गुजरात की पिच पर जिग्नेश की ‘जमात’ की पारी

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जिग्नेश के रहने का अंदाज और पहनावा उन्हें मुख्यधारा के नेताओं से अलग करता है. उनकी जिंदगी के दूसरे पहलू भी उन्हें बाकी नेताओं से जुदा करते हैं. और सबसे हटकर उनमें जो बात दिख रही है वह है उनकी जाति से हटकर ‘जमात’ की राजनीति. उनकी शख्सियत उन्हें स्वाभाविक तौर पर इसी राजनीति से जोड़ रही है.

यह सच है कि गुजरात में दलितों की आबादी कोई 7 प्रतिशत है. यह करीब उतनी ही है जितने वोट प्रतिशत के अंतर से पिछली बार भाजपा ने कांग्रेस को हराया था. दलितों से थोड़ी ज्यादा आबादी मुसलमानों की है करीब 9 प्रतिशत. और इन दोनों को मिलाकर इनसे लगभग दोगुनी आबादी आदिवासियों की है करीब 15 प्रतिशत. ये तबके कभी एक थे, क्यों थे और कैसे बिखरे यह एक अलग कहानी है, लेकिन इस तथ्य में उनकी प्रबल संभावना छिपी हुई है कि वे 30 प्रतिशत से ज्यादा की ‘जमात’ में हैं, जो अब तक भी न संगठित है और न आक्रमक, लेकिन यह भी नई बात है कि वंचित-सामाजिक वर्ग की बेचैनी इस बार चुनाव के केंद्र में दिख रही है. और यही बेचैनी जिग्नेश की हर स्पीच और बड़े स्टेटमेंट में उनसे कनेक्ट कर रही है. और इसी बेचैनी ने ‘जमात’ की राजनीति में एक संभावना पैदा की है. इसमें कम-से-कम इस सवाल पर तो सोचा ही जा सकता है कि वोट-बैंक की राजनीति में भी ‘बहुसंख्यक’ का मतलब बदला जा सकता है?

जिग्नेश को किसी वर्ग का चेहरा बताना हो सकता है कि फिलहाल जल्दबाजी हो, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि उनकी अगुवाई में सामाजिक आंदोलन के प्रतीकों को राजनीति में भी पैर पसारने की जगह मिली है. इसमें एक आत्म-विश्वास तो है ही, यह महत्वकांक्षा भी है कि उनकी जाति या ‘जमात’ से कोई सोशल या पोलिटिकल लीडर भी हो सकता है. एक अच्छा युवा कम्न्यूकेटर, जो उनके पक्ष में हर मंच पर हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी धारा-प्रवाह बोल सकता है.

इस संभावना में एक नई बात भी दिख रही है कि यह चुनावी सफलता-असफलता से आगे जा सकती है और इसे असली चुनौती भी वहीं मिलेगी, जहां ‘जमात’ की राजनीति को कांग्रेस और भाजपा से अलग पहचान दिलाने की कवायत होगी. किसी पार्टी की पहचान में छिप जाना इस संभावना का अंत होगा. इनसे अलग विकल्प खड़ा करना एक और संभावना होगी. जितना मैं समझ पा रहा हूं तो शायद भी इसी लाइन पर इससे बहुत आगे समझ रहे हैं. इसलिए जिग्नेश का निर्दलीय खड़ा होना उनकी भविष्य की राजनीति की ओर संकेत दे रहा है.

इसलिए गुजरात की मौजूदा राजनीति में सम्भावना यह भी है कि चुनाव परिणाम मात्र छोटा-सा इंटरवल साबित हो और मुकाबले का अगला दौर इस परिणाम के एक अंतराल बाद जल्द शुरू हो. चुनावी राजनीति में कोई एक दल जीतता है. लेकिन, गुजरात की राजनीति में इस बार नया यह है कि यह चुनावी हार-जीत से आगे ‘जाति’ दिख रही है. यहां पिछले कुछ चुनावों में भाजपा का सामना कांग्रेस जैस दल से होता रहा है, जिसे हराकर शांति से बैठा जा सकता था. लेकिन, इस बार दलीय स्थिति से उलट सामाजिक-जातीय आन्दोलनों ने उसे असली टक्कर दी है.

चुनावी राजनीति में कोई एक दल जीतता है. लेकिन, गुजरात की राजनीति में इस बार नया यह है कि यह चुनावी हार-जीत से आगे ‘जाति’ दिख रही है. यहां पिछले कुछ चुनावों में भाजपा का सामना कांग्रेस जैस दल से होता रहा है, जिसे हराकर शांति से बैठा जा सकता था. लेकिन, इस बार दलीय स्थिति से उलट सामाजिक-जातीय आन्दोलनों ने उसे असली टक्कर दी है. इसलिए गुजरात की मौजूदा राजनीति में सम्भावना यह भी है कि चुनाव परिणाम मात्र छोटा-सा इंटरवल साबित हो और मुकाबले का अगला दौर इस परिणाम के एक अंतराल बाद जल्द शुरू हो.

किसी भी स्थिति में आरएसएस के लिए यह चिंता का सबब है. वजह है कि लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद आरएसएस-भाजपा संगठन अपनी ही प्रयोगशाला में सामाजिक-जातीय उथल-पुथल नहीं रोक पाया है. आगे की स्थिति का आंकलन करें तो भले ही गुजरात की राजनीति साम्प्रदायिकता पर आधारित है, फिर भी आरएसएस-भाजपा की दिक्कत यह है कि पूरा समाज आज भी जातियों में बंटा है जो उनकी मांगों को लेकर पहले से थोड़ा संगठित और बहुत ज्यादा आक्रामक होता जा रहा है.

आरएसएस-भाजपा अब तक विशेष तौर पर एसटी, एसटी और ओबीसी जातियों को मुसलमानों (9 फीसदी) के खिलाफ खड़ा करने में कामयाब होता रहा है. लेकिन, आर्थिक कमजोरी और बेकारी के कारण इन जातियों का अंतर्विरोध सड़कों पर देखा गया है और आने वाले समय में यह और ज्यादा मुखर हो सकता है. इसलिए ये सामाजिक-जातीय आंदोलन यदि संगठित न भी हुए और एक-एक जाति कई-कई गुटों में बंट भी गई तो भी हिन्दुत्त्व के नाम पर पूरी की पूरी निचली ‘जमातों’ को एकजुट रख पाने में आरएसएस-भाजपा को माइक्रो लेबल पर जूझना पड़ेगा. दूसरी तरफ, इन जातीय (गुट) आंदोलनों के बीच यदि कोर इशू पर समन्वय की राजनीति (जैसी कि कोशिश शुरू हो चुकी है) बनती है तो आरएसएस-भाजपा को गुजरात के अंदर-बाहर लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी.

  • यह आलेख शिरीष खरे ने लिखा है। यह लेखक का निजी विचार है।

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