8 मार्च 2018 को देश के सभी महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लेख पढ़ने को मिले। इन लेखों में पितृसत्ता, यौनिकता, कुंठा, चेतन-अचेतन, अन्याय, असमानता, हिंसा, असुरक्षा और पीड़ा के स्वर मुखर थे । लेकिन अगर देखा जाय तो नारी सशक्तिकरण के इस दौर में नारी पुरुष संबंधो मने तीजी से बदलाव आया है ?
ढोल ,गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सकल ताड़ना के अधिकारी से give us good women we we’ll have a great nation ” तक नारी ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा तय की है .कभी देवी के रूप में वंदनीय तो दासी के रूप में तिरष्कृत ? क्या कभी भी नारी समानता की स्थिति पा सकती है ?
सभ्यता के प्रारंभ से ,तथाकथित ‘सोशल कामनसेंस ”के ज्ञान समाज तक ,सदैव से सभ्यता का यह आधा भाग अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है .प्रश्न यह उठता है की क्यों स्त्री के नैसर्गिक व्यक्तित्व का हनन ,हर सभ्यता का नैतिक खेल रहा है .
इस प्रश्न का उत्तर क्या पुरुष के स्त्री की जैविक सीमाओं से मुक्त होने में है,अधिक बलशाली होने में है ,अथवा स्त्री को सम्पत्ति समझना ,एक निम्न प्रजाति का समझाने में है अथवा यह अहम् का प्रश्न है ?वास्तव में यह सदियों से विवाद चलता आ रहा है व् इसकी व्याख्या भिन्न भिन्न से प्रकार से की गयी है .
उल्लेखनीय है की सभ्यताओं के स्वर्ण युग व अंध युग की भांति ,स्त्रियों की जीवन में भी इसी प्रकार का समय आता रहा
वैदिक काल में जब नारी- पुरुष समान थे, स्त्रियों के जनेऊ धारण करने से लेकर शिक्षा प्राप्त करने तथा वर चुनने का अधिकार था ,वह वीरंगना ,वह विदुषी,गार्गी ,अपाला ,घोषा ,लोपामुद्रा,स्त्री इतिहास के वे स्वर्णाक्षर है ,जिन्होंने आने वाले अंधयुग में उसकी योग्यता ,क्षमता ,पर प्रश्नचिन्ह नही लगने दिया .
मध्यकाल की परम्पराओं ने ,अनेक धार्मिक मान्यताओं की विकृत व्याख्याओं ने ,स्त्री के जीवन का वह अंधकार युग प्रारंभ किया ,जो 21वीं सदी तक आते आते पूर्णरूपेण समाप्त नही हुआ है .
इस काल में स्त्री जन्म लेने से लेकर पालन पोषण तक,विवाह से लेकर मृत्यु -संस्कार तक पुरुष के अधीन बन गयी है यहाँ वह दौर था जब वह अपनी आन्तरिक पहचान ,व्यक्तित्व निर्माण की शक्ति,एक निजता के भाव से पूर्णत :विहीन थी जिसमें ओज,तेज,बल भरने का प्रयास पुनर्जागरण काल से प्रारम्भ हुआ ,जिसमे स्त्री के अस्तित्व को व्यक्तित्व के रूप में पहचान मिली .
पाश्चात्य जगत की मेरीवुलस्टोन क्राफ्ट ,से साइमन दी बुआ ,दुर्गा बाई से मधुकिश्वर तक अनेक नारीवादी विचारो ने स्त्री दुर्दशा पर ध्यान खींचा व प्रारम्भ हुआ सुधार का युग .
वह सुधार का युग जो नारी सशक्तिकरण पर रुका जिसमें अनेक सामाजिक ,नैतिक ,सांस्कृतिक मूल्य पुनः परिभाषित होने लगे .जिमसे नारी पुरुष परम्परागत समानता पर मंथन प्रारंभ हुआ .एक को “आधार ” और एक को “ आधारित ” मानने पर प्रश्नचिन लगा और उस मंथन से निकली आत्मनिर्भर,शिक्षित,आत्मविश्वास से परिपूर्ण,विश्व विजय को तैयार ,अपनी क्षमताओं को जानने वाली व् उसके सार्थक करने को आतुर नारी.
वह नारी जो ग्लैमर व गरिमा को साथ लेकर चलने को लालायित थी ,वह जिसने पुरुष के साथ अपने सभी सम्बधो के निर्धारक आधारों को पुनर्परिभाषित करना चाहा व समाज को पूर्णत :नवीन समीकरण प्रदान करने की चेष्टा की .
वह बदले समीकरण जो न केवल पारिवारिक स्तर पर ,वरन सामाजिक सांस्कृतिक ,आर्थिक,राजनीतिक,नैतिक ,मनोवैज्ञानिक स्तर पर द्रष्टिगोचर हुए समाज की एक नयी दिशा तय की. और पारिवारिक स्तर पर चिंतन करे तो शसक्तीकरण के बाद ,पुरुष स्त्री सम्बन्ध चाहे वह पुरुष स्त्री सम्बन्ध चाहे वह पति –पत्नी के रूप में हो अथवा माता –पुत्र के रूप में ,एक नए रूप में व्याख्यायित होने लगे है .स्त्री ने न केवल शिक्षित होकर स्वयम को आत्मनिर्भर बनाया है ,बल्कि प्रतिस्पर्धात्मक समाज में पति को आर्थिक सहायता भी दी , इससे वह एक पक्ष में अपने पति के समतुल्य हो गयी ,उसका दासत्व भाव समाप्त हुआ व स्वतंत्र ,चिंतनशील प्राणी के रूप में आविर्भाव .
यह भाव , जिसने स्त्री को समानता की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भुमका निभाई,जिसमें स्त्री पुरुष सम्बन्ध उच्च निम्न के सतह पर मैत्रीपूर्ण होने की ओर अग्रसारित हुए यह वही पहला कदम था जिसमें वह अपने स्वयं को शोषण विमुक्ति की ओर ले गयी. यह वह कदम था जिसने स्त्री की पहचान सर्वप्रथम ‘भार ‘से ‘ भार लेने वाली ”के रूप में परिणति हुई.
विशेष रूप से निम्न वर्ग की स्त्रियाँ जिसने पहली बार स्वतंत्रता और समानता की स्वास ली थी .इसी अर्थ कमाने की योग्यता ने उसे निर्णय निर्माण में सहभागिता दिलाई जिसमें सशक्तीकरण वास्तविक रूप से साकारित हुआ,यही वह प्रथम कदम था जिसने नारी –पुरुष सम्बंधो का पुनार्विवेचन प्रारंभ किया .वह नारी जिस पर पुरुष का अधिपत्य था वर्चस्व था आज समाज में नित नए आयाम गढ़ रही है ,वह डाक्टर बनी ,इंजीनीयर बनी,राजनीतिज्ञ बनी,अध्यापिका बनी,वैज्ञानिक बनी,कला ,खेल,मनोरंजन,के क्षेत्र में उन ऊँचाइयों को छुआ जो केवल पुरुषों के कार्य क्षेत्र थे .
पुरुषो के सभी क्षेत्र में नारी के अतिक्रमण ने उसे परम्परत के साथ आधुनिकता ,के मूल्यों से युक्त किया जिसमें उसने अपने प्रति हो रहे प्रत्येक आवाज के खिलाफ आवाज बुलंद की चाहे वह निशा शर्मा हो ,जो दहेज़ के कारण बारात लौटा देती है,अथवा मुख्तारण माई जो अपने साथ हुए अत्याचार को विश्व के सामने रखने से नहीं हिचकिचाती है ,निःसंकोच यह महिला पुरुष के बदलते सम्बंधो का पहला आगाज था .
महिला सशक्तीकरण के इस रूप ने पुरुष को एक पारम्परिक पिता ,पति और पुत्र की भूमिकाओं में परिवर्तित किया .संविधान में ‘ कलम की नोक ’ने स्त्री को अनेक अधिकार दिए ,अनेक कानून बने जिससे महिला सशक्तिकरण संभव हुआ .पुरुष की शोषक की भूमिका में परिवर्तन हुआ व सहयोगी की भूमिका प्रारंभ हुई .यह मूल्य सर्वप्रथम विकसित हुआ की स्त्री की अपनी योग्यता और भूमिका होती है .पाश्चात्य जगत में ऐसे उदाहरण भी है ,जब स्त्री ने घर के बाहर के कार्य तत्परता से किये व पुरुष ने घर के कार्यों को पूरा किया .
एक पिता के रूप में वह और परिपक्व हुआ जब उसने पुत्री की शिक्षा सुनिश्चित की उसकी योग्यता को पहचान कर दिशा दी, एक पति के रूप में वह और अधिक सह्भागी हुआ जब उसने घर परिवार के पालन में अधिक योगदान दिया वही मित्र के रूप में सफल हुआ जिसने गुणों को पहचान कर उसे आगे बढने की प्रेरणा दी ,इस सफलता का परिणाम ही है समाज के वे स्त्री रत्न ‘जिन्होंने काल के गाल पर हस्ताक्षर किए कि एक महान विचारिका की पक्तियाँ सहज ही स्मरण हो आती है –
अन्धकार की छाती पर पदचिन्ह जमायें .
चले अमावास तक हम पूनम तक आये ,
हमने मुस्काते मुस्काते तिमिर पिया था.
हमने तम की छाती पर चढ़ नाद किया था ,
नाग नाथने का इतिहास दोहराया हमने ,
हमने स्वर्णिम स्याही से उजला प्रष्ठ सजाया हमने .
अमेरिका की राष्ट्रपति की उम्मीदवार रही हिलेरी क्लिंटन हो या भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ,भारत की विदेश मंत्री निरुपमा राव,पहली दलित मुख्यमंत्री मायावती ,अथवा खेल जगत की प्रसिद्ध एथलीट अंजू बाबी जार्ज ,ऐश्वर्या राय या आरबीआई की उपगवर्नर उषा थोराट अथवा किरण मजूमदार शा ,संगीत की एम् एस शुब्बुलक्ष्मी या प्रसिद्ध न्रात्यांगना शोबिता नारायाण ,कल्पना चावला ,सुनीता विलियम्स,पुलिस कमिस्नर कंचन भट्टाचार्य ,यह सूची बहुत लम्बी है ,जिसमें सभी महिलाये अपने परिवार ,पिता ,पति के सहयोग से ,अपनी क्षमताओं को पहचान कर अपने -अपने क्षेत्र की परिचय बनी .
यह सूची जो सुखद एहसास दे रही है ,क्या वास्तव में सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व करती है ,क्या वास्तव में महिला शसक्तीकरण के पश्चात महिला -पुरुषो के सम्बन्धो में परिवर्तन हुआ है ? क्या वास्तव यह पंक्ति की “हर सफल पुरुष के पीछे महिला का हाथ होता है ” बदलने का समय आ गया है कि “हर सफल महिला के पीछे भी एक पुरुष का हाथ है ” ?
यह सभी प्रश्न ऐसे है जिन पर गहन चिंतन की आवश्यकता है ,सत्य तो यह की स्त्री की आत्मनिर्भरता ने समाज के मूल्यों में आमूलचूल परिवर्तन नहीं किया है .उसका सशक्तिकरण नही हुआ है कि वह परंपरा और आधुनिकता की अद्वितीय सांठ गाँठ ,भ्रूण निर्धारित यंत्र से रक्षा कर सके .पंचायत में वह सरपंच भी बनी परन्तु हस्ताक्षर की शक्ति ने उसे समानता की स्थिति नहीं दी .घर व आफिस के दोहरे दायित्तो का पालन करती रही , ‘रोल कनफ्लिक्ट ” से जूझती इसी सशक्तिकृत नारी की कानून भी रक्षा नही कर सका .
पुरुष की भोगवादी मानसिकता जिसमें एक पिता के अपनी पुत्री के शीलभंग करने के उदाहरण मिलते है .बढती उपभोक्तावादी मानसकिता जिसने उसे “ सेक्स आब्जेक्ट” के रूप में बदल दिया है ,वास्तव में महिला पुरुषो के संबंधो में सार्थक परिवर्तन नही करती .
आज भी स्त्री के भाग्य- विधाता उसके पिता और पति ही है ,जो जाति से बाहर विवाह करने में “आनर – किलिंग” कर देते है वही दहेज़ न लाने के आरोप में पति के द्वारा जलाकर की गयी हत्या ,पत्नी की कमाई किन्तु व्यव का निर्णय पति का, उच्च वर्गीय स्त्री से सौन्दर्य की वस्तु बनने की मांग व निम्नवर्गीय स्त्री से एक मशीन बनाने की मांग जो कभी नहीं थकती ,यह भी विश्व समाज का एक पक्ष है .
वास्तव में आवश्यकता एक सन्तुलन की है,समन्वय की है, एक निर्मल साहचर्य की है ,जो दमित है, शोषित है, पीडित है ,उनके कल्याण की , वहीँ जो सशक्तिकृत है ,समर्थ है, आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता से युक्त है उन्हें सही दिशा लेने की .
इक्कीसवी सदी की भागती तीव्र दुनियां ,जिसमें सरकार ,गैर सरकारी संगठन ,सिविल सोसाइटी ,मीडिया सभी का साझा दायित्व है ,कि महिलाओं का आधा भाग जो मुख्यधारा से पीछे छूट गया है ,उसे गुणवत्ता परक शिक्षा दे ,आत्मनिर्भर बनाये जिसमें आरक्षण (पंचायत व् लोकसभा)में सार्थक कदम हो सकता है .वहीँ उन महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाय कि वह वास्तव में सशक्तिकृत होकर समाज को नवीन आयाम दे.
उल्लेखनीय है कि वह समर्थ पक्ष ,वह शिक्षित पक्ष ,वह सकल पक्ष जो विकास की दौड़ में साथ साथ दौड़ रहा है ,जो स्वतंत्रता और स्वछंदता के विवाद में फंसा है जिसने परिवार व विवाह की संस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है ,को-लिविंग, लेस्बियन-गे मैरिज का सूत्रपात किया है वह भी प्रगति की राह पर सतर्कता के साथ अग्रसारित रहे व दिशा विमुख न हो .
वास्तव में यह युद्ध कि श्रेस्ठतम कौन ? कौन विजयी हुआ ? से महत्वपूर्ण है ,हम विजयी हुये , सभ्यता को उन्नति व प्रगति के मार्ग पर ले जाए ,इसके लिए यह अति आवश्यक है की नारी व् पुरुष हठ धर्मिता का त्याग करे ,सहयोगी बने ,मित्रवत बने ,तभी वह सही अर्थों में मानवता को ईश्वर की सर्वश्रेस्ठ रचना कह सकेंगे व सभ्यता को सांस्कृतिक गुणों से परिपोषित ,संवाहित,कर सकेंगे ,इस राष्ट्र को इस विश्व को संयुक्त होकर सुजलाम,सुफलाम व मलयज शीतलम बना सकेंगे .

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