झारखंड मॉब लिंचिंग: दो महीने पहले हुई थी मृतक की शादी

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तबरेज की पत्नी शाइस्ता परवीन

सराईकेला मॉब लिंचिंग मामले में मृतक शम्स तबरेज की दो महीने पहले ही शादी हुई थी. 27 अप्रैल को उसका निकाह हुआ था. परिवारवालों के मुताबिक निकाह के लिए ही तबरेज पुणे से गांव आया था. निकाह के बाद ईद पर्व मनाने के लिए वह गांव में रुक गया था.

तबरेज के सिर से माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था. आठ साल की उम्र में मां दुनिया छोड़कर चली गई. बारह साल होते-होते पिता चल बसे. तबरेज और उसकी इकलौती बहन का पालन-पोषण चाचा के घर हुआ. दो साल पहले बहन की शादी हुई. बहन की शादी के बाद तबरेज पुणे काम करने चला गया. वहां वह वेल्डिंग का काम करता था.

घटना के बाद पत्नी शाइस्ता परवीन का रो-रो कर बुरा हाल है. किसी तरह खुद को संभालते हुए शाइस्ता ने न्यूज-18 से बात की. शाइस्ता ने कहा कि उसे हर हाल में इंसाफ चाहिए. पिटाई करने वालों को कड़ी-कड़ी से सजा मिलनी चाहिए. उन्‍होंने मुआवजे की भी मांग की है.

मृतक के चाचा मशरूम आलम का कहना है कि उन्हें कानून और संविधान पर पूरा भरोसा है. परिवार को न्याय मिले, इस दिशा में प्रशासन और सरकार को हर संभव कोशिश करनी चाहिए.

बता दें कि 17 जून की रात को मृतक तबरेज जमशेदपुर स्थित अपने फुआ के घर से अपने गांव कदमडीहा लौट रहा था. इसी दौरान धातकीडीह गांव में ग्रामीणों ने मोटरसाइकिल चोरी के आरोप में उसे पकड़ लिया और बांधकर रात भर पीटा. 18 जून की सुबह उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया. पुलिस ने पहले उसका इलाज सदर अस्पताल में कराया, फिर शाम को जेल भेज दिया.

22 जून की सुबह तबरेज को जेल से गंभीर हालत में सदर अस्पताल लाया गया, जहां उसकी मौत हो गयी. हालांकि मृतक के परिजनों के द्वारा उसके जिंदा होने का दावा कर उसे रेफर करने की मांग की गयी. अस्पताल प्रशासन ने उसे जमशेदपुर के टीएमएच अस्पताल रेफर कर दिया. वहां भी डॉक्टरों ने उसे मृत करार दिया. वापस सरायकेला लाकर शव का पोस्टमार्टम कराया गया.

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संसद में बोले आजम खान- तीन तलाक निजी मामला

नई दिल्ली। संसद में सोमवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए समाजवादी पार्टी के सांसद आजम खान ने भी अपना मत व्यक्त किया. उन्होंने तीन तलाक बिल पर चर्चा करते हुए कहा कि तीन तलाक कुरान और शरियत का आंतरिक मामला है. कुरान में हस्तक्षेप करने का अधिकार किसी को नहीं है.

आजम खान ने कहा कि इसका किसी के स्वाभिमान या कानून से कोई मतलब नहीं है. तीन तलाक पर आजम ने कहा कि यह हमारा निजी मामला है और इस पर कुरान के अलावा कोई बात कुबूल नहीं की जाएगी. महिलाओं के जो हमदर्द बनते हैं वह हिन्दू महिलाओं की दिक्कतों के बारे में भी बताएं. देश खुद को शादी, निकाह, मंडप से अलग न कर ले.

आजम खान ने कहा कि देश की पहाड़ियों में हमारी लाशें दफ्न हैं. उन्होंने कहा कि 1942 में हिन्दू मुस्लिम जब एक बर्तन में खाना खा रहे थे तभी अंग्रेजों को लग गया था कि अब यहां रहना मुमकिन नहीं है. आजम खान ने कहा कि आज देश बहुत कमजोर हो रहा है, मैं किसी को कलमा पढ़ने के लिए मजबूर नहीं कर सकता, लेकिन अगर मैं न कहूं तो आप जबदस्ती नहीं कर सकते और कर सकते हैं तो कहिए.

संविधान से चलेगा देश

आजम खान ने कहा कि संविधान से देश चलेगा, अगर संविधान हमसे कहेगा तो मैं जरूर कहूंगा और संविधान को न मानने वाले लोग देश के साथ अच्छा नहीं करेंगे. आजम खान ने कहा कि मोदी सरकार पर बहुत बोझ है जो कहा जाए वो किया जाए. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को मेरी भैंस की फिक्र रही लेकिन मेरी नहीं. आजम ने कहा कि सरकार के पैसे से बना दरवाजा गिरा दिया जाएगा, बच्चों को पढ़ाई से रोका जाएगा.

आजम खान ने कहा कि इस मुल्क की दूसरी बड़ी आबादी के साथ जैसा रवैया है वह काफी दुखद है. उन्होंने कहा कि मैं एक यूनिवरर्सिटी का संस्थापक हूं और वह यूनिवर्सिटी ऐसी है कि राष्ट्रपति भवन भी फीका नजर आए. आजम ने कहा कि वहां गरीबों के लिए विशेष और निशुल्क पढ़ाई दी जा रही है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस से हमारी खूब नाराजगी है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि विकास सिर्फ इन्हीं 5 सालों में हुआ है.

आजम खान ने कहा कि किसी पर कटाक्ष करना बहुत आसान है लेकिन अगर मैंने अपने पूरे राजनीतिक करियर में सुई के बराबर में बेईमानी की हो तो मैं अभी इस सदन को छोड़ने के लिए तैयार हूं. आजम खान ने कहा कि अगर बेईमान होता तो देश की सबसे बड़ी अदालत में आज खड़ा नहीं होता. उन्होंने कहा कि मेरे पास पाकिस्तान जाने का हक था लेकिन हमने यही रहना मुनासिब समझा और आज हम गद्दार हो गए. आजम ने कहा कि जो वंदे मातरम नहीं कहेगा उसे भारत में रहने का हक नहीं, ऐसी बात सदन में कही गई लेकिन मैं बात दूं कि बात वंदे मातरम की नहीं है.

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SP-BSP गठबंधन टूटना BJP की साजिश: सांसद शफीक उर रहमान

समाजवादी पार्टी से बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन तोड़ने का ऐलान किया है. बीएसपी प्रमुख मायावती ने कहा कि पार्टी के हित में अब बीएसपी आगे होने वाले सभी छोटे-बड़े चुनाव अकेले अपने बूते पर ही लड़ेगी. वहीं गठबंधन टूटने को लेकर सांसद शफीक उर रहमान ने इसे भारतीय जनता पार्टी की साजिश करार दिया है.

समाजवादी पार्टी के सांसद शफीक उर रहमान बर्क ने गठबंधन टूटने पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जब हार हो जाती है तो बहुत सी चीजें हो जाती हैं. आपस का तालमेल टूट जाता है. उन्होंने उम्मीद जताई कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का तालमेल नहीं टूटेगा. शफीक उर रहमान ने कहा कि बसपा सुप्रीमो अगर अकेले चुनाव लडेंगी तो कोई फायदा नहीं होगा. भारतीय जनता पार्टी कोशिश कर रही है कि सपा-बसपा गठजोड़ टूट जाए.

वहीं बीजेपी नेता विनय सहस्त्रबुद्धे ने एसपी बीएसपी के गठजोड़ का टूटना अप्राकृतिक बताया. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के बीच में गठजोड़ टूटने पर बीजेपी के राज्यसभा सांसद विनय सहस्त्रबुद्धे ने कहा कि हमारी पार्टी ने बहुत पहले ही कहा था कि 23 मई के बाद यह गठबंधन नहीं रहेगा. उन्होंने कहा हम कोई राजनीतिक भविष्यवाणी करने वाली पार्टी में नहीं है लेकिन हमारी पार्टी ने यकीनन बहुत पहले से ही कहा था कि 23 मई के बाद यह गठबंधन नहीं रहेगा. जो भी अप्राकृतिक है, बना बनाया है, वह इस देश की राजनीति में टिकने वाला नहीं है. जाति की राजनीति के दिन बीत चुके हैं. सबका साथ सबका विकास का मंत्र अपनाया जाए, इसी में देश का भला है.

आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह का इस गठबंधन को लेकर कहना है कि अब मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही है. बीएसपी और एसपी के बीच गठजोड़ टूटने की खबरों पर प्रतिक्रिया देते हुए संजय सिंह ने कहा कि आज देश में विश्वास का सवाल है. अगर उन्होंने कांग्रेस को भी साथ में लिया होता तो अविश्वास नहीं होता. एसी-बीएसपी दोनों पार्टियों का आपस में अविश्वास है. अब आगे जो लड़ाई होगी वह कांग्रेसी और बीजेपी के बीच होने वाली है.

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लोक सेवाओं में लैटरल एंट्री को लेकर सरकार की नीयत पर उठते सवाल

केंद्र सरकार द्वारा संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक स्तर के पदों पर चरणबद्ध तरीके से भारी संख्या में निजी क्षेत्र के व्यक्तियों को रखने और इस नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों को किसी तरह का आरक्षण नहीं देने के निर्णय के बाद इन वर्गों में भारी रोष व्याप्त है. डीओपीटी द्वारा विस्तृत दिशानिर्देश के साथ जारी अधिसूचना के अनुसार लैटरल एंट्री के लिए आवेदक के पास सामान्य स्नातक स्तर की शिक्षा के साथ किसी सरकारी या पब्लिक सेक्टर यूनिट या यूनिवर्सिटी के अलावा किसी निजी कंपनी में 15 साल का कार्य अनुभव होना चाहिए. लेकिन इसमें आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है. सरकारी सेवा में कार्यरत एससी, एसटी, ओबीसी के अधिकारियों की मानें तो सरकार का यह फैसला न सिर्फ अन्यायपूर्ण, मनमाना बल्कि संविधान के भी विरुद्ध है, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियो में आरक्षण की स्पष्ट व्यवस्था की गई है.

वहीं सरकार इन पदों को एकल पद और एक व्यक्ति तथा सरकार के मध्य करार बताकर आरक्षण के दायरे से बाहर बता रही है. यह बात और है कि स्वयं डीओपीटी के अपने नियम के अनुसार कोई भी सरकारी नौकरी सिर्फ तभी आरक्षण नीति के दायरे से बाहर हो सकती है यदि वह 45 दिनों से कम के लिए हो, जबकि यह नियुक्तियां 3 से 5 साल की अवधि के लिए हैं. ऐसे में कुछ सवाल हैं जो मन में उभरते हैं. इसमें सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में सरकार को निजी क्षेत्र से लोगों को लेने की क्या जरूरत है? दूसरा, नौकरशाही नाकाम हुई है या उसे नाकाम किया गया है? तीसरा, एससी, एसटी, ओबीसी के अवसरों को छीनने की साजिश तो नहीं है लैटरल एंट्री सिस्टम? चैथा प्रश्न, सरकार को यदि आरक्षण से इतनी ही दिक्कत है तो वह इसे समाप्त ही क्यों नहीं कर देती? और सबसे आखिरी लेकिन बेहद महत्वपूर्ण सवाल कि सरकार ने इस तरह से निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को नौकरियों पर रखने से जुड़े समस्यात्मक पक्षों पर विचार किया है या नहीं?

सरकार को क्यों चाहिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ

सरकार को लोक सेवा के लिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ किस उद्देश्य से चाहिए यह बड़ा प्रश्न है. जिन पदों के लिए सरकार निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों को ला रही है वह सीधे-सीधे नीति निर्माण से जुड़े हैं, ऐसे में जो सरकारी अधिकारी लाइन, स्टाफ और सहायक तीनों एजेंसियों में काम कर संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक के पदों पर पहुंचते हैं उनका व्यावहारिक अनुभव और समझ किसी भी रूप में निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों से कम नहीं है, फिर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लाने से सरकार को क्या हासिल होने वाला है? गौरतलब है कि एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज, हैदराबाद में लोक और निजी क्षेत्र दोनों के ही उच्च अधिकारियों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जाता है. साथ ही सरकार समय-समय पर अपने अधिकारियों को रिफ्रेशर कोर्स और नवाचार सीखने के लिए विदेशों में भी प्रशिक्षण व अध्ययन हेतु भेजती है. फिर लोक सेवकों पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को वरीयता देने का आधार क्या है? हालांकि सरकार की इस नयी घोषणा में सिर्फ निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लेने की बात नहीं की गई है लेकिन सरकार के इस फैसले से निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की बहाली का रास्ता साफ हो चुका है. जिसे लेकर सबसे अधिक आपत्ति जताई जा रही है और जो बेबुनियाद भी नहीं है.

नौकरशाही नाकाम हुई है या उसे नाकाम बना दिया गया है

सरकार लोक सेवा के उच्च पदों पर बाहरी लोगों को इस तर्क के आधार पर भी रख रही है कि नौकरशाही का प्रदर्शन समय की बदलती जरूरतों व सरकार तथा लोक अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा है. लेकिन जैसा कि विदित है लोकसेवा सदैव राजनीतिक परिवेश में कार्य करती है. ऐसे में लोक सेवकों की विफलता की जिम्मेदारी राजनीतिक नेतृत्व को भी लेनी होगी. ऐसे एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों नीतिगत फैसले हैं जो नौकरशाही पर दबाव डालकर क्रियान्वित कराए गए हैं और जब उनके अपेक्षित परिणाम नहीं निकले तब उनकी नाकामी का ठीकरा नौकरशाही के सर पर फोड़ दिया गया है. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण नोटबंदी का फैसला है जो सरकार ने सभी विशेषज्ञों यहाँ तक कि आरबीआई गवर्नर की राय को भी नजरअंदाज कर लिया. जिससे हुई अफरा-तफरी और आर्थिक तबाही को हम सभी ने देखा. इसी तरह अभी हाल ही में दिल्ली मेट्रो समेत दिल्ली में तमाम सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को महिलाओं के लिए निःशुल्क करने का फैसला भी विशुद्ध राजनीतिक लाभ-हानि का आकलन करते हुए लिया गया है न कि इसके वित्तीय व अन्य व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रखकर. इसके बावजूद योजना नाकाम हुई या क्रियान्वयन संबंधी समस्याएं आयीं तो बलि का बकरा बनने के लिए नौकरशाह तो हैं हीं. हालांकि ऐसा नहीं है कि नौकरशाही हमेशा सही ही होती है हो लेकिन प्रायः यह नौकरशाही से अधिक राजनीतिक नेतृत्व की विफलता होती है कि उसे नौकरशाही से सही तरीके से काम लेना नहीं आता. इसके पीछे एक बड़ी वजह राजनीतिक सत्ता का एक व्यक्ति में केंद्रित हो जाना और गैर अनुभवी बल्कि अधिक साफगोई से कहे तो अयोग्य लोगों को मंत्री पद पर नियुक्त करना है. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि एक सरकार के समय में बेहतर काम करने वाले नौकरशाह अचानक दूसरी सरकार के आने पर इतने अयोग्य हो जाते हैं कि सरकार को बाहर से विशेषज्ञों की भर्ती करनी पड़ती है.

एससी, एसटी, ओबीसी के अवसरों को छीनने की साजिश तो नहीं है लैटरल एंट्री सिस्टम

सरकार जिन पदों पर निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को बहाल करने जा रही है उन पदों पर एससी, एसटी, ओबीसी का आरक्षण शून्य हो जाएगा और अघोषित तौर पर यह सारे पद सामान्य श्रेणी के लिए आरक्षित हो जाएंगे. ऐसे में एससी, एसटी, ओबीसी के वे अधिकारी जो नीचे से पदोन्नत होकर इन पदों पर पहुंचते उनकी संख्या (जो अभी ही बेहद कम है) लगभग नगण्य रह जाएगी. यह एक तरह से इन वर्गों के अधिकारियों के हिस्से को हड़पने जैसा कार्य है. यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण को सही ठहराया है, जिसके बाद सरकार को आरक्षित वर्गों के अधिकारियों को पदोन्नति में आरक्षण देते हुए शीर्ष पदों पर इन वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना चाहिए. लेकिन यहां उलटे सरकार तो एससी, एसटी, ओबीसी को अब तक प्राप्त अवसरों को भी छीनने में लग गई है. सरकार के इस फैसले के बाद निःसंदेह नीति निर्माण से जुड़े इन महत्वपूर्ण पदों पर आरक्षित श्रेणी के अधिकारियों की पहुंच समाप्त हो जाएगी और वहां सामाजिक विविधता की बजाय एक खास वर्ग लोगों का ही वर्चस्व स्थापित हो जाएगा.

सरकार सीधे सीधे आरक्षण खत्म क्यों नहीं कर देती

केंद्र सरकार द्वारा तमाम हथकंडे अपनाकर कभी विनिवेश तो कभी लेटरल एंट्री जैसे प्रावधानों के माध्यम से आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने और उसे सीमित करने के अनवरत जारी प्रयासों को देखकर किसी भी व्यक्ति के मन में यह विचार स्वभाविक रूप से उभरता है कि सरकार घुमा फिरा कर काम करने की बजाय सीधे सीधे आरक्षण को समाप्त क्यों नहीं कर देती. इस सवाल का कोई एक जवाब नहीं है. सरकार द्वारा ऐसा नहीं करने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार हैं. सबसे पहली वजह तो यह है कि सरकार के लिए आरक्षण को निष्प्रभावी बनाना आसान है बनिस्पत उसे समाप्त करने के. सरकार विज्ञापन में आरक्षण की व्यवस्था कर आरक्षित सीटों को रिक्त छोड़ दे तो अधिक समस्या नहीं होगी लेकिन यदि वह विज्ञापन में आरक्षण ही नहीं दे तो आरक्षित वर्गों के सदस्य सड़कों पर उतर जाएंगे, क्योंकि यहां उन्हें अपना अधिकार स्पष्ट रूप से खतरे में नजर आएगा. दूसरी वजह यह है कि सरकार के लिए अपने फैसले को अदालत में सही ठहराने में समस्या आ सकती है. जिस उद्देश्य से नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी वह अभी तक पूरा नहीं हुआ है. अभी भी शासन-प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर एससी, एसटी, ओबीसी के सदस्यों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी की तुलना में बेहद कम है. ऐसी स्थिति में सरकार आरक्षण समाप्त करने के लिए शायद ही कोई ठोस आधार बता सकती है. लेकिन इन सबसे बढ़कर एक अन्य वजह भी है जो आमतौर पर लोगों के सामने नहीं आती. असल में मौजूदा सरकार हो या पूर्वर्ती सरकारें भारत में अब तक शायद ही कोई सरकार एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के हितों को लेकर ईमानदार रही है. यह सभी सरकारें आरक्षण को दिखावे के लिए ही सही बनाए रखना चाहती हैं ताकि आरक्षित वर्गों के सदस्य लगातार समाप्ति की तरफ अग्रसर सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा के मायाजाल से बाहर नहीं निकल सके. सरकार उन्हें उस तरफ उलझाए रखना चाहती है जिधर उनके लिए अवसर निरंतर सीमित होते जा रहे हैं.

निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को लोक प्रशासन के शीर्ष पदों पर बैठाने के हैं अपने खतरे

एक समय था जब हम नव लोक प्रशासन की अवधारणा में विश्वास करते थे और मानते थे कि लोक प्रशासन को प्रासंगिक, मूल्योन्मुख, परिवर्तनकारी तथा सामाजिक समानता का पोषक होना चाहिए. फिर हमने नव लोक प्रबंधन की अवधारणा को अपनाया और दक्षता प्रभाविता तथा कार्य कुशलता के लिए बाजार को वरीयता देते हुए कम सरकार की वकालत की और माना कि सरकार या प्रशासन की भूमिका मुख्य रूप से नियामकीय हो जो लोक तथा निजी प्रशासन दोनों को लेवल प्लेइंग फील्ड उपलब्ध कराए. आज हम नव लोक प्रबंधन से भी आगे की अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं जहां निजी क्षेत्र के लोग ही निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के लिए नीति निर्माण व समान अवसर की उपलब्धता सुनिश्चित कराने के कार्य को करेंगे. यह राज्य के पश्चबेलन की अवस्था से बढ़कर राज्य द्वारा बाजार की शक्तियों के हक में अपनी नीति निर्माण से जुड़ी जिम्मेदारियों को निजी क्षेत्र के साथ साझा करना है. ऐसा करते समय सरकार समाज के सबसे वंचित वर्गों के अधिकारों पर तो प्रहार कर ही रही है साथ ही हितों के टकराव से जुड़े एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष को भी नजरअंदाज कर रही है जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. सरकार निजी क्षेत्र के जिन विशेषज्ञों को नीति निर्माण से जुड़े उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठाने जा रही है उनकी अपने औद्योगिक प्रतिष्ठानों के साथ संबद्धता को देखते हुए इस बात की संभावना हमेशा बनी रहेगी कि वह अपने अपने प्रतिष्ठानों को गलत तरीके से लाभ पहुंचाने का प्रयास करें. क्योंकि शासन के उच्च पदों पर कार्य करते हुए निजी क्षेत्र के यह विशेषज्ञ न सिर्फ सभी गोपनीय दस्तावेजों तक पहुंच प्राप्त कर सकते हैं बल्कि अपने अपने औद्योगिक प्रतिष्ठानों के हित में नीति निर्माण और नीतिगत बदलाव की पहल भी कर सकते हैं.

इतना ही नहीं इससे सत्ताधारी दल को डोनेशन या अन्य तरीके से लाभ पहुंचाकर अलग-अलग औद्योगिक घराने अपने अधिक से अधिक लोगों को इन पदों पर बैठाने की कोशिश कर सकते हैं जो एक तरह से श्पदों की बिक्री प्रणालीश् की पुनर्स्थापना के जैसा कदम हो सकता है. यहां यह बात विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है कि केंद्र सरकार पिछले दरवाजे से प्रवेश (लैटरल एंट्री) के जरिए जिन मंत्रालय या विभागों में संयुक्त सचिव, उप सचिव तथा निदेशक स्तर के पद निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों से भरने जा रही है उनमें राजस्व, वित्तीय सेवा, आर्थिक मामले, किसान कल्याण, सड़क परिवहन और हाईवे के साथ-साथ जहाजरानी और पर्यावरण जैसे बेहद संवेदनशील मंत्रालय व विभाग शामिल हैं. ऐसी स्थिति में जबकि अनेक निजी कंपनियां बैंकों का हजारों करोड़ का कर्ज दबाए बैठी हैं, अनेक उद्योगपति बैंकों का अरबों खरबों लेकर विदेश भाग चुके हैं, अनेक औद्योगिक घरानों पर गलत तरीके से किसानों की जमीन हड़पने के आरोप लग रहे हैं तथा अनेक कंपनियां अपने प्लांट लगाने और खनन हेतु पहाड़ से लेकर जंगल तक को नष्ट करने पर तुली हुई हैं यह सोचकर भी डर लगता है कि वैसी कंपनियों के अधिकारियों को अब यह भी तय करने का काम मिलने वाला है कि क्या सही है और क्या गलत. क्या होना चाहिए और क्या नहीं. यह कल्पना से भी परे खतरनाक स्थिति होने वाली है. लिहाजा कोई भी गंभीर व्यक्ति जिसे सविधान, राज व्यवस्था तथा प्रशासन का थोड़ा सा भी ज्ञान और अनुभव है इस व्यवस्था की वकालत करने से पूर्व इससे जुड़े इन समस्यात्मक पहलुओं पर विचार जरूर करेगा.

उपसंहार

भारत में लोक सेवाओं में पिछले दरवाजे से नियुक्ति एक बेहद संवेदनशील मसला है. ’टैलेंटेड और मोटिवेटेड’ भारतीयों को लोक सेवा से जोड़ने के नाम पर की जा रही इस कवायद के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों व परिणामों पर सम्यक विचार कर ठोस तर्क के साथ ही इस तरह का कोई निर्णय लिया जाना चाहिए. अभी सरकार इस निर्णय के पीछे जो तर्क दे रही है वह बड़ी संख्या में आम लोगों, विशेषकर एससी, एसटी, ओबीसी समुदाय के लोगों व अधिकारियों के गले नहीं उतर रहा है. इससे न सिर्फ एससी, एसटी और ओबीसी के अधिकारियों के संविधान प्रदत अधिकारों का अतिक्रमण होता है बल्कि शासन की नैतिकता, सच्चरित्रता और साख के भी खतरे में पड़ने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है. अनेक लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जो सरकार यह कदम उठा रही है उसे जनता ने चुना है लेकिन यदि सब कुछ चुनावी नतीजों से ही तय किया जा सकता तो फिर संविधान, अदालत, मीडिया, नागरिक समाज और लोकमत आदि की तो जरूरत ही समाप्त हो जानी चाहिए. कुल मिलाकर यह फैसला बेहद गंभीर खामियों से युक्त है जिसे स्वीकार करने का अर्थ भारतीय संविधान, लोकतंत्र व न्याय की मूल भावना के विरुद्ध जाना होगा जिसके दूरगामी परिणाम अत्यंत घातक होंगे.

लेखकः मनीष चन्द्रा

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7 महीने में RBI को दूसरा झटका, डिप्‍टी गवर्नर विरल आचार्य ने दिया इस्‍तीफा

नई दिल्ली। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को एक बड़ा झटका लगा है. दरअसल, केंद्रीय बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया है. यह करीब 7 महीने के भीतर दूसरी बार है जब आरबीआई के किसी उच्‍च अधिकारी ने कार्यकाल पूरा होने से पहले ही अपने पद को छोड़ दिया है. इससे पहले आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने दिसंबर में निजी कारण बताते हुए अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया था.

कार्यकाल के 6 महीने पहले इस्‍तीफा

अहम बात यह है कि डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कार्यकाल पूरा होने के करीब छह महीने पहले ही अपने पद को छोड़ दिया है. विरल आचार्य आरबीआई के उन बड़े अधिकारियों में शामिल थे जिन्‍हें उर्जित पटेल की टीम का हिस्‍सा माना जाता था. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक विरल आचार्य अब न्‍यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के सेटर्न स्‍कूल ऑफ बिजनेस में बतौर प्रोफेसर ज्‍वाइन करेंगे. बता दें कि आचार्य ने तीन साल के लिए आरबीआई के बतौर डिप्‍टी गवर्नर 23 जनवरी 2017 को ज्‍वाइन किया था. इस हिसाब से वह करीब 30 महीने केंद्रीय बैंक के लिए अपने पद पर कार्यरत रहे.

नए गवर्नर के फैसलों से सहमत नहीं!

बीते कुछ महीनों से डिप्‍टी गवर्नर विरल आचार्य आरबीआई के नए गवर्नर शक्‍तिकांत दास के फैसलों से अलग विचार रख रहे थे. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछली दो मॉनीटरिंग पॉलिसी की बैठक में महंगाई दर और ग्रोथ रेट के मुद्दों पर विरल आचार्य के विचार अलग थे. रिपोर्ट की मानें तो हाल ही की मॉनीटरिंग पॉलिसी बैठक के दौरान राजकोषीय घाटे को लेकर भी विरल आचार्य ने गवर्नर शक्‍तिकांत दास के विचारों पर सहमति नहीं जताई थी.

दिसंबर से उर्जित पटेल ने दिया था इस्‍तीफा

इससे पहले दिसंबर 2018 में उर्जित पटेल ने बतौर आरबीआई गवर्नर कार्यकाल पूरा होने से पहले अपने पद से इस्‍तीफा दे दिया था. उर्जित पटेल ने अपने बयान में बताया कि वो निजी कारणों से इस्तीफा दे रहे हैं. उर्जित पटेल के इस्‍तीफे के बाद शक्‍तिकांत दास को आरबीआई का गवर्नर नियुक्‍त किया गया.

सरकार के पहले कार्यकाल में तीसरा बड़ा इस्‍तीफा

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में भारतीय इकोनॉमी के लिहाज से उर्जित पटेल का तीसरा बड़ा इस्तीफा था. इससे पहले अरविंद सुब्रमण्यम ने जुलाई 2018 में व्यक्तिगत कारणों से मुख्य आर्थिक सलाहकार पद से इस्तीफा दे दिया था. वहीं अगस्‍त 2017 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष रहे अरविंद पनगढ़िया ने पद छोड़ दिया.

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मायावती की ऐसी 6 बातें सुनकर अखिलेश यादव क्या सोच रहे होंगे

नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव से पहले जब सपा और बीएसपी के गठबंधन का ऐलान हो रहा था तो उस दिन मायावती और अखिलेश यादव के हावभाव को देखकर ऐसा लग रहा था कि अब यह दोनों पार्टियां मिलकर लंबे समय तक राजनीति करेंगी. अंकगणित भी उनके पक्ष में था और गोरखपुर-फूलपुर-कैराना के उपचुनाव में मिली जीत से उत्साह चरम पर था. लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों ही नेता जमीनी हकीकत को भांप नहीं पाए और करारी हार का सामना करना पड़ गया. इस हार के साथ ही गठबंधन भी बिखर गया है. सपा को जहां 5 सीटें मिली हैं वहीं बीएसपी को 10 सीटें. एक तरह से देखा जाए तो बीएसपी को ज्यादा फायदा हुआ है क्योंकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली थी. दूसरी ओर सारे समीकरणों को ध्वस्त करते हुए बीजेपी 62 सीटें कामयाब हो गई. इस हार के साथ ही बीएसपी सुप्रीमो मायावती सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को निशाने पर ले लिया और कहा कि सपा अपने कोर वोट यादवों का भी समर्थन नहीं पा सकी और यही वजह है कि उनकी पत्नी चुनाव हार गईं. इतना ही नहीं मायावती ने उत्तर प्रदेश की 11 सीटों पर होने वाले विधानसभा उप चुनाव में भी अकेले लड़ने का ऐलान कर डाला. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अखिलेश यादव से उनके रिश्ते पर व्यक्तिगत तौर पर अच्छे हैं. वहीं दूसरी ओर अखिलेश यादव अभी तक पूरी तरह से सधे और रक्षात्मक बयान दे रहे हैं. लेकिन रविवार को हुई बीएसपी की एक अहम बैठक में मायावती ने रही-सही कसर भी पूरी कर डाली और उन्होंने अपने बयान से जाहिर कर दिया कि उनकी नजर में अब अखिलेश यादव की कोई अहमियत नहीं है.

बीएसपी सुप्रीमो मायावती के 6 हमले

  1. गठबंधन के चुनाव हारने के बाद अखिलेश ने मुझे फोन नहीं किया. सतीश मिश्रा ने उनसे कहा कि वे मुझे फोन कर लें, लेकिन फिर भी उन्होंने फोन नहीं किया. मैंने बड़े होने का फर्ज निभाया और काउंटिग के दिन 23 तारीख को उन्हें फोन कर उनके परिवार के हारने पर अफसोस जताया.
  2. तीन जून को जब मैंने दिल्ली की मीटिंग में गठबंधन तोड़ने की बात कही तब अखिलेश ने सतीश चंद्र मिश्रा को फोन किया, लेकिन तब भी मुझसे बात नहीं की.
  3. अखिलेश ने मिश्रा से मुझे मैसेज भिजवाया कि मैं मुसलमानों को टिकट न दूं, क्योंकि उससे और ध्रुवीकरण होगा, लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी.
  4. मुझे ताज कॉरिडोर केस में फंसाने में बीजेपी के साथ मुलायम सिंह यादव का भी अहम रोल था. अखिलेश की सरकार में गैर यादव और पिछड़ों के साथ नाइंसाफी हुई, इसलिए उन्होंने वोट नहीं किया.
  5. समाजवादी पार्टी ने प्रमोशन में आरक्षण का विरोध किया था इसलिए दलितों, पिछड़ों ने उसे वोट नहीं दिया.
  6. बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष आरएस कुशवाहा को सलीमपुर सीट पर समाजवादी पार्टी के विधायक दल के नेता राम गोविंद चौधरी ने हराया. उन्होंने सपा का वोट बीजेपी को ट्रांसफर करवाया, लेकिन अखिलेश ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की.
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झारखंड: चोरी के शक पर भीड़ ने युवक को पीटा, जय श्री राम बुलवाया, मौत

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जमशेदपुर। झारखंड के जमशेदपुर में 24 साल के युवक को चोरी के शक में भीड़ ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया. उससे जबरन जय श्री राम और जय हनुमान भी बुलवाया गया. सरायकेला पुलिस ने एक व्यक्ति को गिरफ्तार करके 24 साल के तबरेज अंसारी की मौत की पड़ताल शुरू कर दी है. अंसारी उर्फ सोनू की मौत के आरोपी पप्पू मंडल के खिलाफ हत्या, सांप्रदायिक नफरत और भीड़ को उकसाने की धाराओं के तहत मामला दर्ज हुआ है.

सरायकेला एसपी कार्तिक एस ने अंसारी की मौत के बाद कहा, ‘मौत की स्पष्ट वजह पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के बाद ही पता चल सकेगी.’ वहीं झारखंड जनाधिकार महासभा के सामाजिक कार्यकर्ता अफजल अनीस ने पुलिस की भूमिका पर सवाल किया, क्योंकि तबरेज की मौत न्यायिक हिरासत में हुई थी.

बेरहमी से पिटाई के बाद पुलिस को सौंपा यह घटना 17 जून की रात की है, जब धतकीडीह इलाके में ग्रामीणों ने अंसारी को मोटरसाइकल चोर समझ करके पकड़ लिया था. घटना से जुड़ा एक विडियो वायरल हो रहा है जिसमें ग्रामीण अंसारी को बिजली के खंभे से बांधकर पीट रहे हैं. इसके बाद उसे पुलिस को सौंप दिया गया. अंसारी की पत्नी ने अपनी शिकायत में कहा कि पुलिस ने उसके पति को फर्स्ट ऐड देने के बाद जेल में भेज दिया था.

जबकि सरायकेला सदर अस्पताल के सुपरिंटेंडेंट बी मार्डी ने कहा, ‘अंसारी को 18 जून को अस्पताल लाया गया था. हमने फिट टु ट्रैवल का सर्टिफिकेट दिया था, जिसके बाद पुलिस उसे ले गई थी.’ शनिवार को अंसारी को दोबारा सदर अस्पताल लाया गया. इस बार वह बेहोश था. अंसारी की हालत बिगड़ रही थी और उसे टाटा मेमोरियल अस्पताल भेज दिया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.

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पर्यावरण संरक्षण की अनोखी पहल पहल

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4000+ बच्चों को करवाई सरकारी नौकरी की तैयारी, फीस के बदले करवाते हैं 18 पौधारोपण!

अक्सर हमारे यहां कोई जन्मदिन हो या फिर विवाह समारोह हो, तो अपनी साख ऊँची रखने के लिए हम महंगे से महंगा तोहफ़ा लेकर जाते हैं. किसी बड़ी शख्सियत से मिलना हो या फिर कहीं मंच पर किसी को सम्मानित करना हो तो फूलों का शानदार गुलदस्ता देना हमारी आदत है. लेकिन ये महंगे गिफ्ट्स बहुत बार सिर्फ़ शो-पीस बनकर रह जाते हैं और गुलदस्ते दो दिन में ही मुरझा जाते हैं.

इसलिए बिहार के राजेश कुमार सुमन जब भी ऐसे किसी समारोह में जाते हैं तो दिखावटी चीज़ों की जगह पौधे उपहारस्वरूप देते हैं. नीम का पौधा, आम का पौधा, अमरुद का पौधा आदि उनके द्वारा दी जाने वाली साधारण भेंटे हैं. इतना ही नहीं, जब भी उन्हें पता चलता है कि उनके आस-पास के किसी इलाके में शादी हो रही है तो वे बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुँच जाते हैं. लेकिन कुछ खाने-पीने नहीं, बल्कि वहां पर मौजूद लोगों को मुफ़्त में पौधे बाँटने और उन्हें पर्यावरण के प्रति सजग बनाने के लिए.

31 वर्षीय राजेश कुमार सुमन जब 6 साल के थे, तब से पौधारोपण कर रहे हैं. और यह गुण उन्होंने अपने पिता से सीखा. उनके पिताजी उनसे हर जन्मदिन पर पौधारोपण करवाते थे और उन्हें हमेशा पर्यावरण को सहेजने के लिए प्रेरित करते.

समस्तीपुर जिले के रोसड़ा प्रखंड/ब्लॉक के ढरहा गाँव के रहने वाले राजेश कुमार सुमन अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी की तैयारी में लग गये. उन्हें उनकी पहली नौकरी राजस्थान में मिली थी. पर बिहार के प्रति उनका प्रेम और आदर कुछ इस प्रकार था कि जैसे ही उन्हें मौका मिला वे बिहार वापिस आ गये.

“पर्यावरण के प्रति तो मन में प्रेम और करुणा थी ही, लेकिन एक और बात थी जो हमें खलती थी कि हमारी कोई बहन नहीं है. हम जब भी दूसरे परिवारों को अपनी बेटियों की पढ़ाई, शादी-ब्याह में खर्च करते देखते तो लगता कि हम तो इस सुख से वंचित ही हैं. इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न समाज में गरीब तबके की बेटियों की पढ़ाई को बढ़ावा दिया जाये,”

साल 2008 में गरीब तबके के बच्चों के उत्थान के उद्देश्य से उन्होंने बिनोद स्मृति स्टडी क्लब (बी.एस.एस क्लब) की शुरुआत की. क्लब का नाम उन्होंने अपने मामाजी के नाम पर रखा. “बचपन में जब घर के आर्थिक हालात थोड़े ठीक नहीं थे, तो मामाजी ने हमारा काफ़ी सहयोग किया. लेकिन बहुत ही कम उम्र में वे दुनिया से चले गये. इसलिए जब हम समाज के लिए कुछ करना चाहते थे, तो हमने उनके नाम से ही शुरुआत करने की सोची.”

इस क्लब के अंतर्गत उन्होंने पौधरोपण और ज़रूरतमंद बच्चों को मुफ़्त में शिक्षा देने की मुहीम छेड़ी. दसवीं कक्षा पास कर चुके बच्चों को वे सरकारी नौकरियों की परीक्षा के लिए तैयार करते हैं.

अपनी इस पाठशाला को उन्होंने ग्रीन पाठशाला का नाम दिया है. महात्मा गाँधी और स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानने वाले राजेश कहते हैं, “मेरा उद्देश्य समाज के अंतिम तबके के अंतिम बच्चे तक शिक्षा पहुँचाना है. 11वीं-12वीं कक्षा से भी अगर ये बच्चे छोटी-मोटी सरकारी नौकरी की तैयारी करें, तो भी निजी इंस्टिट्यूट वाले लाखों में फीस ले लेते हैं. और घर की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल होने के करण बहुत से बच्चे चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते.”

पर ग्रीन पाठशाला में बिना किसी फीस के बच्चों को हर रोज़ सुबह-शाम कोचिंग दी जाती है. राजेश की टीम में उनकी पत्नी सहित 5 अन्य अध्यापक हैं, जो इस कार्य में उनका साथ देते हैं. हर सुबह 6 बजे से 8 बजे तक और शाम में 4 से 6 बजे तक कुल 100 बच्चे पढ़ने आते हैं.

“जो भी बच्चे मेरे पास आते हैं, उनसे मैं फीस की जगह 18 पौधे लगाने का संकल्प करवाता हूँ. हर एक बच्चे को अपने घर, घर के बाहर या फिर खेतों पर, जहाँ भी वे चाहें, 18 पौधे लगाने होते हैं और फिर लगातार 3-4 सालों तक उनकी देखभाल करनी होती है. इसके पीछे मेरा इरादा सिर्फ़ इतना है कि हमारा ग्रीन कवर बढ़े और किसी भी बहाने आने वाली पीढ़ी पौधारोपण का महत्व समझे.”

पूरे समस्तीपुर में और आस-पास के इलाकों में राजेश कुमार को ‘पौधे वाले गुरु जी’ के नाम से जाना जाता है. अब तक ग्रीन पाठशाला के माध्यम से वे लगभग 4, 000 बच्चों शिक्षा दे चुके हैं और इनमें से 350 से भी ज़्यादा बच्चों को अलग-अलग विभागों में सरकारी नौकरियाँ प्राप्त हुई हैं. बाकी बच्चे भी इस काबिल बनें हैं कि वे प्राइवेट संस्थानों में काम करके अपना निर्वाह कर सकें.

ग्रीन पाठशाला की छात्रा रहीं ममता कुमारी आज गवर्नमेंट रेल पुलिस में कार्यरत हैं और उनका कहना है कि अगर राजेश कुमार ने उनकी और उनके जैसे अन्य गरीब बच्चों की शिक्षा का ज़िम्मा न उठाया होता तो वे शायद यहाँ तक न पहुँच पाती. “गाँव में लोग कहते थे कि लड़की हो, क्या करोगी इतना पढ़-लिख कर. पर राजेश सर हमेशा हौसला बढाते और कहते कि किसी की बातों पर ध्यान मत दो और अपनी ज़िंदगी का फ़ैसला खुद करो. उनकी बदौलत आज बहुत से गरीब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं,” ममता ने बताया.

राजेश के नेतृत्व में युवाओं की एक टोली गाँव-गाँव जाकर भी लोगों को वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करती है. समस्तीपुर के अलावा उनका यह नेक अभियान दरभंगा, खगड़िया और बेगुसराय जिले तक भी पहुँच चूका है. जगह-जगह लोग पेड़ लगाते हैं और अपने पेड़ के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं. पौधारोपण के साथ उनका जोर पौधों की देखभाल पर भी रहता है. इसलिए वे हर एक व्यक्ति से गुज़ारिश करते हैं कि वे अपने पौधों की लगभग 3 साल तक लगातार देखभाल करें क्योंकि 3-4 साल में कोई भी पेड़ प्राकृतिक रूप से निर्वाह करने के लायक हो जाता है.

इस पूरे अभियान में वे अपनी कमाई का लगभग 60% हिस्सा खर्च कर देते हैं. उन्हें चाहे बच्चों से वृक्षारोपण करवाना हो, कहीं समारोह में जाकर पौधे भेंट करने हो, या फिर गरीब बच्चों के लिए प्रतियोगिता की किताबों का बंदोबस्त करना हो, वे अपने वेतन से ही करते हैं. उन्होंने अपने संगठन को कोई एनजीओ या संस्था नहीं बनने दिया है, जो कि दुसरों से मिलने वाले फण्ड से चले. उन्होंने जो बीड़ा उठाया है उसकी पूरी ज़िम्मेदारी भी उन्होंने खुद पर ही ली है. अब तक वे 80, 000 से भी ज़्यादा पेड़-पौधे लगवा चुके हैं.

अपने इस कार्य में आने वाली चुनौतियों के बारे में राजेश कहते हैं कि पर्यावरण को सहेजने का काम लगातार चलने वाला काम है. इस काम के लिए आप किसी से जबरदस्ती नहीं कर सकते. जब तक लोग पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझेंगें, वे इसे कभी बचा भी नहीं पायेंगें.

वे अक्सर अपने साथियों के साथ किसी भी शादी समारोह में बिन बुलाये मेहमान के तौर पर चले जाते हैं. बहुत बार वहां पर उन्हें दुत्कारा जाता है कि क्या पेड़-पेड़ लगा रखा है, शादी की रस्में रुक गयीं और ज़रूर इसमें उनका कोई फायदा होगा आदि. “लेकिन जहाँ अपमान मिलता है, वहीं समाज में ऐसे लोग हैं जो ख़ास तौर पर अपने यहाँ शादियों में, समारोह में हमें बुलाते हैं और हमारे साथ मिलकर पौधारोपण करते हैं.”

शादी के निमंत्रण पत्रों पर भी लोग पेड़ लगाने और पेड़ बचाने की गुहार करते हुए स्लोगन लिखवाते हैं, जैसी कि “सांसे हो रही हैं कम, आओं पेड़ लगायें हम.”

अंत में राजेश सिर्फ़ इतना ही कहते हैं कि पर्यावरण का संरक्षण सही मायनों में तब होगा, जब हम इसे अपने जीवन, अपनी संस्कृति का हिस्सा बनायेंगें. पेड़ों की, नदियों की पूजा से पहले पेड़ लगाना और नदियों का बचाना हमारे रिवाज़ में होना चाहिए. यदि आप चाहते हैं कि आने वाले समय में धरती पर जीवन बचे तो आपको खुद ज़िम्मेदारी लेनी होगी.

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क्या बदल जाएगी बिहार की राजनीति

देश की सियासत के दो ऐसे राज्य जिनके बारे में कहा जाता है कि यहां की राजनीति से देश की दिशा और दशा तय होती है. इस बार के लोकसभा चुनाव में इन दो राज्यों में बीजेपी और विपक्ष की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें भाजपा पास हो गई है. यूपी में जहां सपा और बसपा मिलकर भाजपा को नहीं रोक सके तो बिहार में राजद, कांग्रेस, रालोसपा के साथ मांझी और मुकेश सहनी की पार्टियां भी मिलकर कोई कमाल नहीं कर सकीं. बिहार में बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी ने सभी समीकरण ध्वस्त कर दिए है. बिहार में एनडीए ने 40 में से 39 सीटें झटक ली. बची हुई एक सीट कांग्रेस पार्टी के हिस्से में आई है. राष्ट्रीय जनता दल एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी.

सबसे बुरी हालत तो उन तीन पार्टियों की हुई जिनका इस चुनाव में काम तमाम हो गया. बीजपी के पुराने साथी रहे उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी तो अपनी सीट भी नहीं बचा पाए, तो वहीं विकासशील पार्टी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या बिहार की राजनीति बदल जाएगी और इसके क्षेत्रिय क्षत्रप बदली हुई राजनीति में विलीन हो जाएंगे?

कुशवाहा का क्या होगा? राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा का हाल तो सबसे बुरा है. लोकसभा चुनाव से ठीक एक महीने पहले एनडीए का दामन छोड़कर महागठबंधन से गठबंधन करना उनके लिए आत्मघाती साबित हुआ है. कहां 2014 में एनडीए के साथ उन्होंने तीन सीटें जीतीं थीं और केंद्रीय मंत्री भी बने, लेकिन इस बार अपनी सीट तक गंवा बैठे.

महागठबंधन में कुशवाहा के हिस्से पांच सीटें आईं थीं. जिसमें दो सीटों पर तो खुद ही मैदान में उतरे. काराकाट में उन्हें जेडीयू के महाबली सिंह ने हराया तो, वहीं दूसरी सीट उजियारपुर से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय ने उन्हें मात दी. ये हार कुशवाहा की सियासी करियर पर बड़ी मार है. कुशवाहा को बड़ा झटका तब लगा जब बिहार में उनकी पार्टी के तीनो विधायक जदयू में शामिल हो गए.

मांझी की नैया डूबी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की नैया तो इस चुनाव में पूरी तरह डूब गई. बिहार में खुद को दलितों का सबसे बड़ा चेहरा बताने वाले मांझी अपनी सीट भी नहीं जीत सके. मांझी ने अपने लिए बिहार की गया सीट चुनी. यहां एनडीए की तरफ से जेडीयू ने विजय मांझी को उतारा. मुकाबले में विजय मांझी जीतन राम मांझी पर भारी पड़े और उन्हें डेढ़ लाख से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त दी.

ये वही मांझी हैं जो कभी नीतीश कुमार के बेहद करीबी हुआ करते थे. 2014 में जब नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दिया था, तब उन्होंने अपनी गद्दी मांझी को ही सौंपी, क्योंकि वो नीतीश के सबसे विश्वासपात्र थे, लेकिन मांझी के सीएम बनने के बाद दोनों के बीच ऐसी दरार आई कि मांझी की कुर्सी तो गई ही, साथ ही पार्टी तक छोड़नी पड़ी. जेडीयू से अलग होकर जीतन राम मांझी ने हिदुस्तान आवाम मोर्चा पार्टी बनाई. 1980 से लेकर अब तक जीतन राम मांझी कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू की राज्य सरकारों में मंत्री का पद संभाल चुके हैं, लेकिन ये हार उनपर काफी भारी पड़ने वाली है, जो उनके सियासी करियर पर ब्रेक लगा सकती है.

VIP पार्टी के मुकेश सहनी को लगा बड़ा झटका विकासशील इंसान पार्टी (VIP) का तो उदय होने से पहले ही पतन हो गया है. खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ बताने वाले इस पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी खगड़िया सीट से बुरी तरह हार गए. मुकेश सहनी एलजेपी उम्मीदावर चौधरी महबूद अली से करीब ढ़ाई लाख वोटों से हार गए हैं. मुकेश सहनी कभी बीजेपी के काफी करीबी हुआ करते थे. 2014 में उन्होंने बीजेपी के लिए पूरे बिहार में घूम-घूमकर कैपेंनिंग भी की थी. मुकेश सहनी ने पिछले साल ही विकासशील इंसान पार्टी बनाई थी. पीएम मोदी के ‘चाय की चर्चा’ के तर्ज पर उन्होंने ‘माछ पर चर्चा’ भी की. मुकेश सहनी का कद बिहार में उसी तरह बढा, जिस तरह गुजरात की राजनीति में हार्दिक पटेल उभरकर सामने आए थे.

इस चुनाव में एनडीए से जब मन मुताबिक सीट नहीं मिली, तो वो महागठबंधन के साथ हो लिए. महागठबंधन में उन्हें तीन सीटें मिली और तीनों सीटों पर बुरी तरह हारे. मुकेश की वजह से मल्लाह वोटरों का साथ महागठबंधन को तो मिला, लेकिन मुकेश को महागठबंधन से कोई फायदा नहीं मिला. मुकेश सहनी का बॉलीवुड से भी रिश्ता रहा है, वो मशहूर सेट डिजाइनर रह चुके हैं. उन्होंने शाहरुख की फिल्म देवदास और सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का सेट भी बनाया था. मुंबई छोड़कर मुकेश सहनी ने राजनीति में किस्मत अजमाई, लेकिन वो फेल हो गए.

हालांकि चुनावी नतीजों के बाद राष्ट्रीय जनता दल सकते में है. वह अब तक हार के इस सदमें से उबर नहीं पाया है. पार्टी में तेजस्वी यादव के खिलाफ विरोध के सुर भी उभरने लगे हैं. हालांकि उनके बड़े भाई तेज प्रताप सहित अन्य नेताओं ने तेजस्वी का बचाव किया है, लेकिन बिहार की सियासत में जो तूफान उठा है, उसका असर जल्दी खत्म होता नहीं दिख रहा. – द क्विंट से

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तेलगुदेशम के राज्यसभा सांसदों के भाजपा में शामिल होने पर मायावती ने कसा तंज

नई दिल्ली। चंद्रबाबू नायडू की पार्टी TDP के चार राज्यसभा सदस्यों के बीजेपी में शामिल होने पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने शुक्रवार को भाजपा पर तंज कसा. मायावती ने कहा, ‘टीडीपी के जो सदस्य बीजेपी में शामिल हुए हैं उनमें से दो को आंध्र प्रदेश का माल्या कहा जाता है लेकिन बीजेपी में आकर अब वे दूध के धुले हो गए हैं’. BSP प्रमुख मायावती ने शुक्रवार को एक ट्वीट में कहा कि ‘माननीय राष्ट्रपति सरकार की तरफ से कल देश को अनेकों प्रकार के आश्वासन दे रहे थे उसी दिन बीजेपी ने तेदेपा के चार सांसदों को तोड़ लिया. उनमें से दो को बीजेपी ‘आंध्र का माल्या’ कहती है पर अब वे बीजेपी में आकर दूध के धुले हैं. स्पष्ट है बीजेपी ब्राण्ड ऑफ पॉलिटिक्स में सब जायज है कुछ गलत नहीं’.

गौरतलब है कि तेदेपा के छह राज्यसभा सदस्यों में से चार बृहस्पतिवार को भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने तेदेपा संसदीय दल (राज्यसभा में) का भगवा पार्टी में विलय करने का प्रस्ताव उच्च सदन के सभापति एम वेंकैया नायडू को सौंपा था. इस तरह, राज्यसभा में भाजपा की स्थिति मजबूत होती दिख रही है. तेदेपा के राज्यसभा सदस्य वाईएस चौधरी के नेतृत्व में पार्टी के चार सदस्यों (उच्च सदन के) ने इस सिलसिले में एक प्रस्ताव पारित किया. इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दी. चौधरी लंबे समय से तेदेपा प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू के विश्वस्त सहयोगी माने जाते थे. सूत्रों के अनुसार राज्यसभा में तेदेपा के चार सदस्यों- वाई एस चौधरी, सी एम रमेश, जी मोहन राव, और टी जी वेंकटेश-ने अपने धड़े का भाजपा में विलय करने के अनुरोध का प्रस्ताव नायडू को सौंपा है.

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जानिये दिल्ली में दिल दहला देने वाली वारदात को क्यों दिया अंजाम

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आरोपी, उसकी पत्नी व दो बच्चे

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में एक दिल दहलाने वाला सामने आया है. दिल्ली के महरौली इलाके के वार्ड 2 में एक शख्स ने अपने 3 बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी. पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है और मामले की जांच की जा रही है. हत्या करने वाले शख्स ने एक नोट भी लिखा है, जिसमें उसने कबूला कि उसने चारों लोगों की हत्या की है. वह पेशे से ट्युशन टीचर है और बच्चों को होम ट्यूशन देता था. इस घटना के बाद इलाके में सनसनी फैल गई है.

फिलहाल यह पता नहीं चल पाया है कि उसने इतना खौफनाक कदम क्यों उठाया. शख्स की दो बेटियां और एक बेटा है. बड़ी लड़की उम्र 7 वर्ष, लड़के की उम्र 5 साल और सबसे छोटी लड़की की उम्र डेढ़ महीने बताई जा रही है. आरोपी का नाम उपेंद्र शुक्ला है. उसने शुक्रवार देर रात 1 से 1.30 बजे के बीच सभी की हत्या कर दी.

मृतक बच्चों में एक लड़का, दो लड़कियां और पत्नी शामिल है. पूछताछ में उस उपेंद्र ने खुद को डिप्रेशन में बताया. जिस घर में चारों लोगों के कत्ल हुए, उसी घर में आरोपी की सास भी रहती है. उसने देखा कि उपेंद्र दरवाजा नहीं खोल रहा है तो उसने सुबह पड़ोसी को सूचना दी. इसके बाद पड़ोसियों ने 100 नंबर पर फोन कर पुलिस को सूचना दी. पुलिस ने मौके पर पहुंचकर आरोपी को हिरासत में ले लिया. अब उससे पूछताछ की जा रही है.

डीसीपी विजय कुमार के मुताबिक सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर पुलिस को कत्ल की जानकारी मिली. उपेंद्र शुक्ला ने तीन बच्चों और पत्नी का कत्ल किया है. उसकी दो बेटी और एक बेटा है. आरोपी ने देर रात चाकू से सभी कत्ल किए हैं.. उपेंद्र बिहार के चंपारण का रहने वाला है.

लाश के पास से उपेंद्र के लिखे दो नोट बरामद हुए हैं, जिसमें से एक हिंदी और एक अंग्रेजी में लिखा हुआ है. इन नोट्स में उपेंद्र ने लिखा कि ये सभी कत्ल मैंने किए हैं. मैं इसके लिए जिम्मेदार हूं. डीसीपी के मुताबिक उपेंद्र की पत्नी अर्चना डायबिटीज से पीड़ित थी और आर्थिक तंगी डिप्रेशन और कत्ल की वजह हो सकती है. उसकी सबसे बड़ी बेटी की उम्र 7 साल. दूसरी बेटी की उम्र डेढ़ महीने और बेटे की उम्र 5 साल थी.

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अमरीश पुरी की जयंती पर गूगल ने डूडल बनाकर किया याद

बॉलीवुड के दिग्गज एक्टर अमरीश पुरी की आज जयंती है. गूगल ने डूडल बनाकर उनको याद किया है. बता दें कि अमरीश पुरी भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं में से एक थे. अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को पंजाब राज्य के जालंधर में हुआ था. 1967 में उनकी पहली मराठी फिल्म ‘शंततु! कोर्ट चालू आहे’ आई थी.

बॉलीवुड में उन्‍होंने 1971 में ‘रेशमा और शेरा’ से डेब्‍यू किया था.

दर्शकों को अमरीश पुरी का निगेटिव किरदार भी बहुत भाता था. मिस्टर इंडिया, शहंशाह, करण-अर्जुन, कोयला, दिलजले, विश्वात्मा, राम-लखन, तहलका, गदर, नायक, दामिनी जैसी फिल्मों में वह निगेटिव किरदार में थे, लेकिन इन फिल्मों को सुपरहिट बनाने में अमरीश पुरी का बड़ा योगदान रहा था.

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‘आर्टिकल 15’ के विरोध में उतरी करणी सेना

आयुष्मान खुराना अपनी आने वाली फिल्म आर्टिकल 15 को लेकर चर्चा में हैं. फिल्म के ट्रेलर को दर्शकों का जबरदस्त रिस्पॉन्स मिला है. फिल्म में समता के अधिकार के मुद्दे को दिखाया गया है. डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने इसके लिए उत्तर प्रदेश के बदायूं की एक घटना से प्रेरणा ली है लेकिन अब यह फिल्म विवादों में घिरती दिख रही है.

फिल्म में आयुष्मान खुराना एक पुलिस अफसर के किरदार में दिखाई देंगे. जो दो लड़कियों की मौत की गुत्थी सुलझाते हैं. बता दें कि साल 2014 में बदायूं में दो लड़कियों से रेप के बाद हत्या का मामला सामने आया था. फिल्म इसी विषय को उठाती है. विरोध कर रहे परशुराम सेना और करणी सेना ने फिल्म की रिलीज को लेकर धमकी दी है और मेकर्स पर आरोप लगाए है कि फिल्म में ब्राह्मण समुदाय को गलत तरीके से दिखाया गया है.

डीएनए की रिपोर्ट के मुताबिक, अनुभव सिन्हा को सोशल मीडिया और फोन पर लगातार धमकियां मिल रही हैं. हाल ही में कई मल्टीप्लेक्स मालिकों ने बताया कि करणी सेना समेत दूसरे कई संगठनों ने कहा कि अगर आर्टिकल 15 रिलीज हुई तो वो इसका विरोध करेंगे. इस मामले में सिनेमाघर मालिकों ने पुलिस थाने में शिकायत की और सुरक्षा की मांग की.

अनुभव सिन्हा ने इससे पहले फिल्म मुल्क बनाई थी. इसमें तापसी पन्नू और ऋषि कपूर की मुख्य भूमिका है. उस दौरान भी अनुभव सिन्हा को विरोधों का सामना करना पड़ा था और कई धमकी भरे फोन आए थे. ऐसा पहली बार नहीं है जब करणी सेना ने किसी फिल्म को लेकर इस तरह की धमकी दी हो. इससे पहले पद्मावत और मणिकर्णिका का भी विरोध किया गया था.

करणी सेना के अलावा अखिल भारतीय ब्राह्मण एकता परिषद ने फिल्म आर्टिकल 15 के निर्माता और निर्देशक को कानूनी नोटिस जारी कर फिल्म से आपत्तिजनक हिस्सा हटाने की मांग की थी. बता दें कि आर्टिकल 15 आने वाले 28 जून को सिनेमाघरों में दस्तक देगी.

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सरकारी कर्मचारी से जूते पहनते कैमरे में कैद हुए योगी के मंत्री

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लखनऊ। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर उत्तर प्रदेश के मंत्री लक्ष्मी नारायण एक सरकारी कर्मचारी से जूते पहनते हुए कैमरे में कैद हो गए. यूपी के शाहजहांपुर में शुक्रवार को योग दिवस पर आयोजित एक समारोह का एक वीडियो न्यूज एजेंसी एएनआई ने जारी किया है. वीडियो में लक्ष्मी नारायण को एक सरकारी कर्मचारी द्वारा जूते पहनाते हुए साफ देखा जा सकता है. जो कर्मचारी मंत्री को जूते पहना रहा है, वह शख्स भी स्पॉर्ट्स ड्रेस पहने हुए है. वहीं मंत्री ने पास में खड़े दो लोगों के हाथ पकड़ रखे हैं और सरकारी कर्मचारी उन्हें जूते पहना रहा है.

वीडियो सामने आने के बाद मंत्री लक्ष्मी नारायण ने कहा, ‘अगर कोई भैया, भतीजा या परिवार का सदस्य हमें जूते पहना दे तो ये तो हमारा वो देश है, जहां भगवान राम के खड़ाऊ रख कर भरतजी ने 14 साल राज किया था. आपको तो इस बात की तारीफ करनी चाहिए.’

बता दें, उत्तर प्रदेश में शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया. मुख्य कार्यक्रम राजधानी स्थित राजभवन में हुआ, जिसमें राज्यपाल राम नाईक और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शामिल हुए. पांचवे अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर राजभवन प्रांगण में उत्तर प्रदेश के आयुष विभाग द्वारा आयोजित योगाभ्यास कार्यक्रम में राज्यपाल नाईक, मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा, आयुष राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) धर्म सिंह सैनी, मंत्रिमण्डल के सदस्यगण, महापौर संयुक्ता भाटिया, मुख्य सचिव अनूप चन्द्र पाण्डेय, पुलिस महानिदेशक ओपी सिंह सहित बड़ी संख्या में योग साधकों ने योगाभ्यास किया.

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तीन तलाक पर ओवैसी का सवाल

केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक से निजात दिलाने के लिए तीन तलाक बिल को शुक्रवार को लोकसभा के पटल पर रखा. इसके बाद सदन में कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने हंगामा शुरू कर दिया. तीन तलाक बिल का विरोध करते हुए हैदराबाद से सांसद और AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि यह संविधान विरोधी व आर्टिकल 14 और 15 का उल्लंघन है. मोदी सरकार को मुस्लिम महिलाओं से हमदर्दी है तो केरल की हिंदू महिलाओं से मोहब्बत क्यों नहीं? आखिर सबरीमाला पर आपका रुख क्या है?

सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने तीन तलाक विधेयक पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि अगर किसी गैर मुस्लिम को केस में डाला जाए तो उसे 1 साल की सजा और मुसलमान को 3 साल की सजा. क्या यह आर्टिकल 14 और 15 का उल्लंघन नहीं है? इस बिल से सिर्फ मुस्लिम पुरुषों को सजा मिलेगी. आप मुस्लिम महिलाओं के हित में नहीं हैं बल्कि आप उन पर बोझ डाल रहे हैं.

ओवैसी ने कहा कि तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से साफ है कि अगर कोई शख्स एक समय में तीन तलाक देता है तो शादी नहीं टूटेगी. ऐसे में बिल में जो प्रवाधान है, उससे पति जेल चला जाएगा और उसे 3 साल जेल में रहना होगा. ऐसे में मुस्लिम महिला को गुजारा-भत्ता कौन देगा? आप (सरकार) देंगे?

ओवैसी ने कहा कि आपको मुस्लिम महिलाओं से इतनी मोहब्बत है. केरल की हिंदू महिलाओं से मोहब्बत क्यों नहीं है. क्यों आप सबरीमाला के फैसले के खिलाफ हैं? यह गलत हो रहा है.

असदुद्दीन ओवैसी ने आजतक से बातचीत करते हुए कहा कि इस बिल से कोई फायदा नहीं होगा बल्कि मुस्लिम महिलाओं को नुकसान होगा. यह विधेयक पहले तो हमारे संविधान के मूल अधिकारों के खिलाफ है. ओवैसी ने कहा कि अगर आप कोई कानून बना रहे हैं तो उसके तहत रीजनेबल क्लासिफिकेशन होनी चाहिए. मौजूदा समय में दूसरे कई कानून हैं जिसमें घरेलू हिंसा कानून जो की काफी पॉवरफुल है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला है, जिसमें तीन तलाक को रद्द कर दिया गया. ऐसे में अगर कोई तलाक देता है तो शादी नहीं टूटेगी. ऐसे आप उसका अपराधीकरण कर रहे हैं.

ओवैसी ने कहा कि अगर कोई गैर मुस्लिम अपनी पत्नी को छोड़ता है तो उसे 1 साल की सजा और मुस्लिम को 3 साल की सजा, जो सामान अधिकार के खिलाफ है. आपको बहुमत मिला है तो संविधान के खिलाफ कानून थोड़े बना देंगे. यह मेरा अधिकार है कि सरकार कोई बिल लाती है और मुझे लगता है कि यह सही नहीं है तो हम विरोध कर सकते हैं.

ओवैसी से पहले कांग्रेस नेता शशि थरूर ने सदन में कहा कि मैं इस बिल के पेश किए जाने का विरोध करता हूं. उन्होंने कहा कि मैं तीन तलाक का समर्थन नहीं करता, लेकिन इस बिल के विरोध में हूं. थरूर ने कहा, यह बिल संविधान के खिलाफ है, इसमें सिविल और क्रिमिनल कानून को मिला दिया गया है.

उन्होंने कहा कि अगर सरकार की नजर में तलाक देकर पत्नी को छोड़ देना गुनाह है, तो ये सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक ही सीमित क्यों है. उन्होंने कहा कि क्यों न इस कानून को सभी समुदाय के लिए लागू किया जाना चाहिए. कांग्रेस की ओर से कहा गया कि सरकार इस बिल के जरिए मुस्लिम महिलाओं को फायदा नहीं पहुंचा रही है बल्कि सिर्फ मुस्लिम पुरुषों को ही सजा दी रही है.

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कांग्रेस के लिए सबक की लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट हैं जगन मोहन रेड्डी

बार-बार जीतने वाले को ‘नरेंद्र’ कहते हैं, तो हारकर जीतने वाले को ‘जगन’ कहते हैं.

जी हां, जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश के नए मुख्यमंत्री हैं. चुनाव 2019 में जगन के ‘पंखे’ ने हवा नहीं, वो आंधी बरसाई, जिसमें चंद्रबाबू नायडू और कांग्रेस पार्टी सूखे पत्तों की तरह उड़ गए. जगन की पार्टी YSRCP ने विधानसभा की 175 में से 151 और लोकसभा की 25 में से 22 सीटें जीतकर इतिहास बना दिया.

कहा जा रहा है कि करारी हार के कारणों पर कसरत कर रही कांग्रेस पार्टी को फिर कोई ‘एंटनी कमेटी’ बनाने के बजाए जगन मोहन से सीखना चाहिए. जगन का पिछले 10 साल का सफर कांग्रेस के लिए सबक की लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट है. जगन ने पदयात्रा को अपना हथियार बनाया. हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा से उन्होंने सूबे का चप्पा-चप्पा छान मारा और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए.

जगन का सियासी सफर सितंबर 2009. आंध्र प्रदेश के कुरनूल में नल्लामल्ला की पहाड़ियों के ऊपर से गुजरता एक हेलिकॉप्टर अचानक गायब हो गया. अगले दिन उस हेलिकॉप्टर के टुकड़े जंगल में मिले. क्रैश हुए उसी हेलिकॉप्टर में थे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और जगन मोहन रेड्डी के पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी. वाइएसआर की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनकी मौत पर कई लोगों ने खुदकुशी तक कर ली. जगन ने ऐसे लोगों से घर-घर जाकर मिलने के लिए यात्रा शुरू की. इस यात्रा को नाम दिया गया ‘ओदारपू’. ‘ओदारपू’ का हिंदी में मतलब है ‘शोक’ और अंग्रेजी में ‘Condolence’.

वाईएसआर उस वक्त आंध्र प्रदेश के सीएम और साउथ की सियासत के हीरो थे, लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी को दरकिनार कर दिया. पहले के. रोसैया को सीएम बनाया और उनसे पार्टी नहीं संभली, तो साल 2010 में किरण कुमार रेड्डी को सीएम बना दिया. हालांकि कांग्रेस को इसकी कीमत सत्ता गंवाकर चुकानी पड़ी. इस वक्त तक जगन और कांग्रेस पार्टी के बीच का तनाव अपनी हदें पार कर चुका था.

चुनी कांग्रेस से अलग राह

29 नवंबर 2010 को जगन कांग्रेस से अलग हो गए. उस वक्त वो कांग्रेस के लोकसभा सांसद थे. उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया. उनकी मां वाई विजयलक्ष्मी ने भी पुलिवेंदुला विधायक पद से इस्तीफा दे दिया. मार्च 2011 में जगन ने पहले से बनी YSR कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व संभाल लिया. 2011 के उपचुनाव में कडप्पा से पार्टी के सिंबल पर चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड 543,053 वोट से जीते.

उन दिनों रेड्डी एक कामयाब बिजनेसमैन थे. लेकिन उन पर कानूनी शिकंजा कसा जाने लगा. आय से अधिक संपत्ति के मामले दर्ज हुए और जगन ने 18 महीने जेल में काटे. सत्ता ने तो पिता की विरासत नहीं सौंपी, लेकिन जनता का फैसला अभी बाकी था. 2014 के चुनाव में तो वो चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी पर पार नहीं पा सके. लेकिन इसके बाद जनता-जनार्दन का आशीर्वाद लेने के लिए जगन ने पूरे आंध्र प्रदेश को पैदल नाप डाला. करीब 3,600 किलोमीटर की पदयात्रा की और लोग उनमें उनके पिता वाइएसआर रेड्डी की छवि ढूंढने लगे. इसके बाद साल 2019 के चुनाव ने सियासत के पन्नों पर नतीजों की वो इबारत लिखी कि जगन मोहन रेड्डी एक हीरो बनकर उभरे. 46 साल के जगन मोहन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में कमाल कर डाला. हालांकि प्रचंड जीत मिलने के बाद भी उनके पैर जमीन पर हैं. उन्होंने आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया तो हैदराबाद जाकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव से भी मिले और उन्हें आमंत्रित किया.

कांग्रेस के लिए सबक चुनाव 2014, कांग्रेस पार्टी का सबसे खराब चुनाव था. 139 साल पुरानी पार्टी लोकसभा में महज 44 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद पार्टी ने सड़क पर जान झोंकने की बजाए एक कमेटी बनाई- ‘एंटनी कमेटी’. कुछ महीनों की मशक्कत के बाद कमेटी ने कुछ वजहें बताईं. पार्टी ने उन वजहों पर काम किया, लेकिन पांच साल बाद नतीजा वही- निल बटे सन्नाटा. सीटों की संख्या 44 से बढ़कर बामुश्किल पहुंची 52 पर.

कांग्रेस पार्टी को जगन से सबक लेते हुए आम लोगों से सीधे संवाद का अभियान शुरू करना चाहिए. चुनाव नतीजों के आइने में उभरी अपनी धुंधली छवि के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी को समझना होगा कि रैलियों में गूंजते ‘चौकदार चोर है’ के नारे और रोड-शो में उमड़ी भीड़ का शोर मृगतृष्णा के सिवा कुछ नहीं था.

साभारः द क्विंट से

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राजनीति को समाज की चिंता क्यों नहीं

लोक सभा चुनाव के बाद श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने फिर सरकार बना ली है. यह चुनाव भाजपा की भारी जीत के साथ- साथ बेहद महंगे चुनाव अभियान के कारण भी चर्चा में रहा. क्या ऐसा नहीं हो सकता कि चुनाव खर्च कम कर देश के नागरिकों की मूलभूत आश्यकताओं के लिए बजट बढ़ाया जाए, ताकि उनका जीवन स्तर सुधरे? क्या जल संकट, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा की उपलब्धता और गुणवत्ता में सुधार करना सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है? दूसरी चिंताजनक खबर हजारों ईवीएम मशीनों के गायब होने की है. जो निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाती है.

जहां तक सामाजिक सौहार्द का प्रश्न है चुनाव परिणाम आने के एक दिन पूर्व 22 मई को सोशल मीडिया पर डॉ. पायल तडवी की आत्महत्या का मामला प्रकाश में आया. मुंबई के एक अस्पताल में एमडी कर रही 26 वर्षीय पायल को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने वालों में सीनियर महिला डाक्टरों के नाम प्रकाश में आए हैं. अल्का वर्मा की पोस्ट के मुताबिक ये नाम हैं डॉ. हेमा आहूजा, डॉ. भक्ति और डॉ. अंकिता खण्डेलवाल. इन्होंने पायल के लिए व्हाटसअप पर लिखा था ‘तुम आदिवासी लोग जंगली होते हो, तुमको अक्ल नहीं होती … तू आरक्षण के कारण यहां आई है, तेरी औकात है क्या, हम ब्राह्मणों से बराबरी करने की?.. तुम किसी भी मरीज को हाथ मत लगाया कर मरीज अपवित्र हो जाएंगे, तू आदिवासी नीच जाति की लड़की मरीजों को भी अपवित्र कर देगी ….”

यह आत्महत्या हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला और मुथू कृष्णन, सर्वानन जैसों की याद दिलाता है. जतिघृणा के हमलावर जाति सूचक शब्दावाण सीधे सीने पर लग रहे हैं. एक वीडियो बीच चुनाव आया, जिसमें एक युवती अपने सहकर्मियों के बीच बैठी चमार जाति के लोगों को गालियां दे रही है. वो कहती है “यार साला चमार पैदा होना चाहिए था गवर्मेंट जॉब तो मिल जाती एटलिस्ट. चमारों को सिर पर बिठा लिया जनरल वालों को नीचे कर दिया. चमार चमार होते हैं, उनकी कोई औकात नहीं होती है.”

जब यह वीडियो वायरल हुआ तो भारी प्रतिक्रिया हुई. एससी एसटी मुकदमा दायर किया गया. मशहूर गीतकार जावेद अख्तर ने ट्विट किया ‘यह कौन बुरी औरत बोल रही है? क्या इसे अभी गिरफ्तार नहीं किया क्या?

जब चारो ओर से दबाव बढ़ा तो वह महिला फिर से सामने आई. डॉ. अम्बेडकर, गांधी और शहीद भगतसिंह के चित्रों के सामने बैठ कर बोली मैं और मेरे साथी एससी/एसटी और ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं इसलिए मुझे माफ कर दिया जाए.

हाल ही में बदायूं से राधेश्याम जी का फोन आया बोले- ‘बेचैन जी एक समस्या आ गई है. पुत्रवधू सिविल की तैयारी के लिए आपकी यूनिवर्सिटी के पास कोचिंग ले रही है. वहां गैरकौम की लड़कियां उसे परेशान कर रही हैं. वे उसके बाथरुम में स्कैच से लिख देती हैं कि ‘यह तो चमारी है. बहू ने फोटो खींच कर भेजा है. मैंने कहा मेरे पास भिजवा दो. मैंने एक वकील से बात की तो उसने कहा इसे तो एससी/एसटी एक्ट में केस दर्ज करा दो. क्या हमें भूल जाना चाहिए कि झारखण्ड के सिमडेगा जिले की 11 वर्षीय संतोष की मौत भूख के कारण हुई थी. उसने भात मांगते-मांगते दम तोड़ा था. राजनेताओं के अंधाधुंध खर्चे स्वतंत्रता सेनानियों की सादगी की परवाह नहीं कर रहे.

दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामाजिक सौहार्द समाप्त कर रही हैं. ताजा वाकया राजस्थान के अलवर जिले का है. जहां एक युवक के सामने ही उसकी पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. ऐसे अत्याचार तो अमेरिकी अफ्रीकी गोरे भी अश्वेत दासों के साथ नहीं करते थे. बल्कि कालांतर में पचास फीसद गोरे ही कालों की गुलामी के विरोध में खड़े हो गए और दासप्रथा को समाप्त कर दिया. दलितों के प्रति सवर्ण हिन्दुओं की बढ़ती जाति अनुदारता काबिले फिक्र होती जा रही हैं. यह संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक कायदे कानून को धता बता कर जातिभेदी परंपराओं से संचालित हो रही हैं. अब इससे बड़ी क्रूरता और क्या होगी कि ऊंची जाति के लोगों के सामने खाना खाने पर दलित को पीट कर मार डाला गया.’ देहरादून से आई खबर ने जाति मानस का कैसा खुलासा किया?

27 साल का यह दलित युवक अपने रिश्तेदार की शादी में गया था. वहां सवर्ण खाना खा रहे थे. पास ही कुर्सी पर बैठ कर वह दलित भी खाना खाने लगा. इसे एक सवर्ण ने दलित द्वारा बराबरी करना माना उसने दलित को जाति सूचक गालियां देते हुए तुरंत कुर्सी से नीचे उतरने के लिए कहा. उतरने में बिलम्ब देख कर दलित पर हमला कर दिया. उस समय उपस्थित लोगों ने उसे बचा दिया परन्तु जब वह वापस अपने घर लौटा तो उसे रास्ते में घेर कर मारा पीटा जिससे उसे गम्भीर चोटें आईं और अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई. यह घटना बताती है कि भारतीय समाज में जाति अनुदारता अमानवीय हद तक उग्र हो चुकी है. भारत में अस्पृश्यता अमरीका अफ्रीका की गुलाम प्रथा से अधिक अमानवीय है.

हमारे देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक हो गया, पर दलित दमन और बढ़ गया. अस्पृश्यता रूप बदल कर आज भी जारी है. हम उन देशों से भी प्रेरणा नहीं लेते, जिन्होंने जातिभेद की तरह नस्लभेद और रंगभेद को समाप्त कर दिया. हमारे यहां संविधान सम्मत व्यवहार नहीं हो रहा. जबकि आवश्यकता इस बात की है कि लोगों की सामाजिक शिक्षा सकारात्मक और संविधान सम्मत हो. छात्रों को संविधान की मूलभूत शिक्षा अवश्य पढ़ाई जानी चाहिए. समता भाव जगाने वाली फिल्मों, कविताओं, कहानियों, चित्रकला, गीत, संगीत, नृत्य आदि को विशेष प्रोत्साहन देना चाहिए. दलित आदिवासियों के साहित्य इस दिशा में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं.

अध्ययन बताता है कि दास प्रथा केवल दासों के प्रयासों से समाप्त नहीं हुई. उसमें स्वामी वर्ग का भी योगदान था. दरअसल गोरे स्वामियों का एक बड़ा हिस्सा दास प्रथा के विरोध में खड़ा हो गया था. पचास फीसदी गोरे लोग कालों की गुलामी के विरोध में खड़े हो गए और दास प्रथा को उन्होंने समाप्त कर दिया. यही नहीं, अमेरिका ने उसके बाद कला, मीडिया, उद्योग, शिक्षा, साहित्य जैसे सभी क्षेत्रों में अफर्मेटिव एक्शन के तहत दलितों की भागीदारी सुनिश्चित कर और काम करने के अवसर देकर अपने देश को महाशक्ति बना दिया.

दूसरी ओर, हमारे देश में दलितों और आदिवासियों को सेवाओं से बाहर रखने के लिए ही नए-नए तरीके अपनाए गए, जिससे देश को उनकी सेवाओं का लाभ नहीं मिल सकता. हमारे नेता केवल राजनीति में ही रुचि लेते हैं, समाज सुधार की चिंता उन्हें नहीं होती. चूंकि समाज में, साहित्य में, शिक्षा में उच्च मानवीय आदर्श नहीं हैं, इसलिए ऐसे वर्णभेदी समाज से निकला नेता भी लोकतांत्रित समता भाव का विकास नहीं करना चाहता, वह समाज में मौजूद भेदभाव का केवल राजनीतिक लाभ लेना चाहता है.

  • श्यौराज सिंह बेचैन
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Most AES Victims in Bihar Are Dalits, EBCs and Muslims

Muzaffarpur। Chedi Manjhi, Ravinder Manjhi, Raj Kishor Ram, Haran Paswan, Anup Manjhi, all are Dalits. They have one more thing in common—all of them are fathers of children who have died due to AES in Bihar’s Muzaffarpur in the last fortnight.

Chedi Manjhi’s eight-year-old son Aditya Kumar reportedly died due to AES in the state-run Sri Krishna Medical College and Hospital (SKMCH) in Muzaffarpur. “My son died after suffering from Chamki bukhar [local name for AES] in the first week of June. We are poor, fighting to earn our daily bread, but God is killing our children. I am not alone; there are many like me in different Dalit hamlets,” said Chedi Manjhi, a resident of Dih Jiwar.

“Chamki bukhar is a curse for poor people like us, who are working hard to earn our livelihood. Our children are dying year after year, but there is no serious move to control it,” said Paswan, a resident of Ahiyapur in Muzaffarpur.

Paswan’s 10-year-old son Vikram Kumar died after he was admitted for treatment in SKMCH.

Several Dalits including Jogendar Ram of Sariya in Muzaffarpur, Shankar Ram of Sheogar district, Raj Kumar Manjhi of Bochahan in Muzaffarpur, and Ranjeet Ram of Maniyari in Muzaffarpur have lost their children due to AES in the last two weeks.

More than over two decades after AES first struck Muzaffarpur as an epidemic, the disease not only persists but also continues to spread among the poorer sections. Estimates say that more than 75% of the victims belong to the socially marginalised section – comprising mostly Dalits along with Extremely Backward Classes (EBC) and Muslims. There is hardly any case in which the AES-affected child belongs to a rich and well-off family.

This disease is estimated to have killed more than 400 children in last seven to eight years, while the number stands at 113 this month.

“If we look at the list of the names of victims of AES prepared by SKMCH, their surnames are like Manjhi, Ram and Paswan. Besides, there are victims whose fathers carry surnames like Sahni, Mahto and Yadav; all are either from backward castes or are poor Muslims,” a senior official of Muzaffarpur health department said. (The list of the names of the victims is also in possession of NewsClick.)

According to health officials in Muzaffarpur, AES cases are mostly coming from Mushahar, Ravidas and Paswan communities due to “their poor living conditions”.

Ranjeev, an environmentalist, said that Dalit children are malnourished and are more prone to consumption of contaminated water, which makes them an easy target of AES.

Doctors and experts, who have investigated to find the cause of deaths of children from AES, point to malnutrition as one of the main factors behind children’s vulnerability to the disease. This was iterated by the latest National Family Health Survey (NHFS 2015-16) that pointed out high rates of malnutrition among children under five years of age in Bihar.

Health officials, who have been closely monitoring AES for several years, said malnutrition among Dalit children is common due to prevalence of poverty.

After Chief Minister Nitish Kumar visited Muzaffarpur on Tuesday, the government has commissioned a survey in blocks or villages where death toll reported is high. The survey will study socio-economic profiles of people, particularly affected families and the environment they live in.

“For the first time, such a survey will be conducted. This would help in understanding ground reality,” another health official told NewsClick.

Principal secretary, Health Department, Sanjay Kumar said that of the 113 deaths, 91have died in the state-run Sri Krishna Medical College and Hospital (SKMCH), 16 in private Kejriwal Hospital in Muzaffarpur, two in Nakanda Medical College and Hospital in Patna, and four in other districts.

Doctors and health officials have different views on the reason behind AES and cause of the deaths. It has further complicated the process to combat or control the seasonal outbreak of AES. The central and state governments have failed in saving the children in the affected areas of North Bihar, where it has become an annual epidemic year after year.

Chief Secretary Deepak Kumar publicly admitted that even the government is unclear about what exactly was causing the AES outbreak, which has been recorded in Muzaffarpur since 1995.”We are still not aware if the disease is caused due to some virus, bacteria, toxin effect or due to consumption of litchi, malnourishment or due to environmental conditions such as high temperature and humidity. Several researches have been done, including by a team of experts from the Centre for Disease Control, Atlanta, but the finding is inconclusive,” said Kumar.

Courtesy:News Click

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Most AES Victims in Bihar Are Dalits, EBCs and Muslims

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Muzaffarpur। Chedi Manjhi, Ravinder Manjhi, Raj Kishor Ram, Haran Paswan, Anup Manjhi, all are Dalits. They have one more thing in common—all of them are fathers of children who have died due to AES in Bihar’s Muzaffarpur in the last fortnight.

Chedi Manjhi’s eight-year-old son Aditya Kumar reportedly died due to AES in the state-run Sri Krishna Medical College and Hospital (SKMCH) in Muzaffarpur. “My son died after suffering from Chamki bukhar [local name for AES] in the first week of June. We are poor, fighting to earn our daily bread, but God is killing our children. I am not alone; there are many like me in different Dalit hamlets,” said Chedi Manjhi, a resident of Dih Jiwar.

“Chamki bukhar is a curse for poor people like us, who are working hard to earn our livelihood. Our children are dying year after year, but there is no serious move to control it,” said Paswan, a resident of Ahiyapur in Muzaffarpur.

Paswan’s 10-year-old son Vikram Kumar died after he was admitted for treatment in SKMCH.

Several Dalits including Jogendar Ram of Sariya in Muzaffarpur, Shankar Ram of Sheogar district, Raj Kumar Manjhi of Bochahan in Muzaffarpur, and Ranjeet Ram of Maniyari in Muzaffarpur have lost their children due to AES in the last two weeks.

More than over two decades after AES first struck Muzaffarpur as an epidemic, the disease not only persists but also continues to spread among the poorer sections. Estimates say that more than 75% of the victims belong to the socially marginalised section – comprising mostly Dalits along with Extremely Backward Classes (EBC) and Muslims. There is hardly any case in which the AES-affected child belongs to a rich and well-off family.

This disease is estimated to have killed more than 400 children in last seven to eight years, while the number stands at 113 this month.

“If we look at the list of the names of victims of AES prepared by SKMCH, their surnames are like Manjhi, Ram and Paswan. Besides, there are victims whose fathers carry surnames like Sahni, Mahto and Yadav; all are either from backward castes or are poor Muslims,” a senior official of Muzaffarpur health department said. (The list of the names of the victims is also in possession of NewsClick.)

According to health officials in Muzaffarpur, AES cases are mostly coming from Mushahar, Ravidas and Paswan communities due to “their poor living conditions”.

Ranjeev, an environmentalist, said that Dalit children are malnourished and are more prone to consumption of contaminated water, which makes them an easy target of AES.

Doctors and experts, who have investigated to find the cause of deaths of children from AES, point to malnutrition as one of the main factors behind children’s vulnerability to the disease. This was iterated by the latest National Family Health Survey (NHFS 2015-16) that pointed out high rates of malnutrition among children under five years of age in Bihar.

Health officials, who have been closely monitoring AES for several years, said malnutrition among Dalit children is common due to prevalence of poverty.

After Chief Minister Nitish Kumar visited Muzaffarpur on Tuesday, the government has commissioned a survey in blocks or villages where death toll reported is high. The survey will study socio-economic profiles of people, particularly affected families and the environment they live in.

“For the first time, such a survey will be conducted. This would help in understanding ground reality,” another health official told NewsClick.

Principal secretary, Health Department, Sanjay Kumar said that of the 113 deaths, 91have died in the state-run Sri Krishna Medical College and Hospital (SKMCH), 16 in private Kejriwal Hospital in Muzaffarpur, two in Nakanda Medical College and Hospital in Patna, and four in other districts.

Doctors and health officials have different views on the reason behind AES and cause of the deaths. It has further complicated the process to combat or control the seasonal outbreak of AES. The central and state governments have failed in saving the children in the affected areas of North Bihar, where it has become an annual epidemic year after year.

Chief Secretary Deepak Kumar publicly admitted that even the government is unclear about what exactly was causing the AES outbreak, which has been recorded in Muzaffarpur since 1995.”We are still not aware if the disease is caused due to some virus, bacteria, toxin effect or due to consumption of litchi, malnourishment or due to environmental conditions such as high temperature and humidity. Several researches have been done, including by a team of experts from the Centre for Disease Control, Atlanta, but the finding is inconclusive,” said Kumar.

Courtesy:News Click

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स्कूली शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बिना नई शिक्षा नीति अधूूरी

नई शिक्षा नीति में “राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” द्वारा सुझाये गए कई समतामूलक उपायों को सम्मलित करना स्वागत योग्य कदम है. जैसे यूनिफॉर्म शिक्षा हेतु त्रिभाषा फार्मूला तथा गणित, विज्ञान और सामाजिक विषयों की जानकारी प्राथमिक स्तर से सभी बच्चों को देना नई सरकार शिक्षा नीति में शामिल किया गया है. नर्सरी कक्षा से उच्चतर माध्यमिक कक्षा तक यानी 18 साल तक के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देना नई शिक्षा नीति की प्राथमिकता दर्शाई गई है. वर्तमान सरकार से नई शिक्षा नीति में आंशिक परिवर्तन करने हेतु ‘राष्ट्रीय समग्र विकास संघ’ अपील करना चाहता है कि नई शिक्षा नीति अच्छी होने के बावजूद भी “स्कूली शिक्षा के राष्ट्रीयकरण के बिना अधूरी है.” प्राइवेट स्कूलों में महंगी शिक्षा होने के कारण 60% अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लाभ से वंचित रह जाएंगे. जिसके कारण नई शिक्षा नीति के अच्छे परिणाम आनेेे की जगह अमीर और गरीब की एक बड़ी खाई उपस्थित हो जाएगी. जिससे गरीब के बच्चे निम्न श्रेणी की नौकरियों में तथा अमीरों के बच्चे कंपनियों और बड़ी नौकरियों के मालिक बन जाएंगे.

उपरोक्त बिंदुओं पर चिंता व्यक्त करते हुए “राष्ट्रीय समग्र विकास संघ” ने गत वर्षो में सेमिनार और अपने प्रपत्रों के माध्यम से सरकार से अपील की गई है. नई शिक्षा नीति को समग्र भारत की शिक्षा नीति के रूप में प्रस्तुत किया जाए. इस लेख के अग्र भाग में आवश्यक बिंदुओं को शामिल करने हेतु संघ ने सरकार से आग्रह किया था जिसका विवरण प्रस्तुत है.

आज सबको चाहिए शिक्षा और शिक्षित होने पर चाहिए सबको सरकारी नौकरी या समुचित रोजगार. परन्तु सरकार ने सरकारी नौकरियों के अवसर बहुत ही सीमित कर दिए हैं. चौथे पे-कमीशन की रिपोर्ट के बाद हर साल रिटायर होने वाले पदों में 5 प्रतिशत की कटौती कर दी जाती है. चतुर्थ श्रेणी के पदों को समाप्त प्रायः कर दिया है, तृतीय श्रेणी के पदों में भी भारी कटौती की गई है, इसके बाबजूद डायरेक्टर एवं उसके ऊपर के पदों को बढ़ाया गया है. इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए यह कटौती जरुरी थी. लेकिन साथ ही लोग यह भी कहते हैं की सरकारी कर्मचारी निकम्मे हैं जो काम नहीं करते हैं, तो उनका काम आउटसोर्स से कराया जा सकता है तथा काम की गुणवत्ता भी सुधारी जा सकती है. आज बड़ी संख्या में नौकरी के अधिकतर पद रिक्त पड़े हैं, फिर भी डेली वेज और कंसल्टेंट के माध्यम से सरकार का काम चलाया जा रहा है. समस्या तो जटिल है, सरकार का खजाना और कर्मचारियों की अकर्मण्यता का बहाना बना कर सरकारी नौकरियों के अवसर कम कर दिए हैं.

ओबीसी और अनुसूचित जातियों के उत्थान का युग (1989-2001)

1984 में कांशीराम द्वारा शुरू की बहुजन समाज पार्टी (बसपा), दलितों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े वर्गों के गठजोड़ को बनाने के लक्ष्य में पूरी तरह से कामयाब थी. 1990 में मंडल आयोग को लागू होने के बाद उत्तर प्रदेश राज्य का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया. 1993 में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन को राज्य विधानसभा में भारी चुनावी सफलता मिली जिसमें ऊंची जातियों के विधायकों की तुलना में ओबीसी विधायक अपेक्षाकृत अधिक संख्या में निर्वाचित हुए यह अब तक के इतिहास का एक रिकार्ड था. इसके बाद प्रदेश में चाहे जिसकी भी सत्ता रही हो पर ओबीसी विधायकों की संख्या का स्तर हमेशा ऊँचा बना रहा. 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से सत्ता में पिछड़े वर्गो की हिस्सेदारी का युग शुरू हुआ. 1993 में सपा और बसपा ने मिलकर उत्तर प्रदेश की राज्य विधानसभा में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के विधायकों की संख्या 40 प्रतिशत से अधिक थी जिसने नए राजनीतिक नेताओं के बनाने की शुरूआत करने में मुख्य भूमिका अदा की. 1993 के चुनाव में दोनों दलों सपा और बसपा के पक्ष में विशिष्ट राजनीतिक रुझान दिखा. सपा और बसपा दोनों ने क्रमश: अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति के अधिक उम्मीदवार जिताये. यहां तक कि बसपा की ब्राह्मण-विरोधी रणनीति के कारण उच्च जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका. लेकिन सपा ने 10 फीसदी ऊंची जाति के विधायकों को जितने में योगदान दिया तथा 35 फीसदी विधायक केवल यादव समाज से जीत कर आए. इसके बाद पुरे देश में पिछड़े वर्ग की राजनीति शुरू हुई और देखते ही देखते हरेक जाति पिछड़ी जाति में शामिल होने के लिए आंदोलन करने लग गई.

कांग्रेस की ब्राह्मण और राजबाड़ा परस्त राजनीति के कारण पिछड़ा समाज हाशिए पर चला गया. जिसका परिणाम है कि जाट, मराठा, कापू और पटेल आरक्षण का मुद्दा गर्म हो रहा है. उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों की आज सबको जरूरत है क्योंकि जमीन छोटी पड़ती जा रही हैं किसान लोग कर्ज के बोझ से दब रहे हैं. पिछड़ी जातियों का नेतृत्व करने के लिए आज की जरूरत के मुताबिक मोदी द्वारा अपनी जाति को 2002 में चुपके से OBC घोषित करके एक बड़े समुदाय का नेता घोषित कर दिया. जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें भारत के प्रधान मंत्री का पद भी हासिल हो गया. गुजरात की राजनीति, व्यापर और ज़मीन में पाटीदार बड़ा दखल रखते हैं, वे भी मोदी के पिछड़े समुदाय में शामिल होकर उच्च वर्णीय जातियों को गुजरात और देश की राजनीति से हमेशा के लिए विदा कर देना चाहते हैं. इसी राजनीति का परिणाम है की 1990 के मंडल युग के बाद ब्राह्मण समाज जो राजनीति में 40% की हिस्सेदारी के साथ ड्राइवर सीट पर रहा है वह आज राजनीति की पिछली सीट पर बैठने को मजबूर है. पिछड़े समाज के नेताओं को ड्राइवर की सीट देना उनकी मजबूरी बन गई है. जिसका परिणाम मोदी और अमित शाह के रूप में आपको दिखाई दे रहा है. नई शिक्षा नीति के माध्यम से आज सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक समानता के लिए ब्राह्मणों और “राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ” को सामने आकर एक नई पहल करनी होगी.

शिक्षा पर इलाहबाद हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

भारतीय संविधान में लगभग कक्षा आठवीं तक, यानी 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को बच्चों के एक मौलिक अधिकार के रूप में सम्मलित किया. बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान बनाते समय इस अधिकार को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किया था. उस समय हमारे देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इस लिए उन्होंने कहा था की जैसे ही आर्थिक स्थिति ठीक होती जाएगी वैसे-वैसे इस शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में सम्मलित करना जरुरी होगा. यह काम 2009 में डा. मनमोहन सिंह की यू.पी.ए. सरकार ने आर.टी.ई.एक्ट बना कर किया. सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य हासिल करने के लिए राज्य सरकारों के लिए बजट आबंटित किया गया. परिणाम बड़े ही चोंकाने वाले मिले यथा:

मिड-डे मील में घपले, कक्षा आठ तक बिना किसी परीक्षा के बच्चों को पास करने के कारण कक्षा पांच के बच्चों द्वारा कक्षा दो की किताब को न पड़ पाना;

प्राइमरी से आगे की पढ़ाई को 90 प्रतिशत बच्चों द्वारा स्कूल छोड़ देना;

इन स्कूलों में शिक्षा मुक्त एवं मुफ्त होना चाहिए था, लेकिन लगता है कि वे हर बात में फेल है;

बुनियादी सुविधाओं का पूर्ण अभाव इन स्कूलों में हर जगह देखा जा सकता है;

आजादी के 65 से अधिक वर्षों के बाद भी इन स्कूलों में अभी भी अधिकतर कक्षाओं की इमारतें अत्यंत जर्जर और बुरी स्थिति में हैं. शौचालयों एवं पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए इन स्कूलों में अभी भी संघर्ष जारी हैं;

कई स्थानों पर कक्षाएं खुले आसमान के नीचे चलाई जा रही हैं. यदि कोई संरचना है भी तो वह जीर्ण-शीर्ण हालत में है;

हांलाकि सरकार द्वारा गरीब लोगों के बच्चों को बुनियादी शिक्षा के कल्याण के नाम पर हर साल भारी मात्रा में पैसा खर्च किया जाता है, परन्तु इन स्कूलों की स्थिति में कुछ भी सुधार नजर नहीं आता है;

यह समझना मुश्किल नहीं है कि सरकार इस दिशा में समुचित ध्यान क्यों नहीं दे रही है, कारण काफी स्पष्ट है;

इन स्कूलों के साथ प्रशासन की कोई वास्तविक भागीदारी और जवावदेही नहीं है;

कुछ लोग जो क्षमतावान और पर्याप्त धनवान है ऐसे व्यक्ति अपने बच्चों को कुलीन और अर्ध कुलीन प्राइमरी स्कूलों में भेजते हैं.

आम आदमी के स्कूलों के सम्बन्ध में माननीय न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने एक बार यह कहा था कि लगता है ये स्कूल शिक्षा की जरुरत को पूरा करने की जगह गरीब बच्चों की दो जून के भोजन की मुश्किल को दूर करने के लिए बनाये गए हैं.

बेसिक शिक्षा मंडल द्वारा चलाए जा रहे ये संस्थान, दुर्विनियोजन, कुशासन और बड़े पैमाने पर उच्चतम स्तर के भ्रष्टाचार के शिकार हो रहे है;

शिक्षण के मानक पूरी तरह से हताहत है. कोई भी ट्यूटोरियल स्टाफ के मानको में सुधार करने के लिए परवाह नहीं करता है;

बिना किसी प्रतियोगी परीक्षा के अयोग्य और अनपढ़ लोगों को नियुक्त करके प्रतिबद्ध मतदाता बनाने के एक स्रोत के रूप में प्राथमिक स्कूलों राजनीतिक कारणों से न्युक्तियां हो रही है. लेकिन वे वास्तव में प्राइमरी स्कूल में बच्चों को पढने में सक्षम नहीं हैं;

बेसिक शिक्षा बोर्ड के अधिनियम, 1972 के तहत उत्तर प्रदेश द्वारा सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त बुनियादी विद्यालयों को बनाए रखने के लिए वार्षिक बजट का एक बड़ा हिस्सा इस मद पर खर्च होता है;

प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की कुल संख्या, अर्थात जूनियर प्राइमरी स्कूल और सीनियर प्राइमरी स्कूलों को मिलाकर एक लाख चालीस हजार है. शिक्षण स्टाफ और हेड मास्टरों की संख्या भी इसलिए लाखों में है;

शिव कुमार पाठक एवं अन्य लोग बनाम यूपी राज्य के फैसले में न्यायिक खंडपीठ के द्वारा यह देखा गया है कि बोर्ड द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूलों में सहायक अध्यापकों के 2.70 लाख पद खाली पड़े हुए हैं;

शिक्षकों की भर्ती में भारी अनियमितता, जवाबदेही और विश्वसनीयता की कमी के कारण प्रबंधन भारी मुकदमेबाजी में फंस गया है, जिसके लिए अधिकारियों की बेखबरी, गैरईमानदारी और आकस्मिक दृष्टिकोण पूरी तरह से जिम्मेदार है.

उत्तर प्रदेश में इस समय छोटे बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए चल रहे प्राथमिक विद्यालयों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

1. अभिजात्य वर्ग के बच्चों के स्कूल:

प्रदेश में कुछ पब्लिक स्कूल ब्रांडेड हैं, जो अभिजात वर्ग और अत्यधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोगों द्वारा संचालित हैं. ऐसे प्राथमिक स्कूलों की संख्या बहुत कम हैं. ऐसे स्कूलों में गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए उपलब्धता लगभग नगण्य है, जिसमें कुछ अंग्रेजी / कॉन्वेंट स्कूल ईसाई अल्पसंख्यक मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे हैं. इस श्रेणी के स्कूल मूल रूप से अत्यधिक अमीर लोगों, उच्च वर्ग के नौकरशाहों, मंत्रियों, जन प्रतिनिधियों, जैसे, संसद सदस्य, विधान सभा सदस्यों तथा उच्च मध्यम वर्ग के लोगों की जरूरत को पूरा करते हैं. अभिजात वर्ग समाज की एक सीमित इकाई है जिसके बच्चे ही उसमें शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं. सामान्य लोग तो इन स्कूलों में ली जाने वाली फीस के वित्तीय मानकों को भी पूरा नहीं कर सकते हैं. बहुत सख्त प्रवेश मानकों एवं उच्च संसाधनों की वजह से ज्यादातर सीटें अभिजात्य वर्ग के लिए ही उपलब्ध हैं. इन स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्टर्स, ट्यूटोरियल कर्मचारियों और अन्य सभी सुविधायें सबसे अच्छे प्रकार की है. इन स्कूलों को ‘एलीट’ स्कूलों के रूप में लिया जा सकता है.

2. निम्न मध्यम वर्ग के स्कूल:

दूसरी श्रेणी के प्राथमिक विद्यालय जो निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए सामान्य रूप से कुछ निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा चलाए जा रहे हैं. इन स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर इतना परिष्कृत और कुलीन स्कूलों के तरह अति आधुनिक नहीं है, लेकिन सरकारी स्कूलों से काफी बेहतर है और तुलनात्मक रूप से भी ट्यूटोरियल स्टाफ भी अच्छा है. इन स्कूलों को ‘अर्ध-कुलीन वर्ग के स्कूलों’ के रूप में भी पहिचाना जा सकता है.

3. सामान्य वर्ग के बच्चों के स्कूल:

प्रदेश के यह बोर्ड द्वारा संचालित स्कूल ही अत्यधिक बच्चों की जरूरत को पूरा कर रहे है जिनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है. लगभग सभी ऐसे प्राथमिक विद्यालय जो सरकारी प्रशासन के तहत बोर्ड द्वारा प्रबंधित और संचालित हैं, तृतीय श्रेणी में आते हैं. इनको ‘आम-आदमी के स्कूलों के रूप में जाना जा सकता है. ऐसे स्कूल ग्रामीण वर्ग, अर्ध-शहरी वर्ग के बच्चों की पढाई की जरुरत को पूरी करते हैं, ये ऐसे लोगों के लिए हैं जो अन्य दो श्रेणियों के अंतर्गत आने वाले स्कूलों का खर्च वहन नहीं कर सकते हैं. राज्य में छोटे बच्चों की लगभग 90 फीसदी आबादी इन स्कूलों में पढ़ने के लिए विवश है.

वे कोन लोग हैं जो शिक्षा की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं? उनके बच्चों को भी इन स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढने के लिए विवश करना चाहिए, तो शिक्षा का स्तर अवश्य ही सुधरेगा.

सभी लोग समझ सकते हैं कि जब जिले के कलेक्टर और एसपी तथा अन्य अधिकारीयों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ना आरम्भ कर देंगे, तो उन स्कूल में शिक्षा का स्तर क्या होगा और शिक्षक किस तरह की पढ़ाई वहां करवाएंगे.

यह सुझाव तो 100 टके का है, लेकिन इसे मानव संसाधन विकास मंत्री तो क्या बल्कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लागू नहीं कर सकते.

कोर्ट का यह फैसला जिसे छह महीनों में लागू करना है.

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज श्री सुधीर अग्रवाल ने जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला उत्तर प्रदेश के प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक बेसिक स्कूलों की दुर्दशा को सुधारने के लिए दिया है.

कोर्ट ने इस फैसले को लागू कराने के लिए मुख्य सचिव को छह माह का समय दिया है. इस फैसले से जुड़े मुख्य बिंदु निम्न लिखित हैं :

अगर सरकारी अधिकारियों सहित जनप्रतिनिधि, जज अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही सरकार करे;

इसलिए, मुख्य सचिव, यूपी सरकार को इस संबंध में इलाहबाद हाईकोर्ट ने निर्देश दिया है कि जिम्मेदार अन्य अधिकारियों के साथ परामर्श करके इस मामले में उचित कार्रवाई सुनिश्चित करके छः माह के अंदर कोर्ट को सूचित करें;

सरकारी कर्मचारियों, अर्द्ध सरकारी कर्मचारियों, स्थानीय निकायों, न्यायपालिका और ऐसे सभी व्यक्तियों के आलावा सभी जन प्रतिनिधि जो सार्वजनिक कोष से किसी भी तरह का लाभ या वेतन आदि प्राप्त करते हैं, वे अपने बच्चे / बच्चों / वार्डों को सरकारी स्कूलों में ही भेजें;

इस शर्त का उल्लंघन करने वाले लोगों के लिए दंडात्मक प्रावधान सुनिश्चित किये गए हैं;

यदि कोई भी सरकारी कोष का लाभार्थी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल की जगह पब्लिक स्कूल में भेजेगा तो उसे हर महीना निजी स्कूल में भुगतान किये शुल्क के बराबर धन राशि, हर महीने सरकार के कोष में जमा करनी पड़ेगी;

यह राशि बोर्ड के स्कूलों की गुणबत्ता सुधारने पर उपयोग की जाएगी;

जो सरकारी अधिकारी सहित अन्य लाभ के पद पर अधिकारी हैं, अगर वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते हैं तो उनकी वेतन वृद्धि/ प्रोन्नति रोक दी जायेगी;

स्कूलों की दशा को सुधारने में कोताही बरतने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की जायेगी. (उपरोक्त फैसला आज तक उत्तर प्रदेश में और देश के अन्य भागों में क्यों लागू नहीं हुआ? इसके राजनीतिक कारण कुछ भी हो सकते हैं परंतु आम जनता के सामने यह आज भी सरकारों को गैर जवाब देह साबित करने के लिए काफी है.)

समस्या का कारण और समाधान

उक्त फैसले पर स्टे लेना दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका अर्थ है कि सभी बच्चों को सरकार के खर्चे पर एक-समान स्कूल स्तर तक शिक्षा मिले सभी चाहते हैं परन्तु उतनी गंभीरता सत्ताधारी लोगों के कृत्यों में नजर नहीं आती. यह बड़ा ही गंभीर विषय है यदि इस पर आम जनता ने अपना फैसला नहीं लिया तो हमारा देश विकास की दौड़ में काफी पिछड़ जायेगा. कम से कम इस मुद्दे पर राजनीति न करके संवैधानिक भावना की कद्र करनी होगी.

आरक्षित वर्ग में आने वाले बुद्धिजीवी लोगों का कहना है की जब से मंडल कमीशन लागू हुआ है तब से एक विशेष वर्ग का सरकारी नौकरियों से एकाधिकार समाप्त हो गया है इस लिए प्राइवेटाइजेशन को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसमें कुछ लोग भाजपा सरकार को कोस रहे हैं पर इससे ज्यादा कांग्रेस भी दोषी है.

वास्तव में देश की व्यवस्था आजादी के बाद एक विशेष समुदाय के हाथों में आ गई जिसके मुखिया पंडित जवाहर लाल नेहरू थे. अब नेहरू माडल की नकल सारी सरकारें करती हैं. नौकरियों में आजादी से पहले 3.5 फीसदी जनसँख्या वाले ब्राह्मण समुदाय की नौकरशाही और शिक्षा में हिस्सेदारी मात्र 3 फीसदी थी जो 1989 में लगभग 75 फीसदी हो गई. वहीँ कायस्थों का जनसँख्या में मात्र डेढ़ फीसदी हिस्सेदारी है उनकी 1935 में नौकरशाही में 40 फीसदी की हिस्सेदारी थी थी जो 1989 में घट कर मात्र 3 फीसदी ही रह गई. स्वामी विवेकानन्द, जयप्रकाश नारायण, डा राजेंद्र प्रसाद, महेश योगी, शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन आदि महानुभाव इसी समुदाय से आते हैं. सरकारी नौकरियों में पिछड़ने के कारण इन्होने भी जनता सरकार के समय अपने को चमार घोषित करके अनुसूचित जातियों की श्रेणी में आने के लिए कोर्ट के द्वारा सफलता हासिल करने की कोशिश की थी.

आज अनिवार्य और मुफ्त स्कूली शिक्षा, सरकारी नौकरियों में सभी सामाजिक वर्गो को आनुपातिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का सवाल बहुत बड़ी समस्या बनता जा रह है. जिन वर्गो ने अपनी संख्या से ज्यादा हासिल कर लिया है वह छोड़ना नहीं चाहते. और जिन वर्गों का हिस्सा कम है वह अपना हिस्सा पाने के लिए जागरूक हो रहे हैं. जिसकी परिणति में अनेकों नए जातीय आंदोलन जातीय राजनीति के रूप में पैर पसार रहे हैं.

शिक्षा लेना और देना एक विशेष समुदाय ने ही अपनी संम्पत्ति समझ रखा था, वह भी उनके हाथ से निकलती नजर आ रही है. इस दिशा में न्यामूर्ति सुधीर अग्रवाल का निर्णय एक उचित कदम है. प्राइमरी शिक्षा का राष्ट्रीयकरण तथा जनसँख्या के अनुपात में सभी चारों वर्गों को नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी ही उचित समाधान होगा, अन्यथा देश के युवा गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर सकते हैं. जहाँ तक आरक्षण के समाप्त करने का सवाल है, उसे समाप्त करना या उसको कम करना पूर्णत: असंभव है.

आज जनता की आवाज है, जनसंख्या के अनुपात में समाज के सभी वर्गों को शिक्षा, सरकारी सेवाओं और राजनीति में प्रतिनिधित्व हासिल करना. जब मोदी (घाँची-मोद ) पिछड़ा बन सकते हैं तो हार्दिक पटेल पिछड़े वर्ग के अन्तर्गत आरक्षण क्यों नहीं ले सकते. याद रहे हार्दिक पटेल के समाज से आने वाले छत्रपति शाहू महाराज ने सबसे पहले 26 जुलाई 1902 में शूद्र-अतिशूद्र जातियों को शिक्षा में 50% आरक्षण कोल्हापुर स्टेट में दिया था. जैसा कि विदित है इस देश में सर्वप्रथम तथागत बुद्ध ने ‘बुद्धम शरणम गच्छामि’ का उपदेश देकर के समग्र समाज को शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत महसूस की. इसी तरह से 1848 में महात्मा फुले ने स्त्री और पुरुषों तथा समग्र समाज को ब्राह्मणों की तरह शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत महसूस की. उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर अंबेडकर ने भारतीय संविधान में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य एवं निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की. उन्होंने शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति का उत्तम मार्ग माना जो भारत में वंचित वर्ग के लिए वहीं क्रांति सेेे कम नहीं है. नई शिक्षा नीति आज लागू होने जा रही है उसमें उपरोक्त महापुरुषों की भावनाओं को मध्य में रखते हुए समाज को समतामूलक बनाना जरूरी है. जिसके लिए स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है.

के सी पिप्पल

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