नही रही आदिवासी-दलितों और महिलाओं के संघर्ष का चेहरा

नई दिल्ली। हिंदी की लोकप्रिय साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता रमणिका गुप्ता का मंगलवार को निधन हो गया. उन्होंने दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दोपहर तीन बजे अंतिम सांस ली. वह 89 वर्ष की थीं.

22 अप्रैल 1930 को पंजाब में जन्मी रमणिका ने आदिवासी व दलित साहित्य को नया आयाम दिया. वह साहित्य, समाज सेवा और राजनीति कई क्षेत्रों से जुड़ी हुई थीं.

वह सामाजिक सरोकारों की पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक थीं. उन्होंने स्त्री विमर्श पर बेहतरीन काम किया.

वह देश की वामपंथी प्रगतिशील धारा की प्रमुख रचनाकार थीं. उन्होंने मजदूर आंदोलन से अपने साहित्य को धार दी. उन्होंने झारखंड के हजारीबाग के कोयलांचल से मजदूर आंदोलनों को साहित्य के जरिए राष्ट्रीय फलक पर पहुंचाने का काम किया.

नारी मुक्ति के साथ झारखंड समेत देश के आदिवासी साहित्यिक स्वर को व्यापक समाज में लाने के उनके विशिष्ट योगदान को भुलाया नहीं जा सकता.

उनके आदिवासी एवं दलित अधिकारों से लेकर स्त्री विमर्श पर कई किताबें, कविता संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं. रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘हादसे और आपहुदरी’ बहुत लोकप्रिय हैं. वह कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं.

उनकी मशहूर कृतियों में ‘भीड़ सतर में चलने लगी है’, ‘तुम कौन’, ‘तिल-तिल नूतन’, ‘मैं आजाद हुई हूं’, ‘अब मूरख नहीं बनेंगे हम’, ‘भला मैं कैसे मरती’, ‘आदम से आदमी तक’, ‘विज्ञापन बनते कवि’, ‘कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का’,‘दलित हस्तक्षेप’, ‘निज घरे परदेसी’, ‘सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे’, ‘कलम और कुदाल के बहाने’, ‘दलित हस्तक्षेप’, ‘दलित चेतना- साहित्यिक और सामाजिक सरोकार’, ‘दक्षिण- वाम के कठघरे’ और ‘दलित साहित्य’, ‘असम नरसंहार-एक रपट’, ‘राष्ट्रीय एकता’, ‘विघटन के बीज’ प्रमुख हैं.

उनका उपन्यास ‘सीता-मौसी’ और कहानी संग्रह ‘बहू जुठाई’ भी खासा लोकप्रिय रहा.

सामाजिक आंदोलनों के लिए पहचानी जाने वाली रमणिका विधायक भी रहीं. उन्होंने बिहार विधानपरिषद और विधानसभा में विधायक के रूप में काम किया है. वह इसके अलावा ट्रेड यूनियन नेता के तौर पर भी काम कर चुकी हैं. वह चुनावी राजनीति से अलग होने के बाद भी मजदूर यूनियन से जुड़ी रहीं.

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