डॉ. लोहिया के समाजवाद को यादव परिवार ने कलंकित कर दिया

देश के महान समाजवादी विचारक और राजनीतिज्ञ डॉ. राममनोहर लोहिया के जीवन में विचार ही नहीं बल्कि चरित्र और प्रजातांत्रिक मूल्यों का सर्वाधिक महत्व था. वे राजनीति में शुद्ध आचरण के सबसे बड़े पैरोकार थे. उनके विचारों में अवसरवादिता को कोई जगह नहीं थी. लेकिन उनके नाम पर राजनीति करने वालों ने अवसरवादिता को अपनाकर सत्ता के लिए ‘समाजवाद’ को ही कलंकित कर दिया है. डॉ. लोहिया संपूर्ण समाज को एक परिवार के रूप में देखते थे, वहीं आज के कथित समाजवादी एक परिवार में ही पूरा ‘समाजवाद’ देखते हैं. उत्तर प्रदेश में यादव परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव, पुत्र अखिलेश यादव, भाई शिवपाल सिंह, चचेरे भाई रामगोपाल यादव, उनके पुत्र, बहुएं, नाती-पोते ही ‘समाजवादी’ परिवार हैं. और उनकी पार्टी ही समाजवादी पार्टी है. यह पार्टी लोहिया के नाम पर वोट तो मांगती है लेकिन वह वास्तविकता में डॉ. लोहिया के विचारों की पार्टी नहीं है. उसका नाम तो ‘समाजवादी’ है पर असल में वह पार्टी ‘परिवारवादी’ है. उत्तर प्रदेश में विगत साढ़े चार वर्षों से जो चल रहा है और इन दिनों जो घटित हो रहा है, वह किसी पार्टी का संकट नहीं बल्कि केवल एक ‘परिवार’ का अंदरूनी संकट है. यह डॉ. लोहिया के सच्चे विचारों से मुंह मोड़कर परिवारवाद को ‘समाजवाद’ समझने का ही नतीजा है. मुलायम सिंह यादव जिस तरह अपने परिवार को धुरी बनाकर उत्तर प्रदेश में शासन करना चाहते थे उससे कभी न कभी तो ऐसा होना ही था. वैसे भी मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी कभी लोहिया के विचारों के प्रति दिल से प्रतिबद्ध रही ही नहीं. डॉ. लोहिया राजनीति में शुद्ध आचरण के पक्षधर और सभी प्रकार के आडंबरों के सख्त खिलाफ थे. सरकारी पैसों के निजी उपयोग और फिजूलखर्जी के विरोधी थे. यहां तक की सरकारी काम और निजी काम को अलग रखने की सीख देते थे और अपने सहयोगियों से भी यही अपेक्षा रखते थे. उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार के वक्त समाजवादी पार्टी के एक नेता, जो की उस समय मंत्री थे, डॉ. लोहिया को मिलने कानपुर गेस्ट हाऊस गये थे. डॉ. लोहिया से भेट और चर्चा करने के उपरांत मंत्री को छोड़ने डॉ. लोहिया गेस्ट हाऊस के बाहर तक आये. तब उन्होंने देखा कि बाहर एक बड़ी गाड़ी खड़ी है. तब मंत्रियों के पास बड़ी कार हुआ करती थी. गाड़ी देखकर डॉ. लोहिया ने पुछा ‘‘यह गाड़ी किसकी है? ’’ तब मंत्री ने कहा कि इसे मैं लेकर आया हूं. उसपर डॉ. लोहिया ने खिन्न होते हुए कहा था कि कल तक हमारे समाजवादी नेता चप्पल घिसते हुए चलते थे, आज उन्हें बड़ी गाड़ियां चाहिए. उन्होंने पूछा कि तुम मुझसे निजी तौर पर मिलने आए हो या सरकारी काम से आए हो? निजी काम से आए हो तो यह गाड़ी वापस भेजो और रिक्शे से जाओ. डॉ. लोहिया का यह आदेश मानकर मंत्री ने कार वापस कर दी और खुद रिक्शे से लौट गए. यह थे डॉ. लोहिया और उस समय के समाजवादी नेता. आज खुद को उनका शिष्य बताने वाले मुलायम सिंह और उनके परिवार के लोग सरकारी धन को लुटाने में कोई परहेज नहीं करते हैं. ‘समाजवादी’ परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव का सैफई में मनाये जाने वाला जन्मदिन इसकी बानगी है, जहां पानी की तरह पैसा बहाया जाता है और सरकारी मशीनरी का धड़ल्ले से दुरुपयोग किया जाता है. मुलायम सिंह का यह चरित्र कत्तई लोहिया के समाजवाद से मेल नहीं खाता है. मुलायम सिंह का समाजवाद अब परिवार तक सीमित रह गया है. डॉ. राममनोहर लोहिया पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को बहुत महत्व देते थे. वो प्रजातांत्रिक तरीके से पार्टी चलाने में विश्वास रखते थे, वहीं मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी में लोकतंत्र नदारत है. पार्टी के तमाम पद सिर्फ उनके परिवार तक ही सीमित हैं. यह लोहिया की परंपरा नहीं है. लोहिया का समाजवाद समानता और बराबरी की बात करता था. उन्होंने जो किया वह सत्ता से दूर रहकर किया था. लोहिया ने खुद को सभी प्रकार की सुविधाओं और सत्ता- संपत्ति के मोह से दूर रखा, लेकिन उनके नामपर पार्टी चलाने वाले मुलायम सिंह यादव और उनका समाजवादी परिवार सत्ता के लिए मर मिट रहे हैं और ‘समाजवाद’ की धज्जियां उड़ा रहे हैं. बसपा प्रमुख मायावती ने अपने  जन्मदिन 15 जनवरी 2016 को लखनऊ में सच ही कहा था कि ‘डॉ. राममनोहर लोहिया आज होते तो मुलायम सिंह को समाजवादी पार्टी से बाहर कर देते.’ – लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और नागपुर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान (एम.ए.) में गोल्ड मेडलिस्ट हैं.

यूपीः मजदूरी मांगने पर दलित को पीटा, दी जाति सूचक गाली

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हापुड़। बाबूगढ़ थाना क्षेत्र के गांव ककौड़ी में एक मकान बनाने के बाद अपनी मजदूरी के रुपये मांगने पर दलित को मार खानी पड़ी. घर के मालिक ने उसकी चिनाई का सारा सामान भी छीन लिया और उसके साथ अभद्रता करते हुए भगा दिया. पीड़ित अपने परिजनों के साथ जिलाधिकारी कार्यालय में ज्ञापन देकर समस्या के समाधान की मांग की है. बीते सोमवार को जिलाधिकारी कार्यालय पहुंचे गांव गजालपुर निवासी दलित अनिल कुमार ने बताया कि वह राजमिस्त्री का काम करता है. उसने गांव ककौड़ी निवासी एक व्यक्ति के मकान को बनाने का ठेका लिया था. अभी तक मकानमालिक ने उसे 81 हजार रुपये ही दे सका है. जबकि अभी भी मजदूरी के दो लाख रुपये से अधिक बकाया है. बीते रविवार को जब काम खत्म होने के बाद उसने मकानमालिक से अपने रुपयों की मांग की तो उसने रुपये देने से मना कर दिया और उसके साथ मारपीट शुरू कर दी. इस बीच उसने विरोध किया तो उसके चिनाई के सारे औजार, बांस-बल्ली भी छीन लिए गए. साथ ही उसके साथ अभद्रता करते हुए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया. रुपये नहीं मिलने के कारण उसके साथ काम करने वाले मजदूर उसके घर के चक्कर काट रहे हैं. पीड़ित ने जिलाधिकारी कार्यालय में ज्ञापन देकर मजदूरी के रुपये वापस कराने की मांग की.

दलित की बेटी ने किया कारनामा, राष्ट्रपति देंगे अवार्ड

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कहते हैं कि प्रतिभा किसी पहचान की मोहताज नहीं होती है. वह अपनी कदमों की आहट से अपने होने का एहसास करवा ही लेता है. बैलगाड़ी चलाने वाले की पोती और राजमिस्त्री की बेटी ने कुछ ऐसा कमाल कर दिखाया है, जिससे उसकी तारीफ पूरा देश कर रहा है. उसके नायाब आइडिया के दमपर देशभर के हजारों छात्रों को पीछे छोड़ते हुए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इग्नाइट प्रतियोगिता में चयनित 32 बच्चों में मुन्नी अपना नाम जुड़वाने में सफल रही है. अब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सात नवंबर को दिल्ली में इसे सम्मानित करेंगे. इस बिटिया का नाम मुन्नी कुमारी है, जो फुलवारीशरीफ के फतेहपुर टोला में रहती है. मुन्नी दलित परिवार की लड़की है. मुन्नी के दादा जीवनभर बैलगाड़ी चलाते रहे. पिता नरेंद्र राम राजमिस्त्री का काम करते हैं, मुन्नी अपने तीन भाई-बहनों में बड़ी है. ढिबरा के राजकीय मध्य विद्यालय में सातवीं कक्षा में पढ़ती है. मुन्नी कहती है कि मुझे गणित करने में अच्छी लगती है. नंबर भी बढ़िया मिलते है. उधर राष्ट्रपति की ओर से सम्मानित किए जाने की खबर आने के बाद फुलवारीशरीफ के फतेहपुर टोला स्थित मुन्नी के घर पर त्यौहार सा माहौल है. आस-पास के लोग मुन्नी को बधाई देने पहुंच रहे हैं. मुन्नी ने अपने आइडिया के बारे में बताया… एक दिन एक सर हमारे स्कूल में आए. आज से करीब छह महीने पहले. उन्होंने छठी से आठवीं तक के सारे बच्चों से कहा कि कुछ नया चीज बनाने का आइडिया लिखो. क्या नया बनाना चाहिए जिससे लोगों को सहुलियत हो. सारे बच्चे लिखने लगे. मैं भी सोचने लगी कि क्या बनाना चाहिए. मेरे मन में आया कि क्यों न एक ऐसा सिस्टम बन जाए जिससे कार के गेट में अंगुली दबने का खतरा खत्म हो जाए. क्योंकि एक बार एक कार के गेट में मेरी अंगुली दब गई थी. फिर गेट खुलने और बंद होने पर रेड लाइट जलने वाला आइडिया मैंने लिख दिया. लिख कर मैंने कॉपी जमा कर दिया. बाहर से आए सर बच्चों की कॉपियां लेकर चले गए. हमलोग तो भूल ही गए थे. लेकिन जब मुझे इस बात का पता चला कि मेरा चयन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इग्नाइट प्रतियोगिता में हो गया है और मुझे राष्ट्रपति से पुरस्कार मिलेगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मुन्नी ने यह संदेश दिया कि हमेशा कुछ नया सोचिए, समाज के लिए सोचिए और नया कीजिए. देशभर के 55089 छात्रों का आइडिया दिल्ली पहुंचा था लेकिन उसमें सिर्फ 32 छात्रों के आइडिया को चुना गया. अब इस आइडिया का पेटेंट होगा. मुन्नी आगे चल कर इंजिनियर बनना चाहती है और देश का नाम रोशन करना चाहती है.

बिहारः महिला इंजीनियर को कुर्सी से बांधकर जिंदा जलाया

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मुजफ्फरपुर। बिहार के मुजफ्फरपुर में कुर्सी से बांधकर महिला जूनियर इंजीनियर को जिंदा जलाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है. अहियापुर थाना के बजरंग विहार कॉलोनी के एक निर्माणाधीन मकान में बीते रविवार देर रात मुरौल में पदस्थापित मनरेगा जेई सरिता देवी को जिंदा जला दिया गया. मौके पर केवल राख और पैर की हड्डियां मिली हैं. मृतका की मां कुसुम देवी ने शव की पहचान की है. शुरूआती जांच में पुलिस इसे हत्या का मामला मान रही है. जानकारी के मुताबिक मृतका सरिता देवी सीतामढ़ी की रहने वाली है. सरिता की शादी नेपाल बॉर्डर पर कन्हौली फूलकाहां निवासी विजय नायक से हुई थी. उसके दो पुत्र हैं. पति गांव में ही रहता है. सरिता पिछले तीन सालों से मुरौल में जेई पद पर थी और बजरंग विहार कॉलोनी में विजय गुप्ता के मकान में रहती थीं. विजय मनरेगा की योजनाओं का इस्टीमेट बनाता था. बीते सोमवार की सुबह शॉट सर्किट से आग की सूचना पर लोग जमा हो गए. विजय किसी को अंदर नहीं जाने दे रहा था. कुछ लोग जबरन अंदर गए. वहां देखा कि पैर की जली हड्डी और अवशेष पड़ा है. माना जा रहा है कि किसी ने कुर्सी ने बांध कर महिला को जला दिया. पुलिस पूरे मामले की जांच कर रही है. इस संबंध में विजय गुप्ता से भी पूछताछ की जा रही है. पुलिस ने मौके से एक सुसाइड नोट भी बरामद किया है. नोट में मृतका ने अपनी मां से बच्चों का ख्याल रखने की बात कही है. फिलहाल पुलिस ने सुसाइड नोट की हैंडराइटिंग को पुख्ता करने के लिए फोरेंसिक जांच के लिए भेज दिया है. बता दें कि मृतका रविवार शाम आखिरी बार कॉलोनी में ही देखी गई थी. गौरतलब है कि घटनास्थल और मौके पर पड़ी हड्डियों को देखकर पुलिस को शक है कि महिला को केमिकल छिड़क कर जलाया गया होगा. फिलहाल पुलिस सभी सुबूतों को इकट्ठा करते हुए परिवार के सदस्यों से पूछताछ कर रही है. साथ ही पुलिस ने निर्माणाधीन मकान को भी सील कर दिया है.

जन्मदिन विशेषः मैकाले की शिक्षा पद्धति ने दिया बहुजनों को आगे बढ़ने का अवसर

भारत में ऐसे विद्धानों की कमी नहीं है जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का गुणगान करते नहीं थकते और लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति को पानी-पी पीकर गालियां देते हैं. लेकिन इन्हीं लार्ड मैकाले की वजह से दलितों के लिए शिक्षा का रास्ता खुला और उन्हें न्याय मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सका. ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन ने सन 1835 ई. में भारत के लिये एक विधि आयोग का गठन किया था, जिसका अध्यक्ष बना कर लॅार्ड मैकाले को भारत भेजा गया. इसी वर्ष लार्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा नीति की नींव रखी. 6 अक्टूबर 1860 को लॅार्ड मैकाले द्वारा लिखी गई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई और मनुस्मृति का विधान खत्म हुआ. इसके पहले भारत में मनुस्मृति के काले कानून लागू थे, जिनके अनुसार अगर ब्राह्मण हत्या का आरोपी भी होता था तो उसे मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था और वेद वाक्य सुन लेने मात्र के अपराध में शूद्र के कानों में पिघलता सीसा डाल देने का प्रावधान था. वैसे तो अंग्रेज भी 1750 ई. तक लगभग आधे भारत पर शासन करने लग गये थे, परन्तु कानून तब भी मनुस्मृति के ही चलते थे. स्कूल 1833 ई. से ही अंग्रेजी सरकार द्वारा खोल दिये गये थे, परन्तु शूद्रों का प्रवेश तब भी वर्जित था. लॅार्ड मैकाले ने यहां का सामाजिक भेदभाव, शिक्षण में भेदभाव और दण्ड संहिता में भेदभाव देखकर ही आधुनिक शिक्षा पद्धति की नींव रखी और भारतीय दण्ड संहिता लिखी. जहां आधुनिक शिक्षा पद्धति में सबके लिये शिक्षा के द्वार खुले थे, वहीं भारतीय दण्ड संहिता के कानून ब्राह्मण और मेहतर, सबके लिये समान थे, जिसके चलते 1874 ई. में नन्द कुमार नामक ब्राह्मण को हत्या के आरोप में फांसी की सजा दी. मनुस्मृति की व्यवस्था से ब्राह्मणों को इतनी महानता प्राप्त होती रही थी कि वे अपने आपको धरती का प्राणी होते हुए भी आसमानी पुरुष अर्थात देवताओं के भी देव समझा करते थ. लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति से ब्राह्मणों को अपने सारे विषेषाधिकार छिनते नजर आये, इसी कारण से उन्होनें प्राण-प्रण से इस नीति का विरोध किया. इनकी नजर में लॅार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति केवल बाबू बनाने की शिक्षा देती है, पर मेरा मानना है कि लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से बाबू तो बन सकते हैं, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति से तो वो भी नहीं बन सके. हां, ब्राह्मण सब कुछ बन सके थे, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या नहीं. अन्य जातियों के लिये तो ये रास्ते बन्द ही थे. प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक यह बताने का कष्ट करेंगे कि किस काल में किस राजा के यहां कोई भंगी, चमार, मोची, बैरवा, रैगर, भांभी, कोली, धोबी, मीणा, नाई, कुम्हार, खाती या इसी प्रकार कोई भी अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति मंत्री, पेशकार, महामंत्री या सलाहकार रहा हो? अतः इन जातियों के लिये तो यह शिक्षा पद्धति कोहनी पर लगा गुड़ ही साबित हुई. ऐसी पद्धति की लाख अच्छाईयां रही होंगी, पर यदि हमें पढ़ाया ही नहीं जाता हो, गुरुकुलों में प्रवेश ही नहीं होता हो तो हमारे किस काम की? सरसरी तौर पर इन दोनों शिक्षा पद्धतियों में तुलना करते हैं. फिर आप स्वयं ही निर्णय ले सकते है कि कौन-सी शिक्षा पद्धति कैसी है? प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति 1. इसका आधार प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ रहे. 2. इसमें शिक्षा मात्र ब्राह्मणों द्वारा दी जाती थी. 3. इसमें शिक्षा पाने के अधिकारी मात्र सवर्ण ही होते थे. 4. इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड का बोलबाला रहता था. 5. इसमें धर्मिक ग्रन्थ, देवी-देवताओं की कहानियां, चिकित्सा, भेशजी, कला और तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, जादू टोना आदि शामिल रहे हैं. 6. इसका माध्यम मुख्यतः संस्कृत रहता था. 7. इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों का अभाव रहता था, अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से बात कही जाती थी. जैसेः-राम ने हजारों वर्ष राज किया, भारत जम्बू द्वीप में था. कुंभकर्ण का शरीर कई योजन था, कोटि-कोटि सेना लड़ी, आदि. 8. इस नीति के तहत कभी ऐसा कोई गुरुकुल या विद्यालय नहीं खोला गया, जिसमें सभी वर्णों और जातियों के बच्चे पढ़तें हों. 9. इस शिक्षा नीति ने कोई अंदोलन खड़ा नहीं किया, बल्कि लोगों को अंधविश्वासी, धर्मप्राण, अतार्किक और सब कुछ भगवान पर छोड़ देने वाला ही बनाया. 10. यह गुरुकुलों में लागू होती थी. वैसे नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी हुए, शिक्षा की प्रणाली में कोई अंतर नहीं था. 11. गुरुकुलों में प्रवेश से पूर्व छात्र का यज्ञोपवीत संस्कार अनिवार्य था. चूंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में शूद्रों का यज्ञोपवीत संस्कार वर्जित है, अतः शूद्र व दलित तो इसको ग्रहण ही नहीं कर सकते थे. अतः इनके लिये यह किसी काम की नहीं  रही. 12. इसमें तर्क का कोई स्थान नहीं था. धर्म और कर्मकाण्ड पर तर्क करने वाले को नास्तिक का करार दे दिया जाता था. जैसे चार्वाक, तथागत बुद्ध और इसी तरह अन्य. 13. इस प्रणाली में चतुर्वर्ण समानता का सिद्धांत नहीं रहा. 14. प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में दलित विरोधी भावनाएं प्रबलता से रही हैं. जैसे कि एकलव्य का अंगूठा काटना, शम्बूक की हत्या आदि। 15. इससे हम विश्व से परिचित नहीं हो पाते थे. मात्र भारत और उसकी महिमा ही गाये जाते थे. 16. इसमें वर्ण व्यवस्था का वर्चस्व था. 17. इसमें व्रत, पूजा-पाठ, त्योहार, तीर्थ यात्राओं आदि का बहुत महत्त्व रहा.   लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति 1. इसका आधार तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उत्पन्न आवश्यकतायें रहीं. 2. लॅार्ड मैकाले ने शिक्षक भर्ती की नई व्यवस्था की, जिसमें हर जाति व धर्म का व्यक्ति शिक्षक बन सकता था. तभी तो रामजी सकपाल (बाबा साहेब डॉक्टर अम्बेडकर के पिताजी) सेना में शिक्षक बने. 3. जो भी शिक्षा को ग्रहण करने की इच्छा और क्षमता रखता है, वह इसे ग्रहण कर सकता है. 4. इसमें धार्मिक पूजापाठ और कर्मकाण्ड के बजाय तार्किकता को महत्त्व दिया जाता है. 5. इसमें इतिहास, कला, भूगोल, भाषा-विज्ञान, विज्ञान, अभियांत्रिकी, चिकित्सा, भेशजी, प्रबन्धन और अनेक आधुनिक विद्यायें शामिल हैं. 6. इसका माध्यम प्रारम्भ में अंग्रेजी भाषा और बाद में इसके साथ-साथ सभी प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हो गईं. 7. इसमें ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और आधुनिक विषयों की प्रचुरता रहती है और अतिश्योक्ति पूर्ण या अविश्वसनीय बातों का कोई स्थान नहीं होता है. 8. इस नीति के तहत सर्व प्रथम 1835 से 1853 तक लगभग प्रत्येक जिले में एक स्कूल खोला गया. आज यही कार्य राज्य और केंद्र सरकारें कर रही हैं. साथ ही निजी संस्थाएं भी शामिल हैं. 9. भारत में स्वाधीनता आंदोलन खड़ा हुआ, उसमें लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा पद्धति का बहुत भारी योगदान रहा, क्योंकि जन सामान्य पढ़ा-लिखा होने से उसे देश-विदेश की जानकारी मिलने लगी, जो इस आंदोलन में सहायक रही. 10. यह विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में लागू होती आई है. 11. इसको ग्रहण करने में किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं रही, अतः यह जन साधारण और दलितों के लिये सर्व सुलभ रही. अगर शूद्रों और दलितों का भला किसी शिक्षा से हुआ तो वह लार्ड मैकाले की आधुनिक शिक्षा प्रणाली से ही हुआ. इसी से पढ़ लिख कर बाबासाहेब अम्बेडकर डॉक्टर बने. 12. इसमें तर्क को पूरा स्थान दिया गया है. धर्म अथवा आस्तिकता-नास्तिकता से इसका कोई वास्ता नहीं है. 13. यह गरीब भिखारी से लेकर राजा-महाराजा, सब के लिये सुलभ है. 14. इसमें सर्व वर्ण व सर्व धर्म समान हैं. आदिवासी और मूलनिवासी भी इसमें शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं. लेकिन जहां-जहां संकीर्ण मानसिकता वाले ब्राह्मणवादियों का वर्चस्व बढ़ा है, उन्होनें इसमें भी दलितों को शिक्षा से वंचित किया है. 15. इससे हम आधुनिक विश्व से सरलता से परिचित  हो रहे हैं. 16. इसमें सभी जातियां, वर्ण और धर्म समान हैं. इसमें इस प्रकार की बातों का कोई महत्त्व नहीं है, परन्तु इसमें भी जहां-जहां ब्राह्मणवादी लोग घुसे हैं, उन्होंने ऐसी बातों को मिला दिया है. अब फैसला प्रबुद्ध पाठकों को करना है कि कौन सी शिक्षा पद्धति अच्छी है?  क्यों न दलित समाज द्वारा 25 अक्टूबर को लार्ड मैकाले का जन्मदिवस मनाया जाये? लेखक सहायक प्रोफेसर हैं.

चपरासी ने दलित को पानी पिलाने से किया मना, इंजीनियर ने दी जातिसूचक गालियां

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गाजियाबाद। एक तरफ जहां देश में जातीय भेदभाव मिटाने और उन्हें सामान अधिकार दिलाने की बातें सभी राजनैतिक दल कहते हैं वहीं, दूसरी तरफ साहिबाबाद के एक बिजली घर में दलित के साथ छुआछूत का मामला सामने आया है. घटना साहिबाबाद के आनन्द इंडस्ट्रियल स्टेट में बने बिजली घर की है, जहां दलित युवक के पानी मांगने पर कार्यकारी इंजीनियर और चपरासी ने पानी पिलाने से मना कर दिया. दरअसल बिजली घर में किसी कार्य से आये एक दलित मोनू ने बिजली घर के कार्यकारी इंजीनियर ने प्रभात कुमार और चपरासी पर आरोप लगाया है कि जब उसने पीने के लिए चपरासी से पानी मांगा तो चपरासी ने उन्हें जाति सूचक शब्द बोलते हुए पानी पिलाने से मना कर दिया और कहा ये साहब के गिलास हैं और साहब ने आप जैसे लोगों को पानी पिलाने से मना किया है. जिस पर दोनों में कहासुनी हो गई. जब कहासुनी की आवाज कार्यकारी इंजीनियर प्रभात कुमार ने सुनी तो वे अपने कमरे से बाहर आया. आरोप है कि इंजीनियर ने भी मामले को जानने के बाद दलित को जाति सूचक शब्द बोलते हुए कहा कि यहां तुम जैसे लोगों को पानी पिलाने नहीं आते हैं. मोनू शिकायत लेकर बीते रविवार को दलित समाज के लोगों के साथ साहिबाबाद थाने पहुंचे और अपनी शिकायत दी. पुलिस को जैसे ही मामले की शिकायत मिली पुलिस ने मामले की जांच में जुट गयी है. पुलिस का कहना है की मामला संज्ञान में आया है, जिसकी जांच की जा रही है और इस मामले जो दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ कार्यवाही की जायेगी

राम राज्य कभी नहीं आना चाहिएः ओशो

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राम के समय को तुम रामराज्य कहते हो. हालात आज से भी बुरे थे. कभी भूल कर रामराज्य फिर मत ले आना! एक बार जो भूल हो गई, हो गई. अब दुबारा मत करना. राम के राज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे. कम से कम आज आदमी बाजार में गुलामों की तरह तो नहीं बिकता! और जब आदमी गुलामों की तरह बिकते रहे होंगे, तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, नहीं तो कोई बिकेगा कैसे? किसलिए बिकेगा? दीन और दरिद्र ही बिकते होंगे, कोई अमीर तो बाजारों में बिकने न जाएंगे. कोई टाटा, बिड़ला, डालमिया तो बाजारों में बिकेंगे नहीं. स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं! वे स्त्रियां गरीबों की स्त्रियां ही होंगी. उनकी ही बेटियां होंगी. कोई सीता तो बाजार में नहीं बिकती थी. उसका तो स्वयंवर होता था. तो किनकी बच्चियां बिकती थीं बाजारों में? और हालात निश्चित ही भयंकर रहे होंगे. क्योंकि बाजारों में ये बिकती स्त्रियां और आदमी, विशेषकर स्त्रियां-राजा तो खरीदते ही खरीदते थे, धनपति तो खरीदते ही खरीदते थे, जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, वे भी खरीदते थे. गजब की दुनिया थी. ऋषि-मुनि भी बाजारों में बिकती हुई स्त्रियों को खरीदते थे! अब तो हम भूल ही गए वधु शब्द का असली अर्थ. अब तो हम शादी होती है नई-नई, तो वर-वधु को आशीर्वाद देने जाते हैं. हमको पता ही नहीं कि हम किसको आशीर्वाद दे रहे हैं. राम के समय में, और राम के पहले भी वधु का अर्थ होता था, खरीदी गई स्त्री. जिसके साथ तुम्हें पत्नी जैसा व्यवहार करने का हक है, लेकिन उसके बच्चों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा. पत्नी और वधु में यही फर्क था. सभी पत्नियां वधु नहीं थीं और सभी वधुएं पत्नियां नहीं थीं. वधु नंबर दो की पत्नी थी. जैसे नंबर दो की बही होती है न, जिसमें चोरी-चपाटी का सब लिखते रहते हैं! ऐसी नंबर दो की पत्नी थी वधु. ऋषि-मुनि भी वधुएं रखते थे और तुमको यही भ्रांति है कि ऋषि-मुनि गजब के लोग थे. कुछ खास गजब के लोग नहीं थे. वैसे ऋषि-मुनि अभी भी तुम्हें मिल जाएंगे. इन ऋषि-मुनियों में और तुम्हारे पुराने ऋषि-मुनियों में बहुत फर्क मत पाना तुम. कम से कम इनकी वधुएं तो नहीं हैं. कम से कम ये बाजार से स्त्रियां तो नहीं खरीद ले आते. इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से स्त्री खरीद कर लाए. आज यह बात ही अमानवीय मालूम होगी. मगर यह जारी थी! रामराज्य में शूद्र को हक नहीं था वेद पढ़ने का. यह तो कल्पना के बाहर की बात थी कि डाक्टर अम्बेडकर जैसा अतिशूद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचयिता हो सकता था. असंभव. खुद राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था-गरम सीसा, उबलता हुआ सीसा. उसने चोरी से, कहीं वेद के मंत्र पढ़े जा रहे थे, वे छिप कर सुन लिए थे. यह उसका पाप था. यह उसका अपराध था. और राम तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं? राम को तुम अवतार कहते हो? और महात्मा गांधी रामराज्य को फिर से लाना चाहते थे. क्या करना है? शूद्रों के कानों में फिर से सीसा पिघलवा कर भरवाना है? उसके कान तो फूट ही गए होंगे. शायद मस्तिष्क भी विकृत हो गया होगा. उस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना, शायद आंखें भी खराब हो गई होंगी. कान, आंख, नाक, मस्तिष्क, सब जुड़े हैं और दोनों कानों में अगर सीसा उबलता हुआ… तुम्हारा खून क्या खाक उबल रहा है निर्मल घोष. उबलते हुए शीशे की जरा सोचो. उबलता हुआ सीसा जब कानों में भर दिया गया होगा तो चला गया होगा पर्दों को तोड़ कर, भीतर मांस-मज्जा तक को प्रवेश कर गया होगा, मस्तिष्क के स्नायुओं तक को जला गया होगा. फिर इस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना है. धर्म का कार्य पूर्ण हो गया. ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की. यह धर्म की रक्षा थी और तुम कहते हो कि मौजूदा हालात खराब हैं. युधिष्ठिर जुआ खेलते हैं, फिर भी धर्मराज थे और तुम कहते हो, मौजूदा हालात खराब हैं. आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्मत कर सकोगे? और जुआरी भी कुछ छोटे-मोटे नहीं, सब जुए पर लगा दिया. पत्नी तक को दांव पर लगा दिया. एक तो यह बात ही अशोभन है, क्योंकि पत्नी कोई संपत्ति नहीं है. मगर उन दिनों स्त्री-संपत्ति की ही धारणा थी. इसी धारणा के अनुसार आज भी जब बाप अपनी बेटी का विवाह करता है, तो उसको कहते हैं कन्यादान. क्या गजब कर रहे हो. गाय-भैंस दान करो तो भी समझ में आता है. कन्यादान कर रहे हो. यह दान है? स्त्री कोई वस्तु है? ये असभ्य शब्द, ये असंस्कृत हमारे प्रयोग शब्दों के बंद होने चाहिए. अमानवीय हैं, अशिष्ट हैं, असंस्कृत हैं. मगर युधिष्ठिर धर्मराज थे और अपनी पत्नी को भी दांव पर लगा दिया. हद का दीवानापन रहा होगा. पहुंचे हुए जुआरी रहे होंगे. इतना भी होश न रहा. उसके बाद भी धर्मराज धर्मराज ही बने रहे; इससे कुछ अंतर न आया. इससे उनकी प्रतिष्ठा में कोई भेद न पड़ा. इससे उनका आदर जारी रहा. भीष्म पितामह को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था. मगर ब्रह्मज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे. गुरु द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था. मगर गुरु द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे. अगर कौरव अधार्मिक थे, दुष्ट थे, तो कम से कम भीष्म में इतनी हिम्मत तो होनी चाहिए थी और बाल-ब्रह्मचारी थे. इतनी भी हिम्मत नहीं? तो खाक ब्रह्मचर्य था यह! किस लोलुपता के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे थे? और द्रोण तो गुरु थे अर्जुन के भी, और अर्जुन को बहुत चाहा भी था. लेकिन धन तो कौरवों के पास था; पद कौरवों के पास था; प्रतिष्ठा कौरवों के पास थी. संभावना भी यही थी कि वही जीतेंगे. राज्य उनका था. पांडव तो भिखारी हो गए थे. इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे. और कसूर कुछ कौरवों का हो, ऐसा समझ में आता नहीं. जब तुम्हीं दांव पर लगा कर सब हार गए, तो मांगते किस मुंह से थे? मांगने की बात ही गलत थी. जब हार गए तो हार गए. खुद ही हार गए, अब मांगना क्या है. लेकिन गुरु द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए. खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे. यही गुरु द्रोण एकलव्य का अंगूठा कटवा कर आ गए थे अर्जुन के हित में, क्योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा. तब इन्होंने एकलव्य को इनकार कर दिया था शिक्षा देने से. क्यों? क्योंकि शूद्र था. और तुम कहते हो, “मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं.” निर्मल घोष, एकलव्य को मौजूदा हालात उस समय के पसंद पड़े होंगे? उस गरीब का कसूर क्या था? अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी कि मुझे भी स्वीकार कर लो शिष्य की भांति, मुझे भी सीखने का अवसर दे दो? लेकिन नहीं, शूद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा सकता है? मगर एकलव्य अनूठा युवक रहा होगा. अनूठा इसलिए कहता हूं कि उसका खून नहीं खौला. खून खौलता तो साधारण युवक दो कौड़ी का. सभी युवकों का खौलता है, इसमें कुछ खास बात नहीं. उसका खून नहीं खौला. शांत मन से उसने इसको स्वीकार कर लिया. एकांत जंगल में जाकर गुरु द्रोण की प्रतिमा बना ली और उसी प्रतिमा के सामने शर-संधान करता रहा. उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा. अदभुत युवक था. उस गुरु के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा जिसने उसे शूद्र के कारण इनकार कर दिया था. अपमान न लिया. अहंकार पर चोट तो लगी होगी, लेकिन शांति से, समता से पी गया. धीरे-धीरे खबर फैलनी शुरू हो गई कि वह बड़ा निष्णात हो गया है. तो गुरु द्रोण को बेचैनी हुई, क्योंकि बेचैनी यह थी कि खबरें आने लगीं कि अर्जुन उसके मुकाबले कुछ भी नहीं. और अर्जुन पर ही सारा दांव था. अगर अर्जुन सम्राट बने, और सारे जगत में सबसे बड़ा धनुर्धर बने, तो उसी के साथ गुरु द्रोण की भी प्रतिष्ठा होगी. उनका शिष्य, उनका शागिर्द ऊंचाई पर पहुंच जाए तो गुरु भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा. उनका सारा का सारा न्यस्त स्वार्थ अर्जुन में था. एकलव्य अगर आगे निकल जाए तो बड़ी बेचैनी की बात थी. तो यह बेशर्म आदमी, जिसको कि ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है. यह गुरु द्रोण, जिसने इनकार कर दिया था एकलव्य को शिक्षा देने से, यह उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया. शिक्षा देने से इनकार करने वाला गुरु, जिसने दीक्षा ही न दी, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया. हालात बड़े अजीब रहे होंगे. शर्म भी कोई चीज होती है. इज्जत भी कोई बात होती है. आदमी की नाक भी होती है. ये गुरु द्रोण तो बिलकुल नाक-कटे आदमी रहे होंगे. किस मुंह से, जिसको दुत्कार दिया था, उससे जाकर दक्षिणा लेने पहुंच गए. और फिर भी मैं कहता हूं, एकलव्य अदभुत युवक था. दक्षिणा देने को राजी हो गया. उस गुरु को, जिसने दीक्षा ही नहीं दी कभी. यह जरा सोचो तो उस गुरु को, जिसने दुत्कार दिया था और कहा कि तू शूद्र है. हम शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते. जिस शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते, उस शूद्र की भी दक्षिणा स्वीकार कर सकते हो. उसमें षडयंत्र था. चालबाजी थी. उसने चरणों पर गिर कर कहा, आप जो कहें. मैं तो गरीब हूं, मेरे पास कुछ है नहीं देने को. मगर जो आप कहें, जो मेरे पास हो, तो मैं देने को राजी हूं. प्राण भी देने को राजी हूं. तो क्या मांगा? मांगा कि अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दे. जालसाजी की भी कोई सीमा होती है. अमानवीयता की भी कोई सीमा होती है. कपट की, कूटनीति की भी कोई सीमा होती है. और यह ब्रह्मज्ञानी. उस गरीब एकलव्य से अंगूठा मांग लिया.  अदभुत युवक रहा होगा, निर्मल घोष, तत्क्षण काट कर अपना अंगूठा दे दिया. जानते हुए कि दाएं हाथ का अंगूठा कट जाने का अर्थ है कि मेरी धनुर्विद्या समाप्त हो जाएगी. अब मेरा कोई भविष्य नहीं. इस आदमी ने सारा भविष्य ले लिया. शिक्षा दी नहीं, और दक्षिणा में, जो मैंने अपने आप सीखा था, उस सब को विनिष्ट कर दिया.

जय हिंद से पहले आया “जय भीम” का नारा

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जय भीम का नारा पहली बार कोरेगांव के युद्ध में 1 जनवरी 1818 में बोला गया था. यह युद्ध पेशवा और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था. जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार ने बताया कि युद्ध के दौरान महार सिपाही (तत्कालिक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का भाग) भीमा नदी पार करने के लिए जय भीम का नारा लगाकर अपने आप को प्रोत्साहित करते थे. महार सेना ने पेशवा को हरा दिया था. बाबासाहेब हर वर्ष पुणे स्थित इस जगह जाया करते थे और महारों के द्वारा प्रदर्शित अनुकरणीय वीरता को पुष्पांजलि अर्पित करते थे. प्रो. विवेक ने आगे बताया कि 1936 में इंडिपेंडेट लेबर पार्टी (आईएलपी) की स्थापना के बाद, जब बाबासाहेब मुंबई चॉल में अपना जन्मदिन मना रहे थे तो उनके एक समर्थक ने शुभकामना देने के लिए जय भीम बोला. उसके बाद यह बढ़ता गया. आंदोलन के तौर पर, जय भीम की प्रसिद्धि बाबासाहेब की मृत्यु बाद से हुआ. जय भीम 1960 के बाद हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रचलित होना शुरू हो गया. एक कवि बिहारीलाल ने जय भीम का प्रयोग पहली बार दिल्ली में किया. के जमनादास द्वारा लिखित (अम्बेडकर से संबंधित एक वेबसाइट पर प्रकाशित) लेख में बताया गया पीटी रामटेके द्वारा लिखित शोध पत्र “जय भीम चे जनक” में बताया गया कि हरदास ने कैसे जय भीम का नारा बुलंद किया. यह शोध पत्र वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ था. यह शोध पत्र हरदास की कल्पना और जय भीम के विचार को विकसित करता है. हरदास को जय राम-पति बोलना अच्छा नहीं लगता था. एक मौलवी ने उन्हें सालम आलेकुम का मतलब बताया. हरदास को यह भी अच्छा नहीं लगा फिर उन्हें विचार आया कि जय भीम क्यों न बोला जाए? तबसे वो जय भीम बोलने लगे और निर्णय किया की जय भीम की प्रतिक्रिया बाल भीम से होनी चाहिए. इस नारे का प्रयोग वह विजय भीम संघ के कार्यकर्ताओं के साथ किया. उसके बाद “बाल भीम” को छोड़ दिया और उन्होंने निर्णय किया अभिवादन के लिए जय भीम ही बोला जाएगा. हरदास की मृत्यु 1939 में 35 वर्ष की आयु में हो गई थी लेकिन उससे पहले उन्होंने जय भीम का नारा बुलंद कर दिया. उपरोक्त सभी तर्कों से सिद्ध होता है कि जय भीम, जय हिंद से पहले आया.

”संविधान काव्य” का हुआ विमोचन, कविता और दोहे के रूप में पढ़ सकेंगे संविधान

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पुडुचेरी। पुडुचेरी के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) सुनील कुमार गौतम ने “संविधान काव्य” नाम की पुस्तक लिखी है. इस पुस्तक में उन्होंने संविधान के सिद्धांतों का सार लिखा है. इस पुस्तक में व्याख्या सहित 238 दोहे हैं जोकि संविधान के अनुच्छेद और नीति-निदेशक सिद्धांत को परिभाषित करते हैं. पुस्तक विमोचन के अवसर पर लेखक एस.के गौतम ने कहा कि संविधान बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे हर नागरिक को पढ़ना चाहिए. मैंने इसे साधारण बनाया है ताकि आम आदमी भी पढ़ सके. इसीलिए इसे कविता और दोहे के रूप में तैयार किया है. उन्होंने आगे कहा कि अब लोग कविता के माध्यम से पूरा संविधान जान सकते हैं. प्रत्येक दोहे को संविधान के एक-एक अनुच्छेद से लेकर तैयार किया गया है. डीजीपी ने कहा कि लोगों को उनके अधिकार, उत्तरदायित्व और कर्तव्य के बारे पता होना चाहिए. लोगों को उनके कर्तव्य का समझदारी और उचित रूप में पालन करना चाहिए. उन्होंने बताया कि “संविधान काव्य” लिखने में उन्हें चार-पांच महीने का समय लगा. लेखक ने इसकी सॉफ्ट कॉपी अपने दोस्तों और सहकर्मियों को दी है, जहां से उन्हें काफी साकारात्मक टिप्पणी मिली है. एस के गौतम इसे अंग्रेजी, तमिल, पंजाबी और बंगाली में अनुवाद करने की योजना बना रहे हैं. “संविधान काव्य” पुस्तक का प्रकाशन ”न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन” ने किया है. पुस्तक का विमोचन 5 अक्टूबर को पुडुचेरी में हुआ. लेफ्टिनेंट गर्वनर डॉ. किरन बेदी ने पुस्तक का विमोचन किया और पहली पुस्तक मुख्यमंत्री वी नारायनसामी को दी गई. मुख्य सचिव मनोज परिदा भी पुस्तक विमोचन में शामिल हुए. गौतम ने अभी तक आठ पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है ”टर्न योर चाइल्ड इंटू जिनियस.” यह पुस्तक अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में है. इसके अलावा उन्होंने इंटेलीजेंस, ब्रेन फ्यूल, ट्रीटिंग टेंट्रम्स, द फिलोसफर्स स्टोन और साइंटिफिक स्टडी स्कील्स आदि पुस्तकें लिखी हैं.

रक्षक ही बने भक्षकः सुरक्षा बलों ने ही जलाए 250 आदिवासियों के घर, किया महिलाओं से रेप

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raipurरायपुर। दक्षिण बस्तर के सुकमा जिले के ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आदिवासियों के घर जलाने की घटना की जांच कर रही सीबीआई ने पांच साल बाद शुक्रवार को कोर्ट में चार्जशीट पेश की. सीबीआई ने बताया कि आगजनी कांड को सुरक्षा बलों ने ही अंजाम दिया. सुनवाई के दौरान जस्टिस मोहन बी लोकुर व आदर्श गोयल की बेंच ने सरकार को शांति स्थापना के प्रयास करने तथा नक्सलियों से बातचीत शुरू करने को कहा. कोर्ट ने सालिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि 2016 का शांति का नोबेल पुरस्कार कोलंबिया सरकार व वहां युद्धरत गुरिल्ला आर्मी एफएआरसी के बीच समझौता हुआ है. कोर्ट ने मिजोरम और नगालैंड में शांति स्थापना का भी उदाहरण दिया. सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट से कहा कि वे नक्सलियों से बातचीत की जरूरत को सरकार के उच्च स्तर पर जरूर उठाएंगे. हालांकि मेहता ने यह भी कहा कि बातचीत से समस्या का तत्कालीन समाधान ही निकल सकता है. जरूरत स्थायी शांति की है. ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर गांवों को आग के हवाले करने की घटना 11 से 16 मार्च 2011 के बीच तब हुई, जब फोर्स इस इलाके में गश्त पर थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसएसपी और बस्तर के वर्तमान आईजी एसआरपी कल्लूरी के आदेश पर इन गांवों में पुलिस का गश्ती दल भेजा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को मामला सीबीआई को सौंपा था. जांच के दौरान सीबीआई को भी धमकी मिली तथा अफसरों पर हमला किया गया. सीबीआई ने एसपीओ और जुडूम नेताओं सहित 35 लोगों पर आईपीसी की धारा 34, 147, 149, 323, 341, 427 व 440 के तहत मामला दर्ज किया है. सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 357 के तहत पीड़ितों को मुआवजा देने का भी आदेश दिया है. ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आगजनी और हिंसा फोर्स ने की. मोरपल्ली गांव के माड़वी सुला तथा पुलनपाड़ गांव के बड़से भीमा और मनु यादव की हत्या की गई. तीन महिलाओं से रेप किया गया, जिनमें दो मोरपल्ली गांव की हैं और एक ताड़मेटला की. मोरपल्ली में 33 घर, तिम्मापुर में 59 तथा ताड़मेटला में 160 घरों को आग लगाकर नष्ट कर दिया गया. 26 मार्च 2011 को स्वामी अग्निवेश जब मदद लेकर उन गांवों में जाने की कोशिश कर रहे थे तो दोरनापाल में उन पर तथा उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला किया गया. इस घटना में जुडूम लीडर शामिल थे. रेप व मर्डर के मामलों की जांच अभी जारी है. मामले में जुडूम नेताओं पी विजय, दुलार शाह, सोयम मुक्का सहित 26 अन्य तथा सात एसपीओ के खिलाफ सीबीआई कोर्ट रायपुर में चार्जशीट पेश की गई है. मामले में याचिकाकर्ता नंदिनी सुंदर ने कहा कि सीबीआई की जांच ने पुलिस के उस झूठ का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया है, जिसमें वह कहती रही है कि आगजनी नक्सलियों ने की थी. साफ है कि बस्तर में सब गैरकानूनी काम फोर्स कर रही है. मीडिया रिपोर्ट से आगजनी और रेप तथा मर्डर का खुलासा हुआ तो सुकमा पुलिस ने डीएस मरावी की ओर से एफआईआर दर्ज की, लेकिन उसमें रेप व मर्डर का जिक्र नहीं किया गया. सरकार व कल्लूरी ने तब मीडिया रिपोर्ट को प्रपोगेंडा कहा था.

हरियाणाः दलित के घर में घुस कर की मारपीट, चेहरे और हाथ पर डाला तेजाब

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हिसार। हरियाणा के माथे पर एक बार फिर से दलित उत्पीड़न का बड़ा दाग लगा है. दरअसल, हिसार जिले की नारनौंद तहसील के गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में जातीय रंजिश के कारण एक दलित परिवार के साथ दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार पड़ोसी आरोपी ने एक दलित युवक (रोहताश) के घर घुसकर उसे लोहे की रॉड से माथे में चोट मारी और चेहरे व हाथ पर तेजाब उलेड़ दिया. इस जातीय हमले में रोहताश तेजाब से झुलसकर गंभीर रूप से घायल हो गया. पीड़ित के रिश्तेदार सोहन लाल ने बताया कि आरोपी राजेंद्र व उसकी पत्नी और सोनू, कपिल तथा अन्य ने इसी साल जून में पीड़ित के घर ईंटे बरसा दी थी जिसमे रोहताश व इनके परिजनों को चोटें आई थी फिर जुलाई में नारनौंद थाने के पास बिजली की दुकान पर घुसकर 5 लोगों ने रोहताश पर हमला कर दिया था. यही नहीं इसी अक्टूबर माह की 3 तारीख को एक बार और रोहताश पर हमला बोला गया, जिसमे रोहताश का हाथ टूट गया था और वह 3 दिन हिसार के सामान्य अस्पताल में दाखिल रहा था. 4 बार हमला होने व इसकी शिकायत करने के बावजूद पुलिस ने हमलावरों पर कोई कार्रवाई नहीं की. पुलिस आरोपियों को बचाने व उनके दबाव में काम कर रही है जिस कारण इन्होंने चौथी बार तेजाबी हमला कर जान लेने की कोशिश की है. पीड़ितों ने बार-बार पुलिस व एसपी तक को शिकायत की, लेकिन कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई. रोताहश को परिजन आनन-फानन में नारनौंद के सामान्य अस्पताल लेकर गए, जहां उसकी नाजुक हालत को देखते हुए डॉक्टरों ने उसे हिसार के सामान्य नागरिक अस्पताल में रैफर कर दिया था. घटना की सूचना मिलते ही बसपा समर्थक प्रमुख दलित एक्टीविस्ट बजरंग इन्दल टीम के साथ पीड़ित से मिलने शहर के नागरिक अस्पताल पहुंचे. बजरंग इन्दल ने बताया कि नारनौंद स्थित गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में पीड़ित के घर के साथ आरोपियों का घर है. आरोपी व्यक्ति राजेंद्र पुलिस विभाग से रिटायर हुआ है और इसके 2 अन्य परिजन भी पुलिस में है. 4 बार दलितों पर हमला होने के बाद भी पुलिस को तुरन्त हमलावरों पर एससी/एसटी एक्ट और संबंधित धाराओं में केस दर्ज कर उन्हें जेल भेजना चाहिए था, लेकिन पुलिस ने पीड़ितों की सुनवाई नहीं की. पुलिस पीड़ितों को सुरक्षा दें तथा आरोपियों को जल्द गिरफ्तार कर जेल भेजें.

22 अक्टूबर से शुरू होगा भारतीय बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन, हजारों लोग लेंगे धम्म दीक्षा

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फिरोजाबाद (यूपी)। सुहागनगरी में आयोजित होने जा रहे दो दिवसीय भारती बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन में देश-विदेश के विभिन्न राज्यों के सैकड़ों बौद्ध भिक्षु जुटेंगे. सम्मेलन में मानव जीवन में सुख शांति लाने के साथ बौद्ध दर्शन के प्रचार प्रसार पर मंथन होगा. आयोजन की तैयारी जोरशोर से की जा रही है. यह जानकारी भंते बुद्धशरण महास्थविर ने नगर में आयोजित प्रेसवार्ता के दौरान दी. उन्होंने बताया कि सम्मेलन का आयोजन सुहागनगरी के बौद्ध समाज द्वारा किया जा रहा है. दो दिवसीय सम्मेलन नगर के पीडी जैन इंटर कालेज के मैदान पर 22 अक्टूबर को प्रारम्भ होगा. कार्यक्रम में हजारों अनुयायी बौद्ध दीक्षा ग्रहण करेंगे. उन्होंने बौद्ध अनुयायियों से समारोह में भाग लेकर धम्म लाभ प्राप्त करने का आव्हान किया. कार्यक्रम संयोजक मीतल प्रसाद निमेष ने बताया कि 22 अक्टूबर को रत्नपुंज बिहार नगला मिर्जा बड़ा पर तथागत बुद्ध की प्रतिमा का अनावरण भी किया जाएगा. सम्मेलन में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु भाग लेंगे. उन्होंने कहा सम्मेलन में नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, जापान, तिब्बत के भिक्षुओं की सहभागिता रहेगी. इसके अलावा भारतीय बौद्ध स्थलों में- सारनाथ, बौद्ध गया, लुम्बिनी, सिलीगुड़ी, भोपाल, नालंदा, कुशीनगर, राजनगर, सागर, इंदौर, अकोला, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, चेन्नई, घाटकोपर आदि के बौद्ध भिक्षु भी भाग लेंगे. भिक्षु नागदीप स्थविर ने कहा समारोह का आयोजन देश में विलुप्त होती जा रही बौद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने के लिए किया जा रहा है ताकि भावी पीढ़ी को तथागत बुद्ध के जीवन दर्शन का ज्ञान हो सके. साथ ही बौद्ध अनुयायी बौद्ध धम्म की शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन सार्थक बना सकें.

बलिदान दिवस: जानिए, दो बार ब्रिटिश सेना को हराने वाले बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके की कहानी

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यह जंगल में भागकर घास की रोटी खाने वालों की कहानी नहीं है.. न अस्सी घाव खाकर मुंह छुपाने वालों की दास्तान है.. यह रणछोड़, घुटनाटेकू या देश की जनता के साथ गद्दारी करने वाले हिन्दू राजाओं की भी बात नहीं है.. यह ज़िन्दा इतिहास है शौर्य, पराक्रम और अपनी मिट्टी के लिए जान तक न्यौछावर करने वाले एक आदिवासी योद्धा की.. गोँडवाना के उस शूरवीर की, जिसने देशी ब्राह्मणी व्यवस्था के साथ मिलकर यहां अपना हुकूमत चलाने वाले अंग्रेज़ों के आगे कभी अपनी हार नहीं मानी और उनसे लोहा लेता रहा.. यह गौरवशाली बयान है उस मूलनिवासी शूरवीर का, जिसने अपनी धरती की आन-बान-शान को सबसे आगे रखा और खुद शहीद होकर भी गोंडवाना के मान को ऊंचा उठाया…यह हक़ीक़त है- गोँड महाराजा बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके की, जिन्हें 21 अक्टूबर, 1858 को अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने के चलते अंग्रेज़ों ने फांसी पर लटका दिया था.. सवर्ण इतिहासकारों ने इस महान घटना को दर्ज़ नहीं किया, लेकिन यह एक ज़िन्दा इतिहास है, जो हमेशा मौजूद रहेगा. बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके  का जन्म 12 मार्च 1833 को हुआ था. वह पुलायसर बापू और जुर्जा कुंवर के बड़े बेटे थे. पुलायर बापू महाराष्ट्र के चंडा ओपी और बेरार जिले के अंतर्गत आने वाले घोट के मोलमपल्ली के बड़े जमींदार थे. गौंड परंपरा के अनुसार शेडमाके की शुरूआती शिक्षा घोटुल संस्कार केंद्र से हुई, जहां उन्होंने हिंदी, गोंडी और तेलुग के साथ-साथ संगीत और नृत्य भी सीखा. इंगलिश सीखने के लिए उनके पिता ने उन्हें छ्त्तीसगढ़ के रायपुर भेजा. रायपुर से शिक्षा प्राप्त करने के बाद शेडमाके वापसी मोलापल्ली आए. 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने आदिवासी परंपरा के अनुरूप राज कुंवर से विवाह किया. 1854 में, चंद्रपुर ब्रिटिश रूल के अंतर्गत आया. शेडमाके ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. 1857 के दौरन, जब पूरा भारत स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ा, शेडमाके ने 500 आदिवासी युवाओं को इकट्टा कर सेना बनाई और उन्हें लड़ने के लिए तैयार किया. उन्होंने आदिवासी सेना के साथ मिलकर राजघड क्षेत्र को ब्रिटिशों से छुड़वाकर अपना कब्जा जमाया. जब यह खबर चंद्रपुर पहुंची तो ब्रिटिश कलेक्टर मि. क्रिक्टन ने ब्रिटिश सेना को युद्ध के लिए भेजा, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही नंदगांव घोसरी के पास ब्रिटिश सेना को हरा दिया. मि. क्रिक्टन ने फिर से सैन्य दल युद्ध के लिए भेजा जोकि संगनापुर और बामनपेट में हुआ लेकिन यहां ब्रिटिश सेना हार गई. इन दोनों जीत से शेडमाके का मनोबल बढ़ा और उन्होंने 29 अप्रैल 1858 को चिंचगुडी स्थित उनके टेलीफोन शिविर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में टेलीग्राफ ओपरेटर्स मि. हॉल और मि.गार्टलैंड मारे गए थे जबकि मि. पीटर वहां से भागने में कामयाब रहा और उसने पूरी घटना की जानकारी मि. क्रिक्टन को बताई. मि. क्रिक्टन ने शेडमाके को गिरफ्तार करने के लिए कूटनीतिक चाल चली. एक तरफ वह नागपुर के कैप्टेन शेक्सपियर्स से  उन्हे पकड़ने के लिए पूछ रहे थे और दूसरी तरफ वह अहेरी की जमींदारनी रानी लक्ष्मीबाई से उसे पकड़ने का दवाब बना रहे थे. शेडमाके इससे वाकिफ नहीं थे. 18 सितंबर 1858 को शेडमाके को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें चंडा सेंट्रल जेल लाया गया, 21 अक्टूबर 1858 को बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके को चंडा के खुले मैदान में फांसी दे दी गई.

सब बेपेंदी के लोटे

पत्रकारिता और राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ होने के बावजूद मुझे आज भी रीता बहुगुणा जैसे दल-बदल पर हैरत और खीज होती है. गुस्सा आता है कि कोई ऐसा अवसरवादी कैसे हो सकता है कि बिल्कुल उलट विचारधारा के साथ चला जाए. हालांकि कांग्रेस और बीजेपी विपरीत विचारधारा नहीं हैं, फिर भी जीवन भर आप जिस पार्टी, उसकी नीतियों का विरोध करते रहे उसी में कैसे और किस मुंह से शामिल हो जाते हैं. जगदम्बिका पाल के बीजेपी में जाने पर मुझे हैरत नहीं हुई थी, सतपाल महाराज या रीता जी के भाई विजय बहुगुणा के भी बीजेपी में जाने पर मुझे हैरानी नहीं हुई. लेकिन रीता बहुगुणा जोशी. एक राजनीतिक और शिक्षक के तौर पर इनका अपना एक अलग मकाम था. हालांकि लंबे समय से रीता जी कांग्रेस में हाशिये पर थीं और इस बार के चुनाव में भी उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं मिल रही थी, सो उनका दल बदल तय या स्वाभाविक ही था, लेकिन बीजेपी में जाना, कुछ हज़म नहीं हुआ. वैसे सपा-बसपा में उन्हें ठिकाना भी नहीं मिलता. ऐसी अवसरवादिता के लिए हमारी मां एक कहावत कहती हैं कि “जहां देखी तवा-परात, वहीं बिताई सारी रात.” मतलब जहां भी देखा कि रोटी-पानी का इंतज़ाम है, वहीं पड़ जाओ. यही अब ये नेता कर रहे हैं. जहां भी दिखता है कि पद, पैसा या सत्ता मिल सकती है, वहीं पहुंच जाते हैं. बचपन में सुना था कि संघी और कम्युनिस्ट बस ये दो लोग ही ऐसे होते हैं जो कभी अपनी विचारधारा नहीं छोड़ते और इसे आज तक सच होता देख भी रहा हूं. वरना सब बेपेंदी के लोटे हो गए हैं.​

बच्चों को पढ़ाने वाले दलित युवक की जातिवादी गुंडों ने की पिटाई, पुलिस भी दे रही है गुंडों का साथ

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इलाहाबाद। फूलपुर कोतवाली में आने वाले भमई हुसामगंज जमलापुर में दलित युवक प्रमोद कुमार गांव के बच्चों को पढ़ाता है. प्रमोद का यह काम गांव के ही कुछ उच्च जाति के लड़कों को रास नहीं आया. इसीलिए उन्होंने रात में प्रमोद के घर डाका डाल दिया. इस घटना को अंजाम देने के लिए उन्होंने बरसाती डाकू गैंग का सदस्य महरादीन को भी अपने साथ लिया और प्रमोद के घर धावा बोल दिया. प्रमोद ने गुंडों का विरोध किया तो गुंडों ने बंदूक दिखाकर उसके साथ मारपीट की. इसके बाद वे घर में रखे 9 हजार रूपये और एक मोबाइल लूट ले गए. पीड़ित युवक ने घटना की शिकायत फूलपुर थाना में की. पुलिस पर गुंडों के प्रभाव और मिलीभगत होने के कारण अभी रिपोर्ट दर्ज नही हुई है. प्रमोद ने आईजी सहित जिले उच्चाधिकारियों को रजिस्टर्ड डाक से शिकायत पत्र भेजकर न्याय की गुहार लगाई है. साथ ही अनुसूचित जाति आयोग को भी इसकी सूचना दी. प्रमोद ने बताया की थाने में केस दर्ज करने वाला पुलिस कर्मचारी भी मुझे और मेरे परिवार को पुलिस में शिकायत करने पर जान से मारने की धमकी दे रहा है. इस पर युवक ने सीओ फूलपुर रविशंकर प्रसाद से मिलकर इसकी सूचना दी तो सीओ ने उस पुलिस कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा लिखने और वैधानिक कार्यवाही करने को एसओ फूलपुर को आदेश दिया है. लेकिन अभी तक पुलिस ने मुकदमा दर्ज नहीं किया.

पटना में आयोजित हुआ ””कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई”” पर कैडर कैम्प

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पटना। बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले मान्यवर कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में एक दिन का राज्य स्तरीय कैडर कैंप आयोजित किया गया. कैडर कैंप का थीम “कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई” पर आधरित था. कैंप का आयोजन बिहार की राजधानी  पटना के विद्यापति भवन में आयोजित हुआ था. कार्यक्रम का शुभारंभ मान्यवर कांशीराम एवं बाबासाहेब अम्बेडकर की तस्वीर पर माला अर्पण के साथ किया गया. इस अवसर पर मुख्य अतिथि एवं बिहार प्रदेश प्रभारी तिलक चंद अहिरवार ने कहा कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य बसपा के विचारधारा को कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को अवगत कराना है. जिससे कि वह प्रशिक्षित हो कर अपने-अपने क्षेत्र में बसपा के कार्यकताओं और सदस्यों को कैडर कैम्प दे सके. बिहार के बसपा प्रदेश प्रभारी डा. लालजी मेंधाकर ने कहा कि हम प्रदेश व देश में सिर्फ एक जाति को जोड़कर सत्ता में नहीं आ सकते है. इसके लिए समाज के 85 प्रतिशत लोगों को बसपा की विचारधारा से जोड़ना होगा. तभी प्रदेश मे बसपा की सरकार बन सकती हैं. उन्होंने मान्यवर कांशीराम एवं बाबासाहेब अम्बेडकर के संघर्षमय सफर को विस्तृत रूप से कार्यकताओं एवं पदाधिकारियों को अवगत कराया. मेंधाकर ने कार्यकताओं एवं पदाधिकारियों को अवसरवादी नेताओं से सजग रहने की सलाह दी. कार्यक्रम को पूर्व कैबिनेट मंत्री कमलाकान्त गौतम, मिठाई लाल भारती, बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भरत बिंद, प्रदेश उपाध्यक्ष राजेश त्यागी, प्रदेश सचिव राज कुमार राम सहित अन्य लोगों ने भी संबोधित किया.

मैं 16 साल का दलित छात्र हूं, क्लास में मुझे प्रताड़ित किए जाने का वीडियो वायरल हो गया है

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मैं 16 साल का छात्र हूं और बिहार के मुजफ्फरपुर में एक सरकारी स्कूल में पढ़ता हूं. पिछले कुछ दिन से हर कोई यह जानना चाहता है कि मुझे स्कूल में उन लड़कों ने इतनी बुरी तरह से क्यों पीटा. मैं काफी समय तक चुप रहा. कभी पुलिसवालों को, कभी स्कूल के साथियों को तो कभी मीडिया को बार-बार अपने पिटने की कहानी बताकर अब मैं निराश हो गया हूं.. थक गया हूं. इन सभी को जब से मेरे पिटने का वीडियो सोशल मीडिया पर मिला, तब से बार-बार पूछ रहे हैं. कुछ लोगों ने मुझे बताया कि मेरे पिटने का वीडियो वायरल हो गया है. बचपन में ही मेरे पिता ने मुझे मेरी नानी के घर मुजफ्फरपुर में पढ़ने के लिए छोड़ दिया था. मेरे पापा मेरी दो छोटी बहनों के साथ गांव में ही रहते हैं और वह एक शिक्षक हैं. उन्होंने मुझे वह नाम दिया, जिसका अर्थ ”बेस्ट” होता है. वे चाहते हैं कि मैं यहां अच्छी शिक्षा ग्रहण करूं. मैं बहुत मेहनत करता हूं. मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि पापा की अपेक्षाओं पर खरा उतरूं. स्कूल में मारपीट की उस घटना से पहले और उसके बाद भी आज मुझ पर जो बीत रही है वो एक प्रताड़ित छात्र या समाज से निष्कासित व्यक्ति ही समझ पाएगा. मैंने स्कूल में अच्छा करना शुरू किया तो मेरे पिता खुश हुए, लेकिन इसके साथ ही मेरी प्रताड़ना भी शुरू हो गई. मैं पिछले दो साल से अपने स्कूल में अच्छे मार्क्स लाकर दलित होने का नतीजा भुगत रहा हूं. मेरी ही क्लास में पढ़ने वाला एक छात्र और उसका भाई पिछले दो साल से मुझे प्रतिदिन प्रताड़ित करते हैं. मुझे भद्दी-भद्दी गालियां देते हैं. हफ्ते में कम से कम एक बार वे मेरे चेहरे पर थूक फेंकते हैं. मैंने अपने अध्यापक को यह सारी बातें बताई. उन्हें मेरे साथ सहानुभूति तो है, लेकिन साथ ही उन्होंने बताया कि उन दोनों के पिता बहुत ताकतवर क्रिमिनल हैं. इसलिए स्कूल उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. उन्होंने कहा कि अगर मैंने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई तो मुझे स्कूल से नाम काटे जाने पर मजबूर कर दिया जाएगा. मैं भी चिंतित था कि मुझे प्रताड़ित करने वाले लड़कों के पिता मेरे परिवार के साथ क्या करेंगे. इसलिए मैंने चुप रहना ठीक समझा. वह वीडियो जो वायरल हुआ है और जिसकी वजह से पुलिस केस भी दर्ज हो गया है, मुझे लगता है कि वह 25 अगस्त का है. उनमें से एक ने कहा था कि मुझे मारने में उसे खुशी मिलती है. इसलिए उसने एक अन्य छात्र को फोन देकर मेरे साथ मारपीट का वीडियो बनवाया. वह कक्षा में पीछे बैठता है, जहां आसानी से नकल हो सकती है. मैं हमेशा आगे की बैंच पर बैठता हूं. नकल करने के बावजूद उसके नंबर बहुत खराब आते हैं, जबकि मेरे हमेशा अच्छे नंबर आते हैं. इसी बात से उसे मेरे साथ नाराजगी है. और जब उसे पता चला कि मैं दलित हूं तो उसने मुझे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. इस वीडियो में भी देख सकते हैं कि मैं कुर्सी पर बैठा था और वह मुझे मार रहा है. उसने मेरे सिर पर मारा. मुझे लात-घूसें मारे गए. मुझे कुर्सी से खींचकर एक दीवार के पास ले जाया गया और मेरे चेहरे पर थप्पड़ मारा गया. किसी ने भी उसे और उसके भाई को रोकने की कोशिश तक नहीं की. मुझे बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया. इस वीडियो के बारे में जानने के बाद मेरे नाना खुद को रोक नहीं पाए और उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी. लेकिन दो-तीन लोग आए और उन्होंने हमें केस वापस लेने की धमकी दी. अब मैंने स्कूल जाना भी छोड़ दिया है. मार्च में मेरी वार्षिक परीक्षाएं हैं. अब आप ही बताएं मैं कैसे इस टॉर्चर का सामना करूं और परीक्षा की तैयारी करूं.
(साभारः एनडीटीवी )

करवा चौथः महिलाओं की भूख से पति को मिलेगी अमरता!

जम्बूद्वीप में दीर्घकाल तक रामराज्य स्थापित रहा, जहां पर पुरूषों को शक करने ,पत्नियों की अग्नि परीक्षा लेने तथा गर्भावस्था में भी उन्हें त्याग देने जैसे विशेषाधिकार प्राप्त थे. रामजी की कृपा से तब पुरूष शक्ति का आज जैसा क्षरण नहीं हुआ था. तब तक पति को परमेश्वर का दर्जा मिला हुआ था. उनके निधन पर महान स्त्रियां अग्नि स्नान करके सती हो जाती थी. फिर उनके मंदिर बनते, सुबह शाम पूजा की जाती. सती स्त्री बहुत सशक्त हो जाती थी, सब कोई उसके समक्ष नत मस्तक हो जाते थे, क्या स्त्री और क्या पुरूष. मर्दानगी की मर्यादा बनाई रखने के कारण ही दशरथनंदन को जम्बूद्वीप का सर्वोत्कृट पितृ पुरस्कार “पुरूषोत्तम” प्रदान किया गया. इससे प्रेरणा प्राप्त कर आर्यपुत्रों ने पत्नियों को त्यागने तथा उनकी अग्निपरीक्षा लेने का आदर्श कार्य शुरू किया. सतयुग, द्वापर, त्रेता एवं कलि काल तक यह व्यवस्था निर्बाध जारी रही. जम्बूद्वीप के अंतिम आर्य सम्राट ने भी रामराज्य के अनुसरण में अपनी विवाहिता को त्याग कर कहीं छुपा दिया. बरसों बाद कुछ राष्ट्रद्रोही नारदों ने युक्तिपूर्वक उक्त आर्यपुत्री को खोज निकाला. पहले तो सम्राट नें माना ही नहीं कि कभी उन्होंने आग के चारो तरफ सात फेरे लिये थे, फिर उनकी स्मृति लौटी तो उन्हें अपने जीवन की वो पहली स्त्री याद हो आई और अंतत: उन्होंने स्वीकार लिया कि उनका विवाह हो चुका है. यह सुनते ही भक्तगणों में भारी निराशा फैल गई. खैर, राष्ट्रीय निराशा से उबरने में देश को कुछ वक्त जरूर लगा, मगर शीघ्र ही सबके अच्छे दिन आए. पति देव कहलाने लगे और पत्नियां देवी के पद पर नियुक्त हुई. अंतत: पुरूषत्व के पर्व को दैवीय और शास्त्रीय शास्वत मान्यता मिली. इस के लिये मिट्टी के लौटे में जल भर कर चन्द्र दर्शन की व्यवस्था की गई. मिट्टी के लोटे को रामराज में  “करवा” कहा जाता था. लंका हादसे के मुताबिक बिछड़े हुये युगल के लिये करवे में पानी भर कर चतुर्थी के दिन चन्द्र को जल अर्पित करने से पुनर्मिलन की आस जगती है और मिले हुये दम्पत्तियों के बिछुड़ने के आसार लगभग क्षीण हो जाते है. चन्द्रमा जिसने गौतम की पत्नि के साथ इन्द्र द्वारा किये गये बलात्संग में सह अभियुक्त की भूमिका निभाई थी, उसे पुरूष होने का लाभ मिला. उसका कुछ नही बिगड़ा. आज भी दागदार चन्द्रमा पूरी शान और अकड़ के साथ निकलेगा, जिसे देख कर दिन भर की भूखी प्यासी व्रता विवाहिताएं उसे जल का अर्ध्य देगी और करवा चौथ का व्रत खोलेंगी. …और इस तरह सम्पूर्ण स्वदेशी भारतीय पति पर्व “करवाचौथ” सानंद सम्पन्न होगा. पुरूषों की उम्र स्त्रियों की भूख की कीमत पर द्रोपदी के चीर की तरह अतीव लम्बी हो जायेगी. पहले से ही कुपोषण की शिकार एनेमिक भारतीय महिलाएं और अधिक एनेमिक हो जायेंगी. खुशी की बात सिर्फ यह होगी कि परराष्ट्रीय पुरूष आज से अल्पजीवी हो जायेंगे, “करवाचौथ” के अभाव में उनकी औसत उम्र अत्यल्प होने से पूरे पृथ्वी लोक में हाहाकार मच जायेगा. दूसरी तरफ आज रात में चांद फिर मुस्करायेगा तथा भारतीय आर्य पतियों को अमरता मिल जायेगी और नासा को भारतीय पत्निव्रता स्त्रियों द्वारा आज चढ़ाया गया सारा जल कल चांद पर मिल जायेगा. भूमण्डल के जम्बूद्वीप पर “करवाचौथ माई” की जय जय कार होने लगेगी… और इस तरह ” राष्ट्रीय पति दिवस ” सानंद सम्पन्न हो जायेगा. जै हो करवा वाली चौथ की पतियों की कभी ना होने वाली मौत की..!! लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

पढ़िए, बिग बॉस के प्रतिभागी ओम जी महाराज के बारे में एक पत्रकार का खुलासा

इसे पहचानिये, यह है ओम जी महाराज बिग बॉस का प्रतिभागी है. इसे मैं तबसे जानता हूं जबसे इसका दिल्ली में अवतरण हुआ था. उस वक्त मैं नई दुनिया दिल्ली में स्टेट कोआर्डिनेटर हुआ करता था. यह ओम जी महाराज जंतर-मंतर पर आशाराम बापू की रिहाई को लेकर अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया हुआ था. मुझे याद है रोज बेहद आपत्तिजनक भाषा में विज्ञप्तियां लेकर मेरे कार्यालय आ जाता था. एक दिन जब अति हो गई तो मैंने इसे धक्का देकर ऑफिस से निकाल दिया. बाद में पता लगा कि इसके रिश्ते युगांडा के एक ड्रग पैडलर से हैं. आशाराम जब इलाज के लिए दिल्ली लाया गया तो यह उनके साथ था. एक दिन टीवी पर देखा एक लाइव कार्यक्रम में एक महिला को गाली देते हुए उसके साथ मारपीट कर रहा था. सर्वाधिक आश्चर्य तब हुआ जब इस घटना के कुछ ही दिनों बाद यह निर्भया की मां के साथ रेप आरोपी की रिहाई के खिलाफ हुए धरने में इंडिया गेट पर बैठा नजर आया. अब यह बिग बॉस में है, क्यों हैं ? यह आप अंदाजा लगा सकते हैं. मनोरंजन उद्योग की निगाह में भारत के टीवी दर्शक सूअरों के झुण्ड की तरह है. देखते रहिये बिग बॉस- -आवेश तिवारी के फेसबुक वॉल से​

मीडिया से अछूता है आदिवासी समाज

पिछले महीने आई एक खबर ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा. ये खबर थी एक आदिवासी दाना माझी की. वीडियो में अपनी पत्नी की लाश ढोता हुआ दाना मांझी अचानक से ही पूरे देश का सबसे अभागा और चर्चित व्यक्ति बन गया. नींद से जागी हुई मीडिया को अचानक ही ये महसूस हुआ की आदिवासी भी इस देश के नागरिक हैं और उनके दुख और तकलीफें भी “प्राइम टाइम” में जगह पाने की हकदार हैं. फिर क्या था? जोश से लबरेज मीडिया ने दाना मांझी के बहाने सिस्टम की खूब खटिया खड़ी की. बुद्धिजीवियों के हुजूम को मानो नवजीवन मिल गया. कोई सिस्टम को गालियां दे रहा था तो कोई दाना माझी के भाग्य को कोस रहा था. सारे चैनलों में खुद को सबसे ज्यादा संवेदनशील दिखाने की होड़ सी मच गयी. हर बुद्धिजीवी अपनी जंग खाती बौद्धिक क्षमता का परिचय देने पर तुला हुआ था. मैने भी मीडिया में आयी इस नवचेतना का “देर आयद दुरुस्त आयद” वाले अंदाज में दिल खोल के स्वागत किया. समय बीतता जा रहा था और चैनलों पे आदिवासी विमर्श अपने चरम पे पहुंच गया. लेकिन इस सारे शोर में चैनल्स ने असल मुद्दे को छुआ तक नहीं. क्या किसी ने ये सोचने का कष्ट किया की आदिवासियों की और क्या-क्या समस्याएं हैं? किसी चैनल वाले ने ये सोचा की उन्हें आदिवासियों और उनसे जुड़े हुए मुद्दों की याद कभी-कभी ही क्यों आती है? सच तो ये है मीडिया जैसे सशक्त माध्यम पे कब्ज़ा उन लोगों का है जो इन मूलनिवासियों और इनसे जुड़े हुए मुद्दों को तब तक खबर मानता ही नहीं जब तक की ये घनघोर टीआरपी वाली ना हों. इनके महंगे कपडों और मेकअप से लबरेज संवाददाता जंगलों का रुख तब तक नहीं करते जब तक वहां कोई नक्सली घटना ना हो जाये. बाकी बची हुए मीडिया वालों के लिये ये असभ्य और जंगली हैं जिनका कुछ नहीं हो सकता. जब तक मीडिया पर ऐसे लोगों का कब्ज़ा है तब तक वंचित तबके की ख़बर का सच में ख़बर बन पाना लगभग असम्भव है. वैसे भी आज-कल मीडिया पर “राष्ट्रवाद” का बुखार चढ़ा है. ऐसे में किसी और मुद्दे के बारे में सोचना भी “देशद्रोह” के समान है. मीडिया का बाकी बचा टाईम मोदी, क्रिकेट, अंधविश्वास, और सिनेमा के लिये रिजर्व है. अब इन जरूरी मुद्दों के आगे आदिवासियों को कौन पूछे? वैसे हम और आप चाहें तो हज़ारों दाना माझी ढूंढ सकते है जो अपने मेहनती कंधों पर अपनी उम्मीदों की लाश ढोते हुए आसानी से मिल जायेंगे. बस उनके नाम और शक्लें अलग होंगी.