बदलती पत्रकारिता के दौर में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की चुनाव रिपोर्टिंग की यादें

Indian political parties

आजकल का पत्रकारीय माहौल देखकर ‘चुनाव में पत्रकार की अपनी हिस्सेदारी’ विषय पर लिखने का मन हुआ. मेरा मानना है, किसी लेखक, बुद्धिजीवी, एकेडेमिक, सामाजिक या राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह एक सक्रिय पत्रकार, खासतौर पर रिपोर्टर या एंकर को चुनाव में किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में मतदान की सार्वजनिक अपील करने का नैतिक अधिकार नहीं है. मेरे हिसाब से ऐसा करना पत्रकारिता के मानदंडों पर उचित नहीं.

मैंने अपने निजी जीवन में इसे अक्षरशः लागू किया. पत्रकारिता में आने के बाद मैंने कभी किसी उम्मीदवार के पक्ष में मतदान के लिए लोगों से सार्वजनिक तौर पर अपील नहीं की. अपनी रिपोर्टिंग या विश्लेषण में भी किसी एक उम्मीदवार का समर्थन नहीं किया. हां, गुण दोष जरुर बताए. संविधान-पक्षी वैचारिकता और मेहनतकश अवाम का पक्षधर होने के नाते किसी राजनीतिक धारा के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष जमकर गिनाए. पर वह लेखन किसी खास व्यक्ति के इर्द-गिर्द केंद्रित नहीं रह. उसके केंद्र में धारा और विचार रहे.

अगर कोई बहुत खास परिचित या निजी तौर पर नजदीकी उम्मीदवार हुआ तो उसके क्षेत्र का जायजा लेने भले चला गया पर रिपोर्टिंग स्वयं नहीं की. यह सोचकर कि शायद चुनाव रिपोर्टिंग में मैं आब्जेक्टिव नहीं हो पाऊंगा. मैं नहीं जानता, पत्रकारिता के मानदंडों पर इसे सही माना जायेगा या ग़लत. पर हम जैसे लोगों के अंदर ऐसा नैतिक-बोध या प्रोफेशनल-बोध संभवतः ‘नवभारत टाइम्स’ के तत्कालीन प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने पैदा किया. जिन दिनों हमने ‘नवभारत टाइम्स’, पटना के नये-नये संस्करण के लिए रिपोर्टिंग शुरु की, माथुर साहब किसी कार्यशाला या अन्य कार्यक्रमों के बहाने पटना आया करते थे. दिल्ली से भी सर्कुलर या नोट भेजकर हम जैसे नये पत्रकारों को शिक्षित करते रहते थे. मुझे याद आ रहा है, एक बार उन्होंने एक नोट भेजा, जिसमें ‘नवभारत टाइम्स’ दिल्ली में छपी एक लंबी रिपोर्ट नत्थी थी. उसके रपटकार थे: सुप्रसिद्ध कवि और पत्रकार विष्णु खरे. उन दिनों खरे साहब ‘नवभारत टाइम्स’ में ही काम करते थे. माथुर साहब ने नोट में बताया कि ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखी जानी चाहिए.

mediaबहुत पुरानी बात है. आजकल के विवादास्पद भाजपा नेता एम जे अकबर उन दिनों यशस्वी युवा संपादक हुआ करते थे. बहुत कम उम्र में ही आनंद बाजार ग्रुप के अंग्रेजी अखबार ‘टेलीग्राफ’ के संपादक बन गये थे. बिहार के किशनगंज से कांग्रेस टिकट पर चुनाव मैदान में उतर गए. अचरज भी हुआ. एक सक्रिय संपादक किसी पार्टी का सदस्य और उम्मीदवार बनकर चुनाव क्यों और कैसे लड़ रहा है? चुनाव के दौरान किशनगंज में मैंने उनसे यह सवाल भी किया: ‘चुनाव जीतने या हारने के बाद क्या आप फिर से संपादक बनकर काम करेंगे और करेंगें तो आप आब्जेक्टिव कैसे रह सकेंगे?’ उन्होंने मुझे घूरा और बगल में खड़े मशहूर फोटोग्राफर कृष्ण मुरारी किशन को इंगित कर कहा: ‘इससे पूछिए कि मैं कितना आब्जेक्टिव रहता हूं.’ बहरहाल, पत्रकारीय नैतिकता की सबकी अपनी-अपनी परिभाषा और बोध है. उनकी जगह अगर हम होते तो चुनावी-राजनीति में उतरने के बाद कालम या किताबें भले लिखते रहते पर संपादक या रिपोर्टर का दायित्व हरगिज नहीं संभालते. अगर पत्रकारिता में वापसी करते तो चुनावी-राजनीति को पूरी तरह बाय-बाय करके. अपने देश की पत्रकारिता में ऐसे अपवाद भी हैं कि किसी पत्रकार ने चुनाव लड़ा और हारने या जीतने के कुछ समय बाद उसने राजनीति से खुद को अलग कर लिया. फिर पत्रकारिता में दाखिल हुआ और अच्छा काम किया। आज भी कुछ ऐसे उदाहरण हैं. पर ऐसे पत्रकारों ने एम जे अकबर से अलग रास्ता अपनाया. राजनीति छोडकर वे फिर पूरी तरह पत्रकार बनकर लौटे. उत्तर से दक्षिण के राज्यों में ऐसे कई पत्रकार मिल जायेंगे. ऐसा एक उदाहरण अभी आशुतोष (‘सत्य हिन्दी’) हैं.

लगभग साढ़े तीन दशक के पत्रकारिता जीवन में चुनाव के आकलन या रिपोर्टिंग में मुझसे भी गलतियां हुई हैं. रिपोर्टर के तौर पर कई बार किसी क्षेत्र के बारे में मेरा आकलन गलत भी हुआ. हर गलती से सबक लेता रहा. लेकिन आजकल देश की मुख्यधारा पत्रकारिता का रंग-ढंग बिल्कुल अलग है. पूर्वाग्रह से भरी तथ्यहीन या एकपक्षीय रिपोर्टिंग या लेखन आज की पत्रकारिता के लिए आम बात है.

संभवतः अपने पत्रकारिता जीवन की पहली चुनाव रिपोर्टिंग मैंने सन् 1984 में की थी. लेकिन विधिवत और नियमित चुनाव रिपोर्टिंग करने का सिलसिला सन् 1986 में बिहार के बांका उपचुनाव से शुरू हुआ, जहां तब के फायरब्रांड समाजवादी दिग्गज जार्ज फर्नांडीज मैदान में उतरे थे. उनके मुकाबले कांग्रेस की मनोरमा सिंह उतरी थीं. वह पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह की धर्मपत्नी थीं. जहां तक याद आ रहा है, उन्होंने उस विवादास्पद चुनाव में जार्ज को हराया था. जार्ज ने बड़े स्तर पर चुनाव धांधली का आरोप लगाया.

फाइल फोटो

सन् 1986 से सन् 2009 तक, हर आम चुनाव को कवर किया. वैसे तो बाद के दिनों में भी जम्मू-कश्मीर आदि के चुनाव की रिपोर्टिंग की. लेकिन अब नियमित और राज्यव्यापी चुनाव रिपोर्टिंग के लिए नहीं जाता. हां, अवसर मिलने पर जायजा लेने कुछेक चुनिंदा क्षेत्रों में जरुर जाता हूं. अपने सक्रिय पत्रकारीय(रिपोर्टर के तौर पर) जीवन में दिल्ली, बिहार(झारखंड सहित), जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश (तेलंगाना सहित), केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान और यूपी(उत्तराखंड सहित) आदि जैसे राज्यों में चुनाव की रिपोर्टिंग की. लेकिन सबसे सघन चुनाव रिपोर्टिंग का मेरा अनुभव बिहार, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर का रहा.

दुखद है कि हिन्दी में इन दिनों कुछेक अपवादों को छोड़कर अच्छी चुनाव रिपोर्टिंग नहीं हो रही है. पर अंग्रेजी में अब भी कुछ लोग बहुत अच्छी रिपोर्टिंग कर रहे हैं. नाम लेने का जोखिम ये है कि जिन कुछ अच्छे पत्रकारों का नाम गलती से छूट जायेगा, वे मेरी इस टिप्पणी को पढ़ें या न पढ़ें, पर मुझे अपनी गलती से तकलीफ होगी. लगेगा, कुछ लोगों का नामोल्लेख न करके मुझसे अनजाने में अन्याय हुआ है. इसलिए यहां किसी का नाम नहीं ले रहा हूं। पर ये बताना जरुरी है कि इस वक्त सबसे अच्छी चुनाव रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में कुछ महिला पत्रकार सबसे आगे दिख रही हैं. इनमें कुछ अखबार में हैं और कुछ न्यूज पोर्टल में. इक्का-दुक्का रिपोर्टर टेलीविजन में भी अच्छी रिपोर्टिंग कर रहे हैं.
इन सबको बधाई और शुभकामनाएं.

  • वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से

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