आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने आंध्र प्रदेश में पिछले दस साल से लागू व्यवस्था को बदल दिया है। तो वहीं जजों की बेंच ने जजमेंट के दौरान आरक्षण को लेकर जो बातें कही है, उससे आरक्षित वर्ग में बेचैनी शुरू हो गई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आंध्र प्रदेश के संदर्भ में आया है। जहां के कुछ जिलों में अनुसूचित जनजातियों के लिए सौ फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। शीर्ष अदालत ने हालांकि अब तक नौकरी पाए लोगों की नौकरी बहाल रखने का आदेश दिया है, जो बड़ी राहत है। दरअसल सन् 2000 में आंध्र प्रदेश ने कुछ अनुसूचित जनजाति बहुल जिलों में टीचर की पोस्ट के लिए 100 फीसदी आरक्षण दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल को इस पर सुनवाई करते हुए इसे असंवैधानिक बताकर रद्द कर दिया।
पांच सदस्यीय बेंच का नेतृत्व अरुण मिश्रा कर रहे थे। इस पीठ में जस्टिस अरुण मिश्रा के अलावा जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस शामिल थे। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने तमाम राज्य सरकारों को चेताया कि भविष्य में कोई भी राज्य कभी भी आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज़्यादा नही कर सकता।
152 पन्नों के जजमेंट में पांच जजों की पीठ ने कई ऐसी बातें भी कही है, जिससे एससी-एसटी वर्ग के भीतर बेचैनी शुरू हो गई है। कोर्ट ने यह कह कर नई बहस शुरू कर दी है कि-
आरक्षण का फायदा उन लोगों को नहीं मिल रहा है, जिन्हें सही मायने में इसकी जरूरत है। आरक्षण का लाभ उन ‘महानुभावों’ के वारिसों को नहीं मिलना चाहिए जो 70 वर्षों से आरक्षण का लाभ उठाकर धनाढ्य की श्रेणी में आ चुके हैं। हम वरिष्ठ वकील राजीव धवन की इस दलील से सहमत है कि आरक्षित वर्गों की सूची पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।
जजों की संविधान पीठ ने कहा-
ऐसा नहीं है आरक्षण पाने वाले वर्ग की जो सूची बनी है वह पवित्र है और उसे छेड़ा नहीं जा सकता। आरक्षण का सिद्धांत ही जरूरतमंदों को लाभ पहुंचाना है। सरकार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की सूची फिर से बनानी चाहिए। सरकार का दायित्व है कि सूची में बदलाव करे जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में नौ सदस्यीय पीठ ने कहा था।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ की एक और टिप्पणी भी आरक्षण के ढांचे को बदलने में उसकी उत्सुकता की ओर इशारा कर रहा है। पीठ ने कहा-
ऐसा देखने को मिला है कि राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए आयोग की रिपोर्ट में सूची में बदलाव की सिफारिश की गई है। आयोग ने सूची में किसी जाति, समुदाय व श्रेणी को जोड़ने या हटाने की सिफारिश की है। जहां ऐसी रिपोर्ट उपलब्ध है वहां राज्य सरकार मुस्तैदी दिखाकर तार्किक तरीके से इसे अंजाम दे।
संविधान पीठ ने जो टिप्पणियां और सुझाव दिए हैं, वह तब आए हैं, जब कुछ दिन पहले ही कोर्ट कह चुका है कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। अदालत की इन टिप्पणियों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर कोर्ट आरक्षण के मूल सिद्धांतों में बदलाव क्यों चाहता है, और उसके लिए बेचैन क्यों है।
दूसरी बात कि क्या सच में अब वक्त आ गया है, जब आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए और जो लोग आरक्षण लेकर संपन्न हो गए हैं, उन्हें अब आरक्षण छोड़ देना चाहिए?
दरअसल आरक्षित वर्ग के भीतर भी ऐसी आवाजें उठती रहती हैं। आरक्षण मिलने के बाद दलितों में भी एक छोटा तबका ऐसा तैयार हो गया है, जो अमीर है। जिसे व्यवस्था का लगातार फ़ायदा हो रहा है। हालांकि ये दलितों की कुल आबादी का महज़ 10 फ़ीसदी है। बाबासाहेब आम्बेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित, अपनी बिरादरी के दबे-कुचले वर्ग की मदद करेंगे। ऐसा हुआ तो लेकिन ऐसा सोचने वालों की संख्या बहुत कम है। हुआ ये है कि तरक्की पा चुका दलितों का एक बड़ा हिस्सा, दलितों में भी सामाजिक तौर पर ख़ुद को ऊंचे दर्जे का समझने लगा है। दलितों का ये क्रीमी लेयर बाक़ी दलित आबादी से दूर हो गया है। कई तो अपनी पहचान छुपाकर रह रहे हैं। ऐसे में जिन लोगों तक अभी आरक्षण नहीं पहुंचा है, वह अक्सर आगे बढ़ चुके लोगों से आरक्षण छोड़ने की मांग करते हैं। उनके तर्कों को देखिए-
- जो लोग अपने जीवन में सफल हैं और जिनके बच्चे अच्छी नौकरियों में आकर लाखों कमा रहे हैं, उन परिवारों को अब आरक्षण छोड़ देना चाहिए।
- जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं, उनके बच्चों को आरक्षण नहीं लेना चाहिए। क्योंकि वह गैर आरक्षित श्रेणी में प्रतियोगिता के लिए काबिल होते हैं।
- जिस तरह एक आरक्षित वर्ग का युवक तमाम सुविधाओं में पढ़ने वाले गैर आरक्षित वर्ग के सुविधा संपन्न युवक से कमतर होता है, उसी तरह सुविधा संपन्न आरक्षित वर्ग का युवक भी उससे बेहतर है। ऐसे में उसके सामने वही चुनौती होती है, जिसकी वजह से आरक्षण दिया गया है।
- प्रारंभिक तौर पर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में क्रिमिलेयर का सिद्धांत लागू किया जा सकता है, ताकि इन नौकरियों में सिर्फ आर्थिक तौर पर पिछड़े आरक्षित श्रेणी के युवकों को ही मौका मिले।
- जो भी व्यक्ति सिविल सेवा, प्रोफेसर्स, एमबीबीएस डॉक्टर, सांसद जैसे ग्रेड ‘ए’ की नौकरी में है, उनके बच्चों को वही सुविधाएं और शिक्षा मिलती है, जो गैर आरक्षित वर्ग के संपन्न लोगों को मिलती है। ऐसे में उनके परिवार की अगली पीढ़ी को आरक्षण नहीं मिले। हां, अगर उस परिवार में अगली गैर आरक्षण वाली पीढ़ी सफल नहीं होती है तो फिर उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण दिया जा सकता है।
तो वहीं आरक्षित श्रेणी के भीतर एक वर्ग ऐसा भी है, जो आरक्षण के भीतर क्रीमीलेयर की बहस को खारिज करता है। वह आरक्षण को पूरे आरक्षित वर्ग के लिए जरूरी बताता है। वह मानता है कि आरक्षण पूरे समुदाय के लिए है, और सभी को मिलना चाहिए। अब उसके तर्क को देखते हैं-
- आरक्षण में किसी तरह के क्रीमीलेयर के विरोधियों का तर्क है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है और यह यथास्थिति में कायम रहना चाहिए।
- उनका तर्क होता है कि समाज का बड़ा तबका काफी पीछे है। ऐसे में तमाम नौकरियों के लिए उनमें योग्यता नहीं होती है। ऐसे में अगर कथित क्रीमीलेयर वर्ग नहीं रहेगा तो सारी नौकरियों की सीटें खाली रह जाएंगी।
- उनका यह भी तर्क होता है कि सिर्फ किसी एक पीढ़ी के आगे बढ़ने से यह मान लेना की उसे आरक्षण की जरूरत नहीं है, गलत होगा।
ये तमाम बहस पिछले एक दशक में बढ़ी है। हालांकि इस बीच एक सच यह भी है कि 1997 से 2007 के बीच के दशक में 197 लाख सरकारी नौकरियों में 18.7 लाख की कमी आई है। ये कुल सरकारी रोज़गार का 9.5 फ़ीसद है। इसी अनुपात में दलितों के लिए आरक्षित नौकरियां भी घटी हैं। इसलिए आने वाले वक्त में सरकारी नौकरियों की लड़ाई का कोई फायदा नहीं होने वाला। लेकिन आरक्षण को लेकर जो बहस चल रही है, अब आगे बढ़ चुके वर्ग को अपने ही गरीब भाईयों के बारे में जरूर सोचना चाहिए।
अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
आपकी संपादकीय से लग रहा है कि हम भी उनकी पिच पर खेलने को आतुर हो गए हैं। जो वो चाहते हैं हम भी वही कर रहे हैं। अपनी पिच बनाइए और आजादी के बाद कितनी नौकरियां मिली हैं और कितने not found suitable शिकार हुए हैं उस पर बहस हो।