पिछले दिनों की बात है. उत्तर प्रदेश में एक महिला ने गरीबी और भूख के कारण दम तोड़ दिया. मृत महिला के चार बच्चों के पास इतने भी पैसे नहीं थे कि अपनी मां का अंतिम संस्कार भी कर सकें. बच्चों ने भीख मांगकर अंतिम संस्कार के लिए पैसे जुटाए तब जाकर मां का अंतिम संस्कार किया. बच्चों को भीख देने वाला समाज अगर सामाजिक दायित्व समझ कर मृत महिला का अंतिम संस्कार अपने पैसों से कर देता तो समाज में एक अच्छा संदेश जाता. भीख के पैसे से हुआ अंतिम संस्कार समाज और हमारे सिस्टम दोनों को लानत कर रहा है.
आजकल मीडिया में ‘‘जीरो टोलरेंस‘‘ की बातें बहुत सुनने को मिलती हैं. पर हैरत एवं गैरत की बात ये है कि हमारा समाज, लोकतांत्रिक सिस्टम और लोकतंत्र का तथाकथित चौथा स्तम्भ माना जाने वाला मीडिया ऐसी घटनाओं को ‘‘फुल टोलरेंस‘‘ के साथ पचा जाता है. ‘‘के न्यूज चैनल‘‘ जरूर साधुवाद का पात्र है जिसने इस घटना को प्राइम टाइम में डिबेट के रूप में बहुत प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया. अन्य चैनल ने इस घटना को प्रमुखता से दिखाया हो ऐसी जानकारी नहीं है. मुझे लगता है कि उक्त घटना अगर बिहार या बंगाल जैसे किसी राज्य में घटित हुई होती तो, हफ्ते भर मीडिया की सुर्खियों में रहती.
भारत का संविधान सभी नागरिकों को गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है. पर भूख और गरीबी से अभिशप्त जीवन को किसी भी दृष्टि गरिमापूर्ण नहीं माना जा सकता. हम भारत के महाशक्ति एवं बड़ी अर्थव्यवस्था होने के चाहे लाख दावे करें पर इन दावों के बीच आंकड़े बयां कर रहे हैं कि दुनिया के कुल भूखे लोगों में एक तिहाई भूखी आबादी भारत में जिल्लत की जिन्दगी जी रही है. रोजाना करीब बीस करोड़ गरीब लोग दो जून की रोटी जुटाने में असमर्थ रहते हैं देश में एक तरफ रसोई गैस सिलंडर बांटने की योजना के प्रचार-प्रसार में लाखों रूपये खर्च किए जा रहे है तो दूसरी तरफ इन गरीबों के यहां चूल्हा तक नहीं जल पाता है परिणामस्वरूप इन्हें रात को भूखे पेट ही सोना पड़ता है. भारत में प्रतिवर्ष करीब पच्चीस लाख गरीब लोग भूख के कारण दम तोड़ देते हैं. भूख से दम तोड़ने वाले लोगों में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अति पिछड़ी जातियों के लोगों की संख्या अधिक होती है. संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट ‘‘द स्टेट ऑफ फू्ड इनसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड‘‘ के अनुसार भारत दुनिया के भूखे देशों की सूची में शीर्ष पर शामिल है.
गरीबों की गरीबी और भुखमरी दूर करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, टारगेटिड डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम, अनाज बैंक योजना और अन्त्योदय जैसी अनेकों सरकारी योजनाएं चलायी जा रही हैं. जो राजनीतिक उदासीनता के कारण नाकाफी साबित हो रही हैं. देखा यह गया है कि गरीबों में बांटने के लिए अनाज गोदामों एवं अनाज बैंकों में रखा अनाज सड़-गल जाता है लेकिन गरीबों तक नहीं पहुंच पाता. भुखमरी का कारण गरीबी और गरीबी का कारण बेरोजगारी है और गांवों में बेरोजगारी का मुख्य कारण भूमिहीनता है. एक तरफ धर्म की दुकानें चलाने वाले तथाकथित साधू-संतों, बापू और बाबाओं को सत्संग आदि के लिए हजारों एकड़ जमीन सरकारों द्वारा दे दी जाती है. लेकिन भूमिहीन गरीबों को भूमि आवंटित करने में सरकारें उदासीनता दिखाती हैं. जबकि हमारा संविधान बापू-बाबाओं के बजाए गरीबों के हितों के प्रति अति प्रतिबद्ध है. फिर ऐसी क्या वजह है कि हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को गरीबों के बजाए बाबाओं की चिंता अधिक रहती है.
भूख से मरने का यूपी का मामला अकेला मामला नहीं हैं. प्रतिदिन देश भर में ऐसी घटनाएं घटित होती रहती रहती हैं, वह बात अलग है कि शासन-प्रशासन के दबाव में ऐसी घटनाएं चर्चा का विषय नहीं बन पाती. देश में भ्रष्टाचार आदि के नाम पर बड़े-बड़े आन्दोलन हुए. आन्दोलनों के साथ राजसत्ताओं का आना-जाना भी हुआ. देश से गरीबी-भुखमरी खत्म करने के राजनीतिक वायदे भी होते रहे हैं. पर गरीबी-भुखमरी की समस्या अभी भी कायम है. फिर भी ताज्जुब की बात है कि गरीब हितों का ढ़िंढोरा पीटने वाले संगठन भी भुखमरी से होने वाली मौतों पर चुप रहते है. क्या इस मुद्दे पर देश में कोई आन्दोलन नहीं होना चाहिए. आखिर भुखमरी से मृत किसी गरीब के अंतिम संस्कार के लिए भीख मांगने का सिलसिला कब तक चलता रहेगा. यूपी की उक्त घटना को देखकर लगता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने सिर पर गरीबी कफन बंधा है.
यह लेख ओपी सोनिक ने लिखा है. लेखक के निजी विचार है.

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