भुखमरी की मार 

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतों से लोगों को बचाने के लिए दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए  सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सामुदायिक रसोई पर एक मॉडल प्लान तैयार करने को कहा । सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी यह भी थी कि पार्टियां चुनाव में कई चीजें मुफ्त बांटने की घोषणा करती हैं पर चुनाव खत्म होने के बाद मजबूरों की भूख शांत करने पर ध्यान नहीं देते हैं। इससे पहले भी पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि भुखमरी से बचाने का कर्तव्य सरकार का है और सामुदायिक रसोई बनाने के लिए कहा था।

इसके बाद केंद्र सरकार ने तुरंत अपनी तरफ से सुप्रीम कोर्ट को एक रिपोर्ट सौंप दी। रिपोर्ट से यह बात सामने निकल कर आई कि भुखमरी से कोई मौत ही नहीं हुई पूरे देश में क्योंकि किसी भी राज्य ने भूख से हुई मौत की जानकारी केन्द्र को तो दी ही नहीं। यह बिल्कुल कोविड की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों की रिपोर्ट की तरह थी। आपको बता दू कि “ग्लोबल हंगर इंडेक्स” की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत की रैंकिंग 116 देशों की सूची में 101 थी। केन्द्र सरकार ने इस रिपोर्ट को भी अवैज्ञानिक करार दिया।

केन्द्र द्वारा पेश की गई रिपोर्ट पुराने आंकड़ों पर थी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को फटकार भी लगाई । केन्द्र सरकार के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि भुखमरी से लोगों को बचाने के लिए सरकार द्वारा ढेरों योजनाएं पहले से ही चलाई जा रही है । उनका कथन सही भी है । सरकार द्वारा पोषण योजना , प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना, मिशन इंद्रधनुष आदि जैसे दर्जनों योजनाएं चलाई जा रही हैं ।

परंतु सवाल यह उठता है कि आखिरकार जरूरतमंदों तक मदद पहुंच क्यों नहीं पाती हैं । सरकार चाहे कितने भी दावे कर दे लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि भुखमरी से किसी की मौत ही नहीं हुई है । सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बार बार टिप्पणी करने के बाद भी केन्द्र व राज्य सरकारें अपनी चालाकी दिखाना छोड़ नहीं रही हैं । ऐसे में यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि

” भ्रष्ट सरकार से हो रही है जनता भुखमरी की शिकार

है वो इतने लाचार ,नहीं मिल पा रहा दो वक्त का आहार “

लेखक- प्रियांशु राज, बिक्रमगंज, रोहतास ( बिहार)

5 राज्यों के चुनाव के आइने में 73 वें गणतंत्र दिवस पर संकल्प!

मित्रों,!आज 26 जनवरी है: हमारा गणतंत्र दिवस! इसी दिन 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ था इसीलिए हम उस दिन से गणतंत्र दिवस मना रहे हैं. इस बार हम 73वां गणतंत्र एक ऐसे समय में मना रहे हैं, जब देश में 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जिनमें एक राज्य वह उत्तर प्रदेश भी है ,जो देश की राजनीति की दिशा तय करता है. इस बार बार यदि सत्ताधारी पार्टी विजय हासिल कर लेती है, तब वर्षों से विदेशी मूल का जो जन्मजात तबका भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रहा है, वह अपना सपना साकार करने की स्थिति में आ जायेगा. उसके बाद देश  डॉ आंबेडकर के संविधान की मनु लॉ के द्वारा परिचालित होना शुरू करेगा , फिर हम गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे. अतः आइये हम संविधान निर्माता की उस चेतावनी को याद कर इस चुनाव में अपनी भूमिका तय करें,जो चेतावनी उन्होंने राष्ट्र को संविधान सौपने के पूर्व 25 नवम्बर 1949 को दी थी.

उन्होंने उस दिन संविधान की खूबियों और खामियों पर विस्तार से चर्चा के बाद शेष में चेतावनी देते हुए कहा था ,’ 26 जनवरी 1950 हम विपरीत जीवन में प्रवेश करेंगे. राजनीति के क्षेत्र में मिलेगी समानता: प्रत्येक व्यक्ति को एक वोट देना का अवसर मिला और उस वोट का सामान वैल्यू होगा. किन्तु राजनीति के विपरीत आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में मिलेगी भीषण असमानता . हमें निकट भविष्य के मध्य इस असमानता को खत्म कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीडीत जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है,’इस चेतावनी के साथ उन्होंने यह भी कहा था कि संविधान जितना भी अच्छा क्यों हो, यदि उसे लागू करने वाले करने वाले बारे लोग होंगे तो यह बुरा साबित होगा.अगर संविधान लागू करने वाले सही होंगे तो  होंगे तो बुरा संविधान भी अच्छा परिणाम दे सकता है.

कहने में कोई संकोच कि नहीं कि भारत संविधान लागू करने वाले अच्छे लोगो में शुमार होने लायक नहीं रहे. अपनी शिराओं में बहते मनुवाद के कारण वे संविधान की उद्देश्यिका में वर्णित तीन न्याय-सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक- सभी को सुलभ कराने की मानसिकता से पुष्ट नहीं रहे, इसलिए जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे लायक नीतियों से आम जन, विशेषकर वर्ण व्यवस्था के जन्मजात वंचितों को तीन न्याय सुलभ कराया जा  सकता था , वे उस विषमता के खात्मे लायक नीतिया ही न बना सके. फलतः बढ़ते आर्थिक और सामाजिक विषमता के साथ-साथ  लोकतंत्र के ध्वंस होने लायक हालात पूंजीभूत होते रहे और तीन न्याय से से वंचित बहुजन समाज  महरूम होता गया. दुर्भाग्य से नयी सदी में  देश की केन्द्रीय सत्ता पर ऐसे लोगों का प्रभाव विस्तार हुआ, जो संविधान के विरोधी और मनु ला के खुले हिमायती रहे. नयी सदी के 21 सालों में 16 सालों में सत्ता पर काबिज ऐसे संविधान विरोधियों की आज केंद्र से लेकर राज्यों में अप्रतिरोध्य सत्ता कायम हो गयी है और आज ये भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करते हुए संविधान की जगह उन हिन्दू कानूनों को लागू करने की स्थिति में पहुँच गए हैं, जिन हिन्दू कानूनों के कारण ही भारत के बहुसंख्य आबादी को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्याय का शिकार बनना पड़ा तथा जिससे निजात दिलाने का ही प्रावधान आंबेडकर के संविधान की उद्देश्यिका में घोषित हुआ.

बहरहाल जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे से हिन्दू कानूनों द्वारा सभी प्रकार के अन्याय के शिकार लोगों को संविधान में वर्णित तीन न्याय सुलभ कराया जा सकता था, वह आर्थिक और सामाजिक विषमता हिंदूवादी सत्ता में नयी नयी छलांगे लगाती जा रही. 2014 से हिंदूवादी सत्ता कयाम होने के बाद 2015 वैश्विक धन- बंटवारे पर काम करने वाली क्रेडिट सुइए की रिपोर्ट हो या हर वर्ष जनवरी में प्रकाशित होने वाली ऑक्सफाम इंडिया या जेंडर गैप की रिपोर्ट : हर रिपोर्ट इस बात की गवाही देगी कि नयी सदी में हिंदूराज राज में आर्थिक और सामाजिक विषमता नयी- नयी ऊँचाई छूती जा रही है. इसके साथ ही बहुजनों के लिए सपना बनता गया है :  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय !

कुछेक माह पूर्व लुकास चांसल द्वारा लिखित और चर्चित अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटि, इमैनुएल सेज और गैब्रियल जुकमैन द्वारा समन्वित जो ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022’ प्रकाशित हुई है, उसमे फिर भारत में वह भयावह असमानता सामने आई है, जिससे वर्षों से उबरने की चेतावनी बड़े- बड़े अर्थशास्त्री देते रहे हैं. रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक, जहाँ एक ओर गरीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर एक समृद्ध अभिजात वर्ग और ऊपर हो रहा है. रिपोर्ट के मुताबिक भारत के शीर्ष 10 फीसदी अमीर लोगों की आय 57 फीसदी है, जबकि शीर्ष 1 प्रतिशत अमीर देश की कुल कमाई में 22 फीसदी हिस्सा रखते हैं. इसके विपरीत नीचे के 50 फीसदी लोगों की कुल आय का योगदान घटकर महज 13 फ़ीसदी पर रह गया है. रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष 10 फीसदी व्यस्क औसतन 11,66, 520 रूपये कमाते हैं. यह आंकड़ा नीचे की 50 फीसदी वार्षिक आय से 20 गुणा अधिक है.

इसी बात को आगे बढ़ाते वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम 2022 के पहले दिन अर्थात 17 जनवरी को प्रकाशित ऑक्सफैम की रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के टॉप-10 फीसदी अमीर लोगों, जिनके पास देश की 45 प्रतिशत दौलत है, पर अगर 1 फीसदी एडिशनल टैक्स लगाया जाए तो उस पैसे से देश को 17.7 लाख एक्स्ट्रा ऑक्सीजन सिलिंडर मिल जाएंगे. टॉप के दस दौलतमंद भारतीयों के पास इतनी दौलत हो गयी है कि वे आगामी 25 सालों तक देश के सभी स्कूल – कॉलेजों के लिए फंडिंग कर सकते हैं. सबका साथ – सबका विकास के शोर के मध्य पिछले एक साल में अरबपतियों की संख्या 39 प्रतिशत वृद्धि दर के साथ अब 142 तक पहुँच गयी है. इनमे टॉप 10 के लोगों के पास इतनी दौलत जमा हो गयी है कि यदि वे रोजाना आधार पर 1 मिलियन डॉलर अर्थात 7 करोड़ रोजाना खर्च करें, तब जाकर उनकी दौलत 84 सालों में ख़त्म होगी. सबसे अमीर 98 लोगों के पास उतनी दौलत है, जितनी 55. 5 करोड़ गरीब लोगों के पास है.ऑक्सफाम 2022 की रिपोर्ट  में यह तथ्य उभर कर आया है कि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास गुजर-बसर करने के लिए सिर्फ 6 प्रतिशत  दौलत है.

2006 से हर वर्ष ग्लोबल जेंडर गैप की जो रिपोर्ट पर प्रकाशित हो रही उसकी 2021 के  रिपोर्ट में जो तस्वीर उभरी है, उसमे पाया गया है की दक्षिण एशियाई देशों में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है. यह देश लैंगिक समानता के मोर्चे अपने सबसे पिछड़े प्रतिवेशी मुल्कों में भी पीछे हो गया है. भारत रैंकिंग में 156 देशों में 140वें स्थान पर रहा, जबकि  बांग्लादेश 65वें, नेपाल 106वें, पाकिस्तान 153वें, अफगानिस्तान 156वें, भूटान 130वें और श्रीलंका 116वें स्थान पर।इससे पहले 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था।इस रिपोर्ट ने यह संकेत दे दिया है की भारत को लैंगिक समानता पाने में 150 साल से ज्यादे लग जायेगा ! ग्लोबल जेंडर गैप में 2020 के 112  के मुकाबले 2021 में 140 वें स्थान पर पहुंचना मेरे उपरोक्त दावे की  पुष्टि करता है कि नयी सदी में हिंदूराज राज में आर्थिक और सामाजिक विषमता नयी- नयी ऊँचाई छूती जा रही है. इसके साथ ही बहुजनों के लिए सपना बनता गया है : सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय!

2015 में 26 नवम्बर को ‘संविधान दिवस ‘ के रूप मनाने की घोषणा करने वाले मोदी और उनकी पार्टी दिन ब दिन व्यर्थ होते जा संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति को लेकर इतनी गंभीर है कि उपरोक्त रिपोर्टों में उभरी आर्थिक और सामाजिक तथा लैंगिक को लेकर भूलकर भी कभी चिंता जाहिर नहीं किया है. लेकिन निजीकरण, विनिवेशीकरण, लैटरल इंट्री के जरिये सारा कुछ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे सवर्णों के हाथों में देने पर आमादा देश बेचवा मोदी एंड क. के लिए उपरोक्त रिपोर्टों पर चिंता जाहिर करना मुमकिन ही नहीं. क्योंकि यह सब कुछ उनके प्लान के हिसाब से हो रहा है.इसलिए यह  कोई उनके लिए राष्ट्रीय समस्या नहीं है. उनके लिए जो समस्या है उसे मोदी-योगी-अमित शाह से लेकर तमाम हिंदूवादी लेखक जिन मुद्दों को उठा रहे हैं, वे मुद्दे है: हिन्दू बनाम मुस्लिम, राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद; अयोध्या- काशी के बाद मथुरा-वृदावन में भव्य मदिर निर्माण, गोहत्या, मतान्तरण, लव जिहाद, जनसँख्या असंतुलन इत्यादि. इसलिए आंबेडकर के संविधान की जगह मनु का विधान लागू करने के सपने में विभोर :  टॉप से लेकर बॉटम तक हर भाजपाई के लिए ऑक्सफाम और ग्लोबल जेंडरगैप रिपोर्ट में उभरी भीषण आर्थिक और सामाजिक कोई मुद्दा ही नहीं!

तो मित्रों , ऑक्सफाम और ग्लोबल जेंडर गैप में उभरी तस्वीर इया बात का संकेतक है कि गणतंत्र दिवस का जश्न लम्बा खीचने वाला नहीं है. इसके लिए हर हाल में हिन्दूवादी सरकार को सत्ता से आउट कर करना पड़ेगा. इसकी शुरुआत आप 2022 के विधानसभा चुनावों से करें. अब सवाल आपके सामने यह खड़ा होता है कि हिन्दूवादियों की जगह कैसी सरकार सत्ता में लायें, जिससे गणतंत्र दिवस का जश्न सोल्लास मनाने का सिलसिला जारी रहे!  इसके लिए जिस आर्थिक और सामाजिक विषमता के कारण भारत संविधान व्यर्थ होने जा रहा है, उसकी उत्पत्ति के कारणों को ठीक से समझते हुए ,उसके खात्मे की नीतियाँ बनाने लायक सरकार को सत्ता में लाना पड़ेगा.

गौतम बुद्ध ने कहा है अगर कोईसमस्या है तो उसका कारण है और कारण की खोज कर लिया तो उसका निवारण हो सकता है.अब जहाँ तक आर्थिक और सामाजिक गैर -बराबरी का सवाल है, इसके खात्मे में की दिशा में ऐतिहासिक योगदान देने वाले तमाम महापुरुषों के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इसकी उत्पत्ति शक्ति के स्रोतों का विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती है .दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन ही आर्थिक और सामाजिक विषमता का कारण रहा है. अगर शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन ही संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने वाली को आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्तपति का मूल कारण है तो संविधान प्रेमी लोगों को हिन्दूवादियों की जगह ऐसी सरकार को सत्ता में लाने का उपक्रम चलाना होगा जो हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागूकरवाने अर्थातभारत के चार प्रमुख सामाजिक समूहों-सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों—के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की बात करती हो. फिलहाल इस कसौटी पर उस सपा के अखिलेश यादव कुछ उम्मीद बधाते नजर आ रहे हैं, जिन्होंने शक्ति के समस्त स्रोतों का तो जिक्र नहीं किया है, पर यह कहा है कि समाजवादी सरकार बनने के तीन महीने में जाति जनगणना शुरू करवाकर सभी समाजों के लिए समानुपाती भागीदारी अर्थात जिसकी जितनी सख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी सुनिश्चित करेंगे!

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क – 9654816191)

‘जन नायक’हमेशा जिंदा रहते हैं

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महाकवि कबीर ने कहा है-‘सहज सहज सब कोई कहे, सहज न जाने कोइ।’  हालांकि जननायक कर्पूरी ठाकुर का संपूर्ण जीवन ही सहजता का पर्याय था। कर्पूरी ठाकुर का जन्म भारत में ब्रिटिश शासन काल के दौरान समस्तीपुर के एक गांव पितौंझिया में 24 जनवरी, 1924 को हुआ था। बाद में उनके सम्मान में इस गांव का नाम कर्पूरीग्राम हो गया। सामाजिक रुप से पिछड़ी किन्तु सेवा भाव के महान लक्ष्य को चरितार्थ करती नाई जाति में उनका जन्म हुआ। कर्पूरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता है। उनका पूरा जीवन संघर्ष की मिसाल रहा। तो अपने राजनीतिक जीवन को भी उन्होंने निष्कलंक और पूरी ईमानदारी के साथ जीया और हमेशा गरीबों और शोषितों की भलाई के लिए सोचते और लड़ते रहें। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उन्होंने 26 महीने जेल में बिताए थे।

आजादी के बाद उनके राजनीतिक जीवन को नई ऊंचाई मिली। तब सत्ता में आने पर देश भर में कांग्रेस के भीतर कई तरह की बुराइयां पैदा हो चुकी थीं, इसलिए उसे सत्ताच्युत करने के लिए सन 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया। कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। कमान कर्पूरी ठाकुर को मिली। वह 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। अपने शासनकाल में उन्होंने गरीबों के हक के लिए काम किया। पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अति पिछड़ों को हक दिलाने के लिए मुंगेरी लाल आयोग का गठन किया। उनके दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर प्रदेश के शासन-प्रशासन में पिछड़े वर्ग की भागीदारी की बात उठी। तब इसमें उनकी भागीदारी नहीं थी। इसलिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से की जाने लगी। कर्पूरी जी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उक्त मांग को संविधान सम्मत मानकर एक फॉर्मूला निर्धारित किया और काफी विचार-विमर्श के बाद उसे लागू भी कर दिया, जिससे पिछड़े वर्ग को आरक्षण मिलने लगा। इस पर पक्ष और विपक्ष में थोड़ा बहुत हो-हल्ला भी हुआ। अलग-अलग समूहों ने एक-दूसरे पर जातिवादी होने के आरोप भी लगाए। मगर कर्पूरी जी का व्यक्तित्व निरापद रहा। उनका कद और भी ऊंचा हो गया। अपनी नीति और नीयत की वजह से वे सर्वसमाज के नेता बन गए। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने जिस सादगी के साथ गरीबों का उत्थान किया, वैसी मिसाल कहीं और देखने को नहीं मिली।

दलितों, पिछड़ों, शोषितों और वंचितों के मसीहा कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर बिहार में समाजवाद के सबसे मजबूत स्तम्भ थे। उन्होंने बिहार की राजनीति में पारदर्शिता, ईमानदारी और जन-भागीदारी के जो प्रतिमान स्थापित किया, उसे आज तक कोई राजनेता पार नहीं कर पाया। एक गरीब नाई परिवार से आए कर्पूरी जी सत्ता के तमाम प्रलोभन और आकर्षण के बीच भी जीवन भर सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति बने रहे। ईमानदारी ऐसी कि अपने लंबे मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल कभी व्यक्तिगत कार्यों के लिए नहीं किया। उनके परवर्ती मुख्यमंत्रियों के घरों में कीमती गाड़ियों का काफ़िला देखने के आदि लोगों को शायद इस बात पर विश्वास नहीं होगा कि कर्पूरी जी ने अपने परिवार के लोगों को कभी सरकारी गाड़ी के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं दी। एक बार तो उन्होंने अपनी बेहद बीमार पत्नी को रिक्शे से अस्पताल भिजवाया था ।

कर्पूरी ठाकुर का स्वभाव जन्म से लेकर मृत्यु तक एक-सा बना रहा। बोलचाल, भाषाशैली, खान-पान, रहन-सहन और रीति-नीति आदि सभी क्षेत्रों में उन्होंने ग्रामीण संस्कार और संस्कृति को अपनाए रखा। सभा-सम्मेलनों तथा पार्टी और विधानसभा की बैठकों में भी उन्होंने बड़े से बड़े प्रश्नों पर बोलते समय उन्हीं लोकोक्तियों और मुहावरों का, जो हमारे गांवों और घरों में बोले जाते हैं, हमेशा इस्तेमाल किया। कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। उनका भाषण आडंबररहित, ओजस्वी, उत्साहवर्धक तथा चिंतनपरक होता था। कड़वा से कड़वा सच बोलने के लिए वे इस तरह के शब्दों और वाक्यों को व्यवहार में लेते थे, जिसे सुनकर प्रतिपक्ष तिलमिला तो उठता था, लेकिन यह नहीं कह पाता था कि कर्पूरी जी ने उसे अपमानित किया है। श्री ठाकुर विनम्र किन्तु निर्भीक थे। उनकी सूझबूझ का मुकाबला नहीं था। राजनीतिक आंदोलन के दौरान वो कार्यकर्ताओं को पूरा सम्मान देते थे। वे सबसे गरीब कार्यकर्ता के घर रूकते थे, खाना खाते थे और सोते थे। उनका अपना घर छप्पर का था जहां एक खाट की जगह थी। झुककर उस झोपड़ी के अंदर जाया जा सकता था।

कर्पूरी जी जीवन भर बिहार के हक की लड़ाई लड़ते रहे। वह खनिज पदार्थ के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध, खनिजों की रायल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने तथा पिछड़े बिहार को विशेष पैकेज की मांग के लिए संघर्ष करते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में सीतामढ़ी के सोनवरसा विधानसभा क्षेत्र का विधायक रहते हुए उन्होंने श्री देवीलाल द्वारा प्रदान न्याय रथ से बिहार को जगाया। 17 फरवरी, 1988 को वे हमारे बीच से सदा के लिए चले गए। कर्पूरी ठाकुर की लोकप्रियता का अंदाजा इस बाद से भी लगाया जा सकता है कि उनकी अंत्येष्टि में अभूतपूर्व भीड़ उमड़ पड़ी थी। उनकी मृत्यु पर आमजन को रोते-बिलखते देखा जा सकता था। कर्पूरी ठाकुर के बाद बिहार का कोई नेता ‘जन नायक’ नहीं बन पाया।

 

यूपी चुनाव में बसपा करेगी चमत्कार, जान लिजिए कैसे

जब से यूपी चुनाव की चर्चा शुरू हुई है, मनुवादी मीडिया बसपा को सबसे पीछे बता रही है। मीडिया बहाने खोज कर बसपा की लगातार निगेटिव कैंपेनिंग कर रही है। आलम यह है कि यूपी चुनाव प्रचार के जोर पकड़ने के बाद जहां तमाम नेता दूसरी पार्टियों से बसपा की ओर आ रहे हैं तो 10 छोटी पार्टियों ने भी बसपा का समर्थन किया है। जिसे देख कर लगता है कि ये ऐग्जिट पोल बसपा को लेकर एक बार फिर औंधे मुंह गिरेंगे।

 सिर्फ जनवरी महीने में विपक्षी पार्टियों को छोड़ बसपा का दामन थामने वाले नेताओं की बात करे तो-

  • मुजफ्फरमगर जिले से ताल्लुक रखने वाले यूपी के पूर्व गृहमंत्री श्री सईदुज़्ज़ामां के बेटे सलमान सईद कांग्रेस छोड़ कर बसपा में शामिल हो गए हैं। बसपा ने उन्हें चरथावल विधान सभा सीट से उम्मीदवार बनाया है।
  • सहारनपुर जिले के पूर्व केंद्रीय मंत्री रसीद मसूद के भतीजे व इमरान मसूद के सगे भाई नोमान मसूद भी लोकदल छोड़कर बीएसपी में शामिल हो गए हैं। इनको बीएसपी प्रमुख मायावती ने गंगोह विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया है।
  • गाजियाबाद में भाजपा के क्षेत्रीय उपाध्यक्ष केके शुक्ला ने बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया। बसपा ने उन्हें गाजियाबाद शहर विधानसभा प्रत्याशी भी घोषित कर दिया।
  • उनके साथ-साथ भाजपा के पार्षद कृपाल सिंह भी बसपा में शामिल हो गए।
  • हापुड़ की गढ़ मुक्तेश्‍वर सीट से समाजवादी पार्टी के 3 बार के विधायक और सरकार में पूर्व मंत्री रहे मदन चौहान भी बसपा में शामिल हो गए हैं।
  • बदायुं जिले में बिल्सी विधानसभा की सपा नेता और पूर्व जिला पंचायत सदस्य ममता शाक्य सपा छोड़कर बसपा में शामिल हो चुकी हैं।
  • निर्भया कांड की वकील सीमा कुशवाहा ने भी बसपा प्रमुख मायावती से मिलकर बहुजन समाज पार्टी ज्वाइन कर लिया है।

इसके अलावा भी भाजपा, सपा और कांग्रेस से जुड़े तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया है।

बसपा के लिए एक उपलब्धि यह भी रही कि हाल ही में 10 राजनीतिक दलों ने 2022 विधानसभा चुनाव के लिए बसपा को समर्थन दिया है। इसमें-

  1. इंडिया जनशक्ति पार्टी
  2. पच्चासी परिवर्तन समाज पार्टी
  3. विश्व शांति पार्टी
  4. संयुक्त जनादेश पार्टी
  5. आदर्श संग्राम पार्टी
  6. अखंड विकास भारत पार्टी
  7. सर्वजन आवाज पार्टी
  8. आधी आबादी पार्टी
  9. जागरूक जनता पार्टी
  10. सर्वजन सेवा पार्टी

का नाम शामिल है।

ये तमाम दल और नेता यूपी में 5वीं बार बहन मायावती को मुख्यमंत्री बनाने के लिए जोर लगा रहे हैं। बसपा की ये उम्मीद सही साबित होगी या नहीं ये तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता चलेगा, लेकिन मनुवादी मीडिया जिस तरह बसपा को अनदेखा कर रहा है, वह पूरे भारतीय समाज की सच्चाई बताता है।

बसपा समर्थकों का धमाकेदार धुआंधार डिजिटल प्रचार

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान जहां राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं तो एक लड़ाई समर्थकों के बीच भी चल रही है। तमाम राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता और समर्थक अपने-अपने तरीके से अपनी पसंदीदा पार्टियों का चुनाव प्रचार कर रहे हैं। और इस मुहिम में सबसे आगे बसपा के समर्थक हैं।

दरअसल सोशल मीडिया पर तमाम दल जहां काफी सक्रिय रहते हैं, बसपा की उपस्थिति उनके मुकाबले कमजोर दिखती है। भाजपा, कांग्रेस सहित तमाम दलों में तो सोशल मीडिया सेल है, जहां एक बड़ी टीम पार्टी और उसकी सरकार एवं प्रमख नेताओं के कामों को सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंचाती है। इसके लिए पार्टियां भारी-भरकम रकम भी खर्च करती हैं।

फंड की कमी के चलते बसपा दूसरी पार्टियों के मुकाबले पिछड़ जाती है। बसपा समर्थक भी यह समझते हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा समर्थकों ने भी बसपा के कामों को यूपी की जनता तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लिया है।

सोशल मीडिया पर कई ऐसे युवा सक्रिय हैं, जो अपनी मेहनत से बसपा शासनकाल में मुख्यमंत्री के तौर पर सुश्री मायावती द्वारा किये गए कामों को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। ऐसे ही एक बसपा समर्थक हैं इंद्रा साहेब, जिनके पोस्टर लोगों तक बसपा के कामों को पहुंचा रहे हैं।

इन पोस्टरों में बसपा द्वारा किये गए तमाम कामों का जिक्र है। मसलन मुख्यमंत्री रहते बहनजी द्वारा अपने शासनकाल में दो इंटरनेशनल एयरपोर्ट का निर्माण हो, या 23 जिला अस्पतालों का निर्माण, दो उच्चस्तरीय पैरा मेडिकल कॉलेजों का निर्माण हो, 200 से अधिक इंटर कॉलेज का निर्माण हो, 24 से ज्यादा पोलेटेक्निक कॉलेज का निर्माण हो या फिर 6 इंजीनियरिंग कॉलेज और 2 होमियोपैथ कॉलेज सहित 200 से ज्यादा डिग्री कॉलेज एवं 572 हाई स्कूल और 100 से अधिक आईआईटी का निर्माण हो या फिर 6 विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों का निर्माण यह अपने आप में उत्तर प्रदेश के विकास की कहानी कहता है।

इसके अलावा बसपा ने कितने युवाओं को नौकरी दी और प्रदेश के विकास के लिए किस तरह सड़कों से लेकर एक्सप्रेस वे बनाने के साथ-साथ तमाम सरकारी विभागों को उनके अपने भवन दे दिये, पोस्टर ये सारी कहानी कह रहे हैं। निश्चित तौर पर देश ही नहीं, दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भी अंबेडकरवादी और बसपा समर्थक जिस तरह बसपा की डिजिटल कैंपेनिंग को अपनी मेहनत से आगे बढ़ा रहे हैं, उसकी मिसाल कोई दूसरा नहीं दिखता।

आदि धर्म आंदोलन की पृष्ठभूमि में कबीर, रैदास और मक्खलि गोसाल का आजीवक आंदोलन था : डाॅ. भूरेलाल 

पंजाब में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में “आदि धर्म” के नाम से दलित कौम के धार्मिक आंदोलन को चलाने वाले महापुरुष बाबू मंगूराम मुग्गोवालिया जी की 14 जनवरी, 2022 को 136वीं जयंती थी। उन के जन्मदिन पर ‘भारतीय आजीवक महासंघ (ट्रस्ट)’ द्वारा ‘डा. धर्मवीर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच’ से एक विचार गोष्ठी का आनलाइन आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी ‘बाबू मंगूराम और उन का आदि धर्म आंदोलन’ विषय पर केंद्रित थी। जिस की अध्यक्षता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डाॅ. भूरेलाल जी ने की। वक्ता के रूप में सी.एम.पी. डिग्री कालेज, इलाहाबाद के एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. दीनानाथ जी, श्री संतोष कुमार तथा अरुण आजीवक ने अपने अपने विचार रखे।
विचार गोष्ठी का आरंभ डाॅ. दीनानाथ जी के व्याख्यान से हुआ। अपने व्याख्यान में बाबू मंगूराम के आंदोलन पर चर्चा करते हुए डाॅ. दीनानाथ जी ने बताया कि, ”बाबू मंगूराम जी का ‘आदि धर्म आंदोलन’ धार्मिक आंदोलन था बाद में उस में राजनीतिक एजेंडा भी जुड़ा।”
आदि धर्म आंदोलन के बारे में दीनानाथ जी ने एकदम ठीक कहा कि वह दलितों का धार्मिक आंदोलन था। दलितों को समझना चाहिए कि उन की कुल समस्या धर्म की ही है। दलित कौम अन्य कौमों की तरह एक पृथक कौम है। पृथक कौम है इस का मतलब ही है कि दलित कौम की अपनी खुद की विचारधारा और परम्परा है जिन से मिल कर धर्म बनता है। दलित अपने धर्म को भुला बैठे जिस के कारण ये जबरदस्ती हिन्दू धर्म में गिने जाने लगे। हिन्दू धर्म में गिने जाने के कारण ही विरोधियों ने इन्हें हरिजन, अछूत, अस्पृश्य, नीच आदि नाम दिये थे। बाबू मंगूराम जी ने दलितों की इस मूल धार्मिक समस्या को जाना था। सब से बड़ी बात यह है कि वे इस समस्या के समाधान में दलित कौम के खुद के धर्म की ओर बढ़े थे।
दीनानाथ जी ने आगे बताया कि, ‘बाबू मंगूराम का आदि धर्म और इसी तरह का स्वामी अछूतानन्द जी का ‘आदि हिन्दू आंदोलन’ हमारे सद्गुरुओं कबीर-रैदास के आंदोलन के प्रभाव में चले थे जो पीछे आजीवक धर्म और परम्परा तक जाते हैं।’
दीनानाथ जी ने बहुत ही सटीक बात कही है। बाबू मंगूराम जी ने एक किताब लिखी थी जिस का नाम है ‘आदि धर्म मंडल रिपोर्ट 1931’ जिस में उन्होंने साफ तौर पर लिखा है कि ‘हम आदि धर्मी हैं। हम हिन्दू के भाग नहीं हैं और ना हिन्दू हमारा भाग हैं।’ ठीक इसी तरह से मध्यकाल में हमारे कबीर और रैदास ने कहा था ‘ना हिन्दू ना मुसलमान’। एक तरफ वे ना हिन्दू ना मुसलमान कह रहे थे और दूसरी तरफ अपने कौम की परम्परा बता कर दलित धर्म की स्थापना भी कर रहे थे। बिल्कुल यही दृष्टि बाबू मंगूराम जी अपने समय में ले कर चले थे। बाबू मंगूराम आदि धर्म के रूप में दलित कौम के जिस धर्म की बात कर रहे थे वह अब हमारे सामने आ गया है। वह ‘आजीवक धर्म’ है जिस की खोज महान आजीवक चिंतक डाॅ. धर्मवीर ने की है।
अपने व्याख्यान में आगे दीनानाथ जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही, उन्होंने कहा, ‘बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द का कहना था कि हमारी संस्कृति, धर्म, इतिहास, चिंतन इन आर्यों से अलग हट कर है। उन्होंने इसे सिंधु सभ्यता से जोड़ा था। जबकि डा. अम्बेडकर का आंदोलन इन महापुरुषों के विपरीत चल रहा था। डा. अम्बेडकर वर्ण-व्यवस्था के अंदर अपने आप को रख कर चल रहे थे।’
दीनानाथ जी के इस वाक्य को सभी दलितों को ध्यान से समझना चाहिए। बाबू मंगूराम साफ साफ कह रहे थे कि हम हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख नहीं हैं। जबकि डा. अम्बेडकर खुद को हिन्दू बता रहे थे और बाद में क्षत्रिय वर्ण के धर्म बौद्ध में धर्मांतरित हो गये। हजारों साल से दलितों की तरफ से जो स्वतंत्र धार्मिक आंदोलन चलाये जा रहे हैं उसे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द ने आगे बढ़ाया था जबकि डा. अम्बेडकर दलित आंदोलन के विरोध में बुद्ध की शरण में चले गए।
विचार गोष्ठी में अगले वक्ता के रूप में अरुण आजीवक ने अपनी बात रखी, उन्होंने बताया-
“जाना जाए, बाबू मंगूराम जी को ‘हम हिन्दू नहीं हैं’ यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? कबीर – रैदास को भी ‘ना हिन्दू ना मुसलमान’ कहने की जरूरत क्यों पड़ी थी? इस का जवाब यह कि दलितों की लड़ाई धर्म की लड़ाई रही है। यह दलित धर्म और ब्राह्मण धर्म के बीच लड़ी जा रही है। मध्यकाल में ब्राह्मण ने हिन्दू धर्म के नाम पर दलितों को अपने साथ ले कर बहुसंख्यक बन कर इस्लाम के खिलाफ अभियान चलाने का षडयंत्र रचा था। आधुनिक काल में, अंग्रेजी सरकार द्वारा दलितों के कल्याण के लिए किये गये काम से प्रभावित हो कर दलित ईसाई बन रहे थे। इस समय भी ब्राह्मण द्वारा अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए हिन्दू धर्म के रूप में दलितों को साथ ले कर बहुसंख्यक बन कर लाभ उठाने का षडयंत्र रचा जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ अपने हिंदू धर्मशास्त्रों के हवाले से दलितों को अछूत, अस्पृश्य, नीच भी घोषित किया जा रहा था। गांधी जी ने तो अपने से अलग बताते हुए ‘हरिजन’ के रूप में पहचान दे दी।
बाबू मंगूराम जी ब्राह्मण की कथनी-करनी की इस धूर्तता को बहुत गहराई से पहचाने थे। तभी उन्होंने आदि धर्म की गर्जना की और कहा कि हम हिन्दू नहीं हैं। मंगूराम जी ने किसी धर्मांतरण की बात न कर के आदि धर्म के रूप में दलितों के खुद के धर्म की बात की – यह कोई छोटी बात नहीं है। मंगूराम जी यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि हमारे हक – अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब धर्म के रूप में हमारी स्वतंत्र पहचान स्पष्ट हो। धर्महीनता की स्थिति में ब्राह्मण दलितों पर अपनी पहचान थोपता है और फिर उन के सारे अधिकार अपने बता कर हड़प जाता है। उस का यह कहना रहता है कि मैंने तो रोटी खा ली है अब दलित को अलग से रोटी खाने की क्या जरूरत है।”
गोष्ठी के अगले वक्ता संतोष कुमार ने अपना व्याख्यान स्वामी अछूतानन्द जी की कविता ‘आदि-वंश का डंका’ के वाचन के साथ आरंभ की, जिस में वे कहते हैं-
“आर्य-शक-हूण बाहर से आये यहाँ, 
और मुसलिम ईसाई जो छाये यहाँ, 
                  खोलकर सारी बातें बताते चलो। 
                 आदि-हिन्दू का डंका बजाते चलो।।” 
इन पंक्तियों से साफ पता चलता है कि आदि हिन्दू आंदोलन दलित कौम की पहचान का आंदोलन था। इस के बाद संतोष कुमार ने बाबू मंगूराम के आदि धर्म आंदोलन पर पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डा. रौनकी राम द्वारा लिखे लेख को पढ़ा जो वेब पत्रिका फारवर्ड प्रेस में छपा है। जिस में बताया गया है, ‘बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द के समर्थन के चलते ही बाबा साहेब डा. अम्बेडकर को भारत के दलित आंदोलन का नेतृत्व प्राप्त हुआ था।’
यह एकदम अकाट्य सत्य है। बताया जाए, स्वामी अछूतानन्द ने 1922 में दलितों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र सहित 17 सूत्री मांग का एक ज्ञापन दिल्ली में आये प्रिंस आफ वेल्स को सौंपा था। पंजाब में भी बाबू मंगूराम जी दलितों के लिए स्कूल खोल रहे थे। वे सरकारी नौकरियों में दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे। पंजाब में दलितों के भूमि अधिकार के लिए मंगूराम जी संघर्ष कर रहे थे। इन तमाम दलित मुद्दों को ले कर दलितों के प्रतिनिधि के रूप में बाबा साहेब डा. अम्बेडकर लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने गए थे। गोलमेज सम्मेलन में दलित नेतृत्व को लेकर बाबा साहेब को गांधी के खास चुनौती का सामना करना पड़ा था। तब भारत से स्वामी अछूतानन्द और बाबू मंगूराम जी ने बाबा साहेब के समर्थन में तार भेजवाये थे। हमारे आदि आंदोलन के महापुरुषों के समर्थन के कारण ही डा. अम्बेडकर गोलमेज सम्मेलन में दलित नेतृत्व को गांधी से बचाने में सफल हो पाए थे। यह सारा इतिहास अब हमारे सामने आ चुका है जिसे महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर जी ने अपने महान ग्रंथ ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ में लिपिबद्ध किया है।
वक्ताओं के व्याख्यान के बाद श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित किये गये। श्रोताओं में से रोहित कुमार ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया – ‘स्वामी अछूतानन्द और बाबू मंगूराम की तरह आज के समय में हम किसे अपना नेतृत्वकर्ता मानें?’
बताया जाए, दलितों की समस्या धार्मिक रही है। ढाई हजार साल से दलित कौम धर्महीनता की स्थिति में रहती चली आयी है। धर्महीनता के चलते दलित कौम विरोधी धर्म की गुलाम बनी हुई है। धर्महीनता के कारण ही दलित घरों में जारकर्म ने पांव पसारे। धर्महीनता के कारण ही दलितों के सारे हक अधिकार उन से छिनते गए। धर्महीनता की मूल समस्या की पहचान डाॅ. धर्मवीर ने की। इस के समाधान में दलित कौम के धर्म ‘आजीवक’ की मुकम्मल खोज डाॅ. धर्मवीर ने की। प्राचीन काल में आजीवक धर्म की स्थापना करने वाले महान मक्खलि गोसाल और उन के दर्शन ‘नियतिवाद’ को डाॅ. धर्मवीर सामने ले कर आये। आजीवक महापुरुषों कबीर, रैदास के आंदोलन को भी डाॅ. साहब ही सामने ले कर आये। इस के साथ ही आजीवक धर्म का पर्सनल कानून ‘आजीवक सिविल संहिता’ भी डाॅ. साहब ने ही तैयार की। इस तरह डाॅ. धर्मवीर कम्प्लीट दलित चिंतन ले कर चलते हैं। इसलिए एकदम मजबूती के साथ पूरे अभिमान और गर्व के साथ कहा जा रहा है कि दलित कौम के पथ प्रदर्शक, दार्शनिक और चिंतक डाॅ. धर्मवीर हैं।
वक्ताओं के व्याख्यान के बाद गोष्ठी के अध्यक्ष डा. भूरेलाल जी ने बहुत ही विस्तृत और सारगर्भित वक्तव्य दिया। उन्होंने बताया कि, ‘1920 के दशक में पूरे भारत में आदि आंदोलन पांच शाखाओं में चल रहे थे। उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में अखिल भारतीय स्तर का आदि हिन्दू आंदोलन, पंजाब में आदि धर्मी आन्दोलन तथा दक्षिण में आदि आंध्रा, आदि कर्नाटका तथा आदि द्रविड़ आंदोलन।’ उन्होंने बताया कि, ‘दलितों की तरफ से चलाये जा रहे ये सभी आंदोलन धार्मिक थे। धार्मिक आंदोलन के साथ साथ इन में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे भी समाहित होते गए। इस तरह ये सम्पूर्ण दलित आंदोलन बन गए थे।’ उन्होंने बताया कि,’ आदि आंदोलन कबीर-रैदास के आंदोलन की पृष्ठभूमि में चले थे और संत आंदोलन की पृष्ठभूमि में मक्खलि गोसाल का आजीवक आंदोलन था।’ इस तरह से प्राचीन से आधुनिक काल में चले दलित आंदोलनों की एक रूपरेखा सामने आ जाती है।
यहां बताया जाय कि, इतिहास में दलितों द्वारा लगातार आंदोलन किये जाते रहे हैं। उन आंदोलनों का इतिहास महान आजीवक चिंतक डाॅ. धर्मवीर ने उजागर कर दिया है। यह भी सामने आ चुका है कि दलित आंदोलन को दबाने के लिए द्विज किस तरह प्रक्षिप्त और किवदंती रचते रहे हैं। आधुनिक काल में भी द्विजों द्वारा आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया जा रहा था। इस बारे में डाॅ. भूरेलाल जी ने बताया – ‘आदि हिन्दू आंदोलन एक व्यापक आंदोलन था। इस का विरोध कांग्रेस के कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने’ उत्तर प्रदेश स्वाधीनता संग्राम की झांकी’ किताब के माध्यम से किया था। चांद पत्रिका के मई 1927 के अछूत अंक द्वारा भी आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया गया था। श्रीधर पाठक ने अपनी एक कविता के माध्यम से आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया था। इस के अलावा लाहौर के अमीचंद शर्मा ने स्वामी अछूतानन्द के विरोध में’ श्रीवाल्मीकि प्रकाश’ नाम से एक पुस्तक लिखी थी।’
इस के अतिरिक्त, बताया जाय कि आदि हिन्दू आंदोलन के विरोध में द्विजों में जो सब से अग्रणी थे वह थे सामंत का मुंशी अर्थात प्रेमचंद। हिन्दू धर्म को सब से अधिक चुनौती स्वामी अछूतानन्द ने दी थी। इस के साथ ही स्वामी जी ने द्विजों के स्वाधीनता आंदोलन के पीछे छुपे षड्यंत्र को भी पहचाना था। चूंकि आदि आंदोलनों के पथ प्रदर्शक स्वामी अछूतानन्द जी थे इसलिए उन के विरोध में सामंत के मुंशी को उतरना पड़ा था। स्वामी जी के आंदोलन के विरोध में सामंत के मुंशी ने अपना उपन्यास ‘रंगभूमि’ लिखा था। इस उपन्यास की खोल-बांध डाॅ. धर्मवीर जी ने अपने महाग्रंथ “प्रेमचन्द की नीली आंखें” में की है।
दलित आंदोलन के विरोध में द्विज तो रहे ही हैं लेकिन दलित आंदोलन को नुकसान खुद दलितों द्वारा ही हुआ है। जी हाँ, आधुनिक काल में दलित आंदोलन के विरोध में खुद डाॅ. अम्बेडकर ही खड़े थे। इस बारे में डाॅ. भूरेलाल जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात बतायी- ‘बाबू मंगूराम डा. अम्बेडकर के धर्मांतरण के पक्ष में नहीं थे। धर्म को ले कर पंजाब में डा. अम्बेडकर ने बाबू मंगूराम से भेंट की थी। धर्मांतरण की बात पर बाबू मंगूराम जी ने डा. अम्बेडकर से कड़े शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त की थी।’
अपने व्याख्यान में डाॅ. भूरेलाल जी ने आगे बताया कि,’ आदि धर्म आंदोलन का अप्रोच बहुत मौलिक, बुनियादी और बहुत स्पष्ट था, लेकिन डा. अम्बेडकर ने इस आदि धर्मी आन्दोलन का समर्थन नहीं किया था। डा. अम्बेडकर अछूतों के इतिहास को वर्ण व्यवस्था के अंदर खोज रहे थे।’
तो, बाबू मंगूराम और डा. अम्बेडकर के आंदोलनों के अन्तर को यहाँ साफ साफ देखा जा सकता है। मंगूराम जी आदि धर्म के रूप में दलित कौम को स्वतंत्र ऐतिहासिक धर्म की तरफ ले जा रहे थे जबकि डा. अम्बेडकर धर्मांतरण के माध्यम से कौम को पराधीनता की तरफ ले जाने के पक्षधर थे। यह पूरा का पूरा विजन का अन्तर था। बाबू मंगूराम समेत आदि आंदोलन के समस्त महापुरुषों ने दलित कौम को एक स्वतंत्र कौम के रूप में देखा था। वे पूरी गहराई के साथ यह जान रहे थे कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख आदि कौमों की तरह दलित कौम भी एक पृथक ऐतिहासिक कौम है जिस का खुद धर्म है। वहीं डा. अम्बेडकर दलित कौम को अलग कौम के रूप में देख ही नहीं सके थे। वे दलित कौम का इतिहास हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के भीतर तलाश रहे थे।
अपने अध्यक्षीय व्याख्यान के अाखिर में डाॅ. भूरेलाल जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही- “यह आंदोलन (आदि धर्मी) बहुत मूल्यवान और अनिवार्य विरासत है। हमारी ऐतिहासिकता और सांस्कृतिकता की अनिवार्य कड़ी है। कोई भी कौम आगे तभी बढ़ती है जब वह अपनी ऐतिहासिक परम्परा से सम्बद्ध रहती है, घनिष्ठ रूप से जुड़ी रहती है। दुनिया के किसी महापुरुष ने धर्मांतरण की बात नहीं की है। लेकिन यह बिडम्बना की बात है कि दलित कौम के महापुरुष डा. अम्बेडकर धर्मांतरण की अवधारणा ले कर आते हैं। जिस समय द्विज लोग हिन्दू के नाम पर अपने को बहुसंख्यक बना रहे थे उस समय धर्मांतरण की अवधारणा के चलते दलित कौम विभिन्न धर्मों में जा छिन्न भिन्न हो रही थी।”
गोष्ठी का संचालन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधाथी सुभाष गौतम ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन दिनेश पाल ने किया।
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रिपोर्ट – अरुण आजीवक

 मुलायम की बहू अपर्णा यादव का योगी कनेक्शन

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मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा यादव के भाजपा में शामिल होने के बाद भाजपाई समाजवादी पार्टी को घेरने में व्यस्त हैं। तो दूसरी ओर स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी और भाजपा सांसद संघमित्रा मौर्य ने अपर्णा यादव बिष्ट पर निशाना साधते हुए सीएम योगी आदित्यनाथ से उनका कनेक्शन बता दिया है और भाजपा पर सवाल उठाया है। संघमित्रा मार्य ने अपर्णा बिष्ट यादव को योगी की चचेरी बहन बताया है। एक फेसबुक पोस्ट के जरिए विरोधियों को करारा जवाब देते हुए संघमित्रा मौर्य ने भाजपा समर्थकों पर सवाल उठाते हुए लिखा है-

संस्कार शब्द अच्छा है लेकिन संस्कार है किसके अंदर हफ्ते भर पहले एक बेटी का पिता पार्टी बदलता है तो  पुत्री पर वार हो रहा था, आज वही एक बहू अपने चचेरे भाई (योगी जी) के साथ एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आती है तो स्वागत । क्या इसको भी वर्ग से जोड़ा जाना चाहिए कि बेटी  (मौर्य)  पिछड़े वर्ग की है और बहू (विष्ट) अगड़े वर्ग से है।

क्या बहन-बेटी की भी जाति और धर्म होता है ?

अगड़ा भाजपा में आता है तो राष्ट्रवादी और वो वोट भाजपा को करेगा या नही इसपे सवाल खड़ा करना तो दूर सोचा भी नही जाता, लेकिन पार्टी में रहने वाला राष्ट्रद्रोही, उसके वोट पे सवाल खड़े हो रहे ऐसा क्यों ? कृप्या सलाह न दे मैं कहाँ जाऊ क्या करूँ , मैं जहाँ हूं ठीक हूं।

दरअसल स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने के बाद उनकी बेटी और भाजपा सांसद संघमित्रा मौर्य मनुवादियों के निशाने पर हैं। संघमित्रा के  भाजपा में बने रहने के बावजूद उनके खिलाफ तंज कसे जा रहे हैं और उन्हें नसीहतें दी जा रही है। तो पलटवार करते हुए संघमित्रा मौर्य ने न सिर्फ सीएम योगी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, बल्कि विरोधियों को जमकर फटकार लगाई है और भाजपा पर सवाल उठाया है।

नारायण गुरू से डरी सरकार, केरल की झांकी को मंजूरी नहीं

हर साल गणतंत्र दिवस के मौके पर 26 जनवरी को राजपथ पर झांकी निकालने की परंपरा रही है। इस बार भी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 12 और संवैधानिक संस्थानों की नौ झांकियां यानी कुल 21 झाकियां 26 जनवरी को राजपथ पर दिखेंगी। इस बार की थीम आजादी का अमृत महोत्सव है। लेकिन इस बार केरल, तामिलनाडु और पश्चिम बंगाल की झांकियों को जगह नहीं मिलने से हंगामा मचा है। खासकर केरल की झांकी को जगह नहीं मिलने से विवाद बढ़ गया है। केरल की झांकी महान समाज सुधारक नारायण गुरु पर आधारित थी। लेकिन रक्षा मंत्रालय ने मंजूरी नहीं दी है। इस खबर में बात केरल की झांकी की, नारायणा गुरू की।

केरल सरकार ने समाज सुधारक श्री नारायण गुरु और जटायु पार्क स्मारक की झांकी के लिए प्रस्ताव दिया था, लेकिन रक्षा मंत्रालय इसे आदि शंकराचार्य में बदलने पर जोर दे रही थी। केरल सरकार द्वारा ऐसा नहीं करने पर केरल की झांकी को गणतंत्र दिवस की परेड से खारिज कर दिया गया।

सवाल है कि आखिर रक्षा मंत्रालय को नारायण गुरू की झांकी से क्या दिक्कत थी? दरअसल सरकार नारायण गुरू से डर गई। क्योंकि नारायण गुरु ने अपने जीवन में जो बातें की और उससे केरल में जो क्रांति हुई, उस क्रांति के कारण केरल में आज तक हिन्दुत्व वादी ताकतें अपनी जड़ नहीं जमा सकी है।

नारायणा गुरू का जन्म केरल के तिरुअनतपुर के एक गांव में 22 अगस्त 1856 को हुआ था। बचपन से ही वह जातिवाद का विरोध करते थे। तब दलितों-शोषितों के मंदिर में जाने का अधिकार नहीं था। इसके विरोध में उन्होंने दक्षिण केरल में नैयर नदी के किनारे मंदिर बनाया जिसे अरुविप्पुरम के नाम से जाना जाता है। इसका काफी विरोध हुआ और ब्राह्मणों ने इसे महापाप करार दिया था। तब नारायण गुरु ने कहा था कि ईश्वर सबमें है। शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने काफी सुधार किया। पहले इन वर्गों के बच्चों पर सामान्य स्कूलों में पढ़ने पर प्रतिबंध था। नारायण गुरु के प्रयासों से आजादी से पहले ही यह प्रतिबंध हट गया।

कुल मिलाकर नारायणा गुरु ने केरल में या फिर पेरियार ने तामिलनाडु में जो क्रांति की, उसी का प्रभाव है कि आज भी दक्षिण भारत का दलित-शोषित वर्ग तमाम कर्मकांडों से दूर है।

बिहार में न्याय को तरस रहे हैं दलित, मजाक बना एससी-एसटी एक्ट

बिहार में दलितों के खिलाफ लगातार बढ़ रहे अत्याचार के मामले बेहद चिंताजनक हैं। लेकिन उससे बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे मामलों में एससी-एसटी एक्ट होने के बावजूद उनको न्याय नहीं मिल पा रहा है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते 23 दिसंबर को एससी-एसटी अधिनियम मामलों की समीक्षा बैठक की थी। इस बैठक में एससी-एसटी के ऊपर अत्याचार के मामलों और न्याय मिलने को लेकर जो आंकड़े सामने आए हैं, वो चौंकाने वाले हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस समीक्षा बैठक से पता चला है कि

  • वर्तमान में राज्य में एससी-एसटी अधिनियम से जुड़े कुल मामलों की संख्या 1,06,893 है
  • इनमें से 44,986 मामलों में न्याय नहीं मिला है
  • बीते 10 सालों में 44,150 मामलों में से सिर्फ 872 मामलों में ही फैसला

 बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक एससी-एसटी अधिनियम के तहत सबसे अधिक

  • एससी-एसटी एक्ट में 2020 में 7,574, 2018 में 7,125 और 2017 में 6,826 मामले दर्ज

https://www.youtube.com/watch?v=Cx-T-GqaLxY  

नहीं मिल पा रहा है न्याय

रिपोर्ट के मुताबिक उत्पीड़न की घटनाओं में न्याय नहीं मिल पाने की वजह मामलों की संख्या ज्यादा होने का हवाला दिया जा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि मामलों का निपटारा होने पर पीड़ितों को मुआवजा देना पड़ेगा, जिसकी वजह से भी न्याय मिलना दुभर होता जा रहा है। दरअसल हत्या के मामले में पीड़ित परिवारों को 8.5 लाख रुपये का मुआवजा मिलने का प्रावधान है।

 ऐसे मुआवजे के मामले में

  • 8,108 मामलों में अब तक सिर्फ 2,876 मामलों का ही निपटारा किया गया है और 5,232 मामले लंबित हैं।

इसका कारण फंड का नहीं होना बताया जा रहा है।

क्या कहते हैं नियम

 इन आंकड़ों के सामने आने के बाद बिहार में दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थिति की तस्वीर सामने आ जाती है। तो बिहार की सत्ता पर लंबे समय से बैठे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी दलितों को न्याय दिलाने के बारे में रवैया सवालों के घेरे में है। क्योंकि नियम के अनुसार एससी-एसटी की स्थिति पर हर छह महीने में समीक्षा बैठक होनी चाहिए जो आमतौर पर नहीं हुई। 4 सितंबर 2020 को समीक्षा बैठक के बाद मुख्यमंत्री की भी नजर इसपर पंद्रह महीने बाद गई और 23 दिसंबर 2021 को एससी-एसटी अधिनियम मामलों की समीक्षा बैठक हुई। इससे साफ है कि बिहार की सरकार, प्रशासन और आय़ोग दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार रोकने और उनको न्याय दिलाने के लिए गंभीर नहीं है।

http://योगी के गढ़ में चंद्रशेखर: टक्कर की लड़ाई या मीडिया स्टंट |Yogi Vs Chandrashekhar in GKP| Dalit Dastak

दरकने लगा भाजपा का अति पिछड़ा समीकरण

 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 से पहले बीजेपी को झटके पर झटके लग रहे हैं। एक के बाद एक करीब सात विधायक बीजेपी का दामन छोड़ चुके हैं। इसमें स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे कद्दावर नेता भी शामिल हैं, जो मंत्री पद से इस्तीफा दे चुके हैं। मौर्य के 14 जनवरी को समाजवादी पार्टी में शामिल होने की खबर है। तो दारा सिंह चौहान भी सपा का दामन थामने को तैयार हैं। आइए जानते हैं अब तक कितने विधायक बीजेपी छोड़ चुके हैं.

बीजेपी से इस्तीफा देने वाले विधायकों में कई अहम नाम हैं। इसमें पहला नाम है-

  1. रोशन लाल वर्मा
  • रोशन लाल वर्मा शाहजहांपुर के तिलहर से विधायक हैं
  • वह लोधी समाज से आते हैं
  • लगातार तीन बार विधायक रह चुके हैं
  • 12 सितम्बर 2016 को बीएसपी से बीजेपी में आए थे।
  1. बृजेश प्रजापति
  • बांदा जिले की तिंदवारी से विधायक है
  • 2017 में पहली बार विधायक बने
  • कुम्हार समाज से आते हैं
  • स्वामी मौर्या के करीबी हैं, बसपा सरकार में पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रह चुके हैं।
  • 2016 में ही मौर्य के बीजेपी में आने के बाद बसपा से बीजेपी में आए थे
  1.  भगवती प्रसाद सागर
  • कानपुर के बिल्हौर से विधायक हैं
  • पूर्व मंत्री हैं और 4 बार के विधायक हैं
  • अनुसूचित जाति में धोबी समाज से आते हैं
  • झांसी जिले से भी विधायक रह चुके हैं
  • 2016 में ही मौर्य के बीजेपी में आने के बाद बसपा से बीजेपी में आए थे.
  1. अवतार सिंह भड़ाना
  • पश्चिमी यूपी के मीरापुर से विधायक हैं
  • मेरठ और फरीदाबाद से सांसद रह चुके हैं
  • गुर्जर समुदाय के बड़े नेता माने जाते हैं
  • भड़ाना ने पिछले साल किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए बीजेपी छोड़ने का ऐलान कर दिया था
  1. माधुरी वर्मा
  • बहराइच जिले की नानपारा विधानसभा सीट से विधायक हैं
  • माधुरी 2 बार विधायक रह चुकी हैं
  • 2012 में कांग्रेस के टिकट पर नानपारा सीट से विधानसभा सदस्य निर्वाचित हुईं थीं
  • 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा
  1. अशोक कुमार वर्मा
  • अनुसूचित मोर्चा के प्रदेश महामंत्री रह चुके हैं। दलित समाज से आते हैं।
  1. दारा सिंह चौहान
  • इस्तीफा देने से पहले दारा सिंह चौहान हालिया योगी सरकार में उत्तर प्रदेश सरकार में वन्‍य एवं पर्यावरण मंत्री रह चुके हैं।
  • भाजपा में जाने से पहले वह बहुजन समाज पार्टी में थे। वह भी ओबीसी समाज से आते हैं। इसके अलावा 13 जनवरी को मंत्री धर्म सिंह सैनी, शिकोहाबाद से विधायक मुकेश वर्मा और औरया के बिधूना विधायक विनय शाक्य ने भाजपा से इस्तीफा दे दिया है।

हालांकि राजनीतिक गलियारों में कई और ओबीसी नेताओं के भाजपा छोड़ने के कयास लगाए जा रहे हैं। जिससे भाजपा को काफी नुकसान झेलना पड़ सकता है। ओबीसी नेताओं के लगातार पार्टी छोड़ने से भाजपा इसलिए घबराई है क्योंकि प्रदेश में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या 43 से 45 प्रतिशत के करीब है। साल 2017 में भाजपा ने ओबीसी समाज को 125 सीट दिया था। इसी के बलबूते भाजपा ने चुनाव जीता था। स्वामी प्रसाद मौर्या का भाजपा छोड़ना इसलिए बड़ा झटका है क्योंकि वह कोइरी-कुशवाहा समाज से आते हैं। कोइरी कुशवाहा समाज का वोट प्रतिशत 5 प्रतिशत है, जिन पर स्वामी प्रसाद मौर्या की मजबूत पकड़ है। तो बाकी नेताओं की भी अपने-अपने वर्ग में पैठ है। ऐसे में भाजपा को इन वोटों से हाथ धोना पड़ सकता है, जो भाजपा के लिए चिंता का सबब बना हुआ है।

स्वामी प्रसाद मौर्या ने भाजपा को हिला दिया है

 उत्तर प्रदेश में चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, सत्ता की लड़ाई तेज होती जा रही है। और इस राजनैतिक लड़ाई में भाजपा की हवा टाईट होती जा रही है। 11 जनवरी को मंत्री पद और भाजपा से इस्तीफा देकर स्वामी प्रसाद मौर्या ने एक ऐसा धमाका कर दिया है, जिसकी गूंज एक दिन बाद तक सुनाई दे रही है।

मौर्या अपने साथ चार अन्य विधायकों को भी सपा में ले गए हैं, जिसमें दो मंत्री हैं। तो वहीं उनके इस दावे के बाद कि कतार में कई और भी विधायक हैं, भाजपा घबराई हुई है। भाजपा इतनी घबराई है कि एक ओर उसके नेता सिद्धार्थ सिंह कह रहे हैं कि पार्टी को कोई फर्क नहीं पड़ता तो दूसरी ओर अंदरखाने भाजपा मौर्य से वापसी की मिन्नते कर रही है। क्योंकि मौर्य जिस केईरी कुशवाहा समाज से ताल्लुक रखते हैं, प्रदेश में उसका वोट 5 प्रतिशत है। तो दारा सिंह चौहान भी अपने समाज में पैठ रखते हैं। दरअसल स्वामी प्रसाद मौर्य के इस झटके से यूपी की सियासत बदलने लगी है और भाजपा जिस ओबीसी के बूते पिछले पांच साल से उत्तर प्रदेश में और तकरीबन आठ साल से केंद्र में राज कर रही है, उसका यह किला दरकने लगा है। एक के बाद एक जैसे-जैसे भाजपा से ओबीसी नेता बाहर आते जा रहे हैं, उससे भाजपा अपनी पुरानी छवि ब्राह्मण-बनिया पार्टी के रूप में एक बार फिर से स्थापित होती जा रही है।

भाजपा इससे इतना घबरा गई है कि वह पार्टी में बचे ओबीसी नेताओं को हर कीमत पर साधने में जुटी है। और जब मामला सीएम योगी और यूपी के नेताओं से नहीं संभल रहा है तो खुद भाजपा के नंबर दो नेता अमित शाह सामने आ गए हैं। और जिन ओबीसी नेताओं के भाजपा छोड़ने की अटकलें हैं, उनको दिल्ली बुलाकर समझाने या ऐसा कहें कि मैनेज करने की कोशिश की जा रही है। हालांकि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को तब झटका लगा जब दारा सिंह चौहान ने केंद्रीय मंत्रीमंडल से इस्तीफा दे दिया।

भाजपा की घबराहट की एक बड़ी वजह यह भी है कि भाजपा छोड़ने वाले तमाम ओबीसी नेता समाजवादी पार्टी में जा रहे हैं जिससे एक ओर जहां भाजपा का जनाधार खिसकता जा रहा है तो सपा का जनाधार बढ़ता जा रहा है। 10 फरवरी को चुनाव के पहले चरण की वोटिंग से पहले उत्तर प्रदेश की राजनीति में अभी काफी हचलच बाकी है।

पंजाबः CM की रेस में चरणजीत सिंह चन्नी सबसे आगे

 पंजाब में 14 फरवरी को विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में सभी राजनीतिक पार्टियां जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही हैं। तो वहीं पंजाब के मतदाताओं ने भी तय कर लिया है कि वो पंजाब का ताज किसको देने वाले हैं। इस बीच एबीपी न्यूज़ ने पांचों चुनावी राज्यों को लेकर सर्वे किया है। एबीपी न्यूज के इस सीवोटर सर्वे में पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी सबको पछाड़ कर लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं। सर्वे के मुताबिक मुख्यमंत्री पद को लेकर चरणजीत चन्नी के सामने न तो सिद्धू, न ही अमरिंदर सिंह और न ही कोई दूसरा टक्कर में है।

सर्वे के मुताबिक पंजाब में पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह को सिर्फ 6 फीसदी लोग सीएम के तौर पर पसंद कर रहे हैं। पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल को 15 फीसदी पसंद करते है तो वहीं आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को 17 फीसदी और नवजोत सिंह सिद्दू को 6 फीसदी लोग सीएम के रूप में देखना चाहते हैं। भगवंत मान इन सबसे आगे हैं और उन्हें 23 फीसदी जनता सीएम के तौर देखना चाहती है। लेकिन जब बात आई चरणजीत सिंह चन्नी की तो सी-वोटर सर्वे में उन्हें सबसे ज्यादा 29 फीसदी लोग सीएम के तौर पर दुबारा पंजाब में देखना चाहते हैं।

 पंजाब में साल 2017 में हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने कुल 117 सीटों में से 77 सीटें जीतकर अपनी सरकार बनाई थी। इसके बाद 20 सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी। अकाली दल ने विधानसभा की 15 सीटें जीती थी। जबकि बीजेपी महज 3 सीटें पर ही सीमट गई थी। तो अन्य के खाते में 2 सीटें आई थी।

2022 चुनाव की बात करें तो एबीपी के इस सी-वोटर सर्वे के मुताबिक पंजाब के कई हिस्सों में कांग्रेस पार्टी आज भी अपनी पैठ बनाए हुए है। तो सीएम के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी लोगों की पसंद है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि सीएम चन्नी दोबारा सीएम की कुर्सी पर बैठ सकते हैं।

यूपी-पंजाब में गली-गली चुनावी चर्चा शुरू

 चुनाव की घोषणा होने के साथ ही अब यूपी और पंजाब में गली-गली में चुनावी चर्चा शुरू हो गई है। हर ओर यही कयास चल रहे हैं कि 2022 में प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी। पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, लेकिन सभी की निगाहे यूपी और पंजाब पर है।

चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। चुनाव आयोग की घोषणा के मुताबिक चुनाव कुल 7 चरणों में होने हैं। इन सभी राज्यों के चुनावों के रिजल्ट 10 मार्च को आएंगे। हालांकि इस बीच सबकी नजर उत्तर प्रदेश पर हैं जहां सभी 7 चरणों मे चुनाव है। पहले चरण का चुनाव 10 फरवरी को होगा, जबकि आखिरी 7वें चरण का चुनाव 7 मार्च को होगा। नतीजे 10 मार्च को आने हैं।

*पहले चरण में उत्तर प्रदेश के 11 जिलों के 58 विधान सभा सीटों पर चुनाव होंगे… दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश के 9 जिलों के 55 विधान सभा सीटों पर चुनाव होंगे, तीसरे चरण में 16 जिलों के 59 सीटों पर, चौथे फेज में 9 जिलों के 60, पांचवे फेज में 11 जिलों के 60 सीटों पर चुनाव होने हैं, तो वहीं छठें चरण के 10 जिलों और सातवें चरण के 9 जिलों में क्रमश: 57 और 54 विधान सभा सीटों पर चुनाव होने हैं।

पहला चरण (10 फरवरी)- शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, हापुड़, नोएडा, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा और आगरा।

दूसरा चरण (14 फरवरी)– सहारनपुर, बिजनौर, अमरोहा, मुरादाबाद, रामपुर, संभल, बदायूं, बरेली, शाहजहांपुर है।

तीसरा चरण (20 फरवरी)- कासगंज, हाथरस, एटा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, फर्रूखाबाद, कन्नौज, इटावा, औरैया, कानपुर देहात, कानपुर नगर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, झांसी, ललितपुर है यहां चुनाव 20 फरवरी को होंगे।

चौथै चरण (23 फरवरी)- पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, सीतापुर, हरदोई, उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली, फतेहपुर, बांदा जिला शामिल है।

पांचवा चरण (27 फरवरी)- बहराइच, श्रावस्ती, बाराबंकी, गोण्डा, अयोध्या, अमेठी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, कौशाम्बी, चित्रकूट, प्रयागराज

छठा चरण (3 मार्च)- बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महराजगंज, बस्ती, संतकबीर नगर, गोरखपुर, कुशीनगर, अम्बेडकरनगर, देवरिया, बलिया जिले शामिल है।

सातवां चरण (7 मार्च)- जौनपुर, आजमगढ़, मऊ, वाराणसी, गाजीपुर, संत रविदासनगर, मिर्जापुर, चंदौली, सोनभद्र हैं।

पंजाब में 14 फरवरी को एक ही चरण में सभी सीटों पर चुनाव होंगे।

 सरदार चन्नी के इस दांव से पीएम मोदी चित्त

 पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में चूक के मामले में सियासत चरम पर है। चुनावी समर में बीजेपी और कांग्रेस इस मामले में भिड़े हुए हैं। इस बीच सूबे के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने इस मामले में बयान देकर और ट्वीट कर इस पूरे विवाद को खूब हवा दे दी है। और प्रधानमंत्री मोदी को जमकर घेरा है।

दरअसल पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में चूक के मामले में पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया गया है। ऐसे में सीएम चन्नी ने इस मामले में अपनी सफाई दी है। लेकिन साथ ही मुख्यमंत्री चन्नी ने अपने एक ट्वीट में सरदार पटेल को कोट करते हुए इस मामले में पीएम मोदी का नाम लिए बिना उनपर जो तंज कसा है, उससे भाजपा तिलमिला गई है। सीएम चन्नी ने सरदार पटेल को कोट करते हुए ट्विट किया, जिसे कर्त्तव्य से ज़्यादा जान की फ़िक्र हो, उसे भारत जैसे देश में बड़ी जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।’

इससे पहले सीएम चन्नी ने गुरुवार को पंजाब के टांडा में रैली के दौरान भी इस मामले में पीएम को घेरते नजर आएं। चन्नी ने भाजपा और पीएम मोदी पर पलटवार करते हुए कहा- पूरे देश में झूठ फैलाया जा रहा है कि पीएम की सुरक्षा में चूक हुई थी। क्या किसी ने पत्थर मार दिया। कोई खरोंच आई। कोई गोली लगी याकिसी ने खिलाफ में नारे लगाए… जो पूरे देश में ये फैलाया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की जान को खतरा हो गया।”

पीएम मोदी की सुरक्षा का मामला जोर पकड़ने के बाद सीएम चन्नी का प्रदर्शनकारियों के साथ व्यवहार की भी खूब चर्चा हो रही है। एक सभा में जाने के दौरान प्रदर्शनकारियों ने सीएम के काफिले को रोक लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री ने अपने ड्राइवर से गाड़ी धीमी करने को कहा और उतरकर रास्ता रोकने वालों को उनकी समस्याएं सुलझाने का आश्वासन दिया। इस दौरान आजतक के रिपोर्टर मुख्यमंत्री के साथ थे।

इसपर सीएम चरणजीत सिंह चन्नी ने आज तक से कहा, ”ये प्रदर्शनकारी मुझे रोकने आए थे, क्या मैं इन्हें मार दूं?” उन्होंने कहा, दस लोग मेरी कार रोकने आए। पुलिस ने काफिले को घेर लिया। जबकि पीएम मोदी की कार को तो रोका भी नहीं गया। उनका काफिला प्रदर्शनकारियों से एक किलोमीटर दूर था। पंजाब के मुख्यमंत्री ने कहा, प्रदर्शन करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है। प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि पंजाब विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आचार संहिता लागू होने से पहले उनकी मांगों को पूरा किया जाए। यही कारण है कि वे इस सड़क पर प्रदर्शन कर रहे हैं।

यानी पंजाब के फिरोजपुर में प्रधानमंत्री मोदी की जान को खतरा बताकर जिस तरह भाजपा… कांग्रेस और सीएम चन्नी को घेरने की कोशिश कर रही है, सीएम चन्नी के हालिया बयान से साफ है कि वो दबने वाले नहीं हैं। यहां तक की सीएम चन्नी ने जिस तरह पीएम मोदी को एक्सपोज किया है, उससे मोदी और भाजपा खुद बैकफुट पर आ गए हैं।

जयंती विशेषः भदन्त आनन्द कौसल्यायन, जिन्होंने बाबासाहेब से पूछा था- आपको कौन से बुद्ध पसंद हैं

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“जब मैं मर जाउंगा तो मेरी कब्र पर लिख देना कि डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का यह चीवरधारी सेनानी बाबासाहेब के सपनों का भारत बनाने की जंग में लड़ते-लड़ते शहीद हो गया।” यह कथन भदन्त आनंद कौसल्यायन का है।
आधुनिक भारत को बौद्ध साहित्य विशेषकर पालि साहित्य से परिचित करवाने वाले विद्वानों में रत्नत्रय भदन्त आनन्द कौसल्यायन, भिक्खु जगदीस कस्सप और राहुल सांकृत्यायन का बहुमूल्य योगदान है। उन्हीं रत्नत्रय में 5 जनवरी, 1905 को भदन्त आनन्द कौसल्यायन का जन्म अविभाजित पंजाब के अम्बाला जिले के ‘सोहना’ नामक गाँव में हुआ था। बाल्यकाल में परिवार के लोग इन्हें ‘हरिनाम दास’ नाम से पुकारते थे, बाद में श्रीलंका में उपसंपदा हो जाने पर उन्हें भदन्त आनन्द कौसल्यायन नाम मिला।
स्वतंत्र वैचारिकी से पुष्पित बाल मन सामाजिक बन्धनों और विभिन्न कुरीतियों को स्वीकार करने की अपेक्षा उन्हें दूर करने के लिए आगे बढ़ना चाहता था और यही वजह थी कि 21 वर्ष की उम्र में गृहत्याग करते हुए वे जनसामान्य के उद्धार के लिए घर से निकल गए। भदन्त आनन्द कौसल्यायन बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ थे। उन्होंने आधुनिक भारतीयों को हिंदी भाषा के माध्यम से पालि साहित्य से परिचित कराने के लिए पालि व्याकरण, पिटक साहित्य, अनुपिटक साहित्य इत्यादि का हिंदी अनुवाद किया तथा स्वतन्त्र ग्रन्थों का लेखन व सम्पादन भी किया। बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के “बुद्ध एन्ड हिज धम्मा” का हिंदी अनुवाद भी किया। थेरवाद परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भिक्खु धर्म का आजीवन पालन किया तथा प्रेरणा स्रोत रहें।
एक बड़ा ही सुंदर परिदृश्य इतिहास में से निकलकर आपसे रूबरू होना चाहता है। एक बार बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर से भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने पूछा, “बाबासाहेब आपको तथागत भगवान बुद्ध की कौनसी मुद्रा पसंद है?” “मुझे चलते हुए बुद्ध पसंद हैं।” बाबासाहेब ने यह कहा। “लेकिन बाबासाहेब भगवान बुद्ध की ऐसी तो कोई मुद्रा है ही नहीं। भगवान बुद्ध की तो दस मुद्राएं ही हैं। (1. धम्मचक्क मुद्रा, 2. ध्यान मुद्रा, 3. भूमिस्पर्श मुद्रा, 4. वरद मुद्रा, 5.करण मुद्रा, 6). वज्र मुद्रा, 7. वितर्क मुद्रा, 8. अभय मुद्रा, 9. उत्तरबोधि मुद्रा और 10. अंजलि मुद्रा)” भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने आश्चर्य व्यक्त किया।
तब बाबासाहेब ने विनयपिटक के महावग्ग के धम्मचक्कपबत्तनसुत्त को उद्धृत करते हुए भदन्त आनंद कौसल्यायन को कहा कि भगवान बुद्ध का प्रथम उपदेश है, “चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं। देसेथ भिक्खवे धम्मं आदिकल्याण मज्झे कल्याणं परियोसान कल्याणं सात्थं सव्यंजनं केवल परिपुन्नं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेथ।” अर्थात भिक्खुओं, बहुजन सुख के लिये, बहुजन हित के लिये, लोगों को सुख पहुँचाने के लिये निरन्तर भ्रमण करते रहो। आदि में, मध्य में और अन्त में सभी अवस्थाओं के लिये कल्याणमय धम्म का भाव और आचरण प्रकाशित करते रहो।
बाबासाहेब अम्बेडकर ने उनसे कहा कि जिन करुणा सागर सम्यक सम्बुद्ध ने मनुष्यों के कल्याण के लिए बिना रुके, बिना थके निरंतर पैदल चलते हुए दुःख मुक्ति की देशनाएँ दी हों, तो मुझे ऐसे ही कारुणिक चलते हुए भगवान बुद्ध पसन्द हैं। यही कारण है कि वर्तमान भारत में सम्यक सम्बुद्ध की दस मुद्राओं के साथ – साथ चलते हुए बुद्ध की मुद्रा भी लोकप्रिय है। बाबासाहेब अम्बेडकर के प्रति अपना स्नेह अभिव्यक्त करते हुए अपने एक वक्तव्य में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कहा था कि दुनिया में सबसे सुखी जीवन बौद्ध भिक्खु का होता है। जब मैं मर जाउंगा तो मेरी कब्र पर लिख देना कि डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर का यह चीवरधारी सेनानी बाबासाहेब के सपनों का भारत बनाने की जंग में लड़ते – लड़ते शहीद हो गया।
22 जून 1988 को भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी का नागपुर में परिनिर्वाण हुआ। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ने उनके योगदान को रेखांकित करते हुए अपने बौद्ध अध्ययन विभाग का नाम उनके नाम पर रखा  है।

अपनी नाकामी छुपाने के लिए दलित सीएम के पीछे पड़े मोदी

 प्रधानमंत्री पंजाब के फिरोजपुर में चुनावी रैली नहीं कर सकें। मोदी को मौसम, किसानों के विरोध और खाली कुर्सियों के कारण वापस लौटना पड़ा। लेकिन आपदा को अवसर बनाने में माहिर भाजपा ने इस पूरे मामले को भाजपा बनाम कांग्रेस बना दिया। और जो चुनावी रैली में न कर सके उसे सड़क पर कर दिखाया। जब भाजपा ने हुंकार भरी तो गोदी मीडिया ने भी अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ा और सरकार के साथ दलित समाज के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

इस बीच बठिंडा एयरपोर्ट पर प्रधानमंत्री मोदी ने पंजाब के अधिकारियों से यह कहकर मामले को राजनीतिक रंग दे दिया कि ‘अपने सीएम को शुक्रिया कहना की मैं वापस जिंदा लौट आया’। मोदी के इस इशारे के बाद केंद्र सरकार के तमाम मंत्रियों, सांसदों ने पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ मोर्चो खोल दिया। यहां तक की कांग्रेस के नेता भी सीएम चन्नी के पीछे पर गए। और तमाम नेताओं और मंत्रियों ने सीएम चन्नी के इस्तीफे की मांग कर दी है।

स्मृति इरानी ने बड़बोले पन में यहां तक कह दिया कि कांग्रेस मोदी से नफरत करती है। जबकि कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा ने सीएम का इस्तीफा मांग डाला। चारो ओर से घिरे पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने पीएम मोदी की सुरक्षा चूक की खबरों का खंडन किया है। सीएम चन्नी का कहना है कि उन्होंने खुद सारे इंतजाम देखे थे। पीएम को हेलीकॉप्टर से आना था, लेकिन अंतिम समय में उनका रूट बदल दिया गया और वे सड़क से आएं। हालांकि कांग्रेस और सरकार के बीच इस मुद्दे को लेकर जुबानी जंग जारी है। गृह मंत्रालय ने इसे बड़ी चूक मांगते हुए पंजाब सरकार से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। जबकि कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने सीएम चन्नी का बचाव करते हुए साफ किया है कि- पीएम की सुरक्षा में 10 हजार जवान तैनात थे। पीएम को हेलीकॉप्टनर से आना था, लेकिन ऐन वक्त पर उन्होंने सड़क मार्ग को चुना, जिसकी जानकारी सरकार को नहीं थी।

दरअसल पीएम मोदी को पंजाब के फिरोजपुर में रैली में जाना था। लेकिन खराब मौसम की वजह से पीएम को हेलीकॉप्टर की जगह सड़क मार्ग से जाना पड़ा, इस दौरान फ्लाईओवर पर पहले से प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों के कारण पीएम को 15 से 20 मिनट तक फ्लाईओवर पर रुकना पड़ा। इसी को लेकर भाजपा ने हंगामा खड़ा कर दिया है। कहा जा रहा है कि रैली न कर पाने और किसानों के विरोध की खबर को दबाने के लिए भाजपा ने पूरे मामले को दूसरा रंग दे दिया है।

बिहार में SC-ST एक्ट का बुरा हाल, नहीं मिल रहा न्याय

बिहार में दलितों के खिलाफ लगातार बढ़ रहे अत्याचार के मामले बेहद चिंताजनक हैं। लेकिन उससे बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे मामलों में एससी-एसटी एक्ट होने के बावजूद उनको न्याय नहीं मिल पा रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते 23 दिसंबर को एससी-एसटी अधिनियम मामलों की समीक्षा बैठक की थी। इस बैठक में एससी-एसटी के ऊपर अत्याचार के मामलों और न्याय मिलने को लेकर जो आंकड़े सामने आए हैं, वो चौंकाने वाले हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस समीक्षा बैठक से पता चला है कि वर्तमान में राज्य में एससी-एसटी अधिनियम से जुड़े कुल मामलों की संख्या 1,06,893 है। इनमें से तकरीबन आधे 44,986 मामलों में न्याय नहीं मिला है। बीते 10 सालों यानी जनवरी 2011 से नवंबर 2021 के बीच दर्ज 44,150 मामलों में से सिर्फ 872 मामलों में ही फैसला सुनाया गया है।

 बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक एससी-एसटी अधिनियम के तहत सबसे अधिक 7,574 मामले 2020 में दर्ज किए गए। इससे पहले 2018 में यह संख्या 7,125 और 2017 में 6,826 थी।

नहीं मिल पा रहा है न्याय

रिपोर्ट के मुताबिक उत्पीड़न की घटनाओं में न्याय नहीं मिल पाने की वजह मामलों की संख्या ज्यादा होने का हवाला दिया जा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि मामलों का निपटारा होने पर पीड़ितों को मुआवजा देना पड़ेगा, जिसकी वजह से भी न्याय मिलना दुभर होता जा रहा है। दरअसल हत्या के मामले में पीड़ित परिवारों को 8.5 लाख रुपये का मुआवजा मिलने का प्रावधान है।

 ऐसे मुआवजे के मामले में 8,108 मामलों में अब तक सिर्फ 2,876 मामलों का ही निपटारा किया गया है और 5,232 मामले लंबित हैं। इसका कारण फंड का नहीं होना बताया जा रहा है।

क्या कहते हैं नियम

 इन आंकड़ों के सामने आने के बाद बिहार में दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थिति की तस्वीर सामने आ जाती है। तो बिहार की सत्ता पर लंबे समय से बैठे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी दलितों को न्याय दिलाने के बारे में रवैया सवालों के घेरे में है। क्योंकि नियम के अनुसार एससी-एसटी की स्थिति पर हर छह महीने में समीक्षा बैठक होनी चाहिए जो आमतौर पर नहीं हुई। 4 सितंबर 2020 को समीक्षा बैठक के बाद मुख्यमंत्री की भी नजर इसपर पंद्रह महीने बाद गई और 23 दिसंबर 2021 को एससी-एसटी अधिनियम मामलों की समीक्षा बैठक हुई। इससे साफ है कि बिहार की सरकार, प्रशासन और आय़ोग दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार रोकने और उनको न्याय दिलाने के लिए गंभीर नहीं है।

पंजाब में पीएम मोदी की भारी बेइज्जती, किसानों ने नहीं होने दी रैली

 कृषि कानूनों पर मोदी से लेकर भारत सरकार को हराने और अपनी मांग मंगवाने के बाद किसानों ने एक बार फिर भाजपा और पीएम मोदी को झटका दे दिया है। 5 जनवरी को पंजाब के फिरोजपुर दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को किसानों ने रैली नहीं करने दी और पीएम को अपना कार्यक्रम रद्द कर वापस लौटना पड़ा। हालांकि अपनी इज्जत बचाने के लिए केंद्र सरकार इसके पीछे सुरक्षा कारणों का हवाला दे रही है, लेकिन स्थानीय रिपोर्ट के मुताबिक खाली कुर्सियों और किसानों के विरोध के कारण पीएम को अपना दौरा रद्द करना पड़ा। पीएम मोदी अपनी इस रैली से पंजाब चुनाव की शुरुआत करने वाले थे। इस दौरान वह फिरोजपुर में वह 42750 करोड़ रुपये की विकास योजनाओं की घोषणा करने वाले थे। इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी सुबह बठिंडा पहुंचे थे। उन्हें वहां से हेलिकॉप्टर से हुसैनीवाला में राष्ट्रीय शहीद स्मारक जाना था। आसमान साफ नहीं था तो पीएम मोदी का सड़क मार्ग से जाना तय हुआ। लेकिन किसानों के प्रदर्शन के चलते पीएम मोदी को वापस लौटना पड़ा। हालांकि अब इस पूरे मामले को गृह मंत्रालय और भाजपा सुरक्षा की चूक मानकर पंजाब सरकार पर सारा ठिकरा फोड़ रही है।
लेकिन सच यह है कि किसान संगठनों ने पहले ही रैली का विरोध करने का ऐलान कर रखा था। किसान एमएसपी गारंटी कानून बनाने और प्रदूषण एक्ट में से किसानों को निकालने की मांग कर रहे थे। पीएम मोदी की इस रैली का विरोध सड़क से लेकर सोशल मीडिया पर तक देखने को मिला। सोशल मीडिया के पेज ट्रैक्टर टू ट्विटर पर बच्चे से लेकर नौजवान और बुजुर्ग भी मोदी की रैली का विरोध करते दिखे। देखते-देखते ट्विटर पर गो बैक मोदी टॉप ट्रेंड करने लगा। यहां लोगों का इस बात को लेकर गुस्सा था कि कृषि कानून के खिलाफ संघर्ष के दौरान 700 किसानों की शहादत होने के बाद प्रधानमंत्री ने कानून वापस लिया। अब भी किसानों की कई मांगें नहीं मानी गई हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री का पंजाब में स्वागत का सवाल ही नहीं है।
यानी कि जिस तरह पीएम मोदी और भाजपा यह मान रहे थे कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद किसानों का गुस्सा शांत हो जाएगा, वैसा होता नहीं दिख रहा है। पीएम मोदी का विरोध कर पंजाब के किसानों ने साफ कर दिया है कि वह फिलहाल भाजपा और पीएम मोदी को पंजाब में घुसने देने के मूड में नहीं हैं।

क्या है सोशल मीडिया पर हंगामा मचाने वाला बुल्ली बाई ऐप

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 हैदराबाद शहर की पुलिस की साइबर अपराध शाखा ने सोमवार को बुल्ली बाई विवाद के संबंध में एक मामला दर्ज किया। बुल्ली बाई ऐप के खिलाफ ऐफआइआर तब दर्ज हुआ जब शहर की दो महिलाओं की तस्वीरों को एक ऐप के माध्यम से ‘नीलामी’ के लिए रखा गया, जिसमें कथित तौर पर उन्हें अपमानित करने के प्रयास में मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया गया। वहीं कहा जा रहा है कि बुल्ली बाई ऐप ने करीब 100 मुस्लिम महिलाओं की नीलामी की तस्वीरें अपलोड की है, जिसे लेकर Bulli Bai मामले पर बवाल मचा हुआ है।

हालांकि ये पहली बार नहीं है जब नीलामी के लिए किसी महिला की तस्वीरें अपलोड की जा रही हैं इससे पहले भी Sulli Deals नाम से एक ऐप आया था, जिसमें Bulli Bai की ही तरह महिलाओं की नीलामी की जा रही थी।

अब जानते है कि जिस बुल्ली बाई ऐप पर इतना हंगामा हो रहा है वो आखिर है क्या?

जुलाई 2021 में ‘Sulli Deals’ नाम का एक ऐप सामने आया था, जिसमें कई मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें लगाकर उनकी कथित नीलामी की जा रही थी। उस दौरान कई महिलाओं ने ‘Sulli Deals’ के खिलाफ आवाज उठाई थी। वहीं करीब 6 महीने बाद ‘Bulli Bai’ नाम का एक ऐप फिर से सामने आया है, जिसमें और अधिक महिलाओं की ‘नीलामी’ की जा रही है।।।

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि Sulli Deals और Bulli Bai को एक ही डेवलपर ने बनाया है। Sulli Deals और Bulli Bai ऐप को Github पर बनाया गया है। इस ऐप के खिलाफ मामला तब दर्ज किया जब पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों और प्रसिद्ध हस्तियों सहित कई महिलाओं ने Bulli Bai के खिलाफ शिकायत की और इसके डेवलपर के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की। जिसके बाद मुंबई और दिल्ली पुलिस की साइबर सेल ने मामले की जांच की और पाया कि सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं को ऐप पर ‘नीलामी’ के लिए डाला गया था।

सोशल मीडिया में Bulli Bai की बात जैसे ही सामने आई तो सरकार हरकत में आई और तुरंत Bulli Bai ऐप पर बैन लगाया गया। फिलहाल इस मामले में अब तब तीन लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इसमें मास्टरमाइंड के तौर पर 18 साल की लड़की श्वेता सिंह और 19 साल के विशाल झा की गिरफ्तारी हुई है, जबकि 20 साल के मयंक रावत को भी गिरफ्तार किया गया है।

Bulli Bai App पर मुस्लिम महिलाओं की निलामी मामले में दो गिरफ्तार

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 सोशल मीडिया में ‘बुली बाई’ एप पर मुस्लिम महिलाओं की निलामी पर देश भर में हंगामा मचा है। इस बीच बड़ी खबर यह है कि इस मामले में बुली बाई एप से जुड़े दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। इसमें बेंगलुरू से 21 साल के विशाल कुमार झा का नाम सामने आया है जबकि उत्तराखंड से एक महिला को गिरफ्तार किया गया है।

दरअसल इस ऐप पर सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं को ‘नीलामी’ के लिए डाला गया था। जिसे लेकर सोशल मीडिया पर हंगामा मचा हुआ है। हैदराबाद पुलिस की साइबर अपराध शाखा ने सोमवार को बुल्ली बाई विवाद के संबंध में एक मामला दर्ज किया था। इस मामले की जांच दिल्ली और मुंबई की साइबर सेल ने भी की थी। जिसके बाद आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है। दरअसल काफी दिनों से ‘बुली बाई’ एप को लेकर सोशल मीडिया पर बवाल मचा हुआ है। इस ऐप के जरिए करीब 100 मुस्लिम महिलाओं की नीलामी की तस्वीरें अपलोड की गई थी, जिसे लेकर कई पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, प्रसिद्ध हस्तियों सहित कई महिलाओं ने Bulli Bai के खिलाफ शिकायत की थी। इस मामले में सरकार ने जांच का आदेश दिया था जिसके बाद इस एप को ब्लॉक कर दिया गया था और अब इस मामले में दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।

 पुलिस का कहना है कि मुख्य आरोपी महिला ‘बुली बाई’ एप से जुड़े कुल तीन अकाउंट हैंडल कर रही थी। एक अन्य आरोपी विशाल कुमार ने खालसा वर्चस्ववादी के नाम से खाता खोला था। 31 दिसंबर को, उसने अन्य खातों के नाम बदल दिए और सिख नाम से मिलता-जुलता नाम रख दिया, ताकि इसके खाताधारकों की असली पहचान छुपाई जा सके। नए साल के पहले दिन में जिस तरह सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं को लेकर बुल्ली बाय डील नामक ऐप पर आपत्तिजनक बातें और तस्वीरों को पोस्ट किया गया है, उस पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने भी संज्ञान लिया था।

अब इस मामले में आरोपी के रूप में विशाल का नाम सामने आने के बाद हंगामा मचा है। विशाल की पहचान ब्राह्मण समाज की बताई जा रही है, इसको लेकर अंबेडकरवादी और मुस्लिम समाज हमलावर हैं। इसको हिन्दुवादी संगठनों की साजिश भी बताई जा रही है।