मेरे एक मित्र ने कहा कि में रविदास को नहीं मानता क्योंकि उन्होंने ब्राह्मणवाद को माना है. मेरा उनको उत्तर इस प्रकार है.
पहली बात रविदास का असली नाम रैदास है. आप अपने दादा के समय के लोगों के नाम किसी से भी पूछ कर देख लो. लगभग सभी के नाम आपको बिगड़े हुये मिलेंगे. जैसे हल्केराम का हल्का, नन्दराम का नन्दुआ आदि. इसका मतलब ये है रैदास का रविदास किसी ने बाद में किया है.
दूसरी बात कहते है रैदास के गुरू ब्रह्मण थे. मुझे बताईये क्या उस समय कोई ब्रह्मण किसी चमार को शिक्षा देता था क्या? बिलकुल नहीं, ब्राह्मण हमेशा सगुण भक्ति वाले रहे हैं. मतलब देवी-देवताओ भगवान को पूजने-मानने वाले. अगर रैदास ब्रह्मण के शिष्य होते तो वो भी इन देवी-देवताओं भगवान की ही पूजा करते. जबकि रैदास ने ऐसा नहीं किया वे निर्गुण भक्ति करते थे. मतलब जिसका कोई गुण आकार नहीं है.
तीसरी बात अगर रैदास भगवान या देवी-देवताओं को मानने वाले होते तो वे कभी भी उन काशी के महान पंडितों को नहीं हरा पाते जिन्हें किसी भी संत मे नही हराया था. काशी के पंडितों को हराने पर ही रैदास को संत शिरोमणी की उपाधि मिली है. मतलब सभी संतों में श्रेष्ठ.
चौथी बात रैदास जूते नहीं बनाते थे. रैदास की जूते बनाने वाली तस्वीर को लोगों ने इसलिए छापी कि दूसरे चमार भी रैदास को आदर्श मानकर चमड़े का ही काम करें और दूसरे काम में ध्यान न दे.
पांचवी बात न रैदास के पहले न अब कोई भी संत उनसे महान नही हुआ है. इसलिए रानी मीराबाई तमाम विद्धान पंडितों को छोड़ रैदास की शिष्या बनी. और सबसे मुख्य वजह रैदास को ब्राह्मण का शिष्य बनाने की प्रक्रिया यही से चालू हुई है. क्योंकि आने बाले समय में अगर एक चमार को लोग आदर्श मानने लगे तो ब्रह्मणों की तो इज्जत मिट्टी मे मिल जाएगी. और यही से रैदास का ब्राह्मणीकरण चालू हो गया.
छठी बात रैदास ने न कटोरी से कंगन निकाला न कोई चमत्कार किया ये सभी बातें अलग से जोड़ी गई है. ये जरूर है जब रैदास को गंगा में पंडितों ने नहाने नहीं दिया तो उन्होंने कहा था (मन चंगा तो घर मे गंगा) मतलब अगर आपका मन साफ है तो आपको कहीं तीर्थ स्थानों पे जाने की जरूरत नहीं है.
सातवीं बात चमार होकर किसी राजमहल के वे पहले और आखिरी गुरू रहें हैं ऐसा उनके अलावा किसी और के साथ नहीं हुआ.
आठवीं बात रैदास ने हमेशा जातिवाद, वर्णवाद, भेदभाव, छुआछूत का विरोध किया है. अगर वे ब्राह्मणवादी होते तो इनका कभी विरोध नहीं करते.
नवीं बात गूगल पर रैदास की अनेक झूठी कहानियां मौजूद हैं उनका रैदास की असली जिंदगी से कोई मतलब नहीं है.
दसवीं बात चमार दूसरे महापुरूषों को बहुत इज्जत देते हैं, मानते है. लेकिन अपने ही कुल गुरू को वे कभी याद नहीं करते. न उनकी तस्वीर रखते. न उनके विचारों को पढ़ते. इसलिए चमार हमेशा भटकते रहते हैं कभी यहां सभी वहां वो स्थिर नहीं रहते. चमारों को गर्व करना चाहिये. गुरूग्रंथ_साहिब में रैदास जी के 41य 45 पद है. जिनका पाठ गुरूद्वारों में रोज होता है. फिर भी लोग उन्हें ब्राह्मणवादी कहते हैं तो ये हमारे ज्ञान की कमी या सही मार्गदर्शन नहीं मिलने की वजह हो सकती है.
मेरा ख्याल है मेरे मित्र को उत्तर मिल गया होगा.
राजेश कुमार
महामंत्री
डा.बी0आर0 अंबेडकर बौद्ध समाज उत्थान समिति-इटावा

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