आम्बेडकरवाद को आप दलित मुक्ति के दर्शन के रूप में देखते हैं तथा दलित जातियों को आम्बेडकरवाद का हिमायती मानते हैं, तो आप को यह देखना भी जरूरी है कि क्या दलित जतियाँ आम्बेडकरवादी चिंतकों और क्रांतिकारियों का अनुसरण करती हैं। आज हर गाँव स्वार्थ में विभक्त है। सभी गाँवों में कई खेमे हैं। सवर्ण जातियाँ अपने वर्चस्व के मसले पर अनेक विभिन्नताओं के उपरांत भी एकमत हैं लेकिन दलित जातियाँ वर्चस्व कौन कहे, अपने मुक्ति के सवाल पर भी एकमत नहीं हैं और न एक ही हैं। सब के छोटे-छोटे स्वार्थ हैं। सभी के नाली, घूर व रास्ते के झगड़े हैं। इन झगड़ों के चलते दलितों में बहुत कटु मनमुटाव है। यहाँ तक कि दलित जातियों के लोग एक-दूसरे से किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। दलित जातियों के मध्य आपस में बहुत बड़ी ईर्ष्या कार्य करती रहती है। कोई भी दलित अपनी जातियों में किसी से छोटा नहीं बनना चाहता है। दलित जातियाँ किसी के सामने विनम्र रहकर अगले की बात स्वीकार कर लेना तौहीन समझते हैं।
दलित एक दूसरे को देखकर तने रहते हैं। दलितों में एक अजीब सी अकड़ रहती है। दलित हमेशा ताना मारते रहते हैं। दलित अपने पड़ोसी को हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। जब दलित सामान्य रहन-सहन में एक नहीं हैं, तो आम्बेडकर साहब के उद्देश्य और बातों-विचारों पर एक कैसे रहेंगे। ‘जय भीम’ कह लेना एक बात है लेकिन ‘जय भीम’ के अर्थ को ग्रहण करना दूसरी बात है। सामान्य दलित इस परिवर्तन में वैसा विश्वास नहीं रखता है जैसा एक सुविचारित आम्बेडकरवादी करता है। सामान्य दलित अपने गाँव के आम्बेडकरवादी चिंतक, विचारक और क्रांतिकारी के ऊपर बिल्कुल विश्वास नहीं करता है और न ही उसका साथ देता है। एक तरह से गाँव का सामान्य दलित अपने पढ़े-लिखे नौकरी वाले वर्ग से चिढ़ता है। सामान्य दलित क्रांतिकारी दलित की टाँग खींचता है। कई बार कई जगहों पर यह भी देखा जाता है कि गाँव-समाज का दलित अपने पढ़े-लिखे व नौकरी वाले दलित को कौड़ी भर भी इज्जत नहीं करता है और किसी भी तरह उसकी बात भी सुनना पसंद नहीं करता है बल्कि उसे देखकर जलता है।
ऐसी स्थिति में आम्बेडकरवादी दलित क्या कर सकता है? किसके बल पर क्रांतिकारी आम्बेडकरवादी दलित वर्चस्ववादियों और जातिवादी गुंडों से पंगा लेगा, कैसे ब्राह्मणवाद खत्म करेगा, कैसे कोई हत्या-बलात्कार के विरुद्ध दलितों को न्याय दिलाने के लिए नेतृत्व का साहस करेगा? किसी भी गाँव में आम्बेडकरवाद के नाम पर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध चार दलित भी वैचारिक रूप से एकमत नहीं हैं, तो ईमानदारी, चरित्र और नैतिक रूप से वर्चस्ववादी सवर्णों के दर्शन ब्राह्मणवाद के उन्मूलन व जातिवादी अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए कितने दलित एकमत होंगे? दलितों को अपने एकता की हैसियत और जनता की ईर्ष्यालु अभिमत को समझना होगा।
दूसरी तरफ, बुद्धिजीवियों के अहमी अलगाववाद से हम सभी परिचित हैं। क्या बुद्धिजीवी दलित एक झंडे के नीचे अपने टकराव को छोड़कर आम्बेडकरवाद की एक सरल वैचारिकता के लिए एकमत हो सकते हैं? दलित साहित्य, आम्बेडकर साहित्य, आजीवक साहित्य, बहुजन साहित्य, मूलनिवासी साहित्य व अवर्णवादी साहित्य में दलितों का साहित्य बँटा हुआ है। दलितों के साहित्य के विभिन्न स्तरों पर बँटने का अर्थ हमारे अंदर एक भारी विखराव का होना है।
दलित राजनीतिक पार्टियाँ सिर्फ वोट लेने के लिए दलित जातियों को एकत्र करती हैं लेकिन इन पार्टियों का वास्तविक चरित्र तो गाँव से बनता है और गाँव जबरदस्त अलगाव और ईर्ष्या में जीवित है। दलित राजनीतिक पार्टियां संसदीय लोकतंत्र और संविधान का मोह छोड़कर भला जातिप्रथा व ब्राह्मणवाद उन्मूलन के लिए अपना जनाधार क्यों खराब करने लगीं। फिर, राजनीतिक स्तर पर भी अनेक पार्टियाँ इन्हीं दलितों को गुमराह करके अपनी-अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में पड़े रहते हैं। क्या कीजिएगा।
आखिर दलित जतियाँ सवर्ण जातियों के वर्चस्व, छुआछूत, ऊँचनीच की भावना की परिधि से कैसे मुक्त होंगे? आज भी गाँव की स्थिति यह है कि कोई भी दलित किसी भी सवर्ण को उसके अभद्र व्यवहार के उपरांत भी आँख नहीं दिखा सकता है जबकि सवर्ण जब चाहे किसी भी पढ़े-लिखे व नौकरी वाले दलित को अनायास भी आँखे दिखाना कौन कहे, पीट भी सकता है। तत्काल किसी भी प्रतिक्रिया की कोई संभावना नहीं है और जिन स्थानों पर विद्रोही प्रतिक्रियाएँ होती हैं, वहाँ हत्याएँ अपना जघन्य रूप ग्रहण कर लेती हैं।
सोचिए कि द्वन्द्व कहाँ है? सोचिए कि वैमनस्य कैसे खत्म हो सकता है? सोचिए कि सामान्य दलित आम्बेडकरवादी शिक्षित दलितों पर विश्वास कैसे करें और क्यों करें? इन अनेक सच्चाइयों को समझते हुए और गाँव वालों के नफ़रत को बर्दाश्त करते हुए जो साथी लगातार दलितों में वैचारिक विकास, उनके विकास और आम्बेडकरवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन पर विश्वास करते हुए उनके बीच कार्य कर रहे हैं, वे यकीकन बहुत महान हैं। मैं उनकी साहस, कर्तव्य और महानता के लिए नतमस्तक हूँ।
लेखक- आर. डी. आनंद

आर.डी.आनंद जाने माने साहित्यकार-लेखक हैं। आंबेडकरवाद, मार्क्सवाद और प्रगतिशीलता के पक्षधर हैं। उनकी अब तक तीन दर्जन कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं।
