सब बेपेंदी के लोटे

पत्रकारिता और राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ होने के बावजूद मुझे आज भी रीता बहुगुणा जैसे दल-बदल पर हैरत और खीज होती है. गुस्सा आता है कि कोई ऐसा अवसरवादी कैसे हो सकता है कि बिल्कुल उलट विचारधारा के साथ चला जाए. हालांकि कांग्रेस और बीजेपी विपरीत विचारधारा नहीं हैं, फिर भी जीवन भर आप जिस पार्टी, उसकी नीतियों का विरोध करते रहे उसी में कैसे और किस मुंह से शामिल हो जाते हैं.

जगदम्बिका पाल के बीजेपी में जाने पर मुझे हैरत नहीं हुई थी, सतपाल महाराज या रीता जी के भाई विजय बहुगुणा के भी बीजेपी में जाने पर मुझे हैरानी नहीं हुई. लेकिन रीता बहुगुणा जोशी. एक राजनीतिक और शिक्षक के तौर पर इनका अपना एक अलग मकाम था. हालांकि लंबे समय से रीता जी कांग्रेस में हाशिये पर थीं और इस बार के चुनाव में भी उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं मिल रही थी, सो उनका दल बदल तय या स्वाभाविक ही था, लेकिन बीजेपी में जाना, कुछ हज़म नहीं हुआ.

वैसे सपा-बसपा में उन्हें ठिकाना भी नहीं मिलता. ऐसी अवसरवादिता के लिए हमारी मां एक कहावत कहती हैं कि “जहां देखी तवा-परात, वहीं बिताई सारी रात.” मतलब जहां भी देखा कि रोटी-पानी का इंतज़ाम है, वहीं पड़ जाओ. यही अब ये नेता कर रहे हैं. जहां भी दिखता है कि पद, पैसा या सत्ता मिल सकती है, वहीं पहुंच जाते हैं. बचपन में सुना था कि संघी और कम्युनिस्ट बस ये दो लोग ही ऐसे होते हैं जो कभी अपनी विचारधारा नहीं छोड़ते और इसे आज तक सच होता देख भी रहा हूं. वरना सब बेपेंदी के लोटे हो गए हैं.​

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