विकास की कीमत चुकाते आदिवासी

पिछली एक शताब्दी में ‘विकास’ की सबसे ज्यादा कीमत किसी ने चुकाई है तो वे हैं आदिवासी. उनकी अमीरी ही उनके लिए अभिशाप बन गई. जिस वनभूमि पर उनका आवास है, वह अपने गर्भ में कोयला, लोहा, बॉक्साइट, हीरा, यूरेनियम आदि बहुमूल्य खनिज छिपाए हुए है. बिना इन वनों के विनाश के इस संपदा का दोहन मुमकिन नहीं है. आदिवासियों के शत्रु और भी हैं, जैसे उनकी सरलता-निष्कपटता और भोलापन! कभी उनकी वनोपज और वन से संग्रहीत उत्पादों को नमक के मोल पर खरीदा जाता था और कभी समाप्त न होने वाले ऋणों के बदले उनसे आजीवन और पीढ़ी दर पीढ़ी बंधुआ मजदूरी कराई जाती थी और उनकी स्त्रियों का अंतहीन शोषण किया जाता था.

आदिवासियों को छला जा सकता है क्योंकि वे भोले हैं, लेकिन वे कायर नहीं हैं. उन्हें दबाया नहीं जा सकता. भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक अचर्चित पाठ आदिवासियों के प्रखर संघर्ष का भी है. स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण बिखरे पड़े हैं जो एक नए विमर्श की शुरुआत कर सकते हैं. इनमें आदिवासियों की वीरगाथाएं भरी पड़ी हैं. विचारधारा और संगठनात्मक कौशल की दृष्टि से अनगढ़ आदिवासी आंदोलनों का बर्बरता से दमन किया गया, जिनमें अपार जनहानि हुई. आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधानों में पांचवीं और छठी अनुसूची प्रमुख है. पांचवीं अनुसूची में देश के दस राज्यों के वे क्षेत्र शामिल हैं, जहां आदिवासियों की जनसंख्या पचास प्रतिशत से अधिक है. इन क्षेत्रों में आदिवासी जीवन शैली और जीवन दर्शन की रक्षा करते हुए आदिवासियों की रूढ़ियों, परंपराओं और मान्यताओं के अनुरूप शासन चलाने और विकास योजनाओं का निर्माण तथा संचालन करने का प्रावधान है.

ठी अनुसूची में उत्तर-पूर्व के वे राज्य रखे गए हैं जहां आदिवासियों की जनसंख्या अस्सी प्रतिशत तक है. इन क्षेत्रों में आदिवासियों की पारंपरिक कानून व्यवस्था लागू है और भूमि का क्रय-विक्रय प्रतिबंधित है. पांचवीं और छठी अनुसूचियां राज्यपालों को विशेष शक्तियां और अधिकार देती हैं. लेकिन इन प्रावधानों का कितना पालन हो रहा है यह जगजाहिर है. पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया कानून यानी पेसा 1996 में पारित किया गया जो आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की अनुमति को आवश्यक बनाता है. दिसंबर 2006 में संसद द्वारा पारित और सरकार द्वारा 1 जनवरी 2008 से अधिसूचित वन अधिकार कानून, 13 दिसंबर 2005 से पूर्व वन भूमि पर काबिज अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को वनों में निवास करने और इनसे आजीविका अर्जित करने का अधिकार देता है.

सवा सौ वर्ष पुराने ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण कानून का स्थान लेने वाला 2013 का नया भूमि अधिग्रहण अधिनियम जमीन के उचित मुआवजे, पुनर्वास और पुनर्स्थापन का दावा करता है और बिना किसानों की सहमति के निजी उद्योगपतियों द्वारा उनकी भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाता है तथा सामाजिक प्रभाव के आकलन को अनिवार्य बनाता है. इन क्रांतिकारी आदिवासी हितैषी कानूनी प्रावधानों के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद करीब पांच करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया जा चुका है या उसके उपयोग में परिवर्तन किया जा चुका है. इस अधिग्रहण से प्रभावित पांच करोड़ लोगों में बहुसंख्य आदिवासी हैं. आदिवासियों की आजीविका और जीवन शैली का आधार परंपरागत कृषि रही है जिसे धीरे-धीरे हाशिए पर धकेला गया है.

आदिवासियों की स्थिति समाज के अन्य समुदायों की तुलना में अब भी बहुत पिछड़ी है. विकास के हर पैमाने पर- शिक्षा, स्वास्थ्य, आयु, आय, रोजगार, शिशु मृत्यु दर, मातृ सुरक्षा आदि- सभी में वे राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं. व्यापक भ्रष्टाचार ने आदिवासी विकास के लिए जारी की गई विपुल धनराशि की जमकर बंदरबांट की है. आधुनिक आर्थिक विकास का तूफानी प्रवाह आदिवासियों तक पहुंचा और उनकी संपन्नता को बहा ले गया. आदिवासी नई आर्थिक गतिविधियों और वित्तीय संस्थाओं का लाभ उठाने के लिए परिपक्व नहीं थे.

नतीजतन, दूसरे तबकों के साथ प्रतिस्पर्धा में वे टिक न पाए और विकास संपन्नता के स्थान पर गरीबी लाने का माध्यम बन गया. छठी अनुसूची में आने वाले उत्तर-पूर्व के आदिवासी इलाकों में उग्रवाद और पांचवीं अनुसूची में आने वाले कुछ राज्यों के कतिपय क्षेत्रों में नक्सलवाद पनपा.शासन इसे विकास में सबसे बड़े अवरोध के तौर पर देखता है. बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि स्थिति ठीक विपरीत है- विकास के अभाव में उग्रवाद और नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमाई हैं.

इसी से जुड़ा यह विमर्श भी है कि क्या उग्रवाद और नक्सलवाद की समस्या को कानून व्यवस्था की समस्या माना जाए या इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानकर हल करने की चेष्टा की जाए और यह भी कि राह से भटके आदिवासियों के साथ क्या उग्रवादी और नक्सली जैसा व्यवहार किया जाए या इन्हें उग्रवाद और नक्सलवाद के पीड़ित के रूप में आकलित किया जाए. हाल के वर्षों में पलायन आदिवासियों की सर्वप्रमुख समस्या रही है. कृषि ही जब मुनाफे का धंधा न रही हो तब परंपरागत कृषि के लाभप्रद होने की तो आशा ही व्यर्थ है और इसी पारंपरिक कृषि और वनोपजों के संग्रहण पर आदिवासियों की अर्थव्यवस्था आधारित रही है.

आदिवासी अर्थव्यवस्था सूदखोरों और वन माफियाओं के द्वारा आक्रांत रही है. तमाम कागजी कानूनों और जमीनी जन प्रतिरोधों के बावजूद पिछले डेढ़ दशक में कोयला और खनिज उत्खनन की मात्रा तथा इन पर आधारित पावर एवं स्टील उद्योगों की संख्या बढ़ी है. आदिवासियों को आधा-तीहा मुआवजा देकर उनकी जमीन से उन्हें बेदखल किया गया है. मुआवजे की राशि का संचय या सदुपयोग करने के लिए आवश्यक कौशल के अभाव में आदिवासियों ने पैसा भी खर्च कर दिया. मालिक से नौकर बने आदिवासियों को या तो अपनी जमीन पर बने कारखानों में अकुशल श्रमिक बनना पड़ता है या रोजगार की तलाश में पलायन करना पड़ता है. इसी पलायन से जुड़े हैं मानव तस्करी, देह व्यापार और बंधुआ मजदूरी. कमाने खाने के लिए लंबे समय तक बाहर रहने वाले आदिवासी बिल्कुल अपने घुमंतू आदिवासी साथियों की भांति कई बार जनगणना आदि में सम्मिलित नहीं किए जाते और अनेक लाभों से वंचित रह जाते हैं.

आदिवासियों की अधिकांश समस्याओं का समाधान ऐसी शिक्षा हो सकती है जो उनकी मातृभाषा में दी जाए और जिसका पाठ्यक्रम कृषि, वानिकी, वनौषधि, लोकगीत, संगीत, नृत्य, खेल, युद्ध कौशल आदि को समाहित करता हो. लेकिन प्रचलित शिक्षा का माध्यम और पाठ्यक्रम दोनों आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा पर आधारित है. राजनीति में प्रवेश कर शीर्ष स्थान पर पहुंचने वाले आदिवासी नेताओं में भी अपनी सर्वश्रेष्ठता का अहंकार देखने में आता है.

अंतर केवल इतना होता है कि वे चुनावी राजनीति के लिए आदिवासियों से जुड़कर भी पिछड़ेपन को बरकरार रखना चाहते हैं ताकि उन्हें मुद्दों का अभाव भी न हो और पिछड़े आदिवासी समाज में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी उभर न सकें. वास्तव में अगर आदिवासियों की भलाई कोई सरकार चाहती है तो उसे नेहरूजी के उन विचारों पर अमल करना होगा, जो उन्होंने ‘आदिवासी पंचशील’ में कहे थे. नेहरू ने कहा था, ‘आदिवासियों को अपनी प्रतिभा और विशेषता के आधार पर विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए. हमें उन पर कुछ भी थोपने से बचना चाहिए. उनकी पारंपरिक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हर संभव प्रयत्न करना चाहिए.’

राजू पांडेय का यह लेख जनसत्ता से साभार

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