स्कूली शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बिना नई शिक्षा नीति अधूूरी

नई शिक्षा नीति में “राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” द्वारा सुझाये गए कई समतामूलक उपायों को सम्मलित करना स्वागत योग्य कदम है. जैसे यूनिफॉर्म शिक्षा हेतु त्रिभाषा फार्मूला तथा गणित, विज्ञान और सामाजिक विषयों की जानकारी प्राथमिक स्तर से सभी बच्चों को देना नई सरकार शिक्षा नीति में शामिल किया गया है. नर्सरी कक्षा से उच्चतर माध्यमिक कक्षा तक यानी 18 साल तक के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देना नई शिक्षा नीति की प्राथमिकता दर्शाई गई है. वर्तमान सरकार से नई शिक्षा नीति में आंशिक परिवर्तन करने हेतु ‘राष्ट्रीय समग्र विकास संघ’ अपील करना चाहता है कि नई शिक्षा नीति अच्छी होने के बावजूद भी “स्कूली शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बिना अधूरी है.” प्राइवेट स्कूलों में महंगी शिक्षा होने के कारण 60% अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लाभ से वंचित रह जाएंगे. जिसके कारण नई शिक्षा नीति के अच्छे परिणाम आनेेे की जगह अमीर और गरीब की एक बड़ी खाई उपस्थित हो जाएगी. जिससे गरीब के बच्चे निम्न श्रेणी की नौकरियों में तथा अमीरों के बच्चे कंपनियों और बड़ी नौकरियों के मालिक बन जाएंगे.

उपरोक्त बिंदुओं पर चिंता व्यक्त करते हुए “राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” ने गत वर्षो में सेमिनार और अपने प्रपत्रों के माध्यम से सरकार से अपील की गई है. नई शिक्षा नीति को समग्र भारत की शिक्षा नीति के रूप में प्रस्तुत किया जाए. इस लेख के अग्र भाग में आवश्यक बिंदुओं को शामिल करने हेतु संघ ने सरकार से आग्रह किया था जिसका विवरण प्रस्तुत है.

आज सबको चाहिए शिक्षा और शिक्षित होने पर चाहिए सबको सरकारी नौकरी या समुचित रोजगार. परन्तु सरकार ने सरकारी नौकरियों के अवसर बहुत ही सीमित कर दिए हैं. चौथे पे-कमीशन की रिपोर्ट के बाद हर साल रिटायर होने वाले पदों में 5 प्रतिशत की कटौती कर दी जाती है. चतुर्थ श्रेणी के पदों को समाप्त प्रायः कर दिया है, तृतीय श्रेणी के पदों में भी भारी कटौती की गई है, इसके बाबजूद डायरेक्टर एवं उसके ऊपर के पदों को बढ़ाया गया है. इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए यह कटौती जरुरी थी. लेकिन साथ ही लोग यह भी कहते हैं की सरकारी कर्मचारी निकम्मे हैं जो काम नहीं करते हैं, तो उनका काम आउटसोर्स से कराया जा सकता है तथा काम की गुणवत्ता भी सुधारी जा सकती है. आज बड़ी संख्या में नौकरी के अधिकतर पद रिक्त पड़े हैं, फिर भी डेली वेज और कंसल्टेंट के माध्यम से सरकार का काम चलाया जा रहा है. समस्या तो जटिल है, सरकार का खजाना और कर्मचारियों की अकर्मण्यता का बहाना बना कर सरकारी नौकरियों के अवसर कम कर दिए हैं.

ओबीसी और अनुसूचित जातियों के उत्थान का युग (1989-2001)

1984 में कांशीराम द्वारा शुरू की बहुजन समाज पार्टी (बसपा), दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों के गठजोड़ को बनाने के लक्ष्य में पूरी तरह से कामयाब थी. 1990 में मंडल आयोग को लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश राज्य का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया. 1993 में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन को राज्य विधानसभा में भारी चुनावी सफलता मिली जिसमें ऊंची जातियों के विधायकों की तुलना में ओबीसी विधायक अपेक्षाकृत अधिक संख्या में निर्वाचित हुए यह अब तक के इतिहास का एक रिकार्ड था. इसके बाद प्रदेश में चाहे जिसकी भी सत्ता रही हो पर ओबीसी विधायकों की संख्या का स्तर हमेशा ऊँचा बना रहा. 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से सत्ता में पिछड़े वर्गो की हिस्सेदारी का युग शुरू हुआ. 1993 में सपा और बसपा ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राज्य विधानसभा में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के विधायकों की संख्या 40 प्रतिशत से अधिक थी जिसने नए राजनीतिक नेताओं के बनाने की शुरूआत करने में मुख्य भूमिका अदा की. 1993 के चुनाव में दोनों दलों सपा और बसपा के पक्ष में विशिष्ट राजनीतिक रुझान दिखा. सपा और बसपा दोनों ने क्रमश: अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अधिक उम्मीदवार जिताये. यहां तक कि बसपा की ब्राह्मण-विरोधी रणनीति के कारण उच्च जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका. लेकिन सपा ने 10 फीसदी ऊंची जाति के विधायकों को जितने में योगदान दिया तथा 35 फीसदी विधायक केवल यादव समाज से जीत कर आए. इसके बाद पुरे देश में पिछड़े वर्ग की राजनीति शुरू हुई और देखते ही देखते हरेक जाति पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए आंदोलन करने लग गई.

कांग्रेस की ब्राह्मण और राजबाड़ा परस्त राजनीति के कारण पिछड़ा समाज हाशिए पर चला गया. जिसका परिणाम है कि जाट, मराठा, कापू और पटेल आरक्षण का मुद्दा गर्म हो रहा है. उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों की आज सबको जरूरत है क्योंकि जमीन छोटी पड़ती जा रही हैं किसान लोग कर्ज के बोझ से दब रहे हैं. पिछड़ी जातियों का नेतृत्व करने के लिए आज की जरूरत के मुताबिक मोदी द्वारा अपनी जाति को 2002 में चुपके से OBC घोषित करके एक बड़े समुदाय का नेता घोषित कर दिया. जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें भारत के प्रधान मंत्री का पद भी हासिल हो गया. गुजरात की राजनीति, व्यापर और ज़मीन में पाटीदार बड़ा दखल रखते हैं, वे भी मोदी के पिछड़े समुदाय में शामिल होकर उच्च वर्णीय जातियों को गुजरात और देश की राजनीति से हमेशा के लिए विदा कर देना चाहते हैं. इसी राजनीति का परिणाम है की 1990 के मंडल युग के बाद ब्राह्मण समाज जो राजनीति में 40% की हिस्सेदारी के साथ ड्राइवर सीट पर रहा है वह आज राजनीति की पिछली सीट पर बैठने को मजबूर है. पिछड़े समाज के नेताओं को ड्राइवर की सीट देना उनकी मजबूरी बन गई है. जिसका परिणाम मोदी और अमित शाह के रूप में आपको दिखाई दे रहा है. नई शिक्षा नीति के माध्यम से आज सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक समानता के लिए ब्राह्मणों और “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ” को सामने आकर एक नई पहल करनी होगी.

शिक्षा पर इलाहबाद हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

भारतीय संविधान में लगभग कक्षा आठवीं तक, यानी 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को बच्चों के एक मौलिक अधिकार के रूप में सम्मलित किया. बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान बनाते समय इस अधिकार को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया था. उस समय हमारे देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इस लिए उन्होंने कहा था की जैसे ही आर्थिक स्थिति ठीक होती जाएगी वैसे-वैसे इस शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में सम्मलित करना जरुरी होगा. यह काम 2009 में डा. मनमोहन सिंह की यू.पी.ए. सरकार ने आर.टी.ई.एक्ट बना कर किया. सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के लिए राज्य सरकारों के लिए बजट आबंटित किया गया. परिणाम बड़े ही चोंकाने वाले मिले यथा:

मिड-डे मील में घपले, कक्षा आठ तक बिना किसी परीक्षा के बच्चों को पास करने के कारण कक्षा पांच के बच्चों द्वारा कक्षा दो की किताब को न पड़ पाना;

प्राइमरी से आगे की पढ़ाई को 90 प्रतिशत बच्चों द्वारा स्कूल छोड़ देना;

इन स्कूलों में शिक्षा मुक्त एवं मुफ्त होना चाहिए था, लेकिन लगता है कि वे हर बात में फेल है;

बुनियादी सुविधाओं का पूर्ण अभाव इन स्कूलों में हर जगह देखा जा सकता है;

आजादी के 65 से अधिक वर्षों के बाद भी इन स्कूलों में अभी भी अधिकतर कक्षाओं की इमारतें अत्यंत जर्जर और बुरी स्थिति में हैं. शौचालयों एवं पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए इन स्कूलों में अभी भी संघर्ष जारी हैं;

कई स्थानों पर कक्षाएं खुले आसमान के नीचे चलाई जा रही हैं. यदि कोई संरचना है भी तो वह जीर्ण-शीर्ण हालत में है;

हांलाकि सरकार द्वारा गरीब लोगों के बच्चों को बुनियादी शिक्षा के कल्याण के नाम पर हर साल भारी मात्रा में पैसा खर्च किया जाता है, परन्तु इन स्कूलों की स्थिति में कुछ भी सुधार नजर नहीं आता है;

यह समझना मुश्किल नहीं है कि सरकार इस दिशा में समुचित ध्यान क्यों नहीं दे रही है, कारण काफी स्पष्ट है;

इन स्कूलों के साथ प्रशासन की कोई वास्तविक भागीदारी और जवावदेही नहीं है;

कुछ लोग जो क्षमतावान और पर्याप्त धनवान है ऐसे व्यक्ति अपने बच्चों को कुलीन और अर्ध कुलीन प्राइमरी स्कूलों में भेजते हैं.

आम आदमी के स्कूलों के सम्बन्ध में माननीय न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने एक बार यह कहा था कि लगता है ये स्कूल शिक्षा की जरुरत को पूरा करने की जगह गरीब बच्चों की दो जून के भोजन की मुश्किल को दूर करने के लिए बनाये गए हैं.

बेसिक शिक्षा मंडल द्वारा चलाए जा रहे ये संस्थान, दुर्विनियोजन, कुशासन और बड़े पैमाने पर उच्चतम स्तर के भ्रष्टाचार के शिकार हो रहे है;

शिक्षण के मानक पूरी तरह से हताहत है. कोई भी ट्यूटोरियल स्टाफ के मानको में सुधार करने के लिए परवाह नहीं करता है;

बिना किसी प्रतियोगी परीक्षा के अयोग्य और अनपढ़ लोगों को नियुक्त करके प्रतिबद्ध मतदाता बनाने के एक स्रोत के रूप में प्राथमिक स्कूलों राजनीतिक कारणों से न्युक्तियां हो रही है. लेकिन वे वास्तव में प्राइमरी स्कूल में बच्चों को पढने में सक्षम नहीं हैं;

बेसिक शिक्षा बोर्ड के अधिनियम, 1972 के तहत उत्तर प्रदेश द्वारा सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त बुनियादी विद्यालयों को बनाए रखने के लिए वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा इस मद पर खर्च होता है;

प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की कुल संख्या, अर्थात जूनियर प्राइमरी स्कूल और सीनियर प्राइमरी स्कूलों को मिलाकर एक लाख चालीस हजार है. शिक्षण स्टाफ और हेड मास्टरों की संख्या भी इसलिए लाखों में है;

शिव कुमार पाठक एवं अन्य लोग बनाम यूपी राज्य के फैसले में न्यायिक खंडपीठ के द्वारा यह देखा गया है कि बोर्ड द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूलों में सहायक अध्यापकों के 2.70 लाख पद खाली पड़े हुए हैं;

शिक्षकों की भर्ती में भारी अनियमितता, जवाबदेही और विश्वसनीयता की कमी के कारण प्रबंधन भारी मुकदमेबाजी में फंस गया है, जिसके लिए अधिकारियों की बेखबरी, गैरईमानदारी और आकस्मिक दृष्टिकोण पूरी तरह से जिम्मेदार है.

उत्तर प्रदेश में इस समय छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए चल रहे प्राथमिक विद्यालयों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

1. अभिजात्य वर्ग के बच्चों के स्कूल:

प्रदेश में कुछ पब्लिक स्कूल ब्रांडेड हैं, जो अभिजात वर्ग और अत्यधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोगों द्वारा संचालित हैं. ऐसे प्राथमिक स्कूलों की संख्या बहुत कम हैं. ऐसे स्कूलों में गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए उपलब्धता लगभग नगण्य है, जिसमें कुछ अंग्रेजी / कॉन्वेंट स्कूल ईसाई अल्पसंख्यक मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे हैं. इस श्रेणी के स्कूल मूल रूप से अत्यधिक अमीर लोगों, उच्च वर्ग के नौकरशाहों, मंत्रियों, जन प्रतिनिधियों, जैसे, संसद सदस्य, विधान सभा सदस्यों तथा उच्च मध्यम वर्ग के लोगों की जरूरत को पूरा करते हैं. अभिजात वर्ग समाज की एक सीमित इकाई है जिसके बच्चे ही उसमें शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. सामान्य लोग तो इन स्कूलों में ली जाने वाली फीस के वित्तीय मानकों को भी पूरा नहीं कर सकते हैं. बहुत सख्त प्रवेश मानकों एवं उच्च संसाधनों की वजह से ज्यादातर सीटें अभिजात्य वर्ग के लिए ही उपलब्ध हैं. इन स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्टर्स, ट्यूटोरियल कर्मचारियों और अन्य सभी सुविधायें सबसे अच्छे प्रकार की है. इन स्कूलों को ‘एलीट’ स्कूलों के रूप में लिया जा सकता है.

2. निम्न मध्यम वर्ग के स्कूल:

दूसरी श्रेणी के प्राथमिक विद्यालय जो निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए सामान्य रूप से कुछ निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा चलाए जा रहे हैं. इन स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर इतना परिष्कृत और कुलीन स्कूलों के तरह अति आधुनिक नहीं है, लेकिन सरकारी स्कूलों से काफी बेहतर है और तुलनात्मक रूप से भी ट्यूटोरियल स्टाफ भी अच्छा है. इन स्कूलों को ‘अर्ध-कुलीन वर्ग के स्कूलों’ के रूप में भी पहिचाना जा सकता है.

3. सामान्य वर्ग के बच्चों के स्कूल:

प्रदेश के यह बोर्ड द्वारा संचालित स्कूल ही अत्यधिक बच्चों की जरूरत को पूरा कर रहे है जिनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है. लगभग सभी ऐसे प्राथमिक विद्यालय जो सरकारी प्रशासन के तहत बोर्ड द्वारा प्रबंधित और संचालित हैं, तृतीय श्रेणी में आते हैं. इनको ‘आम-आदमी के स्कूलों के रूप में जाना जा सकता है. ऐसे स्कूल ग्रामीण वर्ग, अर्ध-शहरी वर्ग के बच्चों की पढाई की जरुरत को पूरी करते हैं, ये ऐसे लोगों के लिए हैं जो अन्य दो श्रेणियों के अंतर्गत आने वाले स्कूलों का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं. राज्य में छोटे बच्चों की लगभग 90 फीसदी आबादी इन स्कूलों में पढ़ने के लिए विवश है.

वे कोन लोग हैं जो शिक्षा की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं? उनके बच्चों को भी इन स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढने के लिए विवश करना चाहिए, तो शिक्षा का स्तर अवश्य ही सुधरेगा.

सभी लोग समझ सकते हैं कि जब जिले के कलेक्टर और एसपी तथा अन्य अधिकारीयों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ना आरम्भ कर देंगे, तो उन स्कूल में शिक्षा का स्तर क्या होगा और शिक्षक किस तरह की पढ़ाई वहां करवाएंगे.

यह सुझाव तो 100 टके का है, लेकिन इसे मानव संसाधन विकास मंत्री तो क्या बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लागू नहीं कर सकते.

कोर्ट का यह फैसला जिसे छह महीनों में लागू करना है.

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज श्री सुधीर अग्रवाल ने जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला उत्तर प्रदेश के प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक बेसिक स्कूलों की दुर्दशा को सुधारने के लिए दिया है.

कोर्ट ने इस फैसले को लागू कराने के लिए मुख्य सचिव को छह माह का समय दिया है. इस फैसले से जुड़े मुख्य बिंदु निम्न लिखित हैं :

अगर सरकारी अधिकारियों सहित जनप्रतिनिधि, जज अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही सरकार करे;

इसलिए, मुख्य सचिव, यूपी सरकार को इस संबंध में इलाहबाद हाईकोर्ट ने निर्देश दिया है कि जिम्मेदार अन्य अधिकारियों के साथ परामर्श करके इस मामले में उचित कार्रवाई सुनिश्चित करके छः माह के अंदर कोर्ट को सूचित करें;

सरकारी कर्मचारियों, अर्द्ध सरकारी कर्मचारियों, स्थानीय निकायों, न्यायपालिका और ऐसे सभी व्यक्तियों के आलावा सभी जन प्रतिनिधि जो सार्वजनिक कोष से किसी भी तरह का लाभ या वेतन आदि प्राप्त करते हैं, वे अपने बच्चे / बच्चों / वार्डों को सरकारी स्कूलों में ही भेजें;

इस शर्त का उल्लंघन करने वाले लोगों के लिए दंडात्मक प्रावधान सुनिश्चित किये गए हैं;

यदि कोई भी सरकारी कोष का लाभार्थी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल की जगह पब्लिक स्कूल में भेजेगा तो उसे हर महीना निजी स्कूल में भुगतान किये शुल्क के बराबर धन राशि, हर महीने सरकार के कोष में जमा करनी पड़ेगी;

यह राशि बोर्ड के स्कूलों की गुणबत्ता सुधारने पर उपयोग की जाएगी;

जो सरकारी अधिकारी सहित अन्य लाभ के पद पर अधिकारी हैं, अगर वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं तो उनकी वेतन वृद्धि/ प्रोन्नति रोक दी जायेगी;

स्कूलों की दशा को सुधारने में कोताही बरतने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की जायेगी. (उपरोक्त फैसला आज तक उत्तर प्रदेश में और देश के अन्य भागों में क्यों लागू नहीं हुआ? इसके राजनीतिक कारण कुछ भी हो सकते हैं परंतु आम जनता के सामने यह आज भी सरकारों को गैर जवाब देह साबित करने के लिए काफी है.)

समस्या का कारण और समाधान

उक्त फैसले पर स्टे लेना दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका अर्थ है कि सभी बच्चों को सरकार के खर्चे पर एक-समान स्कूल स्तर तक शिक्षा मिले सभी चाहते हैं परन्तु उतनी गंभीरता सत्ताधारी लोगों के कृत्यों में नजर नहीं आती. यह बड़ा ही गंभीर विषय है यदि इस पर आम जनता ने अपना फैसला नहीं लिया तो हमारा देश विकास की दौड़ में काफी पिछड़ जायेगा. कम से कम इस मुद्दे पर राजनीति न करके संवैधानिक भावना की कद्र करनी होगी.

आरक्षित वर्ग में आने वाले बुद्धिजीवी लोगों का कहना है की जब से मंडल कमीशन लागू हुआ है तब से एक विशेष वर्ग का सरकारी नौकरियों से एकाधिकार समाप्त हो गया है इस लिए प्राइवेटाइजेशन को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसमें कुछ लोग भाजपा सरकार को कोस रहे हैं पर इससे ज्यादा कांग्रेस भी दोषी है.

वास्तव में देश की व्यवस्था आजादी के बाद एक विशेष समुदाय के हाथों में आ गई जिसके मुखिया पंडित जवाहर लाल नेहरू थे. अब नेहरू माडल की नकल सारी सरकारें करती हैं. नौकरियों में आजादी से पहले 3.5 फीसदी जनसँख्या वाले ब्राह्मण समुदाय की नौकरशाही और शिक्षा में हिस्सेदारी मात्र 3 फीसदी थी जो 1989 में लगभग 75 फीसदी हो गई. वहीँ कायस्थों का जनसँख्या में मात्र डेढ़ फीसदी हिस्सेदारी है उनकी 1935 में नौकरशाही में 40 फीसदी की हिस्सेदारी थी थी जो 1989 में घट कर मात्र 3 फीसदी ही रह गई. स्वामी विवेकानन्द, जयप्रकाश नारायण, डा राजेंद्र प्रसाद, महेश योगी, शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन आदि महानुभाव इसी समुदाय से आते हैं. सरकारी नौकरियों में पिछड़ने के कारण इन्होने भी जनता सरकार के समय अपने को चमार घोषित करके अनुसूचित जातियों की श्रेणी में आने के लिए कोर्ट के द्वारा सफलता हासिल करने की कोशिश की थी.

आज अनिवार्य और मुफ्त स्कूली शिक्षा, सरकारी नौकरियों में सभी सामाजिक वर्गो को आनुपातिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का सवाल बहुत बड़ी समस्या बनता जा रह है. जिन वर्गो ने अपनी संख्या से ज्यादा हासिल कर लिया है वह छोड़ना नहीं चाहते. और जिन वर्गों का हिस्सा कम है वह अपना हिस्सा पाने के लिए जागरूक हो रहे हैं. जिसकी परिणति में अनेकों नए जातीय आंदोलन जातीय राजनीति के रूप में पैर पसार रहे हैं.

शिक्षा लेना और देना एक विशेष समुदाय ने ही अपनी संम्पत्ति समझ रखा था, वह भी उनके हाथ से निकलती नजर आ रही है. इस दिशा में न्यामूर्ति सुधीर अग्रवाल का निर्णय एक उचित कदम है. प्राइमरी शिक्षा का राष्ट्रीयकरण तथा जनसँख्या के अनुपात में सभी चारों वर्गों को नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी ही उचित समाधान होगा, अन्यथा देश के युवा गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर सकते हैं. जहाँ तक आरक्षण के समाप्त करने का सवाल है, उसे समाप्त करना या उसको कम करना पूर्णत: असंभव है.

आज जनता की आवाज है, जनसंख्या के अनुपात में समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, सरकारी सेवाओं और राजनीति में प्रतिनिधित्व हासिल करना. जब मोदी (घाँची-मोद ) पिछड़ा बन सकते हैं तो हार्दिक पटेल पिछड़े वर्ग के अन्तर्गत आरक्षण क्यों नहीं ले सकते. याद रहे हार्दिक पटेल के समाज से आने वाले छत्रपति शाहू महाराज ने सबसे पहले 26 जुलाई 1902 में शूद्र-अतिशूद्र जातियों को शिक्षा में 50% आरक्षण कोल्हापुर स्टेट में दिया था. जैसा कि विदित है इस देश में सर्वप्रथम तथागत बुद्ध ने ‘बुद्धम शरणम गच्छामि’ का उपदेश देकर के समग्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत महसूस की. इसी तरह से 1848 में महात्मा फुले ने स्त्री और पुरुषों तथा समग्र समाज को ब्राह्मणों की तरह शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत महसूस की. उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर अंबेडकर ने भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की. उन्होंने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति का उत्तम मार्ग माना जो भारत में वंचित वर्ग के लिए वहीं क्रांति सेेे कम नहीं है. नई शिक्षा नीति आज लागू होने जा रही है उसमें उपरोक्त महापुरुषों की भावनाओं को मध्य में रखते हुए समाज को समतामूलक बनाना जरूरी है. जिसके लिए स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है.

के सी पिप्पल

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