और झूठी खबरों को एक बड़ा संकट बताते हुये अपनी चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि अफवाहें और झूठी खबरें निर्दोष लोगों के लिए खतरा बन रही हैं। उन्हों ने आधिकारिक रूप से कोई दिशा निर्देश तो नहीं दिया किंतु कहा कि इन अफवाहों और भ्रामक समाचारों के खिलाफ राज्य सरकारों और सभी सरकारी एजेंसियों को स्वयंसेवी संगठनों को साथ लेकर एकजुट होना चाहिए और जागरुकता फैलानी चाहिए।

बच्चा चोरी की इन अफवाहों के खिलाफ जन जागरुकता की आवश्याकता को श्री किरण रिजिजू द्वारा रेखांकित किया जाना स्वागत योग्य है और उनकी पार्टी द्वारा शासित राज्यों उत्तरप्रदेश एवं राजस्था‍न आदि के पुलिस महकमों द्वारा इस दिशा में पहले से ही कदम उठाने के दावे भी किये गये हैं। किंतु भीड़ को हिंसा के लिए प्रेरित करने वाली अफवाह फैलाने वालों के खिलाफ और हिंसा पर उतारू भीड़ के खिलाफ त्वोरित और मुक्कसमल कार्यवाही न करके अफवाहों के माध्यम मात्र के प्रति क्षोभ प्रकट करना केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता पर संदेह करने को मजबूर कर देता है। इनकी सरकार की कथनी और करनी का अंतर इस तथ्यल से भी साबित होता है कि इस सरकार के मुखिया तक भड़काऊ अफवाहें फैलाने वालों का सोशल साइटों पर अनुकरण करते हैं।इस विषय में दिनांक 18 जुलाई के विगत मंगलवार को झारखंड के पाकुड़ में भाजपा के युवा मोर्चा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ताओं की भीड़ द्वारा अस्सी साल के बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता स्वाामी अग्निवेश पर किया गया प्राण घातक हमला भी ध्यातव्य हैं। साइबर अपराधों के विश्‍लेषण से पता चलता है कि इंटरनेट पर विभिन्नर प्रकार के प्रलोभन देते हुए किसी लिंक विशेष पर क्लिक करने को कहा जाता है और तद्विषयक वेबसाइट विशेष की तरफ लोगों को आकर्षित करने के लिए लोगों की भावनायें भड़काने वाली सच्चीे-झूठी कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। विज्ञापनों से होने वे राजस्व का खेल लोगों की जातीय-धार्मिक भावनाओं में उबाल लाने के पीछे काम कर रहा होता है।

कई बार राजनीतिक दृष्टि से किसी विचाधारा विशेष को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए भी भ्रामक खबरें फैलाई जाती हैं। संवेदनशील वीडियों, ऑडियों और चित्रों आदि को उनके संदर्भों से काटकर इतर संदर्भ में पेश करके लोगों को उन्मा दी भीड़ में तब्दीलल कर दिया जाता है। व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्वीटर आदि जनसंचार केलोकप्रिय माध्यीमों का दुरुपयोग किसप्रकार भीड़ को हिंसक बना बेकसूर लोगों की हत्यासए करवाने में हो रहा है, इसके लिए विगत एक-डेढ़ महीने के अखबारों की सुर्खियाँ आप देख सकते हैं। मई महीने में तमिलनाडु के पुलीकट में एक बेघर व्ययक्ति को अपहरकर्ता समझ पागल भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। इसी महीने में तेलंगाना के जियेपल्लीर नामक स्थान पर एक व्याक्ति को डकैत के भ्रम में भीड़ ने खत्म कर दिया। उस व्याक्ति का कसूर सिर्फ इतना था कि वह उस स्थान के वासियों के लिए अजनबी था। जून के महीने में असम के कार्बी आंगलोंग जिले में दो बाहरी व्यक्तियों को स्थानीय गाँव वालों ने बच्चा  चोर समझकर लाठियों से इतना पीटा कि दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये। बच्चाे उठाने वाले गिरोह से होने के शक में गुजरात में भी इसी महीने एक भिखारी को उन्मा दी भीड़ का निवाला बनना पड़ा। जुलाई की शुरुआत में महाराष्ट्र  के धुले जिले में तो खानाबदोश जनजाति के पाँच लोगों तक को बच्चा़ अगुआ करने वाला गिरोह समझ पीट-पीटकर क्रूता से खत्म् कर दिया गया। और यह लेख लिखे जाने तक सबसे हाल की घटना शुक्रवार 13 जुलाई की है जब बच्चा़ चोरी की इन्ही अफवाहों ने कर्नाटक के बीदर में एक गूगल इंजीनियर के प्राण ले लिये। इस इंजीनियर के तीन साथी भी भीड़ के हत्थे  चढ़ जाने के कारण बुरी तरह घायल हो गये।

वीडियों, ऑडियो और चित्रों समेत सूचनाओं और आंकड़ों आदि के त्वेरित और सुगम आदान-प्रदान के लिए बनाये गये व्‍हाट्सअप एप्लिकेशन के इस आपराधिक किस्म  के दुरुपयोग ने पुलिस-प्रशासन समेत संवेदनशील आम आदमी के होश उड़ा दिये हैं। व्हासट्सअप  के बचाव में अब यह नहीं कहा जा सकता कि तकनीक तो तकनीक होती है, उसका अच्छा -बुरा प्रयोग तो इंसान ही करता है। व्हाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर आदि ने हमें अभिव्ययक्ति के असीमित लोकतांत्रिक अवसर उलब्धै करा दिये हैं किंतु इनका इस्तेुमाल करने वालों के सामने उस तरह की कोई कानूनी जबावदेही अभी तक नहीं है और न स्वम नियंत्रित सेंसरशिप का प्रशिक्षण उन्हें  मिला है। चाहे कानून की खामियों के चलते सोशल साइटों पर किसी व्यतक्ति विशेष या समुदाय विशेष के विरुद्ध आग उगलने वाले लोग बच जायें किंतु भीड़ की हिंसा के लिए वे अपनी नैतिक जिम्मेहदारी से नहीं बच सकते। मोदी सरकार की ओर से अपनी नीतियों की तीखी आलोचना से परेशान हो सोशल साइटों की निगरानी रखने की जो बात पहले से उठाई जा रही थी, उसे व्हा ट्सअप से फैलाई जा रही बच्चाप चोरी की अफवाहों और इन अफवाहों से हिंसा पर उतारू हो रही भीड़ ने और ज्या दा बल प्रदान किया है। स्पमष्ट, है कि इस सारे घटनाक्रम में एक फायदा तो मोदी सरकार को होता दिख ही रहा है।

साइबर कानूनों के विशेषज्ञ भी सरकार के ऊपर दबाव बनाये हुये हैं कि व्‍हाट्सअप, फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल सेवा प्रदान करने वाली सोशल साइटों पर नकेल कसने की जरूरत है। आज सरकार की तीखी आलोचना की जा रही है कि उसके पास साइबर अपराधों पर लगाम लगाने की इच्छाटशक्ति नहीं है। और मजे की बात देखिए कि अपनी सरकार की आलोचना करने वालों की राष्ट्रबभक्ति पर सवाल उठाने वाली भाजपा इस बार चुप है क्योंनकि इन आलोचनाओं से उसे अभिव्यरक्ति के अधिकार पर अंकुश लगाने का बहाना जो मिल रहा है। स्तर में सोशल मीडिया से जुड़े घृणा फैलाने के कारोबार से सबसे ज्याकदा फायदा हुआ है भाजपा और संघ परिवार की सांप्रदायिक और मनुवादी राजनीति को और इसीलिए सरकार अभी तक सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर मगरमच्छीा आँसू बहाने के अलावा कुछ खास करती नहीं नज़र आईहै। घृणा और उन्माकद से संबद्ध साइबर अपराधों के प्रति सरकार की इस उदासीनता के कारण ही सोशल साइटों पर अफवाह फैलाने का धंधा करनेवाले धंधेबाजों की हिम्म्त बढ़ रही है। सरकार की इस निष्क्रियता के कारण ही भीड़ को कानून के हाथ पंगु नज़र आते हैं और वह सोशल साइटों और व्हांट्सअप पर चलने वाली अफवाहों की बिनाह पर निरपराध लोगों की  पिटाई और हत्याो बेखौफ होकर कर रही है।

लेकिन क्या बच्चोंन को अगवा करने और उनके अंगों को ऊँची कीमत पर चिकित्सा  के बाज़ार में बेचे जाने की अफवाह फैलाये जाने के लिए मात्र व्हानट्सअप ही जिम्मे्दार है ॽक्या  इन अफवाहों और झूठी खबरों के कारण अपने बच्चों  की सुरक्षा को लेकर पैदा भीड़ के भय और आक्रोश के लिए मात्र सोशल साइटों को ही अपराधी माना जाना चाहिए मंत्रालय इस सच्चाअई से इनकार कर सकता है कि बकौल राष्ट्री य अपराध रिकार्ड ब्यूकरो के आंकड़ों के अनुसार अकेले साल 2016 में बच्चोंत के खिलाफ घटित 1,06,958 अपराध के मामले दर्ज़ किये गये और इनमें से 54,723 मामले अकेले अपहरण के थे। बच्चों के साथ घटित अपराध के मामलों में दूसरा बड़ा हिस्सा, यौन अपराधों का था जिसके तहत कुल 36022 मामले दर्ज़ किये गये। किंतु बच्चों  के अपहरण और उनके साथ होने वाले बलात्कािर के इन दर्ज़ मामलों की संख्या‍ बच्चोंं पर होने वाले अपराधों के वास्तुविक आंकड़ों से बहुत कम हैं। प्राय: यह देखा जाता है कि शहरों और महानगरों की अवैध कच्चीक बस्तियों में रहने वाले गरीब-दलित-पिछड़े परिवारों के बच्चोंध के अपहरण और बलात्कांर की घटनायें अपेक्षाकृत ज्याजदा घटती हैं किंतु उनके माँ-बाप की कमजोर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति इन अपराधों की प्राथमिकी दर्ज़ कराने में बाधक बन जाती है। क्यात बच्चोंह के अपहरण और बलात्काँर की इस हकीकत से केंद्र का गृह मंत्रालय मुँह मोड़ सकता है ॽ क्याा बच्चोंे पर हो रहे इन वास्ततविक अपराधों के लिए भी सोशल साइटें ही जिम्मेीदार हैं।

अस्तु, व्हाट्सअप और सोशल साइटों पर बच्चा चोरी की अफवाहों को आजकल जो इतना बल मिल रहा है, उसके पीछे है बच्चोंं के अपहरण और बलात्काेर की कड़वी सच्चाहइयाँ। बच्चों  की चोरी को लेकर भीड़ का भय निर्मूल नहीं है। इस भय को अफवाहों के माध्यीम से बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए केंद्र सरकार के मंत्री आदि चाहे व्हा ट्सअप को दोष देते रहें किंतु व्‍हाट्सअप आदि पर सरकारी नियंत्रण से यह समस्याा हल नहीं होने वाली। यहाँ दो-तीन चीजों को रेखांकित करना भी जरूरी है। एक तो हमें यह देखना होगा कि व्हा ट्सअप एप्लिकेशन और फेसबुक, ट्वीटर आदि सोशल साइटों पर अफवाहें फैलाने का दोषारोपण करके यथार्थ में केंद्र सरकार अभिव्य्क्ति की स्वहतंत्रता को नियंत्रित करने के अपने प्रच्छ्न्नर एजेंडे को ही लागू करना चाहती है। वास्तोव में केंद्र सरकार को सोशल साइटों और व्हातट्सअप आदि से फलाई जाने वाली अफवाहों और झूठी खबरों से उतनी समस्याव नहीं है जितनी समस्या  उसे इन पर होने वाली अपनी आलोचनाओं से है। प्रलोभन और भय के द्वारा मुख्याधारा के मीडिया को अपना क्रीतदास बना चुकी वर्तमान मोदी सरकार सोशल मीडिया पर मुखरित होते अपने विरोध को सहन नहीं कर पा रही है। बच्चा चोरी की अफवाहों और भीड़ की हिंसा ने मोदी सरकार को एक मनचाहा मौका उपलब्धल करा दिया है कि कानून-व्यरवस्थान का बहाना करके वह सोशल मीडिया पर नकेल कसकर अपने आलोचकों के हाथों से अभिव्यकक्ति का यह माध्यउम भी छीन ले।

दूसरी बात, अफवाहों को रोकने और कानून अपने हाथ में लेने वाली उन्माेद में पागल हो चुकी भीड़ पर समुचित कार्यवाही करने की जिम्मेउदारी राज्य  की होती है, न कि व्हाकट्सअप एप्लिकेशन चलाने वाली किसी निजी कंपनी की। कोई भी सोशल साइट हमारे द्वारा चुनी गई लोकतांत्रिक सरकार का न तो स्थाहन ले सकती है और न उसे लेना चाहिए। सरकार कैसे सोशल मीडिया से यह अपेक्षा कर सकती है कि वह एक लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेकदारी का निर्वहन करे ॽ आज समस्याा यह है कि लोकतांत्रिक वैज्ञानिक मिज़ाज विकसित करने और कानून का शासन स्था पित करने के अपने संवैधानिक दायित्वोंक का निर्वहन न करके व्येवस्था पिका और कार्यपालिका अपनी जिम्मेनदारी कॉरपोरेट जगत पर डाल देने को उतावली है। भीड़ को हिंसा के लिए उकसाने वाले दोषी व्यहक्ति∕समूह ∕राजनीतिक-सांस्कृपतिक संस्थाम की पहचान करना, कानून-व्यववस्था  बनाये रखने के अपने कर्तव्यल की पालना न करने वाले सरकारी अधिकारी आदि की जबावदेही तय करना और अफवाहों के कोहरे को दूर कर सत्यि की स्थाचपना करना सरकार का कर्तव्यव है, न कि व्हा ट्सअप का। किंतु तथ्यन तो यह है कि बकौल गृह मंत्रालय केंद्र सरकार के पास भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा के कोई आधिकारिक आंकड़ें तक नहीं हैं। राष्ट्रीाय अपराध रिकार्ड ब्यूहरो के पास इसप्रकार की हिंसा का लेखा-जोखा रखने की कोई योजना भी नहीं है। भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा कोई सामान्या अपराध की घटना नहीं होती है अपितु यह योजनाबद्ध ढंग से अंजाम दिया जाने वाला राजनीतिक अपराध होता है।

इसके द्वारा एक बहुसंख्यंक ताकतवर समूह दूसरे अल्प संख्यकक कमजोर समूह के ऊपर अपना प्रभुत्वज स्थारपित करने की कोशिश करता है। यह अकारण नहीं है कि ज्यासदातर मामलों में उन्मा‍दी भीड़ के शिकार या तो मुसलिम हैं या दलित-आदिवासी। यहीं पर हमें बच्चाक चोरी की अफवाहों और इन अफवाहों के चलते पगलाई भीड़ की हिंसा के संदर्भ में कथितगौरक्षकों की इसीप्रकार की हिंसक परंपरा को भी नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए। भीड़ को लामबंद करके मुसलिमों और दलितों के खिलाफ हिंसा का रास्ताो दिखाने वाले सबसे पहले अपराधी ये नकली गौरक्षक ही रहे हैं और इनके सिर पर किनका हाथ है, यह भी कोई छिपी बात नहीं है। गौरक्षकों और उनके राजनीतिक आकाओं ने ही भीड़ के सामने पुलिस-प्रशासन को नपुंसकता का प्रदर्शन करना सिखाया है। यह तो आज भीड़ की हिंसा के कारण राष्ट्रीरय और अंतर्राष्ट्रीओय स्त़र पर हो रही मोदी सरकार की किरकिरी ही है, जिसके चलते केंद्रीय गृह राज्य। मंत्री को बच्चाक चोरी की अफवाहों के ऊपर चिंता व्य क्तस करनी पड़ती है। अस्तुर, स्परष्टप है कि भीड़ की हिंसा पर लगाम लगाने के लिए एक विशेष कानून की आवश्यीकता है। नागरिक समाज के कुछ संवेदनशील लोगों ने इस दिशा में पहल करते हुये ‘मानव सुरक्षा कानून’ का एक मसौदा भी तैयार किया था लेकिन केंद्र सरकार अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वाेर्थों के चलते इसप्रकार के किसी भी कानून की विरोधी रही है। किंतुविगत 17 जुलाई के अपने एक फैसले में स्वलयं सर्वोच्चर अदालत तक पृथक से एक विशेष कानून लाने का निर्देश केंद्र सरकार को दे चुकी है।सरकार को देर-सबेर यह समझना ही होगा कि व्हालट्सअप जैसे किसी सोशल मीडिया के एप्लिकेशन को अनस्टॉकल करने से भीड़ की हिंसा नहीं रुकने वाली इसके लिए तो आपको अल्प संख्यक विरोधी अपना सॉफ्टवेयर बदलना होगा।

-प्रमोद मीणा

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