Friday, May 2, 2025
Homeसम्पादकीयबेमतलब है फिल्म 'आर्टिकल 15' का ब्राह्मण विरोध

बेमतलब है फिल्म ‘आर्टिकल 15’ का ब्राह्मण विरोध

28 जून को फिल्म आर्टिकल-15 देश भर में रिलीज हुई। रिलीज के पहले से ही इस फिल्म के विरोध की खबरें आ रही थी। वजह यह थी कि इस फिल्म में समाज के भीतर की जातीय व्यवस्था की बात थी। वजह यह थी कि फिल्म के केंद्र में जाति व्यवस्था और दलित समाज था। चाहे राजनीति हो, बिजनेस हो, साहित्य या फिर फिल्म… जैसे ही इसमें दलित शब्द आता है, एक खास समुदाय के तकरीबन 90 फीसदी लोगों का मुंह कसैला हो जाता है। मैं 10 फीसदी को इसलिए छोड़ रहा हूं क्योंकि उस खास समुदाय के कुछ लोग सुलझे भी हुए हैं। तो आर्टिकल 15 के केंद्रीय विषय में दलितों के होने के कारण फिल्म की रिलीज के बाद देश के कुछ हिस्सों में इसके विरोध की खबर है।

उत्तराखंड के रुड़की में फिल्म आर्टिकल 15 की स्क्रीनिंग को बैन कर दिया गया है। फिल्म रिलिज होने के दूसरे ही दिन 29 जून को जिला प्रशासन ने सिनेमाघरों में फिल्म को चलाने पर रोक लगा दिया। शहर के एसडीएम रविन्द्र सिंह नेगी की ओर से कहा गया कि फिल्म के कारण शहर में लॉ एंड आर्डर की समस्या खड़ी हो सकती है। एसडीएम साहब का कहना था कि शहर के हिन्दू सेना के लोग उनसे मिलने आए थे और उनका कहना था कि फिल्म आर्टिकल 15 में एक विशेष जाति समूह को गलत तरीके से पेश किया गया है। हिन्दू सेना ने जो कहा सो कहा, एसडीएम साहब नेगी जी को भी हिन्दू सेना की चिंता पर चिंता होने लगी और उन्होंने हिन्दू सेना को समझाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने की बजाय आदेश दे दिया कि फिल्म नहीं चलेगी। रुड़की में यह फिल्म एकमात्र सिनेमा हॉल R.R Cinema में लगी थी और एसडीएम साहब के आदेश के बाद उसे हटा लिया गया है।

रूड़की के बाद अब कानपुर से भी फिल्म के विरोध की खबर है। यहां तो हिन्दूवादी संगठनों ने जिला प्रशासन से गुहार लगाने की भी जहमत भी नहीं उठाई, बल्कि सीधे सिनेमाघर में जा घुसे और चलती फिल्म रोक दी। इस दौरान उन्होंने फिल्म बनाने वालों के खिलाफ जमकर नारे लगाएं और फिल्म के पोस्टर फाड़ डाले। कानपुर के आईनॉक्स मल्टीप्लेक्स और सपना पैलेस थिएटर में आर्टिकल 15 फिल्म लगी थी। इस हंगामे के बाद थिएटर मालिकों ने तय किया है कि जब तक प्रशासन सुरक्षा मुहैया नहीं कराता, वह फिल्म को नहीं दिखाएंगे। प्रशासन खामोश है।

उधर पटना में भी फिल्म को लेकर कहर बरपा हुआ है। फिल्म रिलीज होने के बाद से ही पटना के ब्राह्मण संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। पटना में भूमिहार ब्राह्मण एकता मंच के लोग फिल्म रिलीज होने के दूसरे ही दिन पटना के मोना सिनेमा और सिनेपोलिस के बाहर जमा हो गए और सड़क जाम कर दिया। विरोध के बाद दोनों जगह शो रद्द करना पड़ा। हालांकि यहां की घटना में थोड़ा ट्विस्ट है। फिल्म रोके जाने की खबर सुनकर पटना में दलित छात्र मोना सिनेमा हाल में पहुंच गए और फिल्म को शुरू करने की मांग करने लगे, जिसके बाद पुलिस ने दलित छात्रों पर जमकर लाठियां बरसाई। ये वही पुलिस थी, जिसने सिनेमा बंद कराने आए लोगों पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की थी। तो इलाहाबाद में भी राष्ट्रीय हिन्दू संगठन की ओर से फिल्म आर्टिकल-15 का विरोध किया गया।

अब आते हैं इस पर आखिर फिल्म का विरोध क्यों? तो विरोध करने वाले सभी संगठनों का कहना है कि फिल्म में ब्राह्मणों की छवि को गलत तरीके से पेश किया गया है। तो हम आपको बताते हैं कि आखिर हकीकत क्या है…

यह सच है कि फिल्म जातीय व्यवस्था पर है और फिल्म में समाज में मौजूद जाति व्यवस्था को दिखाया गया है। लेकिन फिल्म के निर्देशक अनुभव सिन्हा सीधे तौर पर किसी जाति का विरोध करने से खुद को और फिल्म को बचाने में सफल रहे हैं। ब्राह्मण समाज के जो संगठन फिल्म का विरोध करने के लिए सड़कों पर हैं, दरअसल वो खुद की टीआरपी बढ़ा रहे हैं, क्योंकि फिल्म में ब्राह्मणों के बारे में कुछ है ही नहीं। स्वामी जी के किरदार के रूप में एक ब्राह्मण किरदार को दिखाया भी गया है तो वह राजनीति में मशगूल रहता है, न की दलित उत्पीड़न में।

निगेटिव कैरेक्टर की बात करें तो फिल्म में सिर्फ दो निगेटिव किरदार हैं। पुलिस थाने में ब्रह्मदत सिंह और कंट्रेक्टर। पुलिस अधिकारी को फिल्म में ठाकुर यानि राजपूत समाज का दिखाया गया है। वह दलितों के खिलाफ मामले को दबाता है और शहर के मजबूत लोगों की गलत कामों में मदद करता है। लेकिन इसकी जड़ में सिर्फ जातीय विद्वेष ही नहीं है, बल्कि डर भी है। क्योंकि एक बार वह कहता भी है कि हमें इसी शहर में रहना है। बड़े अधिकारियों का ट्रांसफर होता है और हमारी हत्या हो जाती है।

दूसरा निगेटिव किरदार कांट्रेक्टर होता है जो पोलिटिशियन स्वामी जी का करीबी होता है और जो दोनों लड़कियों के गैंगरेप और फिर उनकी हत्या का दोषी होता है। और वह उसी किरदार को पेश करता है जिसकी चर्चा आपको हर रोज अखबारों में मिल जाएंगी। वह उन दोनों लड़कियों को उनकी औकात दिखाने के लिए पहले गैंगरेप और फिर हत्या करता है। और समाज के भीतर दलितों-पिछड़ों को औकात में रहने और उनकी हद दिखाने वाले डायलॉग हर रोज सुनने को मिल जाते हैं। और इसमें वह समाज अपनी शान समझता है।

इसलिए कथित सभ्य समाज के गुस्से की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि इस फिल्म में न तो सवर्ण वर्चस्ववाद को चुनौती दी गई है न ही दलितों और सवर्णों का संघर्ष दिखाया गया है। बल्कि यह फिल्म एक प्रगतिशील ब्राह्मण नायक के जरिए दलितों को इंसाफ दिलाने की कोशिश की कहानी भर है। हां, अगर ब्राह्मण समाज खुद को एक प्रगतिशील और अच्छे इंसान के तौर पर भी देखना पसंद नहीं करता तो फिर उनका विरोध जायज है।

लोकप्रिय

अन्य खबरें

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Skip to content