जिस समाज में हम रहते हैं वह उत्सव प्रेमी है, ईश्वर प्रेमी है, पशु प्रेमी तो है मगर मानवता प्रेमी नहीं है. ऐसा इसलिए कि मरे हुए पशु की खाल को रोजी-रोटी का साधन बनाने वाले गुजरात के ऊना शहर में दलित युवकों की तालीबानी अंदाज में खाल उधेड़ दी गयी, जो ब्रिटिश हूकूमत की दमन की नीति को ताजा कर देती है. आज विश्व में 90 प्रतिशत चमड़ा उद्योग गोवंशीय पशुओं की खाल पर ही निर्भर है. चमड़े के उत्पादों की विश्व बाजार में बड़ी मांग है. इन उद्योंगों/फैक्टरियों में क्या गाय की खाल नहीं जाती होगी पशु प्रेमियों से यही प्रश्न है कि आपने अभी तक कितने चमड़े की फैक्टरियों को बंद कराया है?
दलित जो आजादी के 70 वर्ष बाद भी शोषण और प्रताड़नाओं, छुआछूत, हिन्दू धर्म की आंतरिक संरचना की गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पाया है. इसमें दोष किसका माना जाये धर्म का या राजनीति का? दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए मरी हुई गाय की खाल ले जाने पर गरीब दलित युवको की खाल उधेड़ दी जाती है और आटा छूने पर उत्तराखण्ड में एक ब्राह्मण शिक्षक द्धारा दलित युवक की गर्दन काट दी जाती है आखिर क्यों? हल जोतकर दिन रात पसीना बहाकर जो दलित ब्राहमण के घर में अनाज का ढेर लगाता है और खुद भूखा-प्यासा रहता है, तब वो ब्राह्मण क्यों उसकी पैदा की गयी फसल और अनाज को अपवित्र नहीं मानता? इतना ही नहीं जो शिल्पकार उनके मकानों को बनाता है तब उनके बनाये मकानों में क्यों निवास करते हैं?
वंचितों को उत्पीड़ित करने का यह नया तरीका हिन्दुस्तान के सामाजिक ताने-बाने को अवश्य ही बिगाड़ने का काम कर रहा है, जिसकी कटु से कटु शब्दों में निंदा की जानी चाहिए. गौरक्षा अच्छी पहल है शास्त्रों में गाय को माता का दर्जा दिया गया है, मगर एक दलित युवक का सरेआम हलाल किया गया तब अहिंसा के पुजारी और मानवता के पुजारी तथा सनातन धर्म के ठेकेदार चुप क्यों?
आज हकीकत मालूम हो गयी कि भारत में जानवर हत्या पाप है और दलित हत्या पुण्य है. भारत की विडंबना ही कही जायेगी कि वेदों से लेकर मनुस्मृति तक सभी धर्म ग्रंथ दलितों के खिलाफ हैं. भारतीय शास्त्र और धर्म इंसान को अछूत मानता है. जबकि संविधान सभी ग्रंथों से ऊपर है संविधान की मर्यादा को लांघकर किया गया अमानवीय कृत्य देश को विकास की ओर नहीं विनाश की ओर धकेल देगा! गौरक्षा ही क्यों प्राणी मात्र की रक्षा और सेवा करना सच्चे मानव धर्म की पहचान होनी चाहिए. धर्म और जाति के नाम पर उन्माद और गुंडा गर्दी, कानून की अवहेलना करना सब संविधान के विरूद्ध किया गया आचरण है. भारत ने मंगल ग्रह की दूरी तो नाप दी है जो गर्व की बात है मगर देश को जिन बातों पर अभिमान है उनमें जातपांत भी एक है. जातिवाद की खाई को मिटाने या कम करने में समाज और देश की राजनीति और देश का धर्म अवश्य ही विफल रहा है.
देश के प्रधानमंत्री मोदी जी जब विदेशों में भाषण देते हैं तो भारत को बुद्ध की धरती कहकर संबोधित करते है मगर अमेरिका, जापान, फ्रांस सब जानता है कि भारत प्राचीन काल में बुद्ध की भूमि अवश्य थी मगर अफसोस अब अगड़ों और पिछड़ों की युद्ध भूमि बनती जा रही है. सबका साथ सबका विकास नहीं वरन देश में अगड़ों का सम्मान और दलितों का अपमान हो रहा है जो चिंता का विषय है. गाय से मंदिर तक, नल से जल तक, स्कूल से कॉलेज तक, गांव से श्मशान तक, शिक्षक से डॉक्टर तक, चपरासी से अफसर तक बच्चे से बूढ़े तक, बेटी-बहन से मां तक हर रोज देश का वंचित समाज दलित होने का दंश झेल रहा हैं और उत्पीडन का शिकार हो रहा और अपमानित हो रहा है. दलितों के वोट तो कीमती हैं मगर उनका लहू पानी से भी सस्ता.
बागेश्वर जनपद के भेटा गांव (उत्तराखण्ड) की घटना ने देश को शर्मसार तो किया ही है लेकिन इस घटना ने एक क्रांतिकारी संदेश भी दिया है कि अब देश का दलित अपने ऊपर हो रहे जुल्म और शोषण को सहन नहीं करेगा. जिस तरह 1921 में बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था जिसमें कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू में बहा दिया गया था उसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को उत्तराखण्ड के शिल्पकार समाज ने जिसकी अगुवाई शिक्षक संगठन ने की, ब्राह्मणवाद के प्रतीक टीका चंदन को त्यागने का संकल्प लिया और मनुवाद से आजादी, ब्राह्मणवाद से आजादी के नारे लगाये और डा. अम्बेडकर के नीले रंग को धारण करने की भीम प्रतिज्ञा की. संगठित होकर पूरे उत्तराखण्ड के दलित समुदाय विरोध प्रदर्शिन करने सड़कों पर उतर आया और डॉ. अम्बेडकर के शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो के मार्ग पर चलने लगा है जिसके दूरगामी परिणाम अवश्य ही दिखाई देंगे.
लेखक प्रवक्ता (भौतिक विज्ञान) हैं. अल्मोडा़ (उत्तराखण्ड) में रहते हैं. संपर्क- iphuman88@gmail.com

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