आदरणीय मायावती जी,
सादर जय भीम।
उत्तर प्रदेश में बसपा हार गई है. हारी ही नहीं बल्कि बुरी तरह हार गई है. इतनी बुरी तरह; जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. जल्दी ही यह भी साफ हो जाएगा कि वह कहां कितने वोटों से हारी और कहां किस नंबर पर रही. लेकिन बसपा का इस तरह हार जाना भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में बसे लाखों-करोड़ों अम्बेडकरवादियों तक को निराश कर गया है. हालांकि इस हार के बाद आपने ईवीएम की गड़बड़ी की तरफ इशारा करते हुए यह मांग की है कि पुरानी बैलेट प्रणाली के तहत चुनाव कराया जाए. मैं इसको लेकर आपका समर्थन करता हूं. संभव है कि बहुजन समाज पार्टी के विरोधी इस बात के लिए आप पर तंज कसें लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ऐसी ही मांग कर चुके हैं.
लेकिन आपके द्वारा ईवीएम में गड़बड़ी से इतर अगर यूपी चुनाव में बसपा की हार की समीक्षा की जाए तो एकबारगी समझ में नहीं आता कि चूक कहां हुई, क्योंकि जिस तरह की ग्राउंड रिपोर्ट थी उसमें बसपा की इतनी करारी हार की संभावना बिल्कुल नहीं थी. हां, आपको इस बारे में जरूर जानकारी होगी. इस हार के बाद क्या आपको नहीं लगता कि अब समय आ गया है कि बहुजन समाज पार्टी को भी अपनी चुनावी रणनीति बदलनी चाहिए. सीधी सी बात यह है कि वक्त बदल रहा है. इस बदलते वक्त में वोटर भी बदल रहा है और मुद्दे भी. क्या ऐसे में बसपा को भी चुनाव लड़ने का अपना तरीका नहीं बदलना चाहिए?
बहुजन समाज पार्टी जिस अम्बेडकरवादी विचारधारा की उपज है, आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा उससे अंजान है. यूपी के वोटरों में भी बहुसंख्यक लोगों को जो अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते हैं इस विचारधारा से बहुत लगाव नहीं है. ऐसे में विचारधारा से इतर किन मुद्दों को सामने रखकर वोटरों को जोड़ा जाए बसपा को इस बारे में सोचना होगा. मीडिया के जिस रूख को लेकर आप और आपकी पार्टी के समर्थक लगातार मीडिया पर आरोप मढ़ते रहते हैं, पार्टी को उस बारे में भी सोचना चाहिए. मसलन यूपी जितने बड़े चुनाव के दौरान भी मीडिया से दूर रहना और अखबारों और चैनलों को इंटरव्यू नहीं देने से पार्टी को कितना नुकसान हुआ, आपको इस बारे में भी सोचना चाहिए. क्योंकि आज के वक्त में मीडिया की ताकत को नकारा नहीं जा सकता. ऐसा क्यों नहीं हो पाता कि आप मीडिया के सवालों का खुलकर सामना करें और अपना पक्ष रखें. एक सहज सवाल जनता के बीच से यह भी उठता है कि कई बार सत्ता में रहने के बावजूद बसपा आखिरकार अपना मीडिया खड़ा क्यों नहीं करती है और उसे किसने रोका है? जबकि बाबासाहेब से लेकर कांशीराम जी ने तमाम अभाव के बावजूद समाचार पत्रों (मीडिया) के महत्व को स्वीकार किया और उसे चलाया भी.
उत्तर प्रदेश में जब सभी पार्टी के नेता लगातार रोड शो कर जनता से ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश में जुटे थे आखिर आप इससे दूर क्यों रहीं? संभव है कि बहुजन समाज पार्टी में आस्था रखने वाले लोग अपने नेता यानि आपसे भी ऐसी उम्मीद कर रहे होंगे कि आप भी सड़क पर उतरें और ऐसा नहीं होने से उन्हें निराशा हुई होगी. जब यह दिख रहा था कि बाकी तमाम दल और नेता चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अपना सबकुछ झोंक रहे हैं तब आप महज परंपरागत चुनावी रैलियों तक ही सीमित क्यों रही?
पता नहीं आप सोशल मीडिया को कितना देखती हैं, लेकिन आपसे एक बात कहना चाहूंगा कि वहां पर अम्बेडकरवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लाखों युवा आपके लिए पागल हैं. क्या आपने इन युवाओं के लिए पार्टी में कोई जगह तलाशने की कोशिश की? जब तमाम पार्टियां युवा मोर्चा के बल पर अपनी पार्टी की जीत का आधार और भविष्य का नेता तैयार कर रही हैं, ऐसे में बहुजन समाज पार्टी में इन युवाओं के लिए जगह क्यों नहीं है? मैं इस बात से वाकिफ हूं कि तमाम युवा पार्टी में विभिन्न पदों पर सक्रिय हैं लेकिन 18 साल से 30 साल के वे युवा एक वोटर के अलावा पार्टी से खुद को कैसे जोड़े रखें और संवाद करें आपने इसकी गुंजाइश क्यों नहीं रखी. क्या युवा मोर्चा और इसी तरह के अन्य मोर्चों का सीधे तौर पर गठन करने में देर नहीं हो रही है?
क्या पता आपकी पार्टी को बहुजन बुद्धिजीवियों से क्या दिक्कत है, कोई दिखता ही नहीं है? न राज्यसभा में, न विधान परिषद में और न ही पार्टी संगठन में. न तो बतौर प्रवक्ता, न बतौर संगठनकर्ता और न ही बतौर रणनीतिकार. हालांकि मेरा यह मतलब नहीं है कि बाकी के लोग विद्वान नहीं हैं, लेकिन जिस तरह तमाम दलों ने चुनावी कार्यकर्ताओं से इतर विभिन्न क्षेत्रों मसलन मीडिया, विश्वविद्यालय, रंगकर्मी, लेखन आदि में सक्रिय लोगों को पार्टी से जोड़ कर रखा है, आप ऐसा करने में क्यों हिचकती हैं यह पार्टी से सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है. उत्तर प्रदेश की चुनावी बेला में जब आप लगातार प्रेस रिलीज जारी कर अपनी बात रख रही थीं, कई बार ऐसा हुआ कि आपकी प्रतिक्रिया तब आई जब वो मुद्दा ठंडा हो चुका था. मुख्यमंत्री रहते आपने जो काम किए थे वह बेमिसाल थे, लेकिन आपके नेता और आपकी पार्टी मजबूती से इसे भी जनता को नहीं बता पाएं. अगर आपने कुछ बुद्धिजीवियों को पार्टी से जोड़ा होता तो आपको अपनी बात कहने में जरूर मदद मिली होती.
राजनीति भाषणों का खेल है. आप काम करें ना करें, आप कितना अच्छा बोलते हैं यह राजनीति की पहली शर्त है. इस कसौटी पर बहुजन समाज पार्टी काफी पीछे दिखती है. बसपा के नेता न तो टीवी पर अपनी बात रखते दिखते हैं और न ही समाचार पत्रों में कॉलम लिखते हैं. इस पर काम करने की बहुत जरूरत है. और हां, “मीडिया हमारी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है” ऐसे तर्क अब पुराने हो चुके हैं. इसलिए ये सब कहने से अब काम नहीं चलने वाला है.
एक आखिरी बात. जब मान्यवर कांशीराम थे, एक वक्त ऐसा था जब बसपा दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में भी बढ़ती हुई दिख रही थी और अंदाजा लगाया जा रहा था कि आने वाले एक-दो दशकों में बसपा इन राज्यों में परचम लहरा सकती है. आज इन राज्यों में बसपा बढ़ना तो दूर खत्म होने के कगार पर है. और जिस उत्तर प्रदेश के लिए आपने इन सारे राज्यों को परे धकेल दिया था वह भी आपके हाथ से निकल गया है. क्या आप ईमानदारी से आत्मचिंतन करने और खुद में एवं पार्टी में बदलाव को तैयार हैं या फिर सिर्फ ईवीएम को कोस कर अपना दायित्व पूरा कर लेंगी??
सादर
अशोक दास
संपादक
(दलित दस्तक)

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
