बिहारः अम्बेडकर छात्रावास में सवर्ण छात्र!

पटना। अम्बेडकर छात्रावास अनुसूचित जाति/जनजाति के विद्यार्थियों के लिए एक सहारे की तरह रहा है. गरीब वर्ग के दलित छात्र यहीं अपने जीवन के सपने बुनते हैं. अपने समाज के अन्य छात्रों के बीच रहकर उनका विकास होता है. लेकिन बिहार सरकार इसमें सेंधमारी करने जा रही है. बिहार सरकार ने अम्बेडकर छात्रावास में सवर्ण छात्रों को रहने की इजाजत दे दी है. सरकार ने इसके लिए कागजी फरमान भी जारी कर दिया है, जिसमें साफ लिखा है कि अनुसूचित जाति/ जनजाति के छात्रावास में एससी/एसटी छात्रों की सीटें खाली रहने पर ओबीसी (पिछड़ा) और फिर जनरल (सामान्य) छात्र अम्बेडकर हॉस्टल में रह सकते हैं. बिहार सरकार के अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण विभाग के प्रधान सचिव प्रेम सिंह मीणा के द्वारा इस आशय का आदेश 15-07-2016 पत्रांक- 4680 को जारी किया जा चुका है. बिहार सरकार के इस फैसले ने दलितों को एक और झटका दिया है. पूर्व में प्रशासनिक अधिकारी रहे एवं वर्तमान में लेखन और पत्रकारिता में सक्रिय बुद्ध शरण हंस ने सरकार की इस मंशा पर सवाल खड़ा किया है. उन्होंने कहा कि सरकार अगर ऐसा कर रही है तो यह पूरी तरह से दलित विरोधी षड्यंत्र है. अम्बेडकर छात्रावास स्पेशल कंपोनेंट प्रोग्राम के तहत एससी/एसटी वेलफेयर के लिए जारी पैसे से बनता है. यह छात्रावास सिर्फ एससी/एसटी छात्रों के लिए होता है. इसमें दूसरे वर्ग के छात्र कैसे रह सकते हैं. बुद्ध शरण हंस ने सवाल उठाते हुए कहा कि अम्बेडकर हॉस्टल में सीटें खाली रहने का तो सवाल ही नहीं है, क्योंकि अब तो ज्यादा बच्चे आ रहे हैं. मुझे शक है कि कहीं सरकार बाद में यह न कहने लगे कि छात्रावास सिर्फ योग्य एससी छात्रों को ही दिया जाएगा. इसी सरकार ने हाल ही में एससी वर्ग के कर्मचारियों का आरक्षण में प्रोमोशन हटाया है वह भी सबके सामने हैं. नीतीश असल में भाजपा के आदमी हैं और उसी तरह से काम कर रहे हैं. नीतीश और लालू की यह सरकार दलितों का काफी नुकसान कर रही है. गौरतलब है कि हाल ही में बिहार में दलित छात्रों द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान भी पुलिस ने उन्हें जमकर पीटा था. हकीकत यह भी है कि विधानसभा चुनाव में दलितों के वोट से ही चुनाव में पिछड़ रहे नीतीश-लालू गठबंधन को जीत मिल पाई थी. लेकिन सरकार आने के बाद से लेकर अब तक सरकार ने ऐसे कई फैसले लिए हैं, जिससे दलित समाज के छात्रों और कर्मचारियों के हित की अनदेखी हुई है. ​इससे पहले ​टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में दलितों की सीट सवर्णों को ​दिया जा चुका है. इस पूरे मामले पर अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण मंत्री संतोष कुमार निराला से उनका पक्ष जानने के लिए उनके नंबर पर बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. दलित दस्तक द्वारा उन्हें मैसेज भी किया गया लेकिन उनका कोई जवाब नहीं मिला.

झारखण्डः 15 आदिवासी संगठनों ने किया सरकार का विरोध, कहा-जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे

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रांची। झारखण्ड राज्य जिन उद्देश्यों को लेकर बना, वे तमाम उद्देश्य झारखण्ड वासियों के लिए सपने बन कर रह गए हैं. सरकार विकास के नाम पर सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन का अध्यादेश ले आयी है. जमीन लूट की नीति के लिए सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन का विरोध करते हुए 15 आदिवासी संगठनों ने आदिवासी अस्तित्व और भूमि कानून के मुद्दे पर सम्मेलन का आयोजन किया. मुंडारी खूंटकटी परिषद, एभन मांझी वैसी पाकुड़, जनाधिकार मंच बोकारो, आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व मंच, सोनात संताल समाज, एआईपीएफ इंसाफ और अन्य आदिवासी संगठन भी इस सम्मेलन में शामिल हुए. इस सम्मेलन में काश्तकारी कानून में संशोधन, अधिवास नीति एवं आदिवासी और मूल निवासी समुदायों के बीच संसाधनों का असमान वितरण आदि मुद्दों पर बात की गई. सम्मेलन में दयामनी बारला ने कहा कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन कर सरकार आखिर किसको बेवकूफ बनाना चाहती है. झारखंड का आदिवासी समुदाय अब जाग चुका है. अब उनका एक ही नारा है, जान दे देंगे, जमीन नहीं देंगे. लड़ेंगे और जीतेंगे. सीएनटी और एसपीटी एक्ट में संशोधन को आदिवासियों की जमीन पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट घरानों के हाथों देने का जरिया बताया. उन्होंने कहा कि एक्ट में संशोधन से झारखण्ड के आदिवासियों का विकास नहीं, विनाश होगा. उन्होंने इसे आदिवासी समुदाय का अस्तित्व खत्म करने की साजिश बताया. सरकार को याद रखना चाहिए कि झारखंड के किसान खेती और जमीन के बिना नहीं रह सकते हैं. एक आदिवासी संगठन के सदस्य ओनिल ने कहा कि गांव-गांव में संगठन बना कर लोगों को जागरूक करने की जरूरत है. बिरसाइत समाज के मंगरा ने कहा कि पुरखों ने हमारे अस्तित्व पहचान की विरासत जल, जंगल, जमीन के रूप में दी है, जिसे बेचने नहीं, बल्कि बचाने की जरूरत है. वामपंथी नेता केडी सिंह ने भाजपा सरकार को हाईफाई सरकार बताते हुए कहा कि सिंगल विंडो सिस्टम, स्मार्ट सिटी, स्टार्ट अप और बुलेट ट्रेन जैसी घोषणाएं यहां के भोले-भाले आदिवासी-मूलवासियों को भुलावे में डालने वाली हैं. यह सरकार लोगों को आपस में लड़ा कर राज करने और किसानों की जमीन लूटने की साजिश रच रही है.

डॉ. अम्बेडकर और मातृत्व अवकाश

मातृत्व लाभ बिल 2016 को राज्यसभा ने मंजूरी दे दी. लोकसभा की मंजूरी अभी बाकी है. बिल से सरकारी और निजी क्षेत्रा में काम करने वाली महिलाओं को 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश मिलने का रास्ता साफ हो गया. हालांकि तमिलनाडू में 26 हफ्ते के मातृत्व अवकाश का प्रावधान पहले से ही है. नये विधेयक के अनुसार मातृत्व अवकाश के दौरान महिलाओं को वेतन भी मिलेगा और तीन हजार रुपये का मातृत्व बोनस भी. 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश सिर्फ दो बच्चों के जन्म तक ही मिलेगा. दो से अधिक बच्चे होने पर अवकाश सिर्फ 12 हफ्ते का ही रहेगा. बच्चे को गोद लेने वाली महिला को भी 12 हफ्ते का मातृत्व अवकाश मिलेगा. महिलाओं को सार्वजनिक मातृत्व अवकाश देने वाला भारत दुनिया का तीसरे नंबर का देश होगा. मातृत्व अवकाश के मामले में भारतीय महिलाओं की स्थिति अमेरिका से काफी बेहतर कही जा सकती है. अमेरिका दुनिया का एक मात्रा ऐसा देश है जहां महिलाओं को मातृत्व के दौरान वेतन नहीं मिलता. यदि अन्य देशों की बात करें तो अमेरिका, पाकिस्तान, श्रीलंका एवं म्यांमार में 12 हफ्ते, अफगानिस्तान व इंडोनेशिया में 13 हफ्ते, चीन में 14 हफ्ते, बांग्लादेश व सिंगापुर में 16 हफ्ते, ईरान में 17 हफ्ते और वियतनाम में 26 हफ्ते का मातृत्व अवकाश मिलता है. सरकार के साथ-साथ निजी क्षेत्रों में काम करने वाली महिला कर्मचारियों को भी मिलेगा. राज्यसभा में पारित हो चुके इस विधेयक का दायरा उन सभी कंपनियों तक फैला हुआ है जहां 10 से ज्यादा महिलाएं काम करती हैं. अनुमान है कि 18 लाख महिलाएं उक्त सुविधा का लाभ उठा सकेंगी. यह उन सामाजिक संगठनों की जीत है जो लम्बे अर्से से संघर्ष कर रहे थे. क्या निजी संस्थान महिलाओं को मातृत्व अवकाश दे पायेंगे? सच तो यह है कि आरोप-प्रत्यारोप लगा कर ऐसी महिलाओं को पहले ही संस्थान से निकाल देते हैं या फिर नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर कर देते हैं. जहां नीयत में खोट हो वहां नियम क्या करेगा? 19 जुलाई 1937 में बाबा साहेब डॉ. आम्बेडकर ने बंबई विधानसभा के सदस्य की शपथ लेने के बाद कहा था कि महोदय! प्रेसिडेंसी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रेसिडेंसी में निरक्षरता, मलेरिया, गनोरिया, सिफलिस तथा अन्य बीमारियों की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए मुझे यह पूछने का तनिक भी संकोच नहीं है कि क्या सरकार अपना उत्तरदायित्व ठीक प्रकार से निभा रही है? उसने मात्र सैंतीस लाख ग्यारह हजार रुपये का बजट पेश किया है. कामकाजी महिलाओं की कवायद करते हुए बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर ने कहा कि ‘कृषि तथा अन्य व्यवसायों में महिलाओं को उन खतरों का सामना नहीं करना पड़ता है. यानी वहां वे हालात नहीं हैं जो फैक्टरियों में हैं. जो हालात फैक्टरियों में काम करने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, ऐसी स्थिति में जच्चा का कुछ समय के लिए प्रसव से पूर्व तथा कुछ समय के लिए प्रसव के पश्चात विश्राम दिया जाए. ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत महिला प्रसूति लाभ अधिनियम 1941 पर चर्चा करते हुए बाबा साहेब डॉ.अम्बेडकर ने कहा था कि  वर्तमान खदान प्रसूति लाभ विधेयक के तहत खदान की एक महिला कर्मचारी 8 हफ्तों का लाभ आठ आना प्रतिदिन की दर से ले सकती है. यह आठ हफ्ते का समय चार-चार हफ्ते के दो भागों में बांटा गया है. पहला भाग प्रसव के पहले और दूसरा प्रसव के बाद. पहले भाग में महिला स्वैच्छिक आराम कर सकती है और चाहे तो निरंतर काम करके पूरा वेतन अर्जित कर सकती है. आराम के लिए काम से गैर हाजिर रहने पर वह प्रसूति लाभ पा सकती है. प्रसूति के बाद का चार हफ्ते का समय आवश्यक आराम का समय है, जिसमें किसी महिला को काम नहीं करना चाहिए. वास्तव में इस अवस्था में उसका काम करना गैर कानूनी और आपराधिक है. उसे केवल प्रसूति लाभ पर ही संतुष्ट होना है. प्रसूति लाभ विधेयक की धारा 5 में प्रसूति लाभ की आदायगी का प्रावधान किया गया है. यदि माननीय सदस्य इस प्रावधान की पंक्ति 9 में काम के संदर्भ में वर्णित शब्दों की ओर ध्यान दे तो पायेंगे कि शब्दावली काम से गैर हाजिर का प्रयोग या फिर काम से शब्द अस्पष्ट है. मैं संक्षेप में स्पष्ट करूंगा कि इनमें क्या अस्पष्टता है? मान लीजिए कि खदान के मालिक ने किसी विशेष दिन खदान बंद कर दी तो क्या उस दिन से महिला कर्मचारी को प्रसूति लाभ पाने का अधिकर है? कहा जाता है कि नहीं. क्योंकि काम से गैरहाजरी शब्दों की जटिलता का यह भी अर्थ निकलता है कि काम तो है किन्तु जब खदान बंद कर दी गई तो काम नहीं. प्रवर समिति द्वारा जो संशोधन हुआ उस विषय में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर कहते हैं. प्रवर समिति ने जो पहला परिर्वतन किया है कि गर्भवती स्त्री को धरातल के नीचे कार्यों पर भेजे जाने की अवधि संबंधी प्रतिबंध है. मूल विधेयक में प्रसूति से 10 सप्ताह पूर्व ओर प्रसूति से चार सप्ताह बाद तक प्रतिबंध था. प्रवर समिति ने मूल से प्रसूति पूर्व की प्रस्तावित अवधि में परिवर्तन नहीं किया परन्तु प्रसूति उपरांत की अवधि में जो परिवर्तन किए गए हैं वे व्यापक हैं. यह प्रतिबंध अवधि चार सप्ताह से बढ़ा कर छत्तीस सप्ताह कर दी है. धरातल के नीचे कार्य कारने वाली स्त्रियों को प्रसूति लाभ के प्रवर समिति ने निम्नलिखित परिवर्तन किए हैं. मूल विधेयक में धरातल के नीचे कार्य करने वाली स्त्रियों की प्रसूति लाभ की पात्राता की दो शर्तें रखी गई थीं. वे शर्तें थीं प्रसूति से न्यूनतम छह महीने पहले खदान में कार्यरत होना और इन छह महीनों में 90 दिन तक धरातल के नीचे कार्य. प्रवर समिति ने पहली शर्त हटा दी है अर्थात खदान में न्यूनतम छह माह की सेवा ताकि संशोधित विधयेक में बस इतना ही पर्याप्त माना जाए कि स्त्री ने प्रसूति से पूर्व के छह महीना में नब्बे दिन तक तल के नीचे कार्य किया है. उस स्थिति में वह प्रसूति लाभ की पात्र होगी. प्रवर समिति ने लाभ की अवधि में भी संशोधन किए हैं. मूल विधेयक में प्रसूति लाभ की अवधि प्रसूति से दस सप्ताह पूर्व और प्रसूति उपरांत चार थी. प्रवर समिति ने प्रसूति उपरांत लाभ प्राप्त करने की अवधि चार से बढ़ा कर छह सप्ताह कर दी है. साथ ही लाभ राशि में भी परिवर्तन कर दिया गया है. मूल रूप से लाभ राशि आठ आना प्रतिदिन थी. प्रवर समिति ने इसे बढ़ा कर छह रुपये प्रति सप्ताह कर दिया है. जो चौदह आना प्रतिदिन से कुछ कम है. फिर दूसरी अवधि को अधिकृत छुट्टी घोषित कर दिया गया. ताकि इस काल के दौरान कोई मालिक इस विधेयक के अधीन आने वाली स्त्री को निकाल न सके. प्रवार समिति ने जो अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान किया है वह लाभ की पात्र स्त्री की मांग पर उसकी डॉक्टरी जांच महिला डॉक्टर से कराई जाएगी. यह प्रावधान मूल विधेयक में नहीं था. मैं सदन का ध्यान आकर्षित कराना चाहता हूं कि नीचे कार्य छत्तीस प्रतिबंधित सप्ताहों के बीच कोई स्त्री बत्तीस सप्ताहों के दौरान धरातल के नीचे कार्य को छोड़कर अपनी आमदनी के लिए अन्य कार्य कर सकती है. यह व्यवस्था मूल विधेयक में नहीं थी. सरकारी या निजी स्तर की महिला कर्मचारियों ने मातृत्व अवकाश के लिए दावेदारी की पर किसी ने यह नहीं सोचा कि इस विधेयक को प्रस्तुति करने वाला कौन था? यह विधेयक किसी उच्चवर्णीय द्वारा प्रस्तुत किया होता तो वह इस देश में भगवान या देवी बना जाती है. गैर दलित की तो बात ही छोड़िए अधिकांश दलित भी नहीं जानते कि यह विधेयक बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने पहली बार प्रस्तुत किया था. बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का मूल्यांकन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक रूप में इतना किया कि सौ से अधिक शीर्षक से हिन्दी बाजार में पुस्तक देखी जा सकती हैं पर स्वास्थ्य के संबंध में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर को लेकर कोई किताब नहीं लिखी गई. डॉ. जुगल किशोर ने डॉ. अम्बेडकर और स्वास्थ्य को लेकर आलेख सामाजिक न्याय संदेश पत्रिका में जरूर लिखा.
डॉ. रूपचंद गौत्तम  पत्रकार हैं.

यूपीः पुलिस के डर से जंगलों में रात बिता रहे हैं दलित!

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सहारनपुर। पंद्रह अगस्त के बाद से सहारनपुर के उसंद गांव के दलित लोग पास के जंगल में रात गुजार रहे हैं. गांव की दलित महिलाएं रात भर देखा करती हैं कि कहीं पुलिस की जीप तो नहीं आ रही है. पिछले एक हफ्ते में तीन दलितों की पुलिस की ज्यादती की वजह से मौत हो गई. हालांकि पुलिस इस बात से इनकार करती है. गांव वालों का आरोप है कि पुलिस और पीएसी के लोगों ने उनपर लाठियां बरसाईं. तनाव की स्थिति तब शुरू हुई जब किसी और जाति के एक शख्स ने दलित से कर्ज के बदले इसकी बेटी को अपने घर रखने के लिए कहा. इस बात पर दो समूह जब आमने-सामने आए तो पुलिस को बुलाया गया. पुलिस के अनुसार दंगे जैसी स्थिति को काबू करने के लिए बल प्रयोग किया गया. लेकिन लोगों का कहना है कि पुलिस ने केवल दलितों को ही टारगेट किया. एक ग्रामीण रवि कुमार ने बताया कि पुलिस ने उन्हें जानवरों की तरह पीटा. उन्होंने कहा, हमें बुरी तरह से पीटा गया. गांव के किसी भी दलित का ऐसा घर नहीं बचा जहां पुलिस ने घुसकर तोड़ फोड़ न की हो. कम से कम सौ पुलिस और पीएसी के लोगों ने उपद्रव किया और यह घटना स्वतंत्रता दिवस पर हुई. सरिता देवी, राकेश कुमार और चमन सिंह को बहुत बुरी तरह पीटा गया और उसी रात उन तीनों ने दम तोड़ दिया. वे सभी दलित थे. इन हालात में हम लोगों ने अब जंगल में रात बितानी शुरू कर दी है जबकि घर की महिलाएं रात भर पुलिस को आहट देखती रहती हैं. यहां तक की एंबुलेंस की आवाज सुन कर भी हम डर जाते हैं. सहारनपुर के एसएसपी मनोज तिवारी ने कहा,”मुझे पता चला है कि दो समूह के लोगों में अनबन हो गई थी. कुछ लोगों ने पुलिस पर भी हमला किया इसलिए हमें बल प्रयोग करना पड़ा. हमने 20 अज्ञात लोगों के खिलाफ पुलिस पर हमला करने के लिए केस दर्ज किया है. हो सकता है कि गिरफ्तारी से बचने के लिए ये लोग जंगल में सो रहे हैं. जहां तक लोगों के डर का मामला है तो हम गांव जाकर उन्हें आश्वासन देंगे कि डरने की कोई जरूरत नहीं है.”

ओडिशाः पत्नी के शव को कंधे पर लादकर 10 किमी तक पैदल चला दाना माझी

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कालाहांडी। ओडिशा के कालाहांडी से मानवता को शर्मसार कर देने वाली खबर है. यहां के एक आदिवासी शख्‍स को अपनी पत्नी की लाश कंधे पर रखकर 10 किलोमीटर इसलिए पैदल चलना पड़ा क्‍योंकि अस्‍पताल प्रशासन ने उसे एंबुलेंस देने से मना कर दिया था और उसके पास गाड़ी करने को रुपए नहीं था. आंसुओं में डूबी बेटी को साथ लेकर, दाना माझी ने अपनी पत्नी अमंगदेई की लाश को भवानीपटना के अस्‍पताल से चादर में लपेटा, उसे कंधे पर टिकाया और वहां से 60 किलोमीटर दूर स्थित थुआमूल रामपुर ब्‍लॉक के मेलघर गांव की ओर बढ़ चला. बुधवार तड़के टीबी से जूझ रही माझी की पत्‍नी की मौत हो गई थी. बहुत कम पैसा बचा था, इसलिए माझी ने अस्‍पताल के अधिकारियों से लाश को ले जाने के लिए एक एंबुलेंस  देने को कहा. लेकिन अस्पताल प्रशासन ने मना कर दिया. माझी लाश कंधे पर लिए करीब 10 किलोमीटर तक चलता रहा, तब कुछ युवाओं ने उसे देखा और स्‍थानीय अधिकारियों को खबर की. जल्‍द ही, एक एंबुलेंस भेजी गई जो लाश को मेलघर गांव लेकर गई. मांझी ने कहा, “मैंने सबके हाथ जोड़े, मगर किसी ने नहीं सुनी. उसे लाद कर ले जाने के सिवा मेरे पास और क्‍या चारा था.” ऐसी स्थिति के लिए ही नवीन पटनायक की सरकार ने फरवरी में ‘महापरायण’ योजना की शुरुआत की थी. इसके तहत शव को सरकारी अस्तपताल से मृतक के घर तक पहुंचाने के लिए मुफ्त परिवहन की सुविधा दी जाती है. जबकि माझी ने बताया कि बहुत कोशिशों के बावजूद भी उसे अस्पताल के अधिकारियों से किसी तरह की मदद नहीं मिली.

बिहारः महादलित युवक को गंजाकर रातभर गांव में घुमाया

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मुजफ्फरपुर। रामपुर जयपाल गांव के ग्रामीणों ने एक महादलित युवक की बेरहमी से पिटाई कर उसके बाल मुंडवाकर और गले में जूतों की माला पहनाकर रात भर गांव में घुमाया. पीड़ित राजू ऑटो चलाता है. कुछ दिन पहले उसे एक मोबाइल लवारिश हालत में पड़ा मिला, जिसे उसने गांव के ही एक व्यक्ति को बेच दिया. मोबाइल के मालिक को जब इस बात का पता चला तो उसने ऑटो चालक राजू को उठाकर एक कमरे में बंद किया और उसकी पिटाई की. बाद में उसे पंचायत में ले जाया गया. पंचायत ने उसके बाल काटकर पूरे गांव में घुमाने का तालिबानी फरमान जारी कर दिया. गांव के ही कुछ लोगों को यह कृत्य पसंद नहीं आया और उन्होंने ग्रामीणों को इस तरह से राजू को प्रताड़ित करने से रोका. बाद में घायल अवस्था में राजू को एसकेएमसीएच में भरती कराया गया. इतना कुछ होने के बाद भी स्थानीय थाने को इस घटना की खबर नहीं मिली. मामला मीडिया में आने के बाद मुजफ्फरपुर के एसएसपी ने पूरी घटना को गंभीरता से लेते हुए मामले की जांच के आदेश दिये हैं. एसएसपी ने कहा है कि इस मामले में जो भी दोषी होंगे उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जायेगी. गौरतलब हो कि आये दिन मुजफ्फरपुर में पंचायत द्वारा अजीबो-गरीब फैसले लिये जाते रहते हैं.

आप कितने दलित क्रिकेटरों को जानते हैं?

कहा जाता है कि क्रिकेट अमीरों का खेल है. शायद इसीलिए भारतीय क्रिकेट में जो गिने चुने दलित खिलाड़ी रहे, वे भी गुमनाम ही रहे. इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा की नई क़िताब ”विदेशी खेल अपने मैदान पर” में उन्होंने क्रिकेट का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण करने की कोशिश की है. इस क़िताब में, बकौल लेखक, भारतीय क्रिकेट के इतिहास के गुमनाम क्रिकेटरों के बारे में पड़ताल की गई है. आज़ादी के बाद शायद तीन यार चार दलितों ने क्रिकेट खेला, लेकिन उन्हें वो शोहरत हासिल नहीं हुई जिसके वे हक़दार थे. सवाल उठता है कि क्या भारतीय क्रिकेट में भी ऊंची जातियों और उच्च वर्गों का ही दबदबा है? जवाब में इस किताब में रामचंद्र गुहा लिखते हैं, एक बार मैं मुंबई में, दलित गेंदबाज रहे पालवंकर बालू के भतीजे से मिला, जिन्होंने कुछ अनमोल पारिवारिक दस्तावेज मुझे सौंपे. इसमें मराठी में छपा एक संस्मरण भी शामिल था. उन्होंने अपने चाचा और अपने पिता विट्ठल (बालू के छोटे भाई और एक प्रतिभाशाली बल्लेबाज) की यादें भी साझा कीं. इसके बाद तब के एक अग्रणी राष्ट्रवादी अखबार ”बॉम्बे क्रॉनिकल” की माइक्रो फ़िल्में देखते हुए मैंने दोनों भाइयों के निजी संघर्षों पर दिलचस्प सामग्री पाई. ये दोनों भाई अपने समय के अच्छे क्रिकेटर थे, लेकिन दलित पृष्ठभूमि से होने के कारण उन्हें पर्याप्त स्वीकृति नहीं मिली. इसके बाद मैंने बीआर अंबेडकर के साथ बालू के क़रीबी और जटिल संबंध के बारे में नई और अब तक अनदेखी रिपोर्टें भी पाईं. आख़िरकार बालू इस किताब के केंद्रीय विषय बन गए. वे एक शानदार क्रिकेटर और एक उल्लेखनीय इंसान के रूप में प्रतीक बन जाने वाले भारत के पहले खिलाड़ी थे और 1910 से 1930 के बीच पश्चिमी भारत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दलित हस्ती भी थे. वंचित तबकों से कुछ बेहतरीन क्रिकेटर आए थे. 1947 के बाद शायद तीन या चार दलितों ने भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट खेला, लेकिन कोई भी ख्याति नहीं हासिल कर सका. मुझे यकीन है कि अब तक कोई आदिवासी या उत्तर-पूर्व से कोई भारत के लिए नहीं खेला है. भारतीय टीम में खेल प्रशंसकों में सभी वर्गों और धर्मों के लोग हैं, लेकिन शीर्ष खिलाड़ी व्यापक रूप से शहरों और ऊंची जातियों से आते हैं. किताब में गुहा कहते हैं, मैंने 1912 से 1945 के बीच बंबई पंचकोणीय प्रतियोगिता (जो पहले चतुष्कोणीय थी) पर एक किताब लिखने की योजना बनाई थी. तब यह रणजी ट्रॉफी से भी अधिक महत्वपूर्ण थी. पहले महान भारतीय टेस्ट क्रिकेटरों– सी.के. नायडू, विजय मर्चेंट, मुश्ताक़ अली, मुहम्मद निसार, अमर सिंह, विजय हजारे, वीनू मांकड़ ने इसमें अपनी निशानियां छोड़ी थीं. मेरी किताब का उद्देश्य एक क्रिकेटीय इतिहास को समग्र रूप में पेश करना था. लेकिन मैं जितना अधिक शोध करता गया, उतना ही मैंने देखा कि चतुष्कोणीय तथा पंचकोणीय प्रतियोगिताएं राजनीति और समाज के साथ आपस में गुंथी हुई थी. इसलिए आखिर में मैंने एक ऐसी किताब लिखी, जिसमें नस्ल, धर्म, जाति और राष्ट्रवाद खुद क्रिकेट जितने ही महत्वपूर्ण थे. कपिल देव से भी महान वीनू मांकड़ थे. गुहा ने जो क़िताब लिखी है वह भारतीय क्रिकेट का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास है, जिसे नस्ल, जाति, धर्म और राष्ट्र की ”प्रधान श्रेणियों” के ज़रिए लिखा गया है. मुझे अच्छा लगेगा अगर कोई बालू और विट्ठल की अवधि के बीतने के बाद खेल पर राज करने वाली चौकड़ी की एक जीवनी लिखे: सीके नायडू, विजय मर्चेंट, विजय हजारे और वीनू मांकड़. ये सभी बेमिसाल क्रिकेटर थे, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच पर बहुत कम अवसर हासिल हुए. नायडू, वीरेंदर सहवाग जैसी महारथ से गेंदबाजों की धुलाई कर सकते थे. मर्चेंट और हजारे, राहुल द्रविड़ के सांचे के श्रेष्ठतम बल्लेबाज थे और वीनू मांकड़ तर्कसंगत रूप से कपिल देव से भी महान हरफनमौला थे. ये प्रथम महान भारतीय क्रिकेटर थे और इस महानता का समुचित आकलन अभी बाकी है. पेंग्विन से साभार

संगरूरः दलितों की जमीन छीन रहे हैं अमीर किसान, पुलिस भी कर रही है भेदभाव

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संगरूर। कलौदी गांव में अमीर किसान गरीब दलित किसानों पर अत्याचार कर रहा है. इतना ही नहीं प्रशासन भी उनके साथ भेदभाव कर रहा है. कुछ दिन पहले किसानों ने दलितों की जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की. जब दलितों ने इसका विरोध किया तो उन पर फायरिंग की और उन्हें जातिसूचक गाली भी दी. जब दलित इस घटना की शिकायत संगरूर के सदर थाने में करवाने गए तो पुलिस ने उल्टा उन पर ही मामला दर्ज कर लिया. दलितों ने संगरूर के एसएसपी और जिला प्रशासन को अवगत करवाकर उनके खिलाफ दर्ज केस को रद्द करने की मांग की, लेकिन पुलिस या सिविल प्रशासन ने उनकी कोई बात नहीं सुनी. इसके बाद गांव के दलित भगवान वाल्मीकि दलित चेतना मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष विक्की परोचा और जिला अध्यक्ष रविंदर राजन से मिलें. उन्होंने परोचा और राजन को पूरे मामले से अवगत कराया. दलितों की समस्या सुनने के बाद विक्की परोचा ने कहा कि यदि कलौदी के दलित भाईयों को इंसाफ नहीं मिला तो दलित सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होंगे. भगवान वाल्मीकि दलित चेतना मंच और भारत स्वीपर यूनियन ने दलितों के लिए संघर्ष करने का प्रण लिया है. उन्होंने कहा कि सिर्फ कलौदी में नहीं बल्कि पूरे जिले के प्रत्येक गांव में ऐसे मामले सामने आ रहे हैं. यदि इन्हें इंसाफ मिला तो दो दिनों के बाद सड़कों पर धरने दिए जाएंगे.

मुंबईः स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से भी ऊंची बनेगी बाबा साहेब की प्रतिमा

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मुंबई। इंदूमिल की जमीन पर बनने वाले डॉ. बाबा साहेब अंतरराष्ट्रीय स्मारक के नए प्रारूप को मंजूरी मिल गई है. इस नए प्रारूप के अनुसार स्मारक पर बाबा साहेब की 350 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की जाएगी. राज्य के सामाजिक न्याय मंत्री राजकुमार बडोले ने बताया कि आगामी अक्टूबर से स्मारक का कार्य शुरू करने का फैसला लिया गया है. पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों स्मारक के लिए भूमिपूजन किया गया था. लेकिन कुछ संगठनों ने स्मारक के प्रारूप को लेकर ऐतराज जताया था. रिपब्लिकन सेना के आनंदराज आंबेडकर सहित कुछ संगठनों ने मांग की थी कि बाबा साहेब का स्मारक अमेरिका के स्टेच्यू आफ लिबर्टी से ऊंचा हो. इस संदर्भ में फैसला लेने के लिए बडोले की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई थी. इंदू मिल समुद्र किनारे स्थित है. इसलिए स्मारक के सामने स्थित समुद्री किनारों को भी खूबसूरत बनाया जाएगा. इस स्मारक का प्रस्तावित खर्च भी अब 425 करोड़ 16 लाख से बढ़ कर 550 करोड़ रुपए हो गया है. स्मारक के निर्माण की जिम्मेदारी एमएमआरडीए को सौंपी गई है. निर्माण कार्य शुरू करने के लिए जल्द ही टेंडर आमंत्रित किए जाएंगे. स्मारक का प्रारूप आर्किटेक्ट शशि प्रभू ने तैयार किया है. स्मारक के मध्य भाग में बाबा साहेब की 350 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा होगी. प्रतिमा के चबूतरे की ऊंचाई 100 फीट होगी. यहां आर्ट गैलरी के साथ ही पुस्तकालय और सभागृह बनाया जाएगा. प्रतिमा जिस चबूतरे पर स्थापित की जाएगी, उसकी डिजायन कमल के फूल जैसी होगी. यहां पर एक म्यूजियम भी बनाया जाएगा. इस संग्रहालय में बाबा साहेब के जीवन से जुड़े तैलचित्र लगाए जाएंगे. स्मारक के पास 450 वाहनों के पार्किंग की सुविधा होगी. यहां ”लाइट एंड साउंड सिस्टम” के जरिए बाबा साहेब के महाड सत्याग्रह को भी प्रदर्शित किया जाएगा. (साभार दैनिक भास्कर)

अगर आप केंद्रीय विद्यालय में अपने बच्चे के लिए आरक्षण चाहते हैं तो इसे पढ़िए

सरकार द्वारा संचालित केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय में सरकारी हेर-फेर का खेल जारी है. देश की जनता के पैसे से संचालित इन स्कूलों में दलितों एवं गरीबों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. लेकिन इन स्कूलों ने जरुरतमंदों को कागजों में ऐसा उलझा रखा है कि इन्हें इन स्कूलों में अपने बच्चों को दाखिले में मिलने वाला लाभ नहीं मिल पाता है. हकीकत यह है कि एससी/एसटी समाज के हर बच्चे को किसी भी पब्लिक स्कूल चाहे वो दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) हो, मार्डन स्कूल हो या फिर क्रिश्चियन स्कूल; उसमें एससी/एसटी छात्र 25 फीसदी आरक्षण का दावा कर सकते हैं. राष्ट्रीय शोषित परिषद के अध्यक्ष जय भगवान जाटव शिक्षा में दलित समाज को हक दिलाने के लिए काम कर रहे हैं. अगर आप अपने बच्चों का दाखिला केंद्रीय विद्यालय सहित सरकार द्वारा संचालित अन्य स्कूलों में करवाने की सोच रहे हैं तो इन बातों पर जरूर ध्यान दें. केंद्रीय विद्यालय में दाखिले के लिए जारी आवेदन फार्म में आरक्षण चाहने वाले आवेदकों के लिए दो ऑप्शन होते हैं. (1)    EWS – Economic Weaker Section (2)    Disadvantage Group केंद्रीय विद्यालयों में जब भी दाखिला होता है तो इसमें कमजोर वर्गों के लोगों के लिए सीटें आरक्षित होने का ढिंढ़ोरा पीटा जाता है, लेकिन हकीकत कुछ और है. सरकार से लेकर स्कूल तक दाखिले के समय EWS के तहत आरक्षण देने का खूब प्रचार करती है. अखबारी विज्ञापनों में भी इसे ही प्रचारित किया जाता है. इस कैटेगरी में समाज के हर वर्ग के लोग आवेदन कर सकते हैं, जिनकी आमदनी सलाना एक लाख तक हो. लेकिन यहां दिक्कत यह होती है कि 1 लाख सलाना से ज्यादा कमाने वाले लोग इस श्रेणी में आवेदन नहीं कर सकते हैं. स्कूल वाले आपसे इसी श्रेणी में आवेदन देने का दबाव डालते हैं जबकि एससी/एसटी के आवेदक दूसरी (Disadvantage Group) श्रेणी में आवेदन देकर आरक्षण का ज्यादा लाभ उठा सकते है. दलित समाज के लोगों को इस आवेदन पत्र को भरते समय दूसरे ऑप्शन (Disadvantage Group) पर निशान लगाना चाहिए. इस ग्रुप में वार्षिक आय की कोई सीमा नहीं है. इस ग्रुप में आपको सिर्फ अपना जाति प्रमाण पत्र देना होता है, जिसके बाद आप इस ग्रुप के तहत मिलने वाले आरक्षण का लाभ लेने के हकदार हो जाते हैं. The Right of Children to free and Compulsory Education Act, 2009 बिल 2008 में आया जबकि 2009 में यह पास हुआ. इसके सेक्शन 1 (2) में दूसरे प्वाइंट में साफ लिखा है कि अगर Disadvantage Group में आवेदन करने वालों से कोई स्कूल इंकम सर्टिफिकेट मांगता है तो सरासर गलत है और शिकायत मिलने पर उस स्कूल पर कार्रवाई हो सकती है. इस कैटेगरी में आवेदन करने वालों को सिर्फ जाति प्रमाण पत्र (Caste Certificate) देना पड़ता है. भारत में केंद्रीय विद्यालयों में 1125 Senior Secondary School  हैं. इनमें पहले दाखिले के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए 22.50 फीसदी आरक्षण था. लेकिन सन् 2009 में EWS System आने के बाद केंद्रीय विद्यालय ने इसे देना बंद कर दिया, जबकि ऐसा कोई सरकारी नियम नहीं था. केंद्रीय विद्यालय ने आवेदकों से कहा कि लाभ केवल EWS के तहत ही मिलेगा. केंद्रीय विद्यालय ने तीन साल (2009-2011) तक रिजर्वेशन नहीं दिया. इसके बाद राष्ट्रीय शोषित परिषद के अध्यक्ष जय भगवान जाटव ने सूचना के अधिकार के तहत मिनिस्ट्री ऑफ एचआरडी और केंद्रीय विद्यालय से पूछा कि आरक्षण किस आधार पर बंद किया गया. उन्होंने उस आदेश की कॉपी भी मांगी, जिसके तहत आरक्षण बंद किया गया. पहले तो दोनों ने आनाकानी की लेकिन आखिरकार उन्होंने माना कि गलती हुई है और ऐसा कोई आदेश जारी नहीं हुआ है. लेकिन उन्होंने ट्रांसफर वालों को इस कोटे में दिखा दिया. जय भगवान जाटव फिलहाल इसके लिए लड़ रहे हैं, उनका कहना है कि ट्रांसफर हुए लोगों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.

यूपीः बाबा साहेब की प्रतिमा का चबूतरा तोड़ने पर विरोध प्रदर्शन, छात्र करेंगे आमरण अनशन

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गोरखपुर। नगर निगम द्वारा रविवार को अम्बेडकर चौराहे का चबूतरा तोड़ने का अम्बेडकर छात्र सभा और पूर्वांचल सेना के कार्यकर्ताओं ने विरोध किया. छात्रसभा और सेना के कार्यकर्ताओं ने प्रशासन पर आरोप लगाया है कि नगर निगम जानबूझ कर बाबा साहेब की प्रतिमा का चबूतरा तोड़ना चाहता है. चबूतरा तोड़ने से आक्रोशित अम्बेडकरवादी छात्रों ने कचहरी चौराहे पर विरोध प्रदर्शन किया. इस दौरान नगर निगम और गोरखपुर विकास प्राधिकरण प्रशासन के विरुद्ध जमकर नारेबाजी हुई. कैंट के मुख्य अधिकारी अम्बेडकर चौराहे पहुंचे और कहा कि ट्रैफिक की वजह से चबूतरा तोड़ना है. लेकिन जब उनसे पूछा गया की बिना पार्किंग वाले बड़े बड़े मार्ट, टाउनहॉल वाले होटल का सड़क पर बना अवैध निर्माण, विश्वविद्यालय परिसर के आस-पास धर्मस्थलों के नाम पर किये गए कब्जे के कारण शहर में असली जाम लगता है, तो आप उसे कब तोड़ रहे हैं? तो उनको जवाब देते नहीं बना. इस टूटे चबूतरे के तत्काल निर्माण की मांग को लेकर कल से छात्रों द्वारा आमरण अनशन किया जयेगा, जिसको समस्त अम्बेडकरवादी छात्रों, कर्मचारियों, शिक्षकों, अधिवक्ताओं द्वारा समर्थन किया जायेगा.

बसपा की रैली से विपक्ष में बैचेनी

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आगरा। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने रविवार को आगरा से अपनी पार्टी के मिशन 2017 के अभियान का आगाज किया. ताजनगरी आगरा के कोठी मीना बाजार मैदान से चुनावी शंखनाद करने पहुंची बसपा अध्यक्ष मायावती मैदान में उमड़े समर्थकों के सैलाब को देखकर बेहद उत्साहित हो गई. इस दौरान उनके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी के साथ ही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस थीं. मायावती की चुनावी रैली से विपक्षी दलों में बैचेनी बढ़ गई है. रैली में उमड़ी लाखों की भीड़ देखकर विभिन्न राजनीतिक दल सकते में है. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने दलितों के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी के साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार पर हमला बोला. मायावती ने कहा कि भाजपा के सत्ता में आने से देश में दलितों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं. इसके साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तिरंगे पर राजनीति करने का आरोप भी जड़ा. बसपा प्रमुख ने कहा कि सिर्फ पीएम मोदी के शब्द दलित पर हो रहे अत्याचारों पर रोक लगाने के लिए काफी नहीं हैं. हम अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करते हैं. उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित ही नहीं भाजपा शासन में अल्पसंख्यकों पर भी अत्याचार के मामले बढ़े हैं. मायावती ने नरेंद्र मोदी सरकार के साथ ही आरएसएस को भी अपने निशाने पर रखा. मायावती ने कहा कि मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में गरीबी बढ़ी है. सरकार इसको रोकने में नाकाम है. उन्होंने कहा कि एक ओर देश में गरीबी बढ़ रही है और दूसरी ओर भाजपा के सरपरस्त आरएसएस प्रमुख चाहते हैं कि हिंदू अधिक बच्चों को जन्म दें. मायावती ने कहा कि समाजवादी पार्टी की बात करना तो समय बर्बाद करना है. इसके बाद भी इनकी बात करना सबसे जरूरी है. प्रदेश की सत्ता में काबिज समाजवादी पार्टी के साथ भारतीय जनता पार्टी की साठगांठ हैं. यह दोनों ही मिलकर प्रदेश को दंगे की आग में झोंकना चाहते हैं. प्रदेश में सिर्फ बसपा के शासन में ही सर्वजन सुखाए सर्वजन हिताए का सपना साकार होगा. मायावती ने सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी पर भी जमकर प्रहार किया. मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद से गुंडों-बदमाशों के हौसले बढ़ गए हैं. प्रदेश में दिन में हत्या व डकैती जैसी घटनाएं हो रही हैं. यहां की जनता का अमन-चैन छिन गया है. कानून के राज की जगह यहां पर जंगलराज है. सूबे में रोज एक दर्जन से अधिक बलात्कार की घटनाएं हो रही है. बुलंदशहर की घटना लोग नहीं भूल सकते हैं. मायावती ने कहा कि हमारी सरकार के समय के कार्यों को अब पूरा कर अखिलेश सरकार विकास के काम का ढिंढोरा पीट रही है. सपा की ड्रामेबाजी से हम लोगों को सावधान रहना है. मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार आने के बाद से ही कानून का राज एक बार फिर स्थापित होगा. जनहित की यानी बसपा की सर्वजन हिताय, सवर्जन सुखाय की सरकार बनानी होगी. हमने अपने कार्यकाल में किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों, गरीबों का ध्यान रखा है, लेकिन ये विरोधियों को अच्छा नहीं लगता है. मायावती ने कहा कि विपक्षी हमारे खिलाफ हथकंडे अपना रहे हैं. टिकट बेचने का झूठा आरोप लगाते हैं. मीडिया का भी बसपा के लिए रवैया दोहरा है. मीडिया दलित विरोधी मानसिकता वाले भ्रामक खबरें दिखाता हैं. इसके बाद भी बसपा बाकी पार्टियों को काफी पीछे छोड़कर आगे बढ़ चुकी है. बसपा के लोग संयम रखें, कोई जबाव न दें. बसपा पर आरोप लगाना आसमान में थूकने जैसा है.

गुजरातः जातिवादी गुंडों को हजम नहीं हुई मरा जानवर उठाने की मनाही, पिता को छोड़ बच्चे को पीटा

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अहमदाबाद।  दलितों द्वारा मरे हुए जानवरों को उठाए जाने से इनकार करने की बात जातिवादियों से हजम नहीं हो पा रही हैं. दलितों के बार-बार मना करने पर भी जातिवादी लोग उन पर जबरन मरे जानवर उठाने का दबाव बना रहे हैं. अगर दलित मरे जानवर उठाने से मना कर रहे हैं तो वे उनसे मारपीट कर रहे हैं और जब दलित पुलिस के पास शिकायत करने जाती है तो वे लोग भी उनकी शिकायत नहीं लिखतें. ऐसी घटनाएं गुजरात में आए दिन हो रही हैं. इस तरह की घटनाओं से साफ पता चलता है कि गुजरात सरकार दलितों के प्रति कितनी सतर्कता से काम कर रही हैं. मामला है अहमदाबाद के भावड़ा गांव का जहां एक 15 वर्षीय दलित बच्चे को सिर्फ इसलिए पीट दिया गया क्योंकि उसके पिता ने गांव में पड़े मरे जानवर उठाने से इनकार कर दिया था. कक्षा 10 में पढ़ने वाले इस बच्चे को पीटे जाने की घटना गुरूवार की बताई जा रही है, जब दो युवकों सहिल ठाकुर और सरवर खान पठान ने मिलकर उसकी पिटाई कर दी. हमलावरों का कहना था कि उसका परिवार गांव से लाश उठाने से इनकार कैसे कर सकता है. बताया जा रहा है कि बच्चे के पिता ने उना में हुई दलितों की पिटाई मामले के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप मरे जानवरों को उठाने से इनकार किया था. गौरतलब है कि गुजरात के उना में दलितों की पिटाई के बाद कई दलित नेताओं ने विरोध स्वरूप जानवरों की लाशों को न उठाने की सभी दलितों से अपील की थी और शपथ भी दिलवाई थी. बच्चे के पिता दिनेश परमार ने बताया की जानवरों की लाश हटाना हमारा पारंपरिक पेशा है, लेकिन उना घटना के बाद से मैंने सैकड़ों दलित भाइयों के साथ लाश न उठाने की शपथ ली थी. अब मैं दिहाड़ी मजदूरी का काम करता हूं. बेटे को पीटे जाने की घटना का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि गुरूवार को मेरा बेटा अपने दोस्तों के साथ बैठा था, तभी वहा दो युवक आए उन्होंने उसे गाली देनी शुरू कर दी. इसके बाद उन्होंने बुरी तरह से पीटा भी. इसके बाद से ही वह इतना डरा हुआ था कि वह गांव में रहना ही नहीं चाहता था, इसलिए हमने उसे उसकी बुआ के पास भेज दिया है. बहरहाल बच्चे की पिटाई की रिपोर्ट उसके पिता ने पुलिस स्टेशन में दर्ज करा दी है, जिसके बाद इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है.

क्या भूमंडलीकरण से दलित सशक्त हुए?

हाल में एक समाचार पत्र में छपे लेख में चंद्रभान प्रसाद जी ने एक गांव का उदाहरण देकर दिखाया है कि भूमंडलीकरण के बाद दलित बहुत खुशहाल हो गए हैं क्योंकि रोज़गार के करोड़ों अवसर पैदा हो गए हैं. हमें इस कहावत को ध्यान में रखना चाहिए कि “हवा के एक झोंके से बहार नहीं आ जाती.” मुट्ठी भर दलितों के खुशहाल हो जाने से सारे दलितों की बदहाली दूर नहीं हो जाती. दलितों की वर्तमान दुर्दशा का अंदाजा सामाजिक-आर्थिक जनगणना-2011 के आंकड़ों से लगाया जा सकता है. इसके अनुसार ग्रामीण भारत में दलितों के 3.86 करोड़ अर्थात 21.53 प्रतिशत परिवार रहते हैं. भारत के कुल ग्रामीण परिवारों में से 60 प्रतिशत परिवार गरीब हैं जिन में दलितों का प्रतिशत इससे काफी अधिक है. इसी प्रकार ग्रामीण भारत में 56 प्रतिशत परिवार भूमिहीन हैं, जिन में दलित परिवारों का प्रतिशत इससे अधिक होना स्वाभाविक है. इसी जनगणना में यह बात भी उभर कर आई है कि ग्रामीण भारत में 30 प्रतिशत परिवार केवल हाथ का श्रम ही कर सकते हैं जिस में दलितों का प्रतिशत इस से काफी अधिक है. इससे स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर दलित गरीब, भूमिहीन और अनियमित हाथ का श्रम करने वाले मजदूर हैं. जनगणना ने भूमिहीनता और केवल हाथ के श्रम को ग्रामीण परिवारों की सबसे बड़ी कमजोरी बताया है. इस कारण गांव में अधिकतर दलित परिवार जमींदारों पर आश्रित हैं और कृषि मजदूरों के रूप में मेहनत करने के लिए बाध्य हैं. इसी कमजोरी के कारण वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का प्रभावी ढंग से प्रतिरोध भी नहीं कर पाते हैं. चंद्रभान जी ने भूमंडलीकरण के बाद करोड़ों रोज़गार पैदा होने की जो बात कही है वह भी हकीकत से परे है. इसके विपरीत रोज़गार बढ़ने की बजाये घटे हैं. जो रोजगार पैदा भी हुए हैं वे भी दलितों की पहुंच के बाहर हैं क्योंकि वे अधिकतर तकनीकी तथा व्यवसायिक प्रकृति के हैं जिन में दलित तकनीकी योग्यता के अभाव में प्रवेश नहीं पाते. सरकार द्वारा भारी मात्र में कृषि भूमि के अधिग्रहण के कारण कृषि मजदूरी के रोज़गार में भी भारी कमी आई है. सरकार ने श्रम कानूनों को ख़त्म करके दलित मजदूरों के शोषण के दरवाजे खोल दिए हैं. सरकार नियमित मजदूर रखने की बजाए ठेका मजदूर प्रथा को बढ़ावा दे रही हैं. इस प्रकार बेरोज़गारी दलित परिवारों की बहुत बड़ी समस्या है.अतः बेरोजगारी दूर करने के लिए ज़रूरी है कि सरकार की वर्तमान कार्पोरेटपरस्त नीतियों में मूलभूत परिवर्तन किये जाएं. कार्पोरेट सेक्टर पर रोज़गार के अवसर बढ़ने की शर्तें कड़ाई से लागू की जाएं. श्रम कानूनों को बहाल किया जाये. तेज़ी से लागू की जा रही ठेकेदारी प्रथा पर रोक लगाई जाये. सरकारी उपक्रमों के निजीकरण को बंद किया जाये. बेरोज़गारी से निजात पाने किये रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाये जाने तथा बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने की मांग उठाई जाये. इसी लिए चंद्रभान जी ने अपने लेख में भूमंडलीकरण के बाद दलितों की जिस खुशहाली का चित्रण किया है वह जमीनी सच्चाई के बिल्कुल विपरीत है. भूमंडलीकरण की नीति लागू होने के बाद केवल मुठ्ठी भर दलितों को आगे बढ़ने के अवसर मिले हैं. अधिकतर दलित आज भी भूमिहीनता, गरीबी और बेरोजगारी का शिकार हैं जैसा कि सामाजिक-आर्थिक जनगणना-2011 के आंकड़ों से भी स्पष्ट है. दलितों तथा समाज के अन्य कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण के लिए ज़रूरी है कि वर्तमान कार्पोरेट परस्त नीतियों की बजाये जनपरस्त नीतियां अपनाई जाएं जिस के लिए सरकार पर भारी जन दबाव बनाये जाने की जरुरत है.
एस.आर.दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

अखिलेश-मुलायम की मिली भगत!

अखिलेश सरकार के मंत्रियों पर लूटपाट का आरोप लगाकर अपने ही मुख्यमंत्री बेटे की कान खिंचाई करना मुलायम सिंह यादव की अब आदत बन गई है. मुलायम सिंह यादव ने अपने गांव में रहने वाले सवर्णों से यह सब सीखा है. दरअसल, सवर्ण अपने बच्चों को कभी यह नहीं सिखाते कि बाहर निकलो तो अपने से बड़ों की इज्जत करो. खासकर दलितों के साथ तो बिल्कुल भी नहीं. जब भी कोई बात हो तो उस पर हावी हो जाना. इतना हावी होना कि सामने वाला डर जाए. अगर मारपीट की नौबत आये तो सबसे पहले हाथ उठाना. सवर्ण अपने बच्चों से कहते हैं कि कभी किसी से मार खाकर मत आना. जब भी आना तो मार कर आना. मार खाकर आये तो उससे दुगुनी मार घर पर पड़ेगी. आगे सवर्ण सिखाते हैं कि जब मारकर आओगे तो मार खाने वाला मेरे घर उलाहना (शिकायत) लेकर आएगा. मैं तुम्हे उसके सामने डाटूंगा और थप्पड़ भी मारूंगा. तुम चुप रहना और डांट और मेरी मार चुपचाप बर्दाश्त कर लेना. मार खाने वाले के परिजन मेरी डांट और मार देखकर सन्तुष्ट हो जायेंगे और समझेंगे कि मुझे तुम्हारे द्वारा उसकी पिटाई पर दुख और अफसोस है. मैं शर्मिंदा हूं. यह जानकर वह चला जायेगा और जिसकी तुमने पिटाई की है, वह तुमसे हमेशा डरता रहेगा. कभी तुमसे लड़ने की हिम्मत नही जुटा सकेगा. यह शिक्षा देते हुए सवर्ण अपने बच्चों को दूसरों को दबाकर रखने और हुकूमत करने का मंत्र बचपन में दे देता है. यही वजह होती है कि सवर्णों के बच्चों का हमेशा मनोबल ऊंचा रहता है और मां बाप से मिली खुली छूट की वजह से घर के बाहर कमजोर लोगों पर जुल्म ढाते हैं. सपा मुखिया मुलायम सिंह ने भी बचपन में अपने पड़ोस के सर्वणों से यह शिक्षा उधार ली है. इसलिए वह बार बार अपने बेटे अखिलेश यादव की सरेआम खिंचाई करने से हिचकते नहीं हैं. जब से अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने हैं, तब से अब तक कई बार उनकी खिंचाई कर चुके हैं. मुलायम सिंह भी सवर्णों की तरह ही बेटे अखिलेश को भी यही शिक्षा देते हैं कि बाहर खुल कर खेलो और जब हालात खराब होंगें तो मैं तुम्हें सार्वजानिक मंच से डाटूंगा. तुम चुपचाप सुन लेना. यही वजह है कि जब भी अखिलेश सरकार किसी मुद्दे पर घिरती है तो मुलायम सिंह कान खिंचाई करके लोगों को दिखाने की कोशिश करते हैं कि उन्हें बहुत अफसोस हो रहा है. बहुत दुख है. फिर कहते हैं कि यह सब अखिलेश सरकार के कुछ मंत्रियों की वजह से हो रहा है. सरकार को यही सब बदनाम कर रहे हैं. आगे कहते हैं कि सुधर जाओ, जनता सब देख रही है. ऐसे ही रहा तो फिर सरकार नहीं बनेगी. आगे पुचकारते हुए कहते हैं कि अखिलेश अच्छा काम कर रहा है, लेकिन कुछ स्वार्थी लोग सपा का नाम लेकर गुंडई कर रहे हैं. इनपर लगाम कसनी पड़ेगी और फिर चुप हो जाते हैं. कई महीने तक राज भवन में लेट कर आराम फरमाते हैं और जैसे ही अखिलेश सरकार कटघरे में आती है, फिर कान खिंचाई करते हैं. मुलायम सिंह की यह नई रणनीति हैं वोटरों को लुभाने और पार्टी से बांध कर रखने की. यह राजनीति है और इसमें सत्ता पाने के लिये ये नेता इसी तरह की ओछी हरकतें करते रहते हैं. इनसे बचकर रहने में ही भलाई है. पूरब में एक कहावत है कि ””””अहीर मितैया तब करें, जब सारे मीत मर जाएं.”””” लेखक पत्रकार है. संपर्क-9953746549

दलित छात्र की मदद करने पर आदिवासी प्रोफेसर को विश्वविद्यालय ने नौकरी से निकाला

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अजमेर। फेडरेशन ऑफ सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और प्रोफेसर रामलखन मीणा ने आरोप लगाया है कि सेन्ट्रल यूनिवसिर्टी ऑफ राजस्थान में एक दलित छात्र की मदद करने पर उन्हें नौकरी से हटा दिया गया है. मीणा ने बताया कि पिछले तीन साल से वह यूनिवर्सिटी में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं. हाल ही में उन्होंने एक दलित छात्र की मदद की है जिससे नाराज होकर उन्हें सेवाओं से हटा दिया गया जबकि तीन जून 2015 को उनकी सेवाएं पक्की करने के आदेश हो चुके हैं. उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय में अनियमितताओं के खिलाफ उन्होंने राष्ट्रपति को भी पत्र लिखा है. प्रोफेसर ने बताया कि हाल ही में उन्होंने एक दलित छात्र उमेश किशोर जोनवाल की मदद की थी जिसे विश्वविद्यालय ने प्रताड़ित किया और बाद में गैरकानूनी तरीके से निकाल दिया. इस मामले में अदालत का दरवाजा खटखटाने पर भी दलित छात्र को बकाया स्कॉलरशिप की राशि नहीं दी गई बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने ढाई लाख रुपये की छात्रवृत्ति नहीं देने के लिए साढ़े तीन लाख रुपये वकील पर खर्च कर दिए. प्रोफेसर को निकालने के विरोध में विश्वविद्यालय के दलित छात्रों ने कुलपति का पुतला फूंका. छात्रों ने मीणा की बहाली को लेकर नारेबाजी की और साथ ही छात्रों को स्कॉलरशिप देने के लिए भी आवाज उठाई. छात्रों ने कहा कि अगर विश्वविद्यालय आदिवासी शिक्षक की बहाली नहीं करेगा तो राज्य व्यापी आंदोलन किया जाएगा.

यूपीः दलित उत्पीड़न के विरोध में सड़कों पर उतरी भीम आर्मी

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सहारनपुर। बेहट के उसंड गांव में दलित लड़की से उच्च जाति के लड़कों ने छेड़छाड़ की. दलित लड़की के परिवार वालों ने जब थाने में रिपोर्ट लिखवाई तो पुलिस उल्टा दलित परिवार के खिलाफ ही कार्रवाई करने लगी. इससे नाराज होकर परिवार के साथ पूरा गांव पुलिस प्रशासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने लगा. पुलिस की कार्रवाई से नाखुश भीम आर्मी भारत एकता मिशन से जुड़े समाज के सैकड़ों लोग भी सड़कों पर आ गए. मिशन और गांव के नौजवानों और युवतियों ने जोरदार नारेबाजी की और साफ कह दिया कि छेड़छाड़ के मामले में दलितों के उत्पीड़न को किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जाएगा. भीम आर्मी एकता मिशऩ के पदाधिकारी और कार्यकर्ता नारेबाजी करते हुए कलक्ट्रेट पहुंचे और यहां जिलाधिकारी शफक्कत कमाल के कार्यालय के बाहर धरना देकर बैठ गए. यहां इन्होंने नारी के “सम्मान में उतरेंगें मैदान में” और “दलित एकता जिंदाबाद” के नारे लगाए. इस दौरान एक प्रतिनिधिमंडल ने जिलाधिकारी से उनके कार्यालय में जाकर वार्ता की. इस दौरान उन्होंने कहा कि उसंड प्रकरण में पुलिस ने दलित समाज के तीन लोगों को उठा लिया है. जबकि छेड़छाड़ दलित समाज की लड़की के साथ हुई थी. ऐसे में दलित समाज के लोगों के खिलाफ ही कार्रवाई करना उचित नहीं है. ये था पूरा मामला कोतववाली बेहट क्षेत्र के गांव उसंड में दो दिन पहले, छेड़छाड़ की घटना को लेकर बवाल हो गया था. गुस्साए लड़की के पक्ष ने इस घटना का विरोध किया तो दोनों पक्ष आमने-सामने आ गए थे. इसके बाद जमकर पथराव और फायरिंग हुई थी. घटना स्थल पर कई थानों की पुलिस के सात फोर्स भी गांव में घुसी और पथराव कर रहे लोगों को काबू किया.

फर्जी जाति प्रमाण देकर छीनी एससी-एसटी की मेडिकल सीटें

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mbbsमुंबई। आरक्षण का विरोध करने वाले लोग ही आरक्षण का लाभ लेने के लिए गलत हथकंडे अपना रहें हैं. मामला है महाराष्ट्र के मेडिकल कॉलेजों का जहां 17 छात्रों ने फर्जी जाति प्रमाण पत्र देकर दाखिला लिया. मुंबई और कोल्हापुर मेडिकल कालेज ने तुरंत एक्शन लेते हुए छात्रों को कॉलेज से निकाल दिया और इन लोगों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज करावाया. चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान निदेशालय ने एससी/एसटी कोटे से प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले छात्रों के प्रमाणपत्रों की जांच कराने के आदेश भी दिए है. निदेशालय को सूचना मिली थी कि कुछ छात्रों ने 2013-14 और 2014-15 के सत्र में फर्जी प्रमाण पत्र के आधार पर एससी/एसटी कोटे से दाखिला लिया था. जेजे अस्पताल के डीन डॉ. टीपी लहाने ने बताया कि ग्रांट मेडिकल कॉलेज के नौ छात्र के कागजात फर्जी गलत पाए गए हैं. जांच में उनके प्रमाणपत्र फर्जी पाए गए. डीएमईआर के निदेशक प्रवीण शिंगारे का कहना है कि उक्त प्रमाणपत्र मंत्रालय के एक पूर्व कर्मचारी ने उपलब्ध कराए थे. इसके अतिरिक्त लोकमान्य तिलक मेडिकल कॉलेज और आरएन कूपर हॉस्पिटल में भी में आठ लोगों ने फर्जी प्रमाणपत्र जमा करवाएं थे, जिसकी जांच के बाद कॉलेज प्रशासन ने प्रमाण पत्र को फर्जी बताया और छात्रों को निकाल दिया. इस घटना के कारण एससी/एसटी वर्ग से दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों का नुकसान हुआ है. अगर ये विद्यार्थी बिना कोई गलत हथकंडे अपनाए दाखिला लेते तो एससी/एसटी के छात्रों को दाखिला मिलता और  एससी/एसटी समाज मेडिकल के क्षेत्र में और भी अधिक भागीदारी निभाता.

…और जब दलित जीतने लगे तो यादवों से बर्दाश्त नहीं हुआ

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kabaddiगुड़गांव। गुड़गांव में तमाम जातियों के बीच आपसी भाईचारा बढ़ाने के लिए एक कबड्डी मैच खेला जाना था. चमार, वाल्मीकि, यादव और जाट समाज के लोगों ने इसमें हिस्सा भी लिया. मैच भाईचारे के बीच शुरू हुआ. लेकिन जैसे ही इस खेल में दलित समाज के खिलाड़ी जीतने लगे; दूसरे वर्ग के यादव खिलाड़ियों को यह बात चुभने लगी. भाईचारे पर जातीय अहम हावी हो गया. दलितों की जीत यादव जाति के खिलाड़ियों से बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने जाति सूचक गाली-गलौच और मारपीट शुरू कर दी. हद दो तब हो गई जब स्थानीय यादव अपने गांव के दलित खिलाड़ियों का साथ देने की बजाय यादव खिलाड़ियों का साथ देने लगे और मारपीट में शामिल हो गए. घटना में 10 लोग घायल हो गए और सारा भाईचारा धरा का धरा रह गया. घटना पंद्रह अगस्त को गुड़गांव के चक्करपुर गांव की है. घायल हुए खिलाड़ियों में 24 साल के योगेंद्र को सबसे अधिक चोटें आईं हैं. 32 साल के विजेंदर के सिर में चोट लगी है. दोनों को गुड़गांव के उमा संजीवनी हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है, जहां उनकी हालत गंभीर है. सेक्टर 29 के पुलिस थाने में यादव समुदाय के आठ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है. यह दोस्ताना (फ्रेंडली) टूर्नामेंट कई गांवों और जाति से आए लोगों के बीच एक प्रतियोगिता थी. इसमें, दलित, यादव, जाट, गुर्जर, बनिया, और अग्रवाल आदि समाज के खिलाड़ी शामिल थे. ये प्रतियोगिता गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई, जिसमें दिल्ली-एनसीआर की 30 से अधिक टीमें शामिल थी. दलित टीम के एक सदस्य बिट्टू सिंह ने बताया कि यादवों की टीम सिकंदरपुर की थी, लेकिन स्थानीय गांव के यादव भी उन्हें ही समर्थन कर रहे थे. जब उन्हें लगा की हम लोग जीत रहे हैं तो हमारे गांव के यादव भी गुस्सा हो गए और उत्तेजित हो गए. उनकी जाति के अन्य सहभागी और दर्शक भी मारपीट में शामिल होते गए. उन्होंने हमारे साथी को मारा, जो बचाने की कोशिश कर रहा था उसके साथ भी मारपीट की गई. यादव समुदाय के लोग जातिसूचक गाली दे रहे थे और देशी बंदूक से हवा में गोलियां चला रहे थे. एएसआई कंवर सिंह ने बताया कि सेक्टर 29 पुलिस थाने में आईपीसी के अंतर्गत सेक्शन 147 (दंगा भड़काने), 149 (गैरकानूनी तरीके से सभा करना), 323 (चोट पहुंचाना), 325 (जानबूझकर गंभीर चोट पहुंचाना) और 506 (आपराधिक धमकी),  आर्म्स एक्ट के तहत सेक्शन 25, 54 और 59 और एस/एसटी एक्ट के तहत 3, 33 और 89 सेक्शन के अंगर्गत मामले दर्ज हुए हैं. घटना के काफी देर बाद तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हो सकी थी. स्थानीय दलितों का कहना है कि गांव के यादवों द्वारा निम्न जाति के लोगों के साथ इस तरह की घटना करना आम बात है.

हरिद्वारः दलित छात्र को बाबासाहेब पर आधारित गाना गाने से रोका

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हरिद्वार। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर बादशाहपुर के नेहरू इंटर कॉलेज में सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान एक दलित छात्र को डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर रचित गीत गाने से रोकने का मामला सामने आया है. विरोध में मंगलवार को परिजनों, ग्रामीणों और बसपा कार्यकर्ताओं ने फेरुपुर चौकी में हंगामा किया. शिक्षकों के खिलाफ तहरीर देकर कार्रवाई के लिए 24 घंटे का अल्टीमेटम दिया गया है. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सोमवार को बादशाहपुर के नेहरू इंटर कालेज में कार्यक्रम चल रहे थे. इस दौरान 11वीं के एक दलित छात्र ने गीत गाने की पेशकश की. छात्र का आरोप है कि मंच पर पहुंचने के बाद जब संचालन कर रहे शिक्षक को यह पता चला कि गीत संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर पर आधारित है तो उसे मंच से नीचे उतार दिया गया. कार्यक्रम में मौजूद ग्रामीणों ने इस पर आपत्ति जताई. हंगामा होने पर गीत तो गाने दिया गया, लेकिन आरोप है कि हंगामे के दौरान कई शिक्षकों ने छात्र और ग्रामीणों को जातिसूचक शब्द कहे. मंगलवार को इसकी जानकारी बसपा नेताओं और ग्रामीणों को लगी तो मामला तूल पकड़ गया. मंगलवार सुबह बसपा नेता मुकर्रम अंसारी के साथ परिजन और बड़ी संख्या में बसपा कार्यकर्ता पुलिस चौकी पहुंचे और हंगामा काटा. मुकर्रम अंसारी ने कहा कि संविधान निर्माता बाबा साहेब का अपमान किसी सूरत में सहन नहीं किया जाएगा. आरोपी शिक्षकों के खिलाफ 24 घंटे के भीतर कार्रवाई नहीं होने पर एसएसपी दफ्तर का घेराव करने की चेतावनी दी गई. छात्र के अलावा भारतीय मूल संस्कृति चेतना मिशन संस्था ने भी चौकी प्रभारी को शिक्षकों के खिलाफ तहरीर दी. संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष केवीएस गौतम ने कहा कि डा. अम्बेडकर का अपमान करने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए. वहीं चौकी प्रभारी केदार सिंह चौहान का कहना है कि तहरीर के आधार पर मामले की जांच की जा रही है. घटना के विरोध में चौकी प्रभारी के कार्यालय में भीड़ होने पर उन्होंने ग्रामीणों को बाहर जाने के लिए कहा. इस पर वहां बसपा कार्यकर्ताओं और चौकी प्रभारी के बीच नोकझोंक भी हुई. बसपा नेता मुकर्रम अंसारी ने कहा कि यह दलित सम्मान से जुड़ा मामला है. सबको अपनी बात कहने का अधिकार है.