आरक्षण का भय और आरक्षण सूचियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता

 

Written By- कैलाश जीनगर 

22 अप्रैल 2020 को उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने चेब्रोलू लीला प्रसाद के वाद में आरक्षण के विषय में कुछ टिपण्णी की जो कि जल्द ही सुर्ख़ियों में छा गई और आरक्षण के विरोध में जन भावना ने एक बार फिर जोर पकड़ा। दरअसल न्यायाधीश अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने उक्त वाद में ये “मत” प्रस्तुत किया है कि अनुसूचित जाति-जनजाति में अब संपन्न और सामाजिक व आर्थिक रूप से विकसित वर्ग उत्पन्न हो गया है जिसके कारण आरक्षण प्रावधानों का लाभ इन जातियों के निम्न वर्गों तक नहीं पहुँच पाता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह आरक्षण की सूचियों का पुनरिक्षण करे। चूँकि पीठ ने सरकार को इस सम्बन्ध में कोई आदेश या निर्देश जारी नहीं किये हैं इसलिए उपरोक्त कथन को केवल राय या मशवरे के रूप में ही देखा जाना चाहिए। परन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस राय को आधार बनाकर दलितों के हितों से खिलवाड़ करने वाला कदम उठाया जा सकता है। न्यायालय का यह दृष्टिकोण आरक्षण-विरोधी तत्वों तथा दलितों के अत्यधिक पिछड़े वर्गों को लुभाने वाला हो सकता है, परन्तु इस संबंध में कोई राय बनाने से पहले इस मत का बहुआयामी परिक्षण व समीक्षा आवश्यक हैं।

पहला, उपरोक्त फैसले में न्यायालय ने बिना ठोस सबूत या आंकड़े प्रस्तुत किये ये कहा कि अनुसूचित जाति-जनजाति में संपन्न तथा विकसित वर्ग है। जबकि सर्वज्ञात है कि सरकारी सेवाओं में उच्च स्थानों पर आज भी दलितों की संख्या नगण्य है और उन पदों पर तथाकथित “उच्च जातियों” का एकाधिकार है। उदाहरणार्थ, वर्ष 2019 में उच्चतम न्यायालय में लगभग दस वर्षों बाद एक दलित न्यायाधीश की नियुक्ति हो सकी है। हाँ, राजकीय सेवाओं के निचले तथा कुछ हद तक मध्यम स्तरीय पदों पर यक़ीनन दलित पदासीन हैं। परन्तु, ये तथ्य दलितों के संपन्न और विकसित होने का प्रमाण कतई नहीं हैं। साथ ही भेदभाव-रोधी दो अहम कानूनों (सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम व अ.जा. ज. जा. अत्याचार निवारण अधिनियम) का प्रभाव में होना तथा दलितों के विरुद्ध जाति आधारित अपराधों में वृद्धि होना (देखें, एन.सी.आर.बी. नवीनतम रिपोर्ट, 2018, सारणी 7) इस बात के ठोस सबूत हैं कि अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग सामाजिक रूप से आज भी पिछड़े हैं एवं तथाकथित “सवर्णों” के निशाने पर रहते हैं। ऐसे में आरक्षण को कम करने की बजाय उसे और भी प्रभावी ढंग से लागू करने की ज़रूरत है। लेकिन आरक्षण पर नीति-निर्धारण करने वाले सरकारी संस्थान अक्सर इस ज़मीनी हकीकत को नज़रंदाज़ कर, बाहरी कारक जैसे दलितों को आरक्षण का लाभ, को ध्यान में रख कर फैसला ले लेते हैं, जो कि अन्यायकारी साबित होता है।

दूसरा, दलितों के तथाकथित संपन्न भाग को आरक्षण सूची से अलग करने का न्यायालय का सुझाव इस बात की ओर इशारा करता है कि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य आर्थिक उत्थान था, जो कि गलत है। वास्तव में अनुच्छेद 16(4) तथा संविधान सभा में इस संबंध में हुए विचार-विमर्श से ये स्पष्ट होता है कि आरक्षण का मुख्य उद्देश्य है राजकीय सेवाओं में दलितों की भागीदारी को सुनिश्चित्न करना तथा उनमें सवर्ण एकाधिकार का खात्मा करना, क्योंकि सवर्ण चयन अधिकारी जात-पांत और छुआछूत के चलते दलितों का सरकारी सेवाओं में चयन नहीं करते थे। इसलिए आरक्षण ही एक मात्र विकल्प उपलब्ध था। संविधान में इसका प्रावधान सदियों से शोषित तथा वंचित वर्ग के सामाजिक उत्थान के लिए किया गया था (देखें, सी.ए.डी., 30-11-1948, भाग 7). इंद्रा साहनी वाद (1992) के निर्णय में भी नौ न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात का समर्थन किया था। अतः आरक्षण की समीक्षा का आधार दलितों की आर्थिक सम्पन्नता नहीं बल्कि प्रशासन में इनकी पर्याप्त भागीदारी, इनका सामाजिक उत्थान तथा उच्च राजकीय हल्कों में सवर्ण एकाधिकार की समाप्ति होना चाहिए।

तीसरा, न्यायाधीश अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने संपन्न और विकसित लोगों को आरक्षण सूची से हटाने का सुझाव रखने के लिए इंद्रा साहनी वाद (1992) के निर्णय को बहुतायत में उद्धृत किया। परन्तु ज्ञातव्य है कि उक्त निर्णय में आर्थिक सम्पन्नता (क्रीमी लेयर) का मापदण्ड केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी.) के लिए सुझाया गया था। नौ न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले में ये स्पष्ट किया था कि विकसित वर्ग को आरक्षण का लाभ न देने का विचार अनुसूचित जाति-जनजाति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा। परन्तु, इस महत्त्वपूर्ण बिंदु की ओर न्यायालय का ध्यान नहीं गया। अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण में “क्रीमी लेयर” सिद्धांत सर्वथा असंवैधानिक है; संविधान की मूल भावना के साथ धोखा है।

चौथा, चेब्रोलू वाद में उच्चतम न्यायालय ने ये भी कहा कि आरक्षण का प्रावधान दस वर्षों के लिए किया गया था, जबकि वास्तविकता यह है कि दस वर्ष की सीमा राजकीय सेवाओं में आरक्षण के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 330, 332 व 334 के तहत लोक सभा तथा विधान सभाओं की सीटों में आरक्षण के लिए तय की गई थी। आरक्षण विरोधी इस दौर में देश के सर्वोच्च न्यायालय की ये टिपण्णी ‘आग में घी’ का काम करने जैसी प्रतीत होती है।

संविधान लागू होने के 70 वर्षों बाद भी नीति-निर्धारण करने वाले निकायों में तथा अन्य उच्च सरकारी पदों पर तथाकथित सवर्ण जातियां हावी हैं। वे इस बात का पूरा प्रयास करती हैं कि उनका ये एकाधिकार समाप्त न हो। ऐसे में आरक्षण ही एकमात्र ऐसा हथियार है जिससे कि न केवल दलितों को बल्कि सरकारी संस्थानों को भी सवर्णों के चंगुल व एकाधिकार से मुक्त कराया जा सकता है। आरक्षण के प्रावधानों की यही शक्ति सवर्णों को भयग्रस्त करती है, जिसके परिणामस्वरूप वे इस यन्त्र को कमज़ोर करने में प्रयासरत हैं।

वर्तमान में जबकि सरकारें भिन्न भिन्न तरीकों (जैसे आई.ए.एस. में लेटरल एंट्री, ई.डब्लू.एस. आरक्षण, सरकारी उपक्रमों का निजीकरण, उत्कृष्ट तथा तकनीकि संस्थानों में आरक्षण समाप्ति) से आरक्षण को निष्प्रभावी करने तथा उसकी बुनयादी भावना को विकृत करने में लिप्त है, उच्चतम न्यायालय की आरक्षण सूचियों पर उपरोक्त राय कईं संदेह उत्पन्न करती है।

आरक्षण से वंचित अनुसूचित जाति-जनजाति के वर्गों को न्यायालय के इस लुभावने दृष्टिकोण का स्वागत करने से पहले इन आरक्षण विरोधी नीतियों को ध्यान में रखना होगा। साथ ही ध्यान में रखना होगा आरक्षित वर्ग की बढती हुई न भरी जाने वाली (बैकलॉग) रिक्तियों की संख्या को और इन रिक्तियों को कुछ वर्षों बाद अनारक्षित श्रेणी में रूपांतरित करने वाले नियमों को। आरक्षण को खोखला करने वाले ये अप्रत्यक्ष प्रयास कोई संयोग नहीं बल्कि सवर्ण एकाधिकार तथा आरक्षण से भय का परिणाम हैं।

दलितों के आरक्षण से वंचित हिस्से के उत्थान में असल बाधक हैं अपर्याप्त ढांचागत सुधार। इन वर्गों तक शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार और अन्य कल्याणकारी सरकारी योजनाओं का लाभ मुश्किल से पहुँच पाता है। ये जीवनभर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही संघर्षरत रहते हैं। ऐसे में दलितों के नौकरी-प्राप्त समुदायों को आरक्षण सूची से हटाने पर भी इनकी स्थिति तो करीब करीब जस की तस रहने वाली है, परन्तु, इससे दलितों की सरकारी सेवाओं में भागीदारी ज़रूर और भी कम हो जाएगी और परिणामस्वरूप, सवर्णों का दमनकारी एकाधिकार और भी प्रबल हो जायेगा।


लेखक कैलाश जीनगर दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में असि. प्रोफेसर हैं। उनसे संपर्क- 9001730221 पर हो सकता है।

 

1 COMMENT

  1. आरश्रण चालु रहना चाहिए अभी sc st obc पुर्ण रूप से सक्षम नहीं हुए है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.