आनंदी बेन का जाना: गुजरात में दलित-अल्पसंख्यक आन्दोलन को दबाने की एक कवायद

हम प्रतिवर्ष समूचे राष्ट्र को उद्वेलित कर देने वाले “स्वतंत्रता दिवस” समारोह धूमधाम से मनाते हैं. इस अवसर पर भारत छोड़ो आन्दोलन का याद आना स्वाभाविक ही है. भारत छोड़ो आन्दोलन का वह समय था जब हमारे लक्ष्यों और आदर्शों की निष्ठा ने राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो दिया था. उस आन्दोलन के न तो जातियाँ ही आड़े आईं और न ही धर्म. फिर आजादी प्राप्त होने के बाद क्या हो गया कि सामाजिक न्याय के सूत्रधार जाति-भेद की विषमता मिटाने के नाम पर व धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर जातिगत एवं धार्मिक विद्वेष और राजनैतिक मोर्चोंबन्दी को पुख्ता कर रहे हैं. आदमी को आदमी से दूर करने लगे हैं. आजादी प्राप्ति से पूर्व के जो राष्ट्रीय लक्ष्य एवं मूल्य, जो आदर्श भारतीयों को सामूहिक रूप से स्फुरित करते थे, जैसे बिखर गए हैं. आत्मनिर्भरता के सुस्वप्न में देखा राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे आज विलुप्त हो गया है. हमारी राजनीति का तो लगता है, शील ही भंग हो गया है. आस्थाएं डगमगा रही हैं. सामाजिक न्याय का लक्ष्य मात्र भाषणों या फिर कागजों में सिमटकर रह गया है. आजादी प्राप्ति के बाद की राजनीति ने अवसरवादिता एवं शून्यवाद को ही जन्म दिया है. नीति और नीयत दोनों ही गुड़-गोबर हो गई हैं. मूल्यों के बिखराव के वर्तमान दौर में सभी राजनैतिक पार्टियां उठापटक में लगी हैं. “आओ! सरकार सरकार खेलें” के खेल में लिप्त हैं. भारतीयता जैसे नैपथ्य में चली गई है. धर्मांधता, जातीयता, धन-लोलुपता और विलासता राजनैतिक मंच पर निर्वसन थिरक रही है. राजनैतिक नारे दिशाहीनता ही पैदा कर रहे हैं. सरकारी स्तर से ग्रामीणों हेतु शिक्षा की आड़ में विदेशियों को पुन: भारत आने का न्यौता दिया गया. सरकार ने बेशक इसे आर्थिक सुधार की मुहिम कहा था, किंतु ये था तो परतंत्रता का ही द्योतक. भारत जैसे स्वाभिमानी और विकासशील राष्ट्र के लिए यह गर्वित होने की बात नहीं है. भारत की आम-जनता के लिए यह हानिकारक ही सिद्ध होगी. समाज में हिंसा और भ्रष्टाचार निरंतर निर्बाध गति से बढ़ता जा रहा है. लोगों की मानसिकता हिंसक होती जा रही है. ऐसे में बेहतर प्रशासन की उम्मीद रखना मिथ्या विचार ही होगा. यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भ्रष्टाचार संत्री से लेकर मंत्री तक अपनी पहुँच बना चुका है. सुनने को मिलता है कि आजादी प्राप्त होने से पहले देश में केवल पाँच प्रतिशत काला धन था जबकि आज देश में 80 प्रतिशत से भी अधिक काला धन है. यह निरंतर सिकुड़ती और कलुषित मानसिकता का ही परिणाम है. भ्रष्टाचार का ये आलम है कि कभी कोई भूखा शायद ही रोटी की चोरी करता होगा, किंतु आज अमीर और अमीर बनने के लिए चोरी करता है. सरकारी सौदों में पनपता भ्रष्टाचार करोड़ों-अरबों से कम नहीं होता. ऐसे तमाम घोटालों के पीछे किन-किन ताकतों का हाथ होता है, किसको नहीं पता? जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो फिर कोई क्या कर सकता है? हाँ! अगर जनता ही एकजुट हो जाए तो कुछ बात बन सकती है. इन्दिरा गान्धी का “गरीबी हटाओ” नारा, राजीव गान्धी का 21वीं सदी में प्रवेश करने का नारा, सत्ता में आई प्रत्येक राजनैतिक पार्टी, सत्ता में आने के बाद के 100 दिनों में मंहगाई कम करने का वायदा बड़े जोर-शोर से करती है किंतु मंहगाई है कि निरंतर बढ़ती ही जा रही है. तमाम के तमाम राजनैतिक वायदे आम-जनता की आँख में धूल झोंकने का काम करते हैं. मोदी जी का “सबका साथ, सबका विकास” नारा एक जुमला ही सिद्ध हुआ है. 100 दिन में काले धन की वापसी के वादे को भाजपा के अध्यक्ष “एक राजनीतिक जुमला” सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी कर चुके हैं. राजनैतिक मंचों से धार्मिक-घोष ने राजनीति में और कालिख घोल दी है. मनुवादी प्रयोगशाला में फला-फूला भारतीय समाज आज भी पूरी तरह साम्प्रदायिकता के चंगुल में फँसा हुआ है. साम्प्रदायिकता को लेकर जिस प्रकार की समस्या भारत देश में है, शायद ही किसी अन्य देश में हो. यह भी सत्य है कि विविधताओं और विभिन्नताओं से भरा भारत जैसा कोई दूसरा देश हो. जाति-दर-जाति से निर्मित हमारे सामजिक ढाँचे को देखकर सब दाँतों तले उँगलियाँ दबाते हैं. जाति-प्रथा का सम्पूर्ण ढाँचा ही सामाजिक दृष्टि से ऊँच-नीच की मानसिकता पर आधारित है. वर्तमान में गौ-रक्षा के नाम पर हो रहे जातीय दंगे, मारपीट, और दलित जातियों की महिलाओं के साथ हो रहे निरंतर बलात्कार, सरकारी और सामाजिक स्तर पर अल्पसंख्यकों और दलितों के हितों की अनदेखी कोई नई बात नहीं किंतु वर्तमान सरकार के समय में तो अति ही हो गई है. भाजपा और भाजपा की पैत्रिक संस्था को लगता है कि शायद यह उनकी अंतिम सरकार होगी तभी तो वह अपने तमाम एजेंडों को इसी काल में पूरा करने के फिराक में धार्मिक और जातीय दंगे भड़काने के काम जुटी है. सामाजिक वैमनस्य को बढ़ाकर सत्ता में बने रहना उनका एक मात्र मकसद बनकर रह गया है. व्यापक स्तर पर जाति या मजहब आधारित सांप्रदायिक झगड़े भारत में बेशक नए लगते हों किंतु इसके मूल में जो घृणा-भाव काम करता है, वह नया नहीं है. अंग्रेजों के आने तक शायद यें बातें भारतीयों को ज्यादा परेशान न करती हों. विभिन्न जातियों के लोग कभी-कभार आपस में थोड़ी-बहुत गाली-गलौज अथवा सिर-फुट्टवल तो कर लेते थे, किंतु इस प्रकार के द्वेष को देर तक न ढोते थे. आज जो भी सांप्रदायिक झगड़े भारत में हो रहे हैं, वे सब राजनीति की देन हैं. आश्चर्यजनक तो यह है कि जाति-प्रथा के पोषक ही आज जाति-पाँति के उभरने की बात करने लगे हैं. उनसे कोई तो पूछे कि भारत में जाति-पाँति का वर्चस्व कब नहीं था. अंतर केवल इतना है कि पहले का दलित लुट-पिटकर भी चुप रहने को बाध्य था, पर आज का दलित में जातीय चेतना जाग उठी है. वह सामाजिक न्याय और सम्मान पाने की बात पर उतारू है. हालिया हिंसक वारदातों पर प्रधान मंत्री की चुप्पी न केवल प्रधान मंत्री पद की गरिमा पर प्रहार है अपितु उनके गुप्त एजेंडे का खुलासा भी कर रही है. लगता है कि मोदी जी ने असामाजिक तत्वों को दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज को कुचलने की खुली छूट दे रखी है. गौरतलब है कि साम्प्रदायिक घृणा देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है. पंजाब में सिख साम्प्रदायिकता, असम में बोडो समस्या, कश्मीर में मुस्लिम साम्प्रदायिकता, अब गाय के नाम पर तथाकथित गौ-रक्षकों का तांडव ..तो कहीं कोई और समस्या, यह है आज के भारत में साम्प्रदायिकता का विकराल रूप. इन सबको पीछे छोड़ती हुई, एक और बड़ी समस्या है, साम्प्रदायिक ताकतों के सिर पर चढ़ा “हिन्दू-राष्ट्र” की स्थापना का भूत. पहले से ही जातियों में विभाजित जनता को किसी न किसी मुद्दे पर और बाँटना, विभिन्न वर्गों में मतभेदों को मनभेद में बदलना और उसे बढ़ावा देना सत्ता-लाभ प्राप्त करना ही आज की राजनीति की नियति बन गई है. नवभारत टाइम्स (24.07.2016) में राजनीतिक एक्सपर्ट नीरजा चौधरी कहती है कि राजनीति में ह्युमर कम होता जा रहा है क्योंकि इसकी जगह राजनीतिक कटुता ने ले ली है. जहाँ कटुता होती है वहाँ ह्युमर नहीं रहता. जब सब अपने आप को सीरियसली लेने लगते हैं, तब भी ह्युमर दूर भागता है. पहले लोगों के विचारों में मतभेद होता था लेकिन हंसी-खुशी का माहौल बना रहता था. राजनेता एक दूसरे के विचारों से सहमत नहीं होते थे, एक-दूसरे का विरोध भी किया करते थे लेकिन माहौल में मधुरता होती थी. अब सोच का दायरा बेहद संकीर्ण हो गया है, जिसमें ह्युमर की जगह ही नहीं बची है. जाहिर है कि अब मतभेद से ज्यादा मनभेद होता है. ….जब दिल ही नहीं मिल रहे तो ह्युमर कैसा? सबसे प्रमुख दो दलों के शीर्ष नेताओं तक में बातचीत नहीं होती…सब एक संकुचित दायरे में सोचने लगे हैं. अब सरकार और विपक्षी दलों के बीच के संबंध सामान्य हो पाएंगे, ऐसा भी नहीं लगता. खेद की बात है कि सरकार और विपक्ष दोनों ही एक दूसरे के आमने सामने ऐसे खड़े नजर आते हैं…. जैसे दो देशों की सैनाएं जबकि रिश्तों को सामान्य बनाना सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों पर ही निर्भर करता है. लेकिन ज्यादा.सत्ता पक्ष पर क्योंकि सत्ता पक्ष ऐसा करने की स्थिति में होता है. यहाँ इस सवाल का उठना लाजिम है कि राजनेताओं के बीच रोजाना होने वाली गाली-गलौज से क्या लोकतंत्र की मर्यादा को आहत नहीं हो रही है? यहाँ यह कहने में कोई आपत्ति नहीं कि आज की केन्द्र सरकार बैसाखियों के सहारे नहीं टिकी है, बल्कि पूरे बहुमत से सता में है. जिससे सरकार का रवैया एक तानाशाह जैसा दिख रहा है. ऐसा लगता है कि सरकार की शह पर ही देश में कमजोर वर्गों को किसी न किसी मुद्दे पर निशाना बनाया जा रहा है. प्रधानमंत्री की इन मुद्दों पर चुप्पी साधे रखना, इस बात का प्रमाण है. अभी हाल में ही गुजरात के मुख्यमंत्री को महज इसलिए हटाया गया कि वो गुजरात में तारी दंगों/फसादातों को सुलझाने में नहीं, बल्कि दबाने में ना कामयाब रहीं. कहना ये है कि वर्तमान सरकार चाहे तो पटेल आन्दोलन हो, या फिर गुजरात में ही तथाकथित गौ-रक्षकों द्वारा चर्मकार दलितों पर अमानवीय मारपीट का मामला हो, या हरियाणा में दलित किशोरियों के साथ हुए दोहरे बलात्कार का मामला हो, या फिर  उत्तर प्रदेश में इखलाख का मामला हो, या फिर मुम्बई में बाबा साहेब अम्बेडकर भवन को तहस-नहस करना हो. ….आज की केन्द्र सरकार इन मामलों को सुलझाने के बजाय इन मामलों को दबाने का प्रयास करती रही है, किंतु ऐसा कर नहीं पाई. परिणाम स्वरूप अब बीजेपी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को सबसे पहले अपना शिकार बनाया है. हो सकता है कि कल हरियाणा के मुख्य मंत्री की बारी आ जाए…उन्हें भी मुख्यमंत्री पद से इसलिए हटा दिया जाए कि वो जाट आन्दोलन को दबाने में असफल रहे. बारी राजस्थान की भी आ सकती है. अखबारों की छपी टिप्पणियों तो यह ही स्पष्ट हो रहा कि गुजरात की मुख्य मंत्री आनंदी बेन का जाना गुजरात में दलित आन्दोलन को दबाने की एक साजिश है. बीजेपी का मानना है कि गुजरात के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री में दलित और पटेल आन्दोलन की क्षमता है. चलते-चलते…. आनन्दी बेन के त्यागपत्रके एक दिन बाद ही गौ-रक्षा के नाम पर चल रही गुंडागर्दी को केन्द्र में रखकर प्रधानमंत्री के बयान का आना क्या कोई सवाल खड़ा नहीं करता? इससे यह कतई स्पष्ट होता है कि अब प्रधानमंत्री ने भी देशभर में तेजी से पनप रहे गौरक्षा के नाम पर दलित और मुस्लिम अत्याचार के खिलाफ चल रहे दलित और मुस्लिम आन्दोलन को दबाने का ही प्रयास है. पता नहीं कि जब प्रधान मंत्री को इतना पता है कि गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी चल रही है और तथाकथिक गौरक्षकों में लगभग 80 प्रतिशत असामाजिक तत्व शामिल है और अपनी-अपनी दुकानदारी को चमका रहे हैं, तो फिर ऐसा क्या कारण रहा कि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गौररक्षकों के खिलाफ इतनी देर बाद छह जुलाई को पहली बार मुंह खोला. माना तो ये जा रहा है कि मोदी जी ने संघ और बीजेपी शासित राज्यों पर अप्रत्यक्ष रुप से निशाना साधा है किंतु ऐसा लगता नहीं है. उनका ये बयान अगामी वर्ष में कई राज्यों होने वाले चुनावों के मद्देनजर दलितों और अल्पसंख्यकों में उपजे आक्रोश को कुछ ठंडा करने की एक राजनीतिक कवायद है. लेकिन उनका ये मकसद किस सीमा तक पूरा होगा यह एक प्रश्नचिन्ह ही है. हार्दिक पटेल ने तो ऐलान कर दिया है कि इस कवायद से पटेल आन्दोलन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और उनका आन्दोलन और तेजी से चलेगा. दलित और अल्पसंख्यक वर्ग को भी इस छलावे में नहीं आना चाहिए और अपने आन्दोलन पर अडिग रहना चाहिए अन्यथा उनकी आगामी पीढ़ियां उन्हें सदियों तक माफ नहीं करेंगी. लेखक तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, तूफाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन-झुन, खेल-खेल में आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), दो निबन्ध संग्रह  और अन्य. तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक रहे हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादन कर रहे हैं. हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित.

हिन्दू धर्म ग्रंथ और महिला सम्मान का प्रश्न

प्राचीन काल से लेकर आज के समय तक एक उपमा जो स्त्रियों के लिए हमेशा दी जाती है, वह है कि सीता-सावित्री की तरह बनो. इस उपमा में सीता या सावित्री के व्यक्तित्व की ऊंचाईयों और गहराईयों को समझने की बात नहीं होती. यहां तो यह इसलिए कहा जाता है कि उनकी नजर में सीता और सावित्री अपने कुल के आदर्शों को ढोने वाली और अपने पति का अनुसरण करने वाली स्त्रियां थीं. हिन्दू धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि शुरू से ही स्त्रियों के साथ छल होता आया है. जब भी कभी कोई निर्णायक मोड़ आया तो सजा स्त्रियों को ही मिली. जिस प्रचलित कहानी के पात्र के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा बताया जाता है; उस भारत की माता यानी शकुंतला से राजा दुष्यंत ने प्रेम किया और गंधर्व विवाह भी किया. लेकिन अपने राज्य जाकर उन्हें भूल गए. जब शकुंतला उनके पास अपना हक मांगने पहुंची तो वह एक अंगूठी, जिसे दुष्यंत ने शकुंतला को निशानी के तौर पर दी थी के ना होने पर उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया. यह कैसा प्रेम था कि सिर्फ एक अंगूठी के ना होने पर राजा दुष्यंत ने अपनी प्रेमिका/पत्नी को पहचाना तक नहीं. इसी प्रकार हिन्दू धर्मग्रंथों में प्रचलित कहानी के मुताबिक इंद्र ने जब छल से अहिल्या के साथ संबंध स्थापित किया तो अहिल्या के ऋषि पति ने उन्हें पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया,. जबकि इंद्र को मिली सजा कुछ ही दिनों में माफ हो गई. क्या ये पुरूष-स्त्री के बीच का पक्षपात नहीं था? अहिल्या के साथ छल इंद्र ने किया था लेकिन सजा सिर्फ अहिल्या को क्यों? क्योंकि वह एक स्त्री थी? सीता जो हमेशा अपने पति के साथ खड़ी रहीं, उनके साथ वनवास गईं, राम से बदला लेने का निमित्त बन रावण द्वारा हर ली गईं. मात्र एक प्रजा के कहने पर राम ने उन्हें गर्भवती अवस्था में वन में छोड़ दिया. बाद में अपने पुत्रों का अपना होने का प्रमाण भी मांगा. ऐसे में राम से अच्छा तो रावण था जिसने सीता को उनकी इच्छा के विरुद्ध छुआ तक नहीं. एक खास वर्ग के लोग राम को मर्यादा पुरुषोतम कहते हैं तो क्या उस वर्ग के सभी पुरुषों को अपनी स्त्रियों के साथ राम के जैसा ही व्यवहार करना चाहिए. लक्ष्मण जिन्होंने भातृ प्रेम की मिसाल स्थापित की, उन्होंने अपनी पत्नी के साथ क्या किया. भाई का फर्ज निभाने में वह पति का फर्ज भूल गए. महाभारत की नायिका द्रौपदी के साथ जो हुआ वो सर्वविदित है. क्या वह कोई वस्तु थीं, जिसे कुंति ने कहा कि सभी भाईयों में बांट लो. क्या पत्नी भी कोई बांटने की चीज है? इस तरह के कई उदाहरण हिन्दू धर्म ग्रंथों में भरे मिलेंगे, जहां आदर्श स्थापित करने के नाम पर स्त्रियों के साथ पक्षपात हुए. मगर इन सबके बावजूद इन स्त्रियों के जीवन चरित्र को हम गहराई से अध्ययन करें तो पाएंगे कि चाहे इनके साथ कितने भी पक्षपात हुए हों, इनका अपना एक अलग व्यक्तित्व था. इन्होंने तभी तक सहा जब तक इनके आत्म सम्मान को ठेस नहीं पहुंची थी. जब इनके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाने की बात हुई, इन्होंने बगावत की. उन्होंने एक पुरुष प्रधान समाज में अपनी गरिमा, अपनी पहचान को बनाए रखा. द्रौपदी का चरित्र हमेशा विद्रोहीणी का रहा और ये सर्वविदित है कि महाभारत में युद्ध की जड़ में द्रौपदी ही थी. इसी तरह जब राम ने सीता के चरित्र पर ऊंगली उठाते हुए उनके पुत्रों का उनके होने का सबूत मांगा तो बजाए सबूत देने के सीता ने धरती में समा जाना बेहतर समझा. यह उनके चरित्र की दृढ़ता ही थी कि उन्होंने राम को मांफी भी मांगने का अवसर नहीं दिया. ये सारे पात्र काल्पनिक हैं या यथार्थ यह एक अलग तर्क है मगर जिन स्त्रियों का उल्लेख किया गया उन्होंने यह साबित किया कि स्त्री चाहे जिस काल में भी हो उसके लिए अपने आत्म सम्मान से बढ़कर कुछ नहीं होना चाहिए.

अजाक्स की रैली से प्रदेश में कर्मचारियों का उत्साह बढ़ा है- जे.एन. कंसोटिया

12 जून के बाद मध्य प्रदेश में हचलच बढ़ गई है. कारण मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति एवं जनजाति कर्मचारी एवं अधिकारी संघ यानि ‘अजाक्स’ की भोपाल में हुई वह रैली है, जिसमें प्रदेश भर से पहुंचे लाखों सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों ने एक साथ अपनी मांगों को लेकर हुंकार भरी. इस कार्यक्रम में जुटी भीड़ को देखकर सरकार इतने दबाव में आ गई कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खुद यह घोषणा करनी पड़ी कि आरक्षण कोई खत्म नहीं कर सकता. यह सफल कार्यक्रम अजाक्स के प्रांतीय अध्यक्ष जे.एन. कंसोटिया के नेतृत्व में हुआ. 1993 में गठित हुए अजाक्स के श्री कंसोटिया 2005 से अध्यक्ष हैं. इस कर्मचारी आंदोलन को लेकर ‘दलित दस्तक’ के संपादक अशोक दास ने भोपाल में जे.एन. कंसोटिया से बात की. 12 जून की रैली के बाद क्या फर्क पड़ा है? –  देखिए, उस रैली के बाद दो बदलाव आया है. अच्छी बात यह है कि उस रैली में सरकार ने जो घोषणा की थी, उसके अनुसार कार्यवाही कर रही है. सरकार ने आश्वासन दिया है कि वो अजाक्स द्वारा उठाए गए मुद्दों के पक्ष में काम करेगी. कार्यक्रम में एससी/एसटी कर्मचारियों और अधिकारियों की एकता सामने आई है, जिससे उनके बीच उत्साह बढ़ा है. उनकी हिम्मत बढ़ी है कि वह बड़ा काम कर सकते हैं. जो एक निगेटिव बात हुई है वह यह है कि हमारे ही बीच के दो-तीन लोग गुटबंदी करने लगे हैं. उन्होंने अपना एक अलग गुट बना लिया है, जिसमें दूसरे कम्युनिटी के लोगों को भी शामिल कर लिया गया है. हालांकि उनके साथ समाज के लोग नहीं गए हैं. अजाक्स की मांगे क्या है? – रिजर्वेशन इन प्रोमोशन कंटिन्यू होना चाहिए. बैकलाग भरा जाए. छात्रों को स्कॉलरशिप टाइम से मिले. विद्यार्थियों के हॉस्टल का मुद्दा देखा जाए. सबको हॉस्टल की सुविधा मिले. इसके साथ ही सेल्फ इम्प्लाइमेंट के मुद्दे पर भी ध्यान दिया जाए. इसके लिए समय पर फंडिंग हो. हमारा मानना है कि सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय भी हो. अजाक्स की गतिविधियों की बात करें तो यह संगठन किन मुद्दों को देखता है? – हम अधिकारियों और कर्मचारियों की सेवाओं से संबंधित मुद्दों को देखते हैं. सरकार के नियम-कानून और संवैधानिक दायरे में रहते हुए यह संगठन काम करता है. चूंकि हमारा संगठन सामाजिक है, इसलिए जब हम चर्चा करते हैं तो कर्मचारियों की सेवाओं के साथ-साथ समाज से जुड़े मुद्दों पर भी चर्चा करते हैं कि समाज में किस तरह जागरूकता लाई जाए. समाज के लोगों को उनके शिक्षा के अधिकार, समानता के अधिकार और उनको प्राप्त संवैधानिक अधिकारों की चर्चा करते हैं. हम ‘पे बैक टू सोसाइटी’ के मुद्दे पर भी चर्चा करते हैं कि जिस समाज ने हमको सबकुछ दिया है; उसके भी थोड़ा काम आ सकें. हम संगठन के माध्यम से समाज के लोगों को प्रेरित करते हैं. उनको उनके अधिकारों के बारे में बताते हैं और यदि उनके साथ कुछ गलत होता है तो हम उनको मदद करते हैं. आप किन परिस्थितियों से निकलते हुए आईएएस के पद तक पहुंचे. अपने बारे में बताइए.  – मैं राजस्थान का रहने वाला हूं. नागौर जिले के कुचामन सिटी का. निश्चित तौर पर मैं ऐसे परिवार से आता हूं जहां अभाव था. मैं फर्स्ट जेनरेशन का बंदा हूं. मैं अपने परिवार का पहला व्यक्ति हूं जिसने छठी कक्षा पास की. मेरे से पहले मेरे परिवार में कोई इतना पढ़ा-लिखा नहीं था. पिताजी के पास कोई संसाधन नहीं था. वो शू-मेकिंग का अपना परंपरागत काम करते थे. मेरे साथ यह अच्छी बात थी कि मुझे शुरू से ही पढ़ना अच्छा लगता था. मैंने मेहनत की तो मुझे आगे बढ़ने का मौका मिला. मेरा गांव टाउन है, तो वहीं से मैंने हाई स्कूल पास किया. फिर जयपुर के महाराजा कॉलेज पढ़ने गया. मैं बॉयलोजी का छात्र था क्योंकि मेरे घरवाले मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे. लेकिन परिस्थितियां ऐसी थी कि अगर मैं डॉक्टर बन जाता तो मेरे दूसरे भाई-बहन नहीं पढ़ पाते. क्योंकि डॉक्टरी का खर्चा ज्यादा होता है. मैंने डॉक्टर बनने का ख्याल छोड़ दिया और सिंपल ग्रेजुएशन करने लगा ताकि मेरे दूसरे भाई-बहन भी पढ़ सकें और मैं अपने पिताजी की मदद कर सकूं. इस तरह मैं शासकीय सेवा में आया. बैंक में नौकरी करते हुए ही मैंने कंप्टीशन परीक्षा पास की और शासकीय सेवाओं में आया. मैं 1989 बैच में सीधे आईएएस के लिए चुना गया. आप किन-किन पदों पर कहां-कहां रहें? – मेरी पहली पोस्टिंग उज्जैन में असिस्टेंट कलेक्टर के पद पर हुई. 92 के सिंहस्थ में वहीं एसडीएम था. रायगढ़, बिलासपुर (अभी छत्तीसगढ़) में असिस्टेंट कलेक्टर रहा. इधर रहते हुए ही मुझे आदिवासी इलाकों में काम करने का मौका मिला. खासकर बिरहोर जनजाति के लिए काम किया. मैं वहां प्रोजेक्ट डायरेक्टर था. छतरपुर में दो साल कलेक्टर रहा, राजगढ़ में चार साल कलेक्टर रहा. कई और जगहों पर रहने के बाद भोपाल में कई विभागों में सेक्रेट्री रहा. अभी मैं मुख्य सचिव (महिला एवं बाल विकास) हूं. सामाजिक सरोकार से आप कैसे जुड़े? – मैंने बचपन से ही अनुसूचित जाति/ जनजाति की दिक्कतों को देखा है. जब मैं इस नौकरी में आया तो मुझे लगा कि मैं निचले पायदान पर खड़े इस समाज के लिए कुछ कर सकता हूं. योजनाओं के क्रियान्वयन में नियमानुसार उनको प्राथमिकता दे सकता हूं. संवैधानिक दायरे और सरकारी सीमा में रहते हुए उनके सशक्तिकरण के लिए काम कर सकता हूं तो मुझे करना चाहिए. मध्य प्रदेश में आकर देखा कि यहां के आदिवासी भाईयों और अनुसूचित जाति के भाईयों को इसकी जरूरत भी है. उनके हित के लिए काम करने से उनको व्यवस्था में विश्वास भी होता. मेरा शुरू से यह सोचना रहा है कि जो शासन है और उसकी प्रजातंत्र की जो अवधारणा है वह हमेशा से एक वेलफेयर स्टेट की अवधारणा है. और ऐसे में प्रशासनिक अधिकारी को जनता के वेलफेयर के लिए काम करना चाहिए. और जब हम वेलफेयर की बात करते हैं तो इसकी सबसे ज्यादा जरूरत अनुसूचित जाति/ जनजाति और गरीब चाहे वो किसी भी वर्ग का हो उन लोगों को है. इस तरह मैंने समाजिक दायित्वों को भी निभाना शुरू किया. किससे प्रभावित रहें? – देखिए, बचपन से तो ऐसा कोई आइडिया नहीं था लेकिन जब बाबासाहेब को पढ़ा और जाना तो लगा कि जब उन्होंने इतने संघर्ष और मुश्किल के बावजूद देश के गरीबों, पिछड़ों और महिलाओं के लिए इतना काम किया तो हमें भी सरकारी दायरे में रहते हुए यह करना चाहिए. ताकि हम देश एवं समाज के विकास की गति बढ़ा सके. वंचित तबके से आने वाले अधिकारियों की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए?  – देखिए, मेरा मानना है कि जब सामान्य वर्ग का कोई अधिकारी होता है तो वंचित समाज को उससे उतनी अपेक्षा नहीं होती. लेकिन जब वंचित तबके का ही कोई व्यक्ति अधिकारी बनकर आता है तो उसे उसका समाज उम्मीद भरी नजरों से देखता है. उसे उम्मीद होती है कि उसके ही समाज से आना वाला व्यक्ति निश्चित ही संवेदनशील होगा. उसे इस तबके की दिक्कतें पता होंगी, इसलिए वो उम्मीद करता है जो जायज भी है. क्या है अजाक्स मध्य प्रदेश अनसूचित जाति एवं जनजाति अधिकारी एवं कर्मचारी संघ यानी अजाक्स एक सामाजिक संगठन है. यह सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का संघ है और शासन से मान्यता प्राप्त है. प्रदेश के पूरे 51 जिलों में इसकी कार्यकारिणी है. संगठन 1993 में शुरू हुआ और 1994 में इसका रजिस्ट्रेशन हुआ. वरिष्ठ आई.ए.एस (रिटा.) अमर सिंह इसके अध्यक्ष रह चुके हैं. जे.एन. कंसोटिया सन् 2005 से इसके अध्यक्ष हैं.

मैं बाबासाहेब की बहुत बड़ी फॉलोअर हूं- टीना डाबी

teenaटीना डाबी सिर्फ 22 साल की आर्ट्स ग्रेजुएट हैं और उन्होंने यूपीएससी 2015 में टॉप किया है. टीना दलित समुदाय से आती हैं. टीना दो बहन हैं और माता पिता दोनों इंजीनियर हैं. टीना ने पहली बार में ही यूपीएससी में टॉप किया है. टीना की इस सफलता को बहुजन समाज के लिए बड़ी बात मानी जा रही है क्योंकि अबतक दलित समुदाय से किसी महिला ने यूपीएससी में टॉप नहीं किया था. टीना के जो शुरुआती इंटरव्यू आएं उसको लेकर वह विवादों में भी रहीं. कई लोगों ने इस पर आपत्ति जताई की टीना ने बाबासाहेब का नाम नहीं लिया. तो फेसबुक और ट्विटर पर उनके फेक प्रोफाइल के जरिए आने वाले आरक्षण विरोधी संदेश और पीएम मोदी को आदर्श मानने की बात से भी वो विवादों में रही. हालांकि दलित दस्तक को दिए इंटरव्यू में टीना ने इन बातों को साफ कर दिया है. टीना खुद को बाबा साहेब अंबेडकर की बहुत बड़ी फॉलोअर बताती हैं. वहीं वह महिला उत्थान के लिए काम करने की बात कहती हैं. टीना डाबी से बात की शंभु कुमार सिंह  ने-

टीना दलित दस्तक की तरफ से बधाई

– थैंक्स

22 साल की उम्र में पहला अटैंप्ट और सीधा टॉप, भरोसा था?

– रिजल्ट जानने के बाद बहुत खुशी हुई. परीक्षा देने के बाद इतनी उम्मीद थी कि चयन तो हो जाएगा. लेकिन ये उम्मीद नहीं थी कि टॉप करूंगी. टॉप करने के बाद से लग रहा है कि कोई सपना जी रही हूं.

आपकी मम्मी ने बताया कि आपको पांचवीं क्लास से ही वर्ल्ड ग्लोब की पूरी जानकारी थी.

– मम्मी पढ़ाती थी और मैं इंटरेस्टेड रहती थी कि जितना ज्यादा हो सके देश और दुनिया के बारे में सीख सकूं. हमेशा कोशिश रहती थी कि जितना ज्यादा हो सके पढ़ाई कर सकूं.

आपके घर में इंजीनियरिंग बैक ग्राउंड है लेकिन आपने आर्ट्स को क्यों चुना ?

– घर में इंजनियरिंग का माहौल था. लेकिन मुझे इंजीनियरिंग समझ नहीं आई. मैंने 10+2 में साइंस लिया था, लेकिन दो महीने बाद ही आर्ट्स में चली गई. शुरू से ही तय कर लिया था कि जब सिविल सर्विस में ही जाना है तो फिर सोशल साइंस की ही पढ़ाई की जाए. यूपीएससी में आर्ट्स वाले ज्यादा सफल रहे हैं. फिर तय किया कि आर्ट्स ही पढ़ना है.

 बहुत लोग सोचते हैं कि यूपीएससी करनेवाले लोग स्पेशल होते हैं. यह कितना सच है ?

– ऐसा कुछ नहीं है. मैं तो बिल्कुल साधारण लड़की हूं. सुपर टैलेंट की बात मैं नहीं मानती. हां, आपको मेहनत करते रहना पड़ता है. लगकर आप मेहनत करेंगे तो सफलता तय है. लगातार मेहनत करने पर सफलता मिलती ही है. बस लगे रहने पड़ता है वही मैंने किया.

टीना को आईएएस ही क्यों बनना था ?

– मेरा शुरू से ही सोशल काम में मन लगता था. मैं हमेशा से लोगों की भलाई के लिए काम करना चाहती थी. मैं कॉलेज में भी अपने ही क्लास की लड़कियों को इंग्लिश पढ़ने में मदद करती थी ताकि वह भी बेहतर कर सकें. सिविल सर्विस आपको बेहतर जिंदगी और अलग करने का मौका भी देता है. आईएएस की नौकरी प्रेस्टिजियस और अच्छी है.

जॉब के लिहाज से आईएएस अच्छा है. लेकिन सिविल सर्विस में आए लोग बहुत सोशल चेंज कर पाए हैं ऐसा ज्यादा नहीं दिखता है. पत्रकारिता में तो मशहूर है कि एसडीएम, डीएम और एसपी बाघ होते हैं जिनके बारे में आम लोग कहते हैं कि वो आपको खा जाएगा.

– ऐसा नहीं है लेकिन जो बदलाव हो रहे हैं उसमें ब्यूरोक्रेट्स और सिविल सर्वेंट्स का बहुत योगदान है. काफी लोगों ने बेहतर काम किया है.

आईएएस को पैसा और पावर के लिए जाना जाता है. लेकिन आप कह रही हैं कि सोशल चेंज लाना है. पहली प्राथमिकता क्या होगी ?

– कई बार लगता है कि आईएएस के बारे में एक निगेटिव इमेज बन गई है. लेकिन अब जो लोग  सिविल सर्विस ज्वाइन कर रहे हैं उनकी जिम्मेदारी है कि वह बेहतर और ईमानदारी से काम करके दिखाएं और दूसरे के लिए उदाहरण बन सके. अगर आप अच्छे अधिकारी की तरह काम करेंगे तो दूसरे भी मजबूर होंगे कि वो ईमानदारी से बेहतर काम करें.

आपकी नजरों में समाज में किस तरह के भेदभाव हैं. आप सोशल साइंस की छात्रा हैं तो इन बातों को बेहतर जानती होंगी.

– अगर भेदभाव की बात करें तो जेंडर के आधार पर काफी भेदभाव है. जाति और धर्म के आधार पर भी भेदभाव होता है. सुधार हुआ है लेकिन और तेजी से सुधार की जरूरत है.

आपने इसलिए हरियाणा को कैडर चुना है कि वहां ज्यादा असमानता है. ज्यादा भेदभाव है.

– हरियाणा में समस्याएं हैं लेकिन तेजी से सुधार भी हुआ है. हां ये सच है कि लिंग अनुपात में हरियाणा की हालत ज्यादा खराब है. ये भी सच है कि महिलाओं का मुद्दा मेरे लिए ज्यादा जरूरी हैं ऐसे में मैं काफी तेजी से वहां काम करूंगी. कोशिश करूंगी की बेहतर हालात बने.

आपने कहा कि जाति को लेकर भेदभाव है. किस तरह का भेदभाव है?

– देश में जाति को लेकर भेदभाव एक सच है. यह एक गंभीर मुद्दा है. इस पर बात करनी भी जरूरी है. लेकिन जितने सुधार हुए हैं उसपर भी बात करनी जरूरी है. इसी से आगे किस तरह सुधार हो सकता है इसे तय किया जा सकता है. मेरी कोशिश होगी कि भेदभाव को खत्म किया जा सके. सरकारी नीतियों के तहत जितने भी सुधार के कदम उठाए जा सकते हैं उसे उठाए. जिन लोगों के पास लाभ पहुंचना है उनके पास पहुंचाया जाए ताकि जल्द से जल्द भेदभाव खत्म हो.

आप सोशल साइंस की छात्रा हैं. कोई ऐसा समाज वैज्ञानिक जो भारत का हो और जिसने आप पर असर डाला हो.

– बहुत सारे समाज वैज्ञानिक हैं जिनको पढ़ती हूं. अमर्त्य सेन ने मुझे काफी प्रभावित किया है. जिस तरह से उन्होंने गरीबी, आरक्षण और सोशल जस्टिस पर लिखा है वो मुझे ज्यादा सही लगते हैं. उनकी बातों से सहमत हूं. भारत की ग्रोथ रेट पर उन्होंने बेहतरीन लिखा है.

तैयारी के लिए कोचिंग कितनी जरूरी है ?

– कोचिंग जरूरी है लेकिन कोचिंग की बदौलत ही सफल हुआ जा सकता है ये सही नहीं है. लेकिन कोचिंग से मदद जरूर मिलती है. जो कोचिंग नहीं अफोर्ड कर सकते वह अखबार पढ़कर या फिर जमकर किताबें पढ़कर सफल होते हैं. बिना कोचिंग किए भी लोग सफल होते हैं. कोचिंग जरूरी है लेकिन अंतिम सत्य नहीं है.

दिल्ली के सीएम केजरीवाल और केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद से मुलाकात हुई. क्या बात हुई ?

– दोनों नेताओं ने बेहतर भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी. दोनों इतने व्यस्त होते हैं कि उनके पास खुद के लिए भी समय नहीं होता, फिर भी मिले और शुभकामनाएं दी उसके लिए दिल से दोनों का शुक्रिया.

फैमिली का सपोर्ट कितना जरूरी है? घर का माहौल कैसा होना चाहिए ?

– परिवार का साथ बहुत जरूरी है. यूपीएससी की तैयारी एक चुनौती है. हर तीसरे दिन लगेगा का नहीं होगा. लेकिन आपको घर से और परिवार से समर्थन मिलता है तो फिर आप हिम्मत से जुट जाते हैं. इसलिए परिवार का साथ और सपोर्ट बहुत जरूरी है.

टीना मोर्डन एजुकेशन की बात करें तो सावित्री बाई फुले 1848 में पहली बार महिलाओं के लिए स्कूल खोलती हैं. उससे पहले हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं था. इस बदलाव को आप किस तरह देखती हैं?

– मुझे गर्व होता है कि एक वंचित समाज जो हमारा समाज है उसी समाज की महिला ने ही महिलाओं के लिए शिक्षा की शुरुआत की और उसे आगे बढ़ाया. सबसे बड़ी बात है कि जब आप महिला को शिक्षित करते हैं तो पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं तो ये बहुत ही बड़ा कदम था.

आपको क्या लगता है, अगर महिलाओं की शिक्षा की शुरुआत और पहले होती तो उनकी हालत और बेहतर होती ?

– हमारा समाज आज भी पुरुष प्रधान है. लेकिन धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं. बदलाव धीरे-धीरे ही होता है. लेकिन हम बेहतर हो रहे हैं. लड़कियां मौका मिलते ही बेहतर करने लगी हैं. बदलाव हो रहा है.

आप महिला सुधार की बात करती हैं. कुछ लोगों का सवाल है कि भारत में अंबेडकर ने महिलाओं के अधिकार के लिए हिंदू कोड बिल की नींव रखी. वो बराबरी के पक्षधर थे. लेकिन आपने उनका जिक्र नहीं किया, या फिर किसी ने इस बारे में पूछा ही नहीं.

– आपने बिल्कुल सही कहा. मुझसे सीधे इस तरह के सवाल ही नहीं पूछे गए. पहली बार आपने ही पूछा है. बाबा साहेब के योगदान को तो भूला ही नहीं जा सकता. उन्होंने कितनी तकलीफों के बाद भी पढ़ाई की. उनकी वजह से बदलाव आए. उन्होंने ही पहले वीकर सेक्शन और महिलाओं के अधिकार की बात की. कितनी परेशानी में होने के बाद भी पढ़ाई पूरी की. कहां-कहां नहीं पढ़े. बाबा साहेब से मैं बहुत प्रभावित हूं. उनका पूरा जीवन ही विचारों से भरा है. मैं खुद उनकी बहुत बड़ी फॉलोअर हूं. उनको तो भूलाया ही नहीं जा सकता.

बाबा साहेब ने जो महिलाओं के लिए काम किया. उसे टीना कैसे आगे बढ़ाएगीं?

– बिल्कुल. बाबा साहेब का शिक्षा और महिलाओं के अधिकार पर जोर था. मैं भी महिलाओं की शिक्षा और लिंग अनुपात को लेकर काम करना चाहूंगी. सरकार की नीतियों को ठीक से लागू करवाने पर बदलाव जरूर आएगा.

आप खुद दो बहन हैं. आपने टॉप किया है. मतलब क्या समझा जाए कि ये बदलाव देश को दिशा देनेवाली है. महिलाओं का समय आ गया है.

– (टीना हंसते हुए) आज महिलाएं तेजी से ऊपर आ रही हैं. अब समय बदल गया है. मेहनत से वो आगे आ रही हैं. मैं खुद टॉपर बनी हूं. पहले भी टॉपर हुई हैं. तो बस अब समय महिलाओं का है. मेहनत कीजिए और समाज को बदलिए. लड़कियां लड़कों से कम नहीं हैं.

क्या आपको कभी महसूस हुआ कि आप उस कैटेगरी से आती हैं जो हाशिए पर है. या आपको कभी महसूस कराया गया कि आप उस समाज से आती हैं जो आज भी मेन स्ट्रीम से दूर हैं ?

– सीधे कभी भेदभाव तो नहीं हुआ लेकिन यह भी सच है कि आज भी लोगों का इंटरेस्ट जाति में जरूर रहता है. जब स्कूल, कॉलेज में टॉप करती थी तो लोग यह जानने की कोशिश करते थे कि मैं किस जाति की हूं, और जानने के बाद कहते थे कि अरे वाह, इस जाति के लोग भी इतने बेहतर होते हैं. हां लेकिन उन लोगों ने फिर बाद में अपनाया कि अरे तुम तो बेहतर हो.

शहरों में हालात बदले हैं. आपको क्या लगता है.

– हां, शहर में अब जात-पात खत्म हो रहे हैं. लोग एक दूसरे को अपनाने लगे हैं. लेकिन हां, जाति एक मुद्दा तो है लेकिन धीरे-धीरे खत्म हो रहा है.

लड़कियों के साथ जिस तरह से हिंसा बढ़ी है उसे लेकर आप क्या सोचती हैं. इसके लिए कैसे काम करेंगी.

– हां, महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी हैं. मैं जरूर इसके लिए काम करना चाहूंगी. छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया जाए तो इसे कम किया जा सकता है. मैं जरूर महिलाओं की सुरक्षा को पर खास ध्यान दूंगी.

यूपीएससी की तैयारी करनेवाले छात्रों को क्या सलाह देंगी ?

– मैं तो इतना ही कहूंगी कि जो भी तैयारी कर रहे हैं वो जमकर मेहनत करें. भरोसा बनाए रखिए. मेहनत का कोई और दूसरा विकल्प नहीं है. खुद पर भरोसा कीजिए. हां, लगातार मेहनत कीजिए. सफलता जरूर मिलेगी.

और तैयारी करने वालों के मम्मी पापा के लिए क्या सलाह है?

– मम्मी-पापा के लिए यही कहूंगी कि आप अपने बच्चों पर भरोसा रखिए. उनके साथ बात कीजिए. क्योंकि जब हम तैयारी होते हैं तो अपने दोस्तों और तमाम लोगों से दूर होते हैं. तब एक घर वाले ही साथ रहते हैं. उन्हें भरोसा दिलाना चाहिए, सफलता जरूरी मिलेगी.

हमसे बात करने के लिए बहुत धन्यवाद

मैं अस्थायी बदलाव नहीं चाहता- कांशीराम

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आज जब देश में राष्ट्रवाद पर बहस छिड़ी हुई है, कांशीराम जी द्वारा दिए गए राष्ट्रवाद की परिभाषा गौर करने लायक है. मान्यवर कांशीराम दो राष्ट्रवाद के सिद्धान्त की बात कहते थे. एक वो जो सताए जाते हैं उनका राष्ट्रवाद और दूसरे जो सताते हैं, उनका राष्ट्रवाद. उनका मानना था कि अत्याचार करने और सताने वाले के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषा सामंतवाद है, जबकि मेरे लिए राष्ट्रवाद भारत की जनता है. 8 मार्च, 1987 को कांशीराम जी द्वारा इलस्ट्रेटिड वीकली के संवाददाता निखिल लक्ष्मण को दिए साक्षात्कार के जरिए हम मान्यवर को आपके सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं. तकरीबन तीन दशक बाद भी वह इंटरव्यू बहुजन समाज को दिशा देने में सक्षम है. प्रश्न- आप सभी राजनीतिक दलों के प्रति इतने विरोधी क्यों हैं, विशेषकर कम्युनिस्टों के? उत्तर- मेरे विचार में सभी पार्टियां यथास्थिति की पोषक हैं. हमारे लिए राजनीति है बदलाव की राजनीति. मौजूदा पार्टियां यथास्थिति को बने रहने का कारण है. यही कारण है कि पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने का काम नहीं हुआ है. कम्युनिस्ट पार्टियां इस मामले में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हुई हैं. वे परिवर्तन की बात करती हैं लेकिन काम यथास्थिति के लिए करती हैं. बीजेपी बेहतर है कम-से-कम यह बदलाव की बात कभी नहीं करते, इसलिए लोग धोखे में नहीं रहते. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां गरीबी दूर करने की बात करती हैं लेकिन काम गरीबी बनाये रखने का करती हैं. यदि गरीब, गरीब नहीं रहेगा तो ये लोग (यथास्थितिवादी) गद्दी पर नहीं बैठ पाएंगे. प्रश्न- आपका कैडर महात्मा गांधी का इतना विरोधी क्यों है? उत्तर- गांधी सभी बुराइयों की जड़ हैं। मैं बदलाव चाहता हूं। डॉ. अम्बेडकर बदलाव चाहते थे लेकिन गांधी यथास्थिति के रखवाले थे. वह शूद्रों को हमेशा शूद्र बनाए रखना चाहते थे. गांधी ने राष्ट्र को बांटने का काम किया लेकिन हम राष्ट्र को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं, हम सभी बनावटी बंटवारों को मिटा देंगे। प्रश्न- आप जातिवादी संगठन खड़ा करके जातिवाद को कैसे मिटा सकते हैं? उत्तर- बीएसपी जातिवादी पार्टी नहीं है. यदि हम 6000 जातियों को जोड़ रहे हैं तो हम जातिवादी कैसे हो सकते हैं? प्रश्न- मुझे लगता है कि उच्च जातियों के लिए आपकी पार्टी के दरवाजे बन्द हैं? उत्तर- उच्च जातियां कहती हैं कि आप हमें शामिल क्यों नहीं करते. मैं कहता हूं कि आप सभी पार्टियों का नेतृत्व कर रहे हैं. यदि आप हमारी पार्टी में शामिल होंगे तो आप यहां भी बदलाव रोक दोगे. उच्च जातियां हमारी पार्टी में शामिल हो सकती हैं लेकिन वे इसके नेता नहीं हो सकते. नेतृत्व पिछड़ी जातियों के हाथों में ही रहेगा. मुझे डर है कि जब उच्च जातियों के लोग हमारी पार्टी में आएंगे तो वे बदलाव की प्रक्रिया को रोकेंगे. जब यह डर समाप्त हो जाएगा तो वे हमारी पार्टी में शामिल हो सकते हैं. प्रश्न- जिन राजनीतिज्ञों से हमने दिल्ली में बात की वे कहते हैं कि यदि बीएसपी ने अपना ज्यादा लड़ाकूपन दिखाया तो वे राजनीति में खत्म कर देंगे। उत्तर- हम उनको खत्म कर देंगे. क्योंकि जब इन्दिरा एक चमार के द्वारा खत्म की जा सकती है तब ये क्या बच सकते हैं. जब हम सशस्त्र सेनाओं में 90 फीसदी हैं, बीएसएफ में 70 फीसदी हैं, 50 फीसदी सीआरपीएफ और पुलिस में हैं तो हमारे साथ कौन अन्याय कर सकता है. एक जनरल के लिए जवानों की तुलना में कम गोलियां चाहिए. उनके पास जनरल हो सकते हैं, जवान नहीं. प्रश्न- इसका अर्थ है आप हिंसा का प्रचार कर रहे हैं? उत्तर- मैं शक्ति का प्रचार कर रहा हूं। हिंसा को रोकने के लिए मेरे पास शक्ति होनी चाहिए. उदाहरण के लिए, मेरे अलावा शिवसेना को कोई नहीं पछाड़ सकता, जब कभी मैं महाराष्ट्र आऊंगा मैं उनको खत्म कर दूंगा. शिवसेना की हिंसा खत्म हो जाएगी. प्रश्न- आप ऐसा किस प्रकार करेंगे? उत्तर- शिवसेना में कौन लोग हैं जो आग लगाते हैं और तोड़-फोड़ करते हैं. वे चार जातियां हैं-; अगाड़ी, भण्डारी, कोली और चमार. ये अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के लोग हैं. जब मैं महाराष्ट्र आऊंगा ये लोग मेरे पास आ जाएंगे. प्रश्न- आप कैसे मानते हैं कि यूपी में बीएसपी का हश्र आरपीआई की शासक पार्टियों के साथ सौदेबाजी की ताकत की तरह खात्मा नहीं होगा? उत्तर- आरपीआई ने कभी सौदेबाजी नहीं की. यह तो मांगने वाली पार्टी थी. यह सौदेबाजी करने के स्तर तक कभी नहीं पहुंची. मुझे याद है 1971 के आम चुनावों में 521 सीटों के लिए चुनावी समझौता हुआ, जिसमें 520 सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ी तथा बाकी एक पर आरपीआई. मुझे आरपीआई प्यारी है लेकिन इससे तुलना करने में मुझे घृणा है. यह एक ऐसी वेश्या है जो कौड़ियों में बिकती है. जब तक मैं जिन्दा हूं ऐसा बीएसपी के साथ कभी नहीं होगा. हम बदलाव चाहते हैं. हम यथास्थिति वाली ताकतों से गठजोड़ नहीं चाहते. यदि सरकार हमारे सहयोग के बगैर नहीं बन सकती तो बदलाव की हमारी अपनी शर्तें होंगी. हम आधारभूत तथा ढांचागत बदलाव चाहते हैं बनावटी नहीं. प्रश्न- आपके फंड के स्रोत के पीछे कुछ रहस्य है? उत्तर- मेरे पास फंड विभिन्न स्रोतों से आते हैं जो कभी खत्म नहीं होंगे. मेरा फंड ऐसे लोगों से आता है जो दौलत पैदा करते हैं. बहुजन समाज दौलत पैदा करता है. मैं उन्हीं से पैसा लेता हूं. लाखों लोग त्योहारों जैसे कुम्भ मेला इत्यादि पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, केवल अगला जन्म संवारने के लिए. कांशीराम उनको बताता है कि मैं अगले जन्म के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन मैं वर्तमान जीवन का विशेषज्ञ हूं. मैं कहता हूं जिनको अगला जन्म संवारना है वे गंगा के किनारे ब्राह्मणों के पास जाओ, जिनको वर्तमान जीवन सुधारने में रुचि है वे मेरे पास आएं. इसलिए वे मेरी मीटिंगों के लिए दौड़ते हैं. प्रश्न- वे कहते हैं कि आपने लखनऊ रैली पर बहुत पैसा खर्च किया है। उत्तर- केवल बसों को किराये पर लेने के लिए ही 22 लाख रुपये खर्च किये गये. लेकिन मैं नाराज हूं. ये 22 करोड़ होने चाहिए थे. एक समय आएगा जब मेरे आह्वान पर 22 करोड़ तक लोग खर्च करेंगे. मेरे लिए पैसों की कोई कमी नहीं है. यदि खजाने से पैसा आता तो ये खाली हो जाता, मैं लगातार चलने वाले स्रोत से पैसा ले रहा हूं. मुझे सभी 542 लोकसभा की सीटों को जीतने के लिए केवल 1 करोड़ रुपया चाहिए. एक दिन वोटर कांशीराम को पैसा देने के लिए लाइन में खड़े होंगे, अगले दिन वे कांशीराम को वोट देने के लिए लाइन लगाएंगे. प्रश्न- आपकी पार्टी से कुछ लोग पार्टी छोड़कर चले गए? उत्तर- आप सभी लोगों को एक साथ नहीं रख सकते। कुछ लोग थक सकते हैं. कुछ को खरीदा जा सकता है. कुछ डर सकते हैं ऐसा लगातार चलता रहेगा. इससे हम हतोत्साहित नहीं होंगे. मैंने एक ऐसा तरीका ईजाद (ढूंढा) किया है कि यदि किसी समय पर 10 आदमी छोड़कर जाते हैं तो हम उसी स्तर के 110 लोग तैयार कर लेंगे. जिनको हमने ‘डेडवुड’ (मृतकाठ) करके अलग किया है, उसी ‘मृत काठ’ को दूसरे जलाकर कुछ आग पैदा कर रहे हैं. वे उनको हमारे विरुद्ध प्रयोग करने की कोशिश कर रहे हैं. प्रश्न- आप किस प्रकार के बदलाव की ओर देख रहे हैं? उत्तर- मैं अस्थायी बदलाव नहीं चाहता. मैं ऐसा कुछ नहीं चाहता जो टिकाऊ न हो. हम जो कर सकते हैं करेंगे लेकिन ये बरकरार रहना चाहिए और स्थायी बदलाव के द्वारा बरकरार रहना चाहिए. अनुवाद- बिजेन्द्र सिंह विक्रम

गौरक्षा बनाम वंचित समाज और मुस्लिम

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आज के समय में भारतीय राजनीति की बात करें तो देश समाज का विकास नहीं वल्कि उसे नष्ट करने के लिए दीमक के समान अंदर ही अंदर खोखला किये जा रहा है. आने वाला समय देश व समाज के लिए घातक होता जा रहा है. सवर्ण-अवर्ण के बीच खाई बढ़ती जा रही है. वह चाहे पढ़े-लिखे हों या मजदूर किसान ही क्यों न हो इसका प्रमुख कारण यह है कि अब वंचित वर्ग जो (दलित अति दलित यह नाम दिया हुआ है सवर्णों का) पढ़-लिख गया है. अपने अधिकारों के प्रति सजग प्रहरी की तरह तैनात है. जहां अपरजाति के लोगों की मनमानी नहीं चल पा रही है वे बौखला गए हैं. अपना सनातनी धर्म व रामराज्य को स्थापित करने के लिए जहाँ कोई अवर्ण, सवर्ण के कार्य को न धारण करे यथा सम्बुक ऋषि. वे जैसा चाहतें हैं वैसा ही चलता रहे परन्तु अब ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि मैं ऊपर ही लिख चूका हूँ कि वंचित वर्ग के लोग शिक्षित और पढ़े-लिखे लोग है. राजनीति में उनका भी अपना आस्तित्व है तभी तो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े जनसंख्या वाले प्रदेश में वचितों की सरकार चार बार रह चुकी है और पांचवीं बार की तैयारी है. जो उन लोगों के आँख की किरकिरी बनीं हुई है और आये दिन उसकी छबि को खराब करने में लगे हुए हैं, नाना प्रकार के हथकंडे अपनाएं जा रहे हैं. गाली-गलौज का माहौल पिछले कुछ  हफ़्तों से बना हुआ है जो परिचायक है मानसिक संतुलन के खो देने का. राजनीतिक स्तर के निम्न होनें और देश के विकास का स्तर दिन प्रतिदिन कम होते जाना आने वाले समय के लिए शुभ संकेत नहीं है. व्यक्ति राजनैतिक असंतोष का शिकार हो चुका है. वर्तमान समय के राजनीति धुरी की बात करें तो इसकी दो धुरियां है. एक गाय जो निरपराध पशु अपने भाग को पल-पल कोसती रहती है, उसे तो यह भी नही मालूम की उसका पति, बेटा बाप, भाई कौन है पल-पल में उसके नाते रिश्ते अपनों से बदलते रहते हैं पर तथाकथित एक वर्ग विशेष के लोग हैं जो उसे अपनी माँ की हैशियत से देखते हैं. वे लोग बधाई के पात्र हैं जो पशु को भी सम्मान की दृष्टी से देखते हैं. पर तभी तक जब तक कि उसे राजनीतिक हाशिये पर न लिया जाय. जो राजनीति का दूध दुह रहा है वह उसे पालता नहीं और जो उसे पालने वाला है. मारे डर के नहीं पालता क्योंकि उसे डर है अपने जीवन के आस्तित्व को लेकर कब कोई बहसी बन बैठे और ऊना तथा मंदसौर कांड हो जाये. बीते दिनों की बात करें तो गुजरात में अनुसूचित जाति के युवकों को खम्भे से बांधकर बेरहमी से इसलिए मारा गया कि वे मरी गाय की खाल को निकाल रहे थे इसमें उन युवकों ने कौन सा पाप किया उसकी खाल से शुद्ध चमड़े का कौन सा जूता या बेल्ट अपने लिए बनाते. उन विचारों को तो पलास्टिक या फ़ोम के ही जूते मयस्सर होंगे रेडचिफ बूट के महंगे जूते देखना ही उनके लिए बड़ी बात है. हमारे लालूप्रसाद यादव जी ने एक प्रश्न किया है कि जो लोग महंगा-महंगा जुतवा पहनता है ऊ काहे का बना होता है?  हर हाल में यह जायज है जबाब दो. तब तो आप बाज़ार जाते हैं तो रेडचीफ़ और बूट का जूता मंगाते हैं. इतने बड़े गौमाता के भक्त हैं तो मत पहनिए चमड़े का जूता और बेल्ट, प्लास्टिक का प्रयोग करें. आप नहीं पहन सकते. इन्हें तो केवल-केवल मजदूर वर्ग ही पहनता है. वहीँ मंदसौर (मध्यप्रदेश) की घटना इससे भी कहीं ज्यादा निंदनीय है जहां मुस्लिम महिलाओं को इसलिए मारा-पिटा गया कि वे अपने निवाले के लिए मांस लेकर आ रहीं थीं. मज़े की बात यह है कि वह मांस जांच में गाय का न होकर वल्कि भैंस का पाया गया. कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के औद्योगिक नगर क्षेत्र नोएडा में एक व्यक्ति का कत्ल भी इसी के चलते कर दिया गया था. अब इसे अंधेर नगरी चौपट राजा नहीं तो और क्या कहें. जनता जहां स्वंय ही क़ानून और न्यायालय बनी हुई है. आख़िर काज़ी और पुलिस का कार्य जनता को किसने दिया. ऐसा ही चलता रहा तो वे दिन दूर नहीं जब यहाँ के दूधमुंहे बच्चे भी क्रांति के लिए मैदान में आ डटेंगे. दूसरी धूरी वंचित वर्ग का विशाल तबका है जिस पर राजनीति की रोटी सेकी जा रही है. सभी पार्टियाँ उनकी सभी समस्याओं को जड़ से उखाड़ फ़ेंकना चाहती हैं लेकिन जातिवाद को कोई नहीं. जब तक देश में जातिवाद रहेगा तब समस्यायें जाने का नाम नहीं लेंगी. जातिवाद के नाम पर देश के कोने-कोने में आयें दिन लोग प्रतिदिन 18 व्यक्ति/मिनट प्रताड़ित होते रहते हैं. मजदूर किसान से लेकर छात्र और सरकारी मुलाज़िम तक सभी पीड़ित है. कोई मजदूरी में तो कोई शिक्षा में तो कोई चरित्रपंजिका में जाति के दंश को झेल रहा है और चुप हैं. अब तो हमारे राजनेता भी सुरक्षित नहीं वे भीं आम जनसमान्य की तरह अश्लील गालियों व् टिप्पड़ी के द्वारा लांक्षित किये जा रहें हैं उनकी अस्मत पर सवाल उठाये जा रहे हैं.उनका भी जीवन सुरक्षित नहीं है. अम्बेडकरवादियों की विदेशी धरोहर( अम्बेडकर भवन) को ख़रीदा जा रहा है. अपने ही देश में जहां उनका कर्म क्षेत्र रहा है को मध्यरात्रि में उनके ईश्वर सदृश्य बाबा साहब के भवन (कर्मस्थान) को गिरा कर इतिहास को धूमिल किया जा रहा है. और यह अम्बेडकर के साथ हो रहा अन्याय वंचित वर्ग के सहन से बाहर है, वे एक पैगम्बर ही हैं जो उनकें मंडप की वेदी पर आ विराजें है जिनके सम्मुख नवदम्पति मरने जीने की कस्में उनकों साक्षी मानकर लेता है क्या वह कभी बर्दास्त करेगा. ये कैसा दलित प्रेम है. घर का चिराग बुझा कर शमशान मे आग जलाई जा रही है. यह वंचित वर्ग के लिए कोई पुण्य काम न करते हुए वल्कि अन्तरराष्ट्रीयता को भुनाया जा रहा है. कोई उनके साथ चाय, तो कोई पांति में बैठकर खाना खा रहा है. अपने होर्डिंगों बैनर आदि पर फोटो अम्बेडकर की लगाते हैं. उनकी पहली प्रतिज्ञा की रीढ़ मारकर ही उनके सम्मुख लिखते है जय भोले जय श्रीराम आदि-आदि, लेकिन किसी ने शिक्षित करो, संगठित रहो, संघर्ष करो, लिखना उचित नहीं समझा. बाबा साहेब सदैव व्यक्तिवादी राजनीति को समाज के लिए कोड़ ही समझा परन्तु आज ख़ुद ही वे उसी के शिकार हो गएँ हैं. इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है. हाय तोबा हाय तोबा मची है अम्बेडकर के नाम की लूट लो….. देश की 70% पार्टियाँ अम्बेडकराईज्ड हो गयी हैं लेकिन सिद्धान्तः शून्य को इंगित कर रही हैं.  इस अम्बेडकरपने से हमारे वंचित भाईयों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला मेरे अपने विचार के अनुसार अधोलिखित में से कोई एक कार्य वंचितों के लिये कर दिया जाय तो यह बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकेगाः- 1- सम्पूर्ण देश में सवर्ण-अवर्ण के बीच रोटी-बेटी का सम्बन्ध. 2- उन्हें उनका 1932 पूना-पैक्ट का अधिकार सम्प्रदायिक आवार्ड जिसे गाँधी जी के द्वारा छीन कर आरक्षण का तुच्छ टुकड़ा उनके सामने फेंक दिया गया था. 3- या सम्पूर्ण समाज को जातिविहीन कर समान पढ़ने-लिखने का अधिकार “ सबको शिक्षा एक समान, राष्ट्रपति का बेटा हो मजदूर किसान”. इस आधार पर किसी को विश्वास हो या न हो पर हमें पूरा विश्वास है कि वंचितों के जीवन में अभूत-पूर्व परिवर्तन किया जा सकेगा. वे देश समाज के लिए विकास की एक नयीं किरण लेकर आएंगे. उन लोगों के मुंह पर यह करारा तमाचा होगा जो यह कहते हैं कि दलित आरक्षण के बल पर पढ़-लिख कर आगे बढ़ते हैं. उपरोक्त मांगों के आधार पर न यहां दोगली राजनीति होगी और न हि कहीं कोई दलित प्रताड़ित किया जायेगा और नहीं किसी की चरित्रपंजिका से खिलवाड़ होगा. उनका अपना जीवन अपने हाँथ होगा वे जैसा चाहेंगें वैसा जीवन जियेंगे. अपने देश की संसद के समय में भी प्रयाप्त बचत किया जा सकेगा जिस पर लाखो/मिनट खर्च किये जाते है केवल बहस के लिए. दलित समस्या की बहस को छोडकर देश के विकास की बात की जाएगी. वंचित वर्ग अपना विकास ख़ुद-ब-ख़ुद करेगा सबसे बड़ी बात तो यह है.कि वह किसी का मोहताज़ नहीं होगा. और फिर से वह अपने सिन्धुघाटी जैसी सर्वोच्च सभ्यता का विकास कर सकेगा अपने इतिहास को दोहरा सकेगा.

बहुजन छात्र- युवाओं पर पुलिस दमन के निहितार्थ

बिहार की राजधानी पटना में 3 अगस्त, 2016 को अपने हक-हकूक के लिए सड़क पर आवाज बुलंद करने उतरे दलित छात्रों पर पुलिसिया दमन की बर्बर कार्रवाई दुखद है क्योंकि दलितों का वोट सभी लेना चाहते हैं लेकिन उनको बराबरी का हक कोई भी वाकई दिल से नहीं देना चाहता.जेडीयू- बीजेपी की कमंडल समर्थक विकास के साथ न्यायवाली सरकार में अनेकों बार शिक्षकों- छात्रों- दलितों के खिलाफ पुलिस की यही नीति थी और अब जेडीयू- आरजेडी की सामाजिक न्याय की मंडलवादी सरकार में भी पुलिस की यही नीति है जो अफसोस की बात है. खास बात की धरना- प्रदर्शन के दौरान पुलिस-प्रशासन के द्वारा की गई इस प्रकार की बर्बर कार्रवाई हमेशा समाज के वंचित-शोषित और हाशिये के संघर्षरत लोगों के खिलाफ ही रही है.

ऐसी घटनाओं से कई बातें साफ होती है. पहला, सरकार बदलने से पुलिस- प्रशासन का असंवेदनशील रवैया और कामकाज के तौर-तरीके नहीं बदलते है. दूसरा, सरकार में आने के बाद राजनीतिक दलों- नेताओं का रवैया असंवेदनशील हो जाता है. संख्या बल के आधार पर या फिर राजनीतिक दलों की मजबूरी में कई बार दलित-आदिवासी-ओबीसी समाज के हाथ नेतृत्व की कमान आ जाती है लेकिन सत्ता संचालन के केंद्रों व सहयोगी तंत्रों में समुचित बहुजन भागीदारी का न होना भी बदलाव की प्रतिगामी शक्तियों को आक्रमक बना देती है. इस कारण नीति बनाने, उसे लागू करने व जन-जन तक पहुँचाने में कहीं भी सरकार के नेतृत्वकर्ता की सोच काम नहीं करती है. यानि सरकार की कमान चाहे किसी बहुजन के हाथ में भले ही हो एक सवर्णवादी शासन व्यवस्था उसके समानांतर पुलिस-प्रशासन के माध्यम से चलने लगती है। इस कारण बहुजन नेता समय के अंतराल में मनोवैज्ञानिक तौर पर टूटकर- मजबूर होकर ऐसे निर्णय लेने लगते हैं जो उनके राजनीतिक सोच व विचारधारा से परे हो। 

पुलिस की बर्बरता का यह ताजा मामला तो शिक्षा में भागीदारी के सवाल पर स्कॉलरशिप की माँग से जुड़ा था जिसपर दलित छात्र प्रदर्शन कर रहे थे. सरकार के लोगों को जबकि उसके शिक्षामंत्री अशोक चौधरी दलित ही हैं, उनकी बात सुनकर संज्ञान लेना चाहिये था क्योंकि यह प्रदर्शन आकस्मिक नहीं था बल्कि पूर्व घोषित- सूचित था. अगर एससी छात्रों के स्कॉलरशिप में गड़बड़ी, कोताही या कमी थी तो शिक्षामंत्री इसपर जन संवाद या प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सरकार की स्थिति खुलकर स्पष्ट कर सकते थे. केन्द्र सरकार ने दलित- आदिवासी समाज के छात्रों के लिये दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप इसलिये खत्म कर दी क्योंकि उसके पास महज 85 करोड़ रूपये सलाना का जुगाड़ नहीं था. उसी तर्ज पर बिहार में भी स्कॉलरशिप से समाज के वंचित समूह के छात्र वंचित है. अब सरकारें बहुजन छात्रों की शिक्षा के सवाल पर भी समय से राशि मुहैया नहीं करा पायें तो वाकई चिंता की बात है. दलितों को तो स्कॉलरशिप मिल भी नहीं रही है और उपर से पिटाई भी हो रही है. वहीं पिछड़ा- अति पिछड़ा को भी स्कॉलरशिप तो दूर उनकी बात- आवाज न कोई उठा रहा है, न ही ये लोग सड़क पर उतरने को तैयार है बल्कि मंडलवादी सरकार के मायाजाल में मंत्रमुग्ध होकर लालू-नीतीश के भजन गा रहे हैं. वैसे बिहार में स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों को भी हर महीने का रेगुलर वेतन नहीं मिल पाता है. बिहार में स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय स्तर के लगभग सभी शिक्षण संस्थान सवर्ण मठाधीशी के केन्द्र बने पड़े हैं जहां बहुजन छात्रों को न तो ज्ञान व बौद्धिकता का सहारा मिल रहा है न ही संगठन व संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिये कोई वैचारिक मार्गदर्शन या प्रेरणा. जाहिर है कि बहुजन अपनी सरकार में मार खाने को बाध्य हैं. 

पुलिस- प्रशासन को इस तरह के विरोध प्रदर्शन में थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए था लेकिन कालांतर में अंग्रेज जमाने से लेकर अबतक विरोध प्रदर्शनों को पुलिस एक सेट पैटर्न अंदाज में निपटाती है. प्रदर्शन के दौरान बैरिकेडिंग, वाटर कैनन या अन्य ऐहतियातन तैयारी तो दूर लाठी मारकर सर फोड़ देना, पैर तोड़ देना और दम फुलने लगे तो गोली चला देने पर उतर जाना एक सामान्य सी बात हो गई है. जबकि खुफिया और अन्य तंत्रों के इस्तेमाल से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रशासन-पुलिस चाहे तो मजबूत करने में मदद कर सकती हैं. इससे पुलिसिंग के तकनीकी ट्रेनिंग पर सवाल तो उठता ही है उनके सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तौर पर वंचित समाज के प्रति असंवेदनशील रूख का अंदाजा लगता है. विभिन्न राज्य सरकारें और उनके मुखिया लोग भी विभिन्न छात्र-युवा, जाति-समुदाय के सामाजिक संगठनों से लगातार संवाद व सरोकार की परंपरा शुरू करें तो बेहतर हो कि सभी जाति-वर्ग- समाज के लोगों के सवाल गवर्नेंस का मुद्दा बने लेकिन प्रैक्टिकली ऐसा नहीं होता दिखता है. यानि की मामला सरकार की बातों को जनता में कम्युनिकेट करने की अक्षमता और जनता से सीधे सरकार द्वारा फीडबैक प्राप्त न कर सत्ता परस्त प्रशासनिक बिचौलियों के माध्यम से जन-भावना को जानने से भी जुड़ा है. 

भारत भर में दलितों के खिलाफ प्रताड़ना-दमन-हिंसा की घटनायें बढ़ी है. कई लोग इस तरह के दमन के मामले पर बिहार या अन्य राज्य सरकारों के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी करने में लगे हैं. गुजरात में विपक्ष में कांग्रेस है वहीं बिहार में बीजेपी विपक्ष है, तो जाहिर सी बात है कि दोनों आचार-व्यवहार में घोर सामंती मानसिकता वाली सामाजिक न्याय विरोधी पार्टियाँ है तो ताड़ से गिरे और खजूर पर अटके वाली बात से भी दलित समाज सतर्क दिख रहा है. गुजरात में दलितों के जनाक्रोश से भारत भर के दलित-आदिवासी समाज को सीख लेना चाहिये कि किसी पार्टी व नेता से नहीं गैर-राजनीतिक आंदोलन में भी दम है जिसके बूते आप एजेंडा सेटिंग कर सकते हैं. फिर सभी दलों के नेता आपकी ओर दौड़ेंगे जैसे कि राहुल गाँधी, केजरीवाल, मायावती भी उना गईं. अगर किसी समुदाय में वैचारिक-बौद्धिक बुनियाद पर एकजुट होकर आन्दोलन करने का जज्बा है तो किसी भी सरकार और नेताओं के आगे-पीछे घूमने की जरूरत नहीं है. इससे साफ है कि दलित-आदिवासी समाज को किसी भी राजनीतिक दल के दलदल में न फँस कर और किसी भी वर्तमान नेता (दलित-आदिवासी नेताओं सहित) का पिछलग्गू न बन कर अपने भविष्य के लिये नया नेतृत्व तैयार करना चाहिये.

भारत, खासतौर से उत्तर भारत में बहुजन समाज की दिक्कत है कि सारी गतिविधियाँ राजनीति घेरेबंदी और गिरोहबंदी की शिकार हो गयी हैं जिसके कारण जनता का हर सवाल राजनीतिक दलों के समर्थन की बाट जोहता है और लोग राजनेताओं के वरदहस्त होने के मोहताज दिखते हैं. यह भी है कि नॉन- पॉलिटिकल सोशल मूवमेंट और इनिशियेटिव का सरकार, उसके सिपहसलार व मुलाजिम लोग बहुत नोटिस या तवज्जो नहीं देते हैं. इन कारणों से छात्र-युवा जो आंदोलन करते हैं वे भी संवाद-सेमिनार वगैरह रचनात्मक गतिविधियों की बजाय सड़क पर उतरने को मजबूर है और हंगामा खड़ा करने को उतावला भी दिखाई देते हैं. इन दिनों अक्सर आंदोलन को धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल कर लम्बा खींचने की बजाय झड़प-विवाद-पत्थरबाजी में संलग्न होकर वन-डे वंडर की तर्ज पर अपनी माँगे मंगवाने की कोशिश में भी रहते हैं. छात्र-युवाओं के लिये चिंता की बात है कि राजनीति से वैचारिक-बौद्धिक संवाद एवं ट्रेनिंग-ग्रूमिंग का कल्चर अब खत्म हो गया है तो उनका आमतौर पर बिहेवियर पैटर्न संयम की बजाय आक्रमकता में जल्दी तब्दील होती दिखती है. नेता भी बहुत भरोसे के काबिल नहीं है क्योंकि वे दलाल- ठेकेदार व चाटुकार- चापलूस छोड़ दे तो छात्र- युवाओं से संवाद- विमर्श का रिश्ता नहीं बना पाते है और उनको महज भीड़ का हिस्सा समझते हैं. इन नेताओं में रोल-मॉडल की कमी है और धन अर्जित करना, सत्ता में किसी तरह बने रहना व परिवारवाद को बढ़ाना ही मुख्य मकसद दिखाई देता है. ऐसे में एक प्रकार का नैतिक-वैचारिक-बौद्धिक संकट भी है जिससे समाज गुजर रहा है जिसका भुक्तभोगी एससी- एसटी-ओबीसी समाज खासतौर से है.

बिहार की सरकार ने जिस तरीके से कोर्ट की आड़ में एससी-एसटी प्रोमोशन मुद्दे पर चुप्पी साधकर मुँह छुपा लिया है वह गजब है. जबकि होना तो यह चाहिये था कि एससी-एसटी प्रोमोशन के मुद्दे पर सरकार समर्थन में कोर्ट की मजबूरी के बावजूद खुलकर नैतिक तौर पर मुखर होती और साथ ही ओबीसी के प्रोमोशन में आरक्षण के सवाल पर भी आक्रमक होती. लेकिन नवम्बर, 2015 में बहुजन जातियों का बड़ा समर्थन लेने के बावजूद भी बिहार की नई सरकार चुप रहकर सवर्णों के प्रति स्ट्रैटेजिकली सॉफ्ट होने की नीति पर काम करती दिख रही है. दलित-आदिवासी समुदाय को समस्त सत्ता केंद्रों-संसाधनों और सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्रों के सभी स्तरों पर कमोबेश 25 फीसदी भागीदारी मुहैया कराना भारत के सभी राज्यों की सरकारों का मूल कर्तव्य होना चाहिये. इसी तरह समस्त बहुजन (एससी-एसटी- ओबीसी-पसमांदा) समुदाय के 85 फीसदी आवाम के लिये विशेष अवसर मुहैया कराना, उचित-त्वरित न्याय, सर्वांगीण विकास और समुचित भागीदारी का सवाल भी सरकारों के लिये भी बहुत जरूरी है.

निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. उनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.

मेरे इस कुर्सी पर बैठने से अंतिम व्यक्ति का दर्द कम हो जाए तो यह बड़ी बात है- राकेश पटेल

असल में यह पहला मौका नहीं था जब राकेश पटेल ने अपने गांव घर के लोगों का नाम ऊंचा किया था. सन् 1998 में राकेश जब 10वीं में 82 प्रतिशत अंक लाकर कॉलेज टॉपर बने थे, तब भी पूरे क्षेत्र में खुशी मनी थी. हालांकि राकेश की पृष्ठभूमि वाले बहुत कम लोग अफसर बनने का सपना देख पाते हैं. परिवार के हालात बहुत अच्छे नहीं थे लेकिन राकेश की जिद थी कि वह कुछ बनकर दिखाएंगे. गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए करने के बाद राकेश वहीं रहकर नौकरी की तैयारी करने लगे. 2005-06 में नेट क्वालीफाइ हो गए. उसी साल पहले ही प्रयास में उन्होंने सिविल सर्विस और पीसीएस के प्रारंभिक (प्री) की परीक्षा पास कर ली और जेएनयू का इंट्रेंस भी पास कर लिया. 2006 में जुलाई में राकेश प्रो. विवेक कुमार के अंडर में समाजशास्त्र में एम.फिल करने जेएनयू आ गए. राकेश का टॉपिक था, ‘प्रवासी भारतीयों का सिनेमाई प्रस्तुतिकरणः एक समाजशास्त्रीय अध्ययन’. एक्सपर्ट ने इस अध्ययन को सोशियोलॉजी के लिए योगदान कहा. एम.फिल के बाद राकेश अपनी पी.एच डी जमा कर चुके हैं. विषय है, ‘ग्रामीण सामाजिक संरचना में निरंतरता एवं परिवर्तन’. इसके लिए उन्होंने लक्ष्मीपुर गांव को चुना है. राकेश का कहना है कि मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आता हूं, गांव के बारे में स्टडी करना चाहता था, इसलिए मैंने यह विषय चुना.

राकेश पटेल

11 फऱवरी, 2016 को उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना पहला राजस्व दिवस मनाया. इस दौरान बेहतर काम करने के लिए पूरे प्रदेश से 18 डीएम, 18 एसडीएम और 18 तहसीलदार को सम्मानित किया गया. इस सूची में जौनपुर के एसडीएम सदर राकेश पटेल का भी नाम था. पटेल को जौनपुर में राजस्व से जुड़े मुकदमों के अधिकतम निस्तारण, राजस्व वसूली एवं उत्कृष्ट प्रशासकीय कार्यों के लिए सम्मानित किया गया. सरकार ने उन्हें प्रशस्ती पत्र देकर सम्मानित किया. महाराजगंज जनपद के लक्ष्मीपुर एकडंगा गांव के लोगों के लिए यह फख्र की बात थी. उन युवाओं में खुशी थी, जिन्हें उनके ‘राकेश भइया’ ने ‘अफसर’ बनने का सपना दिया है.

पीसीएस अधिकारी बनने के अपने सफर के बारे में राकेश कहते हैं, “हम जिस माहौल में पले पढ़े हैं, वहां अधिकारी बनने के बारे में बहुत कम सोच पाते हैं. हमें बस नौकरी चाहिए होती है, जिससे हमें आर्थिक सुरक्षा मिल सके. लेकिन जेएनयू पहुंचने से काफी फर्क पड़ा. यहां आकर ज्ञानार्जन की भूख और समाज हित में उसका इस्तेमाल करने की सीख मिली. इसी का नतीजा था कि मैं ऐसे फिल्ड में जाना चाहता था जिसमें समाज को मदद कर सकूं. 2007-08 और 2010 में सिविल सर्विस का मेन्स दिया. दो बार इंटरव्यू में भी पहुंचा. पीसीएस में पहली बार में ही सेलेक्शन हो गया. 2007 की वेकेंसी थी. 2010 में इसका रिजल्ट आया. 2010 में ही संविधान दिवस 26 नवंबर के दिन मैंने मेरठ में प्रोबेशन पर डिप्टी कलक्टर के रूप में ज्वाइन किया. ” इसके बाद राकेश फर्रुखाबाद और लखीमपुर में रहे. फर्रुखाबाद में रहने के दौरान उन्होंने 26 गांवों में ग्राम पंचायत पुस्तकालय की शुरुआत की ताकि ग्रामीण बच्चों को अच्छी और उपयोगी किताबें मिल सके.

अपने संघर्ष और समाजिक भेदभाव का जिक्र करते हुए राकेश कहते हैं, “मेरे पिताजी एक सामान्य किसान हैं. वह बी.ए पास हैं. वह हमेशा अपने बच्चों को बढ़ाना चाहते थे. आज मैं जो भी हूं उसमें मेरे माता-पिता का सहयोग और मेरे भाईयों के प्रोत्साहन की बड़ी भूमिका है.” रिजर्वेशन का लाभ कुछ खास जातियों को मिलने की बहस को पटेल अलग तरीके से देखते हैं. कहते हैं, “रिजर्वेशन और स्कॉलरशिप से हजारों बच्चों की जिंदगी संवरती है. अगर रिजर्वेशन नहीं रहता तो आज मैं जो हूं, वह कैसे होता. ओबीसी जातियों में भी बहुत गरीबी है. अगर एक आदमी संपन्न है तो 1000 लोग जरुरतमंद हैं.” राकेश आगे जोड़ते हैं. कहते हैं कि किसी कमजोर पृष्ठभूमि से जब कोई आगे निकलता है तो पूरा गांव यहां तक की आस-पास के गांवों में पढ़ने वाले बच्चों और उनके गार्जियन के बीच काफी साकारात्मक संदेश जाता है. जैसे मैं अपने गांव के और आस-पास के क्षेत्र में उदाहरण बना कि मेहनत से पढ़ाई करने और बिना पैसे दिए भी सरकारी नौकरी मिल सकती है. लोगों ने हमें काम करते देखा है. हमने खेतों में काम किया. साथ-साथ पढ़ाई भी करते रहे.

राकेश पटेल द्वारा लिखित कविता संग्रह

लेकिन राकेश सिर्फ नौकरी तक सीमित नहीं है. वह वंचित तबकों से जुड़े मुद्दों पर लेखन के जरिए भी लगातार सक्रिय हैं. ‘नदियां बहती रहेंगी’ नाम से उनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, जो इसमें उठाए गए मुद्दों के कारण काफी चर्चा में रहा. संघर्ष से निकलकर पहुंचे राकेश पटेल ‘पे बैक टू सोसायटी’ में विश्वास करते हैं. कहते हैं, “पढ़ाई को लेकर जो भी मदद मांगता है, मैं जितनी मदद कर सकता हूं जरूर करता हूं. मैं अपने तीन-तीन रिश्तेदारों को पढ़ाता हूं. कमजोर पृष्ठभूमि का जो भी जरूरतमंद विद्यार्थी मेरे पास पहुंचता है उनकी मदद करता हूं.” राकेश कहते हैं कि मेरे आगे बढ़ने से मेरे गांव और आस-पास के गांव में लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया है. उत्साहित राकेश कहते हैं, ‘मैंने भी उनकी मदद के लिए गांव में बुद्धा लाइब्रेरी खोली है.’ जौनपुर शहर के एसडीएम सदर के रूप में भी राकेश पटेल जरूरतमंदों का ख्याल रखते हैं. कहते हैं, ‘अगर मेरे इस कुर्सी पर बैठने से अंतिम व्यक्ति का दर्द कम हो जाए तो यह बड़ी बात है.’ इस युवा अधिकारी की यह सोच सलाम करने लायक है.

दलित अस्मिता यात्रा का दूसरा दिन, 15 अगस्त को पहुंचेगी उना

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अहमदाबाद। उना में दलित युवकों की पिटाई के बाद न्याय की मांग के लिए सैकड़ों दलितों और विभिन्न नागरिक अधिकार संगठनों के सदस्यों ने शुक्रवार को शहर से पैदल मार्च “दलित अस्मिता यात्रा” की शुरूआत की. गिर सोमनाथ जिले में उना शहर के वेजलपुर क्षेत्र से करीब 800 लोगों ने सुबह 380 किलोमीटर लंबी दस दिन की यात्रा की शुरूआत की. दलित अत्याचार संघर्ष समिति ने ऊना की घटना के विरोध में आंदोलन छेड़ रखा है. समिति के संयोजक जिगनेश मेवानी ने बताया कि दलितों के हित में कई मांगें रखी गई हैं. समिति की मांगों में गुजरात के भूमिहीन दलितों को पांच-पांच एकड़ जमीन, ऊना की घटना के पीड़ितों को न्याय, तय वेतन पर काम कर रहे राज्य के सफाईकर्मियों को स्थाई नियुक्ति करने आदि शामिल हैं. जिग्नेश मेवानी ने कहा कि यह “अस्मिता यात्रा” देश भर के दलितों को पुरानी परंपराओं से आजादी की दिशा में पहला कदम है. हम अपनी यात्रा के दौरान दलितों से मृत जानवरों को उठाने के पारंपरिक काम को छोड़ने का आग्रह कर सरकार को एक कड़ा संदेश देना चाहते हैं. उन्होंने कहा कि इस पदयात्रा का मुख्य उद्देश्य सरकार को यह संदेश देना है कि दलित अपने उपर किसी भी प्रकार अत्याचार नहीं सकेगा. अहमदाबाद वेजलपुर अंबेडकर चौक से शुरू हुई यात्रा धोलका, धंधूका, बोटाद, अमरेली, राजूला, सावरकुंडला होते हुए 14 अगस्त को उना पहुंचेगी. 15 अगस्त को ध्वजारोहण होगा.

रियो ओलंपिक में दलित-आदिवासी भागेदारी

ओलंपिक को खेलों का महाकुंभ कहा जाता है. 2016 का ओलंपिक खेल ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में हो रहा है. यह अब तक का 31वां ओलंपिक है. खेलों का यह महाकुंभ 5 अगस्त से शुरू हो गया है औऱ 21 अगस्त तक चलेगा. इसमें 206 देशों के खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं. खिलाड़ियों की संख्या की बात करें तो इसमें 11 हजार खिलाड़ी हिस्सा लेंगे. भारत से रियो ओलंपिक में 122 खिलाड़ी हिस्सा लेंगे जो 14 खेलों में चुनौती पेश करेंगे. इसमें एथलेटिक्स में 38, हॉकी में 32, निशानेबाजी में 12, कुश्ती में 8, बैडमिंटन में 7, तीरंदाजी, टेबल टेनिस और टेनिस में 4-4 खिलाड़ी अपनी चुनौती रखेंगे. खास बात यह है कि इस ओलंपिक में दलित/आदिवासी समाज के खिलाड़ी भी अपनी चुनौती पेश करेंगे, जिन्होंने लंबे संघर्ष और कठिन परिश्रम से ओलंपिक में अपनी जगह बनाई है. दलित दस्तक के पास जो सूचना है उसके मुताबिक झारखंड से निक्की प्रधान हॉकी में और लक्ष्मी रानी मांझी और दीपीका कुमारी तीरंदाजी टीम में शामिल हैं. दीपीका जाना-पहचाना नाम बन चुकी हैं, जबकि निक्की और लक्ष्मी रानी मांझी ओलंपिक के लिए नया चेहरा है. भारत की ओर से रियो ओलंपिक जाने वालों में देविंदर वाल्मीकि भी शामिल हैं. देविंदर पुरुष हॉकी टीम का हिस्सा हैं. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के रहने वाले देविंदर का पूरा परिवार मुंबई में रहता है. दलित दस्तक के पास ओलंपिक जाने वाले जिन दलित/ आदिवासी/ मूलनिवासी लोगों की जानकारी है, हम उसे साझा कर रहे हैं.

रियो में झारखंड की बेटियां करेगी “चक दे इंडिया”

रियो ओलंपिक में झारखंड से तीन बेटियां जा रही हैं. इसमें निक्की प्रधान हॉकी में जबकि दीपीका कुमारी और लक्ष्मी रानी मांझी तीरंदाजी प्रतियोगिता में हिस्सा लेंगी. निक्की प्रधान- (हॉकी) झारखंड की राजधानी रांची से 30 किलोमीटर दूर हेसेल गांव के साधारण परिवार की असाधारण बेटी निक्की का चयन महिला ओलंपिक हॉकी टीम में हुआ है. निक्की प्रधान बचपन के दिनों में खेल के नाम से डरती थी. वहीं आज झारखंड राज्य की पहली महिला हॉकी ओलंपियन बनने जा रही है. निक्की के स्कूली जीवन के प्रारंभिक कोच और राजकीय मध्य विद्यालय पेलौल के शिक्षक दशरथ महतो बताते हैं कि प्रधान की बड़ी बहन शशि प्रधान हॉकी खेला करती थी, जबकि निक्की खेलने से बहुत डरती थी. उसे डर लगता था कि कही स्टिक से लगकर पैर न टूट जाए. लेकिन बाद में निक्की का मन हॉकी में ऐसा रमा कि वह ओलंपिक जा पहुंची है. निक्की का कहना है कि मुझसे देश के सवा सौ करोड़ लोगों की अपेक्षाएं होंगी. मैं बेहतर से बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिश करूंगी. हर खिलाड़ी का सपना होता है कि देश के लिए पदक जीते. मेरा भी एक सपना है कि मैं देश के लिए पदक हासिल करूं और देश का नाम रौशन करूं. निक्की झारखंड से ओलंपिक में पहुंचने वाली छठी हॉकी खिलाड़ी है, हालांकि यह कारनामा 24 साल बाद हो पाया है. लेकिन अगर महिलाओं की बात करें तो वह झारखंड से ओलंपिक पहुंचने वाली पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बन गई हैं. निक्की की इस सफलता से उसकी सहेली बिरसी मुंडू और शिक्षक सुजय मांझी सहित पूरा गांव खुश है. निक्की पिछले दो साल से भारतीय महिला हॉकी टीम की नियमित सदस्य है. निक्की हटिया स्थित रेलवे के डीआरएम कार्यालय में नौकरी करती है. जानकारी के मुताबिक निक्की जनजाति समाज से ताल्लुक रखती हैं. एक तथ्य यह भी है कि ओलंपिक में जाने वाली प्रधान के गांव में कोई खेल का मैदान भी नहीं है. वह स्कूली समय में सुबह शाम गांव के खेत में स्टीक लेकर अभ्यास किया करती थी. निक्की की सहेली बिरसी बताती है कि प्रधान में एक जुनून है. वह हमेशा अपने गांव और देश का नाम रोशन करने की बात किया करती थी. लक्ष्मी रानी मांझी- (तीरंदाजी) भारतीय तीरंदाजी टीम में शामिल जमशेदपुर की रहने वाली लक्ष्मीरानी मांझी का मानना है कि रियो ओलंपिक में बेहद कड़ा मुकाबला होने की उम्मीद है. फिर भी वह यहां मेडल जीतना चाहती हैं. वह इससे पहले कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकती. मांझी रियो ओलंपिक की तैयारी में दिन-रात जुटी रही. उसने दवाब से निपटने के लिए योग भी किया. मांझी पहली बार ओलिंपिक में शामिल होने जा रही हैं. उनका प्रदर्शन कंपीटिशन वाले दिन पर निर्भर करता है. वहां हर कोई मेडल जीतना चाहेगा. मांझी का मानना है कि ओलंपिक शुरू होने से 25 दिन पहले वहां जाने का फायदा मिलेगा. हमारा प्रदर्शन शानदार होगा. दीपिका कुमारी (तीरंदाजी) रियो ओलिंपिक में शामिल होने वाली झारखंड की राजधानी रांची की रहने वाली भारत की स्टार तीरंदाज दीपिका कुमारी का मानना है कि साल 2012 लंदन ओलिंपिक में किया गया उनका प्रदर्शन अब बीते दिनों की बात हो चुकी है. दीपिका ने शूटिंग और स्कोरिंग में काफी सुधार किया है. दीपिका ने मानसिक दबाव से किस प्रकार निबटा जाता है इसका गुर भी सीख लिया है. दीपिका ओलंपिक से 25 दिन पहले ही रियो पहुंच चुकी हैं, जिससे की वहां के मौसम के अनुकूल वह खुद को ढाल सकें. देविंदर वाल्मीकि (हॉकी) अलीगढ़ में ब्लॉक धनीपुर के गांव अलहादपुर के देविंदर वाल्मीकि का चयन रियो ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय हॉकी टीम में हो गया है. टीम में मिड फिल्डर के तौर पर वे देश के लिए पसीना बहांएगें. देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि पेशे से ड्राइवर हैं. गरीब परिवार में जन्में देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत कई समस्यओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है. देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी. मुंबई के चर्च गेट में प्रैक्टिस करते हुए 24 साल की उम्र में ओलंपिक में स्थान पक्का कर अपना लोहा मनवाया है. देविंदर ने 2014, 2015 व 2016 में हुए हॉकी इंडिया लीग में मिड फिल्डर के तौर पर हिस्सा लिया. 2015 में बेल्जियम में हुई हॉकी वर्ल्ड लीग राउंड थ्री में दो गोल दागे. इसमें टीम इंडिया टॉप-4 में रही. 2016 में चैंपियन ट्रॉफी में एक गोल दागकर रजत पदक जीता, फिर 2016 के छठी नेशनल हॉकी प्रतियोगिता में एक गोल किया.देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि काम की खोज में पांच दशक पहले मुंबई गए थे. वहां उन्होंने ड्राइविंग कर परिवार का पालन-पोषण किया. मां मीना ने मुंबई में ही 28 मई 1992 में देविंदर को जन्म दिया. खिलाड़ी के तीन भाई राकेश, रवि व युवराज यहां गांव अलहादपुर में ही पैदा हुए. देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत तमाम समस्याओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है.

बीबी अम्बेडकर यूनिवर्सिटी खत्म करेगी दलित छात्रों का आरक्षण, धरने पर बैठे छात्र

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लखनऊ। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी प्रशासन दलित छात्रों को मिला 50 प्रतिशत आरक्षण खत्म करना चाहती है, जिसका विरोध करने वाले 19 छात्रों के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन एफआईआर दर्ज कराने जा रहा है. जिसके विरोध में अम्बेडकर यूनिवर्सिटी दलित स्टूडेंटृ यूनियन (एयूडीएसयू) छात्रों की मांगों को लेकर धरने पर बैठ गए हैं. दलित छात्रों की मांग है कि जिन 19 छात्रों के खिलाफ एफआईआर करने जा रहे है, उसे वापिस लिया जाए, विश्वविद्यालय प्रशासन ने जो याचिका कोर्ट दायर की है, उसे वापिस लिया जाए. दलित छात्रों को झूठे केस में फंसाने की निष्पक्ष जांच की जाए और बीएड विभाग में शिक्षक नियुक्ति पर हुई धांधली को लेकर उचित कार्रवाई की जाए. गौरतलब है कि विश्वविद्यालय प्रशासन यूनिवर्सिटी से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को मिले 50 प्रतिशत आरक्षण को खत्म करना चाहता है. इस आरक्षण प्रणाली को खत्म करने के लिए विश्वविद्यालय ने न्यायालय में याचिका दायर की थी जिसका छात्र विरोध कर रहे हैं. प्रशासन द्वारा छात्रों की मांग अनदेखी करने पर एयूडीएसयू के साथ छात्र धरने पर बैठ गए हैं. इस मामले पर एयूडीएसयू ने अपने पेज पर 23 जुलाई को लिखा था कि बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में विश्वविद्यालय प्रशासन की सह पर अशोका हॉस्टल के बाहर आरएसएस ने बैठक की. इस बैठक में गुजरात के आंदोलनरत दलितों को गालियां दी गई, तथा बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ भी की गई थी.

गुजरात में दलित प्रतिरोध और दलित राजनीति की नयी दिशा

पिछले दिनों गुजरात के ऊना में मरी गाय का चमड़ा उतारने पर गाय को मारने के आरोप में गोरक्षा समिति के गुंडों द्वारा चार दलितों की बुरी तरह से पिटाई की गयी थी जिस पर दलितों ने विरोध स्वरूप मरी गाय को उठाने का बहिष्कार कर दिया है तथा इस के अतिरिक्त गुजरात में बहुत से स्थानों पर विरोध प्रदर्शन तथा सड़क जाम आदि भी किया गया है. दलितों ने इसकी शुरुआत 18 जुलाई को सुरेन्द्र नगर जिले के कलेक्टर के दफ्तर के बाहर मरी गायें फेंक कर की थी. इसके साथ ही दलितों ने 31 जुलाई को अहमदाबाद में एक बड़ा दलित सम्मलेन करके मरे जानवर न उठाने, गटर साफ़ न करने, भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन देने,सफाई कर्मचारियों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने तथा सफाई के काम में ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने की मांग भी उठाई है. यह सर्वविदित है कि जाति व्यवस्था के कारण दलितों के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न किया जाता है. जाति विधानों का अनुपालन करना हरेक हिन्दू का धार्मिक कर्तव्य है. हिन्दू धर्म- शास्त्रों में जाति के विधानों का उलंघन दंडनीय अपराध है. इसलिए जब कभी भी दलित जाति के लोग जाति विधानों को तोड़ने का साहस दिखाते हैं तो हिन्दू धर्म के रक्षक उनका उत्पीड़न करते हैं जिस का मुख्य उद्देश्य दलितों को वर्णव्यवस्था में अपना जाति स्थान दिखाना और यथास्थिति को बनाये रखना है. दरअसल दलित उत्पीडन केवल घटना नहीं बल्कि उत्पीड़न की विचारधारा है जिसे हिन्दू धर्म की स्वीकृति है. पूरे देश में दलित उत्पीड़न का लगातार शिकार होते हैं. दलितों को समानता का जो संवैधानिक अधिकार मिला है, दलित जब भी उस अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं तो उन पर अत्याचार होता है. दलितों में जैसे जैसे संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फ़ैल रही है और वे अधिक मात्रा में अपने अधिकारों का प्रयोग करने लगे हैं वैसे वैसे दलित उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं. सरकारी आंकड़े भी यही दर्शाते हैं कि देश में दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले रजिस्टर किये गये थे, जो 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में सबसे खराब स्थिति गुजरात की है जहां दोष सिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्‍याचार से जुड़े मामलों में दोष सिद्धि की दर 22 फीसदी रिकॉर्ड की गयी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीडन में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीडन के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इस प्रकार गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है. गुजरात के दलितों ने दलित उत्पीड़न के विरोध का जो तरीका अपनाया है वह बिलकुल नायाब है. इसने हिन्दुओं की गाय के नाम पर चल रही राजनीति और गुंडागर्दी को जबरदस्त चुनौती दी है. अब तक गाय के नाम पर मुसलामानों को निशाना बनाया जा रहा था परन्तु दलितों का गाय के नाम पर उत्पीड़न हिन्दुओं को बहुत महंगा पड़ा है क्योंकि गाय के नाम पर मुसलमानों को दबाया जा सकता है परन्तु दलितों को दबाना उतना आसान नहीं है. गुजरात के दलितों का प्रतिरोध यह भी दर्शाता है कि अब दलित सवर्णों द्वारा उत्पीड़न को खामोश रह कर सहने वाले नहीं हैं बल्कि अब वे इसका सभी प्रकार से प्रतिरोध करने के लिए तैयार हैं. यह परिघटना स्वागत योग्य है. दरअसल दलित अभी तक ख़ामोशी का शिकार रहे हैं परन्तु गुजरात की परिघटना यह दर्शाती है कि अब वे भी प्रतिकार करने की स्थिति में आ गए हैं. गुजरात में दलितों का प्रतिरोध स्वत स्फूर्त है. इसमें कोई भी दलित राजनेता फ्रंट पर नहीं है. हाँ, कुछ दलित संगठन ज़रूर सक्रिय हैं. इससे से यह भी परिलक्षित होता है कि दलित अब राजनेताओं पर निर्भर न रह कर स्वयं जनांदोलन में उतरे हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकतर दलित नेता केवल जाति के नाम पर राजनीति करते आये हैं. उन्होंने दलित समस्यायों और दलित मुद्दों को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाया है. अतः गुजरात प्रतिरोध में दलितों ने लगभग सभी दलित राजनेताओं को नज़रंदाज़ किया है. डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू जाति व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा है कि यह केवल सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि आर्थिक व्यवस्था भी है. यह एक स्पष्ट सत्य है कि हिन्दू समाज में पेशों का निर्धारण जाति के आधार पर किया गया है और इन में बहुत कम गतिशीलता है. यह भी सच्चाई है कि गंदे और कम आमदन वाले पेशे दलितों पर थोपे गए हैं. यह भी विचारणीय है कि दलितों ने यह पेशे स्वेच्छा से नहीं अपनाये होंगे बल्कि उन्हें इन पेशों को करने के लिए बाध्य किया गया होगा. इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में स्पष्ट विधान किये गए हैं. संविधान के लागू होने के 65 वर्ष बाद भी दलितों के पेशों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है. हाँ, आरक्षण के कारण दलितों की राजनीति, सरकारी सेवाएं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ हिस्सेदारी हुयी है परन्तु वह भी बहुत कम और निम्न स्तर की ही है. परिणामस्वरूप दलितों के जीवन स्तर में बहुत थोडा अंतर आया है. इसका लाभ कुछ पढ़े लिखे नौकरी पेशा और राजनीति में सक्रिय दलितों को ही मिला है. इस का अंदाज़ा गाँव में रहने वाले बहुसंख्यक दलितों के जीवन स्तर से लगाया जा सकता है. यह भी देखा गया है कि उत्पादन के संसाधनों  जैसे ज़मींन, उद्योग और व्यापार आदि में दलितों की भागीदारी में कोई इजाफा नहीं हुयी है. कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी हुयी है. दलितों की बहुसंख्या कृषि मजदूर हैं परन्तु बहुत कम दलितों के पास बहुत थोड़ी ज़मीन है. इस प्रकार गाँव में दलित भूमिधारी जातियों पर न केवल रोज़गार के लिए बल्कि नैतिक क्रियाकलापों जैसे शौच तथा जानवरों के लिए घास पट्ठा आदि लाने के लिए भी आश्रित हैं. सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 42% लोग भूमिहीन हैं और वे केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार  ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण  जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमिसुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. यह अच्छी बात है कि गुजरात आन्दोलन में भी दलितों को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है. दलितों के विकास में दलित राजनीति की एक प्रभावशाली भूमिका हो सकती थी. शुरू में डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ने इसे मजबूती के साथ उठाया भी था. इसी पार्टी ने भूमि वितरण, न्यूनतम मजदूरी, समान वेतन आदि मुद्दों को लेकर 6 दिसंबर 1964 से “जेल भरो” आन्दोलन भी चलाया था जिस में 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे और तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को यह सभी मांगे माननी पड़ी थीं. इस के बाद ही कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन दलितों को भूमि आबंटन शुरू किया था. परन्तु रिपब्लिकन पार्टी के विघटन के बाद किसी भी दलित पार्टी ने इन मांगों को नहीं उठाया जिस कारण एक तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू नहीं किये गए, दूसरे सीलिंग से जो ज़मीन उपलब्ध भी हुयी थी उस का आबंटन नहीं हुआ. केवल बंगाल और केरल की कम्युनिस्ट सरकारों को छोड़ कर किसी भी अन्य राज्य में न तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू हुए और न ही कोई भूमि आबंटन हुआ. इसी का दुष्परिणाम है कि पूरे देश में 10% लोगों के पास 80% भूमि केद्रित है. दलितों में भूमिहीनता का प्रतिश्त बहुत अधिक है जो उनकी कमज़ोर स्थिति का सबसे बड़ा कारण है. इसी लिए भूमि आबंटन दलितों के सशक्तिकरण की सब से बड़ी आवश्यकता है. इसके लिए भूमि आबंटन दलित राजनीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए. दलितों की दूसरी सब से बड़ी कमजोरी उनके पास केवल शारीरिक श्रम का ही होना है. उनके पास तकनीकि योग्यता तथा रोज़गार के अवसरों की कमी है. अतः बेरोज़गारी दलितों की सबसे बड़ी समस्या है. इसके लिए ज़रूरी है कि दलितों को शिक्षा और तकनीकि शिक्षा देकर प्रगति के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ परन्तु किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये हैं. इधर सरकार द्वारा अपनाई गयी निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति ने आरक्षण के माध्यम से सरकारी उपक्रमों में मिलने वाले रोज़गार के अवसरों को भी कम कर दिया है जिस कारण अन्य वर्गों सहित दलितों में भी बेरोज़गारी निरंतर बढ़ रही है. मोदी सरकार द्वारा रोज़गार पैदा करने के वादे बिलकुल झूठे साबित हुए हैं. अतः रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग और भी अधिक प्रासंगिक हो गयी है. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक सरकारें संसाधनों की कमी का रोना रो कर निजी क्षेत्र का पेट भरती रहेंगी. जैसा कि सर्वविदित है कि ग्रामीण दलितों का बड़ा हिस्सा छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के रूप में खेती से जुड़ा हुआ है. इधर सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण खेती घाटे का सौदा हो गया है जिस के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं. इसके इलावा सभी सरकारें कृषि भूमि अधिग्रहण करके कृषि भूमि क्षेत्र को कम करने में लगी हुयी हैं. खेती की दुर्दशा का कुप्रभाव केवल किसान पर ही नहीं पड़ता बल्कि उससे जुड़े कृषि मजदूरों पर भी पड़ता है जिस में अधिकतर दलित हैं. अतः दलित कृषि मजदूरों की दशा सुधारने के लिए कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाने, किसान को उपज का उचित मूल्य दिलवाने और मजदूरी की दर बढ़ाने की सखत ज़रुरत है. अब तक की दलित राजनीति केवल दलितों को सम्मान दिलाने और आरक्षण के नारों को लेकर ही चलती रही है. यह अधिकतर अस्मिता की राजनीति है जिस का दलितों के बुनियादी मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, गरीबी उन्मूलन, उत्पीड़न और बेरोज़गारी आदि से कुछ लेना देना नहीं है. दरअसल अस्मिता की राजनीति बहुत आसान राजनीति है क्योंकि इसमें किसी मुद्दे के लिए कोई संघर्ष या जनांदोलन करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. केवल अस्मिता से जुड़े कुछ नारों से काम चल जाता है. अतः इस बात की ज़रुरत है कि दलित मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, कृषि का विकास करने आदि को दलित राजनीति के केंद्र में लाया जाये. इसके साथ ही दलितों को दलित नेताओं और दलित राजनीतिक पार्टियों को भी मजबूर करना होगा कि वे अस्मिता की राजनीति छोड़ कर मुद्दों की राजनीति अपनाएं और अपना राजनीतिक एजंडा घोषित करें. यह भी देखा गया है राजनीति में दलितों की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद भी दलित मुद्दे गैर दलित राजनैतिक पार्टियों के एजंडे में भी कोई स्थान नहीं पाते हैं क्योंकि वे भी आरक्षित सीटों पर दलितों को खड़ा करके जाति के नाम पर वोट मांग कर काम चला लेते हैं. अतः यह ज़रूरी है कि दलितों को केवल जाति के नाम पर वोट न देकर दलित मुद्दों के आधार पर वोट देनी चाहिए और सभी पार्टियों को दलित मुद्दों को अपने एजंडे में शामिल करने का दबाव बनाना चाहिए. दरअसल दलित राजनीतिक पार्टियों को डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के समय बनाये गए संविधान और एजेंडा से सीखना होगा. यह सही है कि एक तो वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी इतनी खंडित हो चुकी है कि उसका एकीकरण तो संभव दिखाई नहीं देता है. दूसरे बसपा का प्रयोग भी लगभग असफल हो चुका है. इससे भारत में दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, दिशाहीनता, अवसरवादिता, मुद्दाविहीनता और भ्रष्टाचार का शिकार हो गयी है और अब यह अपने पतन के अंतिम चरण में है. ऐसी दशा में हम लोगों ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नाम के नए दल की स्थापना की है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल है तथा समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर सभी लोगों का उत्थान करना चाहता है और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण कर रहा है. आइपीएफ जाति-धर्म की राजनीति न करके दलितों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय के साथ साथ  अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलायों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के मुद्दों की राजनीति का पक्षधर है और समान विचारधारा वाली धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील पार्टियों के साथ गठबंधन करने के पक्ष में भी है. लेखक आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

दलित उत्पीड़न पर बीजेपी में दो फाड़

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नई दिल्ली। गुजरात में ऊना में दलितों की पिटाई कथित गोरक्षकों द्वारा किए जाने को लेकर राजनीति अपने शबाब पर है. दलित हिंसा को लेकर अब केन्द्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में ही दो फाड़ नजर आऩे लगे है, खुद पार्टी में परस्पर विरोधी स्वर सुनाई देने लगे हैं. उना की दलित हिंसा पर तेलंगाना से भाजपा विधायक टी. राजा सिंह ने जायज ठहराया तो दिल्ली से भाजपा सांसद उदित राज ने टी. राजा पर उनके बयान के लिए कार्रवाई करने की मांग करते हुए पार्टी से बाहर निकालने की वकालत कर दी है. दलितों की पिटाई का समर्थन टी. राजा सिंह ने अपने फेसबुक के पोस्ट वीडियो में कहा कि ऊना में दलितों की पिटाई ठीक की गई। उन्‍होंने कहा कि जब तक गोमाता को राष्ट्र माता का दर्जा न दिला दें, वह खामोश नहीं बैठेंगे. राजा सिंह ने कहा कि जो भी दलित गोमांस खाते हैं, गायों को मारते हैं उनको इसी तरह से पीटा जाएगा। राजा ने ये भी कहा कि कुछ दलित ऐसे भी हैं जो गोरक्षा करते हैं.  राजा ने कहा कि गोमांस खाने वाले दलितों की वजह से देशभक्त दलितों का नाम खराब हो रहा है. उन्होंने ये भी सवाल किया कि क्या गोमांस खाना जरूरी है. ऊना वाले मामले पर उन्‍होंने कहा कि जो दलित गायों को ले जा रहे थे, उनके साथ जो हुआ ठीक हुआ. राजा सिंह ने कहा कि ””जिन्होंने दलितों की पिटाई की, मैं उनका समर्थन करता हूं, जिन्होंने अपने बल पर अच्छे से अच्छा सबक सिखाया.”” राजा ने दलितों के अलावा समाज के हर वर्ग को धमकी दी कि ””जो भी गोहत्या करेगा, उसे ऐसे ही सबक सिखाया जाएगा.”” राजा ने गोरक्षकों से कहा कि डरिए मत, धर्म कार्य, देश कार्य, गौ कार्य में कठिनाई आती है. सांसद ने कहा- करो पार्टी से बाहर बीजेपी सांसद उदित राज ने कहा कि ये बहुत ही निंदनीय घटना है. दलितों की कीमत जानवरों से भी कम है. ऐसे मे सवर्ण समाज क्यों नहीं सामने आता है. हम मांग करेंगे कि उन्हें निकाला जाना चाहिए.  उन्होंने जो कहा वो गलत है. पार्टी ने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया है पार्टी ने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया है. इससे पहले बीजेपी के सभी बड़े नेताओं ने इस घटना का खंडन किया है. गुजरात की मुख्यमंत्री भी घटना में घायलों से मुलाकात कर चुकी हैं. इस मामले में सियासत काफी गरमाई हुई है. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी उना का दौरा कर चुके हैं. अब यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी उना जाने की तैयारी में हैं. इस बयान ने मामले को और गरमा दिया है इस बीच बीजेपी के विधायक के इस बयान ने मामले को और गरमा दिया है. विधायक राजा सिंह ने कहा है कि गोमांस ले जा रहे दलित लोगों की पिटाई जायज थी. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कई दलित भाई उनके साथ गोरक्षा के काम में कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं. यही नहीं राजा सिंह ने यह भी कहा कि वे गोरक्षा के लिए हर प्रयास करेंगे. अठावले ने दलितों पर हमले की निंदा की थी इतना ही नहीं राजा सिंह ने उन लोगों की भी निंदा की जो उना में दलितों की पिटाई की आलोचना कर रहे हैं. गौरतलब है कि पिछले ही सप्ताह केंद्रीय राज्यमंत्री रामदास अठावले ने दलितों पर हमले की निंदा की थी. उन्होंने कहा था कि पीड़ित मरी हुई गाय की खाल निकालने के प्रयास में थे. उनपर हमला गलत था. विधायक से लिखित जवाब भी मांगा जाएगा इस बीच राजा सिंह के बयान के बाद प्रदेश बीजेपी की ओर से पल्ला झाड़ने के साथ ही कड़ी कार्रवाई के संकेत दिए गए हैं. प्रदेश भाजपा के पदाधिकारी के अनुसार इस बारे में जांच की जाएगी और जरूरी हुआ तो विधायक से लिखित जवाब भी मांगा जाएगा. गौरतलब है कि गुजरात के ऊना में कुछ दलित युवकों को इसलिए पीटा गया क्योंकि उन पर गोहत्या का शक था.  गुजरात सहित पूरे देश में दलित इस पिटाई का वीडियो सामने आने के बाद गुस्से में हैं.  लेकिन तेलंगाना से बीजेपी के विधायक टी राजा सिंह ने आग में घी डालते हुए कहा है कि जो भी गाय को मारेगा, उसे उना के दलितों की तरह ही पीटा जाएगा. टी राजा ने कहा कि हम ऐसे लोगों को अपने हाथों से सबक सिखाएंगे. उन्होंने कहा कि वो खुद गौ-रक्षा के लिए खुद काम करते हैं.

दलित महिला सरपंच ने मंदिर बनाने के लिए दिए दस लाख रूपए, फिर भी नहीं मिल रही एंट्री

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अहमदाबाद। अहमदाबाद के एक गांव की दलित सरपंच, पिंटूबेन ने अपनी व्‍यक्‍तिगत पूंजी में से दस लाख रुपए शिव मंदिर के निर्माण में लगा दिए, लेकिन अब उन्हें ही इस मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिल पा रही है. ग्रामीणों की मांग पर दलित सरपंच ने इसके निर्माण का खर्च उठाया. उन्होंने बताया कि अब तक मंदिर के निर्माण में वे 10 लाख रुपए खर्च कर चुकी हैं. डेलीमेल ऑनलाइन में छपी खबर के अनुसार, छोटे से गांव राहेमालपुर की सरपंच मंदिर के प्रांगण में प्रवेश नहीं कर सकती हैं क्‍योंकि वह दलित हैं. दलित को नीची जाति में रखा जाता है और उन्‍हें हिंदू पूजा स्‍थलों में प्रवेश की सख्‍त मनाही होती है. महिला सरपंच पिंटूबेन ने बताया कि ग्रामीणों ने मंदिर के निर्माण की मांग की और उनकी इस मांग को देखते हुए 10 लाख रुपए दान में दिया ताकि मंदिर बन सके. पिंटूबेन ने बताया कि यह रकम उनकी अपनी है न कि सरपंच को आवंटित किए गए पैसे हैं. अपने 35 बीघा जमीन की उपज बेचकर उन्‍होंने यह पूंजी जमा की थी. जब उनसे पूछा गया, ”आपने इतना खर्च किया, क्‍या आप मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहेंगी.” उन्‍होंने कहा, ”मैं चाहूंगी लेकिन वहां विरोध है, हंगामा हो सकता है. वहां की भीड़ यह बोलेगी कि मेरे जाने से मंदिर अशुद्ध हो गया, भगवान अशुद्ध हो गए.”

उना पीड़ितों की मदद के लिए आगे आया दलित समाज

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उना। उना घटना में पीड़ित दलित युवकों की मदद के लिए दलित समाज आगे आ रहा है. बुलंदशहर के असिस्टेंट कमिश्नर विकास कुमार सेठ ने तेरह हजार रूपए का आर्थिक सहयोग दिया. धम्मप्रिय विकास कुमार सेठ का कहना है कि गुजरात के पीड़ित लंबी लड़ाई रहे हैं, जो सदियों की गुलामी की जंजीरें तोड़ने को बेताब हैं. हम लोगों को एकत्रित होकर मनुवाद के खिलाफ जंग करनी होगी. विकास कुमार सेठ उना पीड़ितों के लिए आर्थिक सहायता की मुहीम चला रहे हैं. उन्होंने सबसे पहले वह अपने परिवार और रिश्तेदारों को सहयोग लिए आगे आने के लिए कहा. उन्होंने गुजरात के दलितों और अपने अधिकारियों से बात करने के बाद पीड़ित की माता का खाता नंबर दिया है और सबसे अपील की है कि पीड़ित दलित परिवार की मदद के करने के लिए बढ़चढ़ कर हिस्सा लें.

कांशीराम जी पर फिल्म सेंसर बोर्ड से पास, 9 अक्टूबर को होगी रिलीज

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नई दिल्ली। समाज सुधारक और बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम जी के जीवन पर आधारित फिल्म “द ग्रेट लीडर कांशीराम” को सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया है. यह फिल्म कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस 9 अक्टूबर को फिल्म रिलीज होगी. यह फिल्म अक्टूबर 2015 में फाइनल हो चुकी थी. इसे सेंसर बोर्ड को जनवरी, 2016 में भेज दिया गया था. फिल्म के निर्देशक अर्जुन सिंह ने कहा कि हमें भी फिल्म को पास होने का इंतजार था, सेंसर बोर्ड ने बहुत समय लगा दिया इसे पास करने में. उन्होंने कहा कि यह हमारी तीन साल की मेहनत है. उन्होंने इस फिल्म को बनाने में सहयोग करने वालों का आभार जताया. अर्जुन सिंह ने कहा कि फिल्म रिलीज होने से पहले हम इसका प्रोमोशन करेंगें, प्रेस कांफ्रेंस करेंगें. इस फिल्म का प्रिंट मीडिया पार्टनर दलित दस्तक पत्रिका और वेब मीडिया पार्टनर दलित दस्तक डॉट कॉम है. उन्होंने बताया की यह फिल्म पंजाब और हरियाणा में 100 स्क्रीन पर चलेगी, जबकि उत्तर प्रदेश में 200 स्क्रीन पर चलेगी. मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में भी कई स्क्रीन पर यह फिल्म चलेगी. फिल्म के निर्देशक ने कहा कि अगर फिल्म का अच्छा रेस्पांस मिला तो हम इस फिल्म का पार्ट-टू बनाएंगे. यह फिल्म एक घंटे 45 मिनट की है. इसमें कांशीराम जी के बचपन से लेकर 1984 तक के जीवन को दिखाया गया है. इसमें दो गाने हैं. 50 मुख्य कैरेक्टर हैं. कांशीराम जी की भूमिका राघवेन्द्र सिंह राठौर ने निभाई है. वो एनएसडी के पूर्व छात्र हैं और फिलहाल थियेटर और टीवी कर रहे हैं. कांशीराम जी के बचपन का कैरेक्टर मास्टर अरूण मौर्य कर रहे हैं. मायावती जी का कैरेक्टर सोमा गोयल (थियेटर आर्टिस्ट), दीनाभाना का कैरेक्टर (महेश यादव), मनोहर आटे (साहब के रूम पार्टनर थे मुंबई में) का कैरेक्टर राज ने किया है. प्रोडेक्शन हेड धर्मेन्द्र बघेल हैं और सिंगर राजू भारती हैं.

उना पीड़ितों के इंसाफ के लिए अहमदाबाद से उना तक पद यात्रा करेंगे दलित

गुजरात के दलित उना पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए आगामी 5 अगस्त से 15 अगस्त तक अहमदाबाद से उना तक की पदयात्रा करेंगे. “उना दलित अत्याचार लड़क समिति” के बैनर तले आज 31 जुलाई को हुए सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया. अहमदाबाद में उना पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए प्रदेश भर के दलित समाज के लोग आज अहमदाबाद के चानखेड़ा में अचेर डिपो ग्राउंड के पास इकट्ठा हुए थे. सम्मेलन में उना के पीड़ित और पिछले साल थानगढ़ में पुलिस की गोली से मारे गए तीन दलित युवकों के परिवार वाले भी मौजूद थे. सम्मेलन के दौरान प्रदेश के भिन्न स्थानों से 50 हजार से ज्यादा लोग इकट्ठा हुए थे. सम्मेलन में तकरीबन दलित अधिकार के लिए लड़ने वाले तकरीबन 35 संगठनों ने हिस्सा लिया. सम्मेलन में मुस्लिम संगठन के लोग भी दलित समाज के लोगों को समर्थन देने के लिए इकट्ठा हुए थे. इस दौरान दलित-मुस्लिम भाई-भाई का नारा भी लगा. सम्मेलन में यह तय हुआ कि पदयात्रा के 15 अगस्त को उना में पहुंचने के बाद वहां तिरंगा भी फहराया जाएगा. इस दौरान दलित समाज के लोगों ने सामूहिक प्रतिज्ञा लिया कि वो अब मरे हुए जानवरों को नहीं उठाएंगे. सम्मेलन में सरकार को यह भी हिदायत दी गई कि अगर उनको न्याय नहीं मिला तो वह फिर से प्रशासन को भेंट के रूप में मरे हुए जानवरों का शव देंगे.
आज के सम्मेलन में यह भी तय किया गया कि पदयात्रा के दौरान भाजपा और कांग्रेस के किसी भी सदस्य को इसमें शामिल नहीं होने दिया जाएगा. सम्मेलन के आयोजकों में जिग्नेश भाई और कौशिक परमार प्रमुख थे. इस दौरान नगरपालिका में कार्यरत सफाई कर्मचारियों को स्थायी करने की भी मांग उठाई गई.

बाबासाहेब, मान्यवर, बहन जी एवं बुद्ध धम्म

मनुवाद की गोद में बैठकर राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक वैद्यता खो चुके रामदास अठावले द्वारा बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा एवं उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी सुश्री मायावती जी द्वारा बौद्ध धर्म न ग्रहण किए जाने के सवाल को उठाना एक भद्दा मजाक सा लगता है. और यह नितांत राजनीति से प्रेरित और मीडिया एवं राजनैतिक विरोधियों की अनैतिक सांठ गांठ है, वरना दलितों की बात को मीडिया फोटो के साथ प्रथम पृष्ठ पर कब छापता है. और दूसरी तरफ टीवी चैनल कब बहस में लाते हैं. यद्यपि उसी का अनुसरण करते हुए मायावती जी स्वयं प्रेस कांफ्रेंस कर यह घोषित कर चुकी हैं कि वह करोड़ों अनुयायियों के साथ दीक्षा लेंगी. फिर भी यहां यह बताना समिचिन होगा कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने राजनैतिक जीवन के उदाहरण से अपने अनुयायियों को यह समझाया था कि धर्म और राजनीति को कभी भी मिलाकर न देखा जाए. अर्थात धर्म और राजनीति को अलग-अलग ही रखा जाए. इसी का अनुसरण करते हुए मान्यवर कांशीराम ने जब पहले बामसेफ और फिर बसपा बनाई तो उन्होंने इसे धर्म से बिल्कुल अलग रखा और 1981 में बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर बनाकर उसे नेपथ्य में छोड़ दिया ताकि धर्म और राजनीति कहीं मिल ना जाएं. परंतु उन्होंने अपनी पूरी राजनीति में बुद्ध धम्म की विचारधारा को कभी नेपथ्य में नहीं धकेला. और मान्यवर कांशीराम ने यह प्रण किया था कि बाबासाहेब के धम्म पक्कतन के 50 वर्षों बाद 2006 में उत्तर प्रदेश में करोड़ों लोगों के साथ बुद्ध धम्म ग्रहण करुंगा. पर अफसोस की तिथि आने से पहले ही उनका महापरिनिर्वाण हो गया. ऐसी स्थिति में सुश्री मायावती ने भी बाबासाहेब और कांशीराम की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए धम्म और राजनीति को कभी नहीं मिलाया. और इसीलिए उनकी चार बार की सरकार में सांप्रदायिकता कभी भी अपना फन नहीं उठा पाई. इन सबके बावजूद भी मायावती जी ने अपनी सरकारों के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में भगवान गौतम बुद्ध की स्मृति में अनेक कार्य करवाएं. सर्वोपरि भारत में अगर किसी प्रांत में कोई जिला तथागत बुद्ध के नाम पर मिलता है तो वह है उत्तर प्रदेश. जहां पर गौतम बुद्ध नगर की स्थापना हुई है. उसी गौतम बुद्ध नगर में विश्वस्तरीय गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय का भी निर्माण हुआ है. इसके अलावा तथागत गौतम बुद्ध के नाम से बसपा सरकार ने महामाया नगर का भी निर्माण करवाया था, परंतु राजनैतिक विरोधियों ने वह नाम बदल दिया. परंतु सुश्री मायावती जी ने भगवान बुद्ध की माता के नाम से अत्यंत जनकल्याणकारी योजना यथा महामाया गरीब आर्थिक मदद योजना तथा महामाया गरीब बालिका आशीर्वाद योजना का आरंभ किया. इसी कड़ी में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान, लखनऊ तथा बौद्ध परिपथ का विकास एवं सौन्दर्यीकरण करवाया. सर्वोपरि अंतरराष्ट्रीय फार्मूला-1 का रेस सर्किट का नाम भगवान बुद्ध के नाम पर बुद्धा सर्किट रखा गया. सुश्री मायावती के उपरोक्त कृत्यों से यह प्रमाणित होता है कि यद्यपि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पंचशील और त्रिशरण ग्रहण कर बौद्ध धम्म को नहीं अपनाया है, फिर भी वह किसी भी बौद्ध अनुयायि से कम नहीं दिखाई देती. उनके हर कार्यक्रम में पूज्य भंतों द्वारा त्रिशरण एवं पंचशील से ही शुरू होते हैं. इन सब तथ्यों के बावजूद हमें यहां यह समझना होगा कि केवल दीक्षा लेने मात्र से ही कोई बौद्ध धर्म में परिवर्तित नहीं होता. बौद्ध धम्म एक जीवन जीने का आचरण है. अगर कोई व्यक्ति त्रिशरण, पंचशील, आष्टांगिक मार्ग एवं दसों परिमिताओं का आचरण करता है, तो वह बौद्ध धम्म का आचरण करता है. इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह बौद्ध धम्म का अनुयायी है. बुद्ध ने स्वयं गृहस्थ होते हुए भी धम्म की राह पर चलने की कला को बताया.

रामदास अठावले और भाजपा से सावधान रहें यूपी के दलितः मायावती

लखनऊ। बसपा अध्यक्ष मायावती ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता रामदास अठावले पर निशाना साधा है. मायावती ने कहा कि भाजपा अठावले को दलितों के खिलाफ खड़ा कर रही हैं. उन्होंने कहा कि अठावले ने भाजपा के बहकावे में आकर बौद्ध धर्म अपनाने के सम्बन्ध में बाबा साहेब की भावना को आहत किया है. मायावती ने कहा बाबा साहब ने भी बौद्ध धर्म अपनाने में जल्दबाजी नहीं की थी और जीवन के आखिरी वक्त में बौद्ध धर्म अपनाया था. उन्होंने कहा कि जब समाज जागरूक हो जाएगा, तब मान्यवर कांशीराम की इच्छा के मुताबिक करोड़ों लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाऊंगी और ये ऐतिहासिक घटना होगी. मायावती ने अठावले को आगाह किया कि दलितों को गुलाम बनाने की मानसिकता रखने वाले भाजपा के एजेंडे पर काम करना बंद करें और दलित एकता को न तोड़े. भाजपा ने दलित नेता अठावले को केंद्र में मंत्री इसलिए बानया कि वह दलित समाज के खिलाफ उनका उपयोग कर सके. बसपा का कहना है कि बाबा साहेब डा.अम्बेडकर के विचारों और आदर्शों के आधार बसपा के जन्मदाता व संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने आजीवन देश भर में लोगों को जागरुक करने का काम किया. लेकिन रामदास अठावले जैसे स्वार्थपूर्ण व गुलामी भरी मानसिकता रखने वाले लोगों से खासकर उत्तर प्रदेश के लोगों को बहुत ही सावधान रहने की जरूरत है, ताकि वे लोग प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट बांटने के अपने षडयंत्र में कामयाब न हो सके. गौरतलब है कि रामदास अठावले ने मायावती पर आरोप लगाया  था कि अगर वो सच्ची अंबेडकरवादी हैं तो वे अब तक क्यों हिन्दू हैं, बौद्ध धर्म क्यों नहीं अपनातीं? केंद्रीय मंत्री ने आरोप लगाया कि मायावती को दलितों के हितों से कोई सरोकार नहीं है, वो केवल दलितों के नाम पर राजनीति कर रही हैं.

दिल्लीः शंकराचार्य को स्थापित करने के लिए करवा रहे हैं बौद्ध धर्म की गलत पढ़ाई

दिल्ली। “शंकराचार्य ने अपने ज्ञान और पांडित्व के बल पर बौद्ध धर्म को बिना एक बूंद रक्त बहाए हिन्दुस्तान के बाहर खदेड़ दिया.” ऐसा हम नहीं, दिल्ली बोर्ड की कक्षा दूसरी की किताब में बताया गया है. बच्चे पर इसे पढ़ने के बाद बौद्ध धर्म के प्रति नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इस किताब में आगे लिखा हुआ है, “तत्कालीन समय में बौद्ध धर्म में काफी विकृतियां आ गई थीं. बौद्ध  सत्ता के रूप में विदेशियों ने भारतवर्ष में प्रवेश करना आरंभ कर दिया था.” अब आप ही बताइए क्या बौद्ध धर्म की वजह से विदेशियों ने भारत पर कब्जा किया? बौद्ध धर्म तो सत्य, अहिंसा  और तथागत बुद्ध के सम्यक विचारों पर आधारित है, फिर बच्चों को गलत ज्ञान क्यों दिया जा रहा है.  इस घटना के बाद से दलित व बौद्ध धर्म के लोगों में रोष फैल गया है. किताब में आगे यह भी लिखा हुआ है “भारतीय बौद्धों ने सत्ता के लोभवश विवेकहीन होकर विदेशियों का सब प्रकार से सहयोग किया.” हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी ही ऐसे हैं तो हमारे बच्चों का भविष्य कहां जाएगा? एक सवाल यह भी उठता है कि विद्यालयों की पुस्तकों में शंकराचार्य के बारे में जानना बच्चों के लिए कितना महत्वपूर्ण है? लेकिन बच्चों को बौद्ध धर्म के बारे में गलत जानकारी देना भारतीय शिक्षा पद्धति के लिए सोचने की बात हैं. बौद्ध धर्म  ने भारत का नाम सर्वोच्च किया है, इस तरह का ज्ञान सरकार और शिक्षा विभाग की मानसिकता को भी दिखा रहा है कि वह आने वाले पीढ़ी को किस तरह का ज्ञान देना चाहते हैं. बौद्ध चिंतक शांतिस्वरूप बौद्ध ने इस पर कहा कि यह शंकराचार्य को स्थापित करने के लिए गलत तथ्यों का सहारा ले रहे हैं. यह ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं. हम इसका विरोध करते हैं और दिल्ली शिक्षा विभाग और बुक पब्लिशर्स के खिलाफ शिकायत दर्ज करेंगें. सभी बौद्ध और दलित संगठनों के साथ मिलकर विरोध करेंगें. किताब को बंद करवाएंगें. शांतिस्वरूप बौद्ध ने आगे कहा कि भारत में विदेशी (अंग्रेज और मुस्लिम) बौद्ध धर्म का ज्ञान लेने आए थे. भारत जगत गुरू था. विदेशी नांलदा और  विक्रमशिला से ज्ञान प्राप्त करके गए और पूरे विश्व बौद्ध धर्म का प्रचार किया. शांति स्वरूप बौद्ध ने कहा कि मोदी सरकार तो पहले ही बोल चुकी है भारत के इतिहास को अपने तरीके से लिखने के लिए लेकिन दिल्ली सरकार से हमें ऐसी उम्मीद नहीं थी. दोनों मिलकर देश का इतिहास बिगाड़ रहे हैं. सरकार संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए पालि भाषा को हाशिये पर रख रही हैं. बच्चें अपनी किताबों से ही गलत जानकारी पाएंगें तो शिक्षा व्यवस्था कैसे बेहतर होगी. बच्चों की प्राथमिक स्तर की पुस्तक में इस तरह से त्रुटियां दिल्ली के शिक्षा विभाग की योग्यता को भी दर्शाता है. इस बारे में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संस्थान के अध्यक्ष और बौद्ध चिंतक भंते चंदिमा ने कहा कि यह निंदनीय है हम इसकी भर्त्सना करते हैं. इस तरह का ज्ञान बच्चों के लिए हानिकारक है और भटकाने वाला है. उन्होंने कहा कि बौद्ध राजाओं के समय कभी किसी विदेशी ने भारत पर आक्रमण नहीं किया. विदेशी आए लेकिन ज्ञान लेकर गए. शंकराचार्य ने हिंसक क्रांति की और लोगों के जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाए लेकिन बौद्ध धर्म अहिंसक क्रांति और सम्यक विचारों के आधार प्रसिद्ध हुआ. ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को बनाया और ब्राह्मणवादी संस्कृति का विस्तार कर दिया. बौद्ध धर्म ने भारत की सीमाओं का विस्तार किया था. ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता आने के बाद से ही भारत का पतन होना शुरू हुआ. बच्चों को बौद्ध धर्म की गलत जानकारी देना सरकार की ब्राह्मणवादी मानसिकता को सिद्ध कर रहा है.  बच्चें जब इस अध्याय को पढ़ते होंगे तो उन्हें जानकारी क्या जानकारी मिलती होगी? हैरानी की बात यह है कि यह किताब इस गलती के साथ ही लगातार पढ़ाई जा रही है.