फ़ोटो में जिस लड़के को आप देख रहे हैं न, वो अनिल मुंडा है. 20-21 साल का. अनिल रांची के लोहरदग्गा का रहने वाला है. मेरे दोस्त का ईंट का भट्ठा है, गांव में, वहीं पर काम करता है. और साथ में जो लड़की है, वो करिश्मा है. अनिल के ही इलाके की है. दोनों आदिवासी हैं. दोनों अब ‘साथ’ रहते हैं.
दोनों के ‘साथ’ रहने को मेरे गॉव के लड़के मजाक में ‘लिव इन’ कहते हैं, कुछ पति पत्नी, तो कुछ कहते हैं कि हमसे अच्छे तो आदिवासी ही हैं, जो प्यार हो जाने पर ‘साथ’ रहना शुरू कर देते है, ज़िन्दगी जीते हैं, माँ-बाप भी बन जाते हैं, पहले शादी की कोई बाध्यता नहीं, जब मन हुआ, तब शादी कर लेते हैं…
इस होली में जब मैं गांव गया था, भट्ठे के कई लेबर दोस्त के घर आये थे होली मनाने, मालिक से त्योहारी लेने…उसी में अनिल-करिश्मा भी थे. सभी नांच-गा रहे थे. दोस्तों ने इशारा करके बताया कि कौन अनिल-करिश्मा के माँ-बाप हैं, कौन सास-ससुर? सभी ने दारू साथ-साथ पी रखी थी, साथ-साथ होली खेलना, एक साथ नाचना-गाना, कोई भेद नहीं.
अगले दिन भट्ठे पर जब अनिल से मिला. ढेर सारी बातें की उसके बारे में, करिश्मा से प्यार के बारे में, उसके गॉव, आदिवासी समाज-संस्कृति के बारे में…लेकिन जब मैंने उससे पूछा कि अगर प्रेमी जोड़ों में ऐसी खटपट हो कि साथ रहना मुश्किल हो जाये, तब क्या करते हैं?
“झगड़ा क्यों होगा?” उसने हंसते हुए मुझसे पूछ लिया.
“अगर ऐसा होता है तो क्या करते हैं?”
“झगड़ा क्यों होगा, मैंने पसंद किया है…” वो फिर हंसते हुए मेरी तरफ देखने लगा…
खैर, वो मेरी बात पर सोचने को ही तैयार नहीं था. उंसे अपने समाज के स्वाभाविक जीवन से प्यार है…अब आप महिला दिवस के ‘अंतरराष्ट्रीय’ अभिनय पर सोच कर देखिये कि आधुनिक कौन, हम या हमारा आदिवासी समाज? किसको किससे सीखने की ज़रूरत है?
Ajay Yadav

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