आदि धर्म आंदोलन की पृष्ठभूमि में कबीर, रैदास और मक्खलि गोसाल का आजीवक आंदोलन था : डाॅ. भूरेलाल 

पंजाब में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में “आदि धर्म” के नाम से दलित कौम के धार्मिक आंदोलन को चलाने वाले महापुरुष बाबू मंगूराम मुग्गोवालिया जी की 14 जनवरी, 2022 को 136वीं जयंती थी। उन के जन्मदिन पर ‘भारतीय आजीवक महासंघ (ट्रस्ट)’ द्वारा ‘डा. धर्मवीर साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच’ से एक विचार गोष्ठी का आनलाइन आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी ‘बाबू मंगूराम और उन का आदि धर्म आंदोलन’ विषय पर केंद्रित थी। जिस की अध्यक्षता इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डाॅ. भूरेलाल जी ने की। वक्ता के रूप में सी.एम.पी. डिग्री कालेज, इलाहाबाद के एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. दीनानाथ जी, श्री संतोष कुमार तथा अरुण आजीवक ने अपने अपने विचार रखे।
विचार गोष्ठी का आरंभ डाॅ. दीनानाथ जी के व्याख्यान से हुआ। अपने व्याख्यान में बाबू मंगूराम के आंदोलन पर चर्चा करते हुए डाॅ. दीनानाथ जी ने बताया कि, ”बाबू मंगूराम जी का ‘आदि धर्म आंदोलन’ धार्मिक आंदोलन था बाद में उस में राजनीतिक एजेंडा भी जुड़ा।”
आदि धर्म आंदोलन के बारे में दीनानाथ जी ने एकदम ठीक कहा कि वह दलितों का धार्मिक आंदोलन था। दलितों को समझना चाहिए कि उन की कुल समस्या धर्म की ही है। दलित कौम अन्य कौमों की तरह एक पृथक कौम है। पृथक कौम है इस का मतलब ही है कि दलित कौम की अपनी खुद की विचारधारा और परम्परा है जिन से मिल कर धर्म बनता है। दलित अपने धर्म को भुला बैठे जिस के कारण ये जबरदस्ती हिन्दू धर्म में गिने जाने लगे। हिन्दू धर्म में गिने जाने के कारण ही विरोधियों ने इन्हें हरिजन, अछूत, अस्पृश्य, नीच आदि नाम दिये थे। बाबू मंगूराम जी ने दलितों की इस मूल धार्मिक समस्या को जाना था। सब से बड़ी बात यह है कि वे इस समस्या के समाधान में दलित कौम के खुद के धर्म की ओर बढ़े थे।
दीनानाथ जी ने आगे बताया कि, ‘बाबू मंगूराम का आदि धर्म और इसी तरह का स्वामी अछूतानन्द जी का ‘आदि हिन्दू आंदोलन’ हमारे सद्गुरुओं कबीर-रैदास के आंदोलन के प्रभाव में चले थे जो पीछे आजीवक धर्म और परम्परा तक जाते हैं।’
दीनानाथ जी ने बहुत ही सटीक बात कही है। बाबू मंगूराम जी ने एक किताब लिखी थी जिस का नाम है ‘आदि धर्म मंडल रिपोर्ट 1931’ जिस में उन्होंने साफ तौर पर लिखा है कि ‘हम आदि धर्मी हैं। हम हिन्दू के भाग नहीं हैं और ना हिन्दू हमारा भाग हैं।’ ठीक इसी तरह से मध्यकाल में हमारे कबीर और रैदास ने कहा था ‘ना हिन्दू ना मुसलमान’। एक तरफ वे ना हिन्दू ना मुसलमान कह रहे थे और दूसरी तरफ अपने कौम की परम्परा बता कर दलित धर्म की स्थापना भी कर रहे थे। बिल्कुल यही दृष्टि बाबू मंगूराम जी अपने समय में ले कर चले थे। बाबू मंगूराम आदि धर्म के रूप में दलित कौम के जिस धर्म की बात कर रहे थे वह अब हमारे सामने आ गया है। वह ‘आजीवक धर्म’ है जिस की खोज महान आजीवक चिंतक डाॅ. धर्मवीर ने की है।
अपने व्याख्यान में आगे दीनानाथ जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही, उन्होंने कहा, ‘बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द का कहना था कि हमारी संस्कृति, धर्म, इतिहास, चिंतन इन आर्यों से अलग हट कर है। उन्होंने इसे सिंधु सभ्यता से जोड़ा था। जबकि डा. अम्बेडकर का आंदोलन इन महापुरुषों के विपरीत चल रहा था। डा. अम्बेडकर वर्ण-व्यवस्था के अंदर अपने आप को रख कर चल रहे थे।’
दीनानाथ जी के इस वाक्य को सभी दलितों को ध्यान से समझना चाहिए। बाबू मंगूराम साफ साफ कह रहे थे कि हम हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख नहीं हैं। जबकि डा. अम्बेडकर खुद को हिन्दू बता रहे थे और बाद में क्षत्रिय वर्ण के धर्म बौद्ध में धर्मांतरित हो गये। हजारों साल से दलितों की तरफ से जो स्वतंत्र धार्मिक आंदोलन चलाये जा रहे हैं उसे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द ने आगे बढ़ाया था जबकि डा. अम्बेडकर दलित आंदोलन के विरोध में बुद्ध की शरण में चले गए।
विचार गोष्ठी में अगले वक्ता के रूप में अरुण आजीवक ने अपनी बात रखी, उन्होंने बताया-
“जाना जाए, बाबू मंगूराम जी को ‘हम हिन्दू नहीं हैं’ यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? कबीर – रैदास को भी ‘ना हिन्दू ना मुसलमान’ कहने की जरूरत क्यों पड़ी थी? इस का जवाब यह कि दलितों की लड़ाई धर्म की लड़ाई रही है। यह दलित धर्म और ब्राह्मण धर्म के बीच लड़ी जा रही है। मध्यकाल में ब्राह्मण ने हिन्दू धर्म के नाम पर दलितों को अपने साथ ले कर बहुसंख्यक बन कर इस्लाम के खिलाफ अभियान चलाने का षडयंत्र रचा था। आधुनिक काल में, अंग्रेजी सरकार द्वारा दलितों के कल्याण के लिए किये गये काम से प्रभावित हो कर दलित ईसाई बन रहे थे। इस समय भी ब्राह्मण द्वारा अंग्रेजों से राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए हिन्दू धर्म के रूप में दलितों को साथ ले कर बहुसंख्यक बन कर लाभ उठाने का षडयंत्र रचा जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ अपने हिंदू धर्मशास्त्रों के हवाले से दलितों को अछूत, अस्पृश्य, नीच भी घोषित किया जा रहा था। गांधी जी ने तो अपने से अलग बताते हुए ‘हरिजन’ के रूप में पहचान दे दी।
बाबू मंगूराम जी ब्राह्मण की कथनी-करनी की इस धूर्तता को बहुत गहराई से पहचाने थे। तभी उन्होंने आदि धर्म की गर्जना की और कहा कि हम हिन्दू नहीं हैं। मंगूराम जी ने किसी धर्मांतरण की बात न कर के आदि धर्म के रूप में दलितों के खुद के धर्म की बात की – यह कोई छोटी बात नहीं है। मंगूराम जी यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि हमारे हक – अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब धर्म के रूप में हमारी स्वतंत्र पहचान स्पष्ट हो। धर्महीनता की स्थिति में ब्राह्मण दलितों पर अपनी पहचान थोपता है और फिर उन के सारे अधिकार अपने बता कर हड़प जाता है। उस का यह कहना रहता है कि मैंने तो रोटी खा ली है अब दलित को अलग से रोटी खाने की क्या जरूरत है।”
गोष्ठी के अगले वक्ता संतोष कुमार ने अपना व्याख्यान स्वामी अछूतानन्द जी की कविता ‘आदि-वंश का डंका’ के वाचन के साथ आरंभ की, जिस में वे कहते हैं-
“आर्य-शक-हूण बाहर से आये यहाँ, 
और मुसलिम ईसाई जो छाये यहाँ, 
                  खोलकर सारी बातें बताते चलो। 
                 आदि-हिन्दू का डंका बजाते चलो।।” 
इन पंक्तियों से साफ पता चलता है कि आदि हिन्दू आंदोलन दलित कौम की पहचान का आंदोलन था। इस के बाद संतोष कुमार ने बाबू मंगूराम के आदि धर्म आंदोलन पर पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डा. रौनकी राम द्वारा लिखे लेख को पढ़ा जो वेब पत्रिका फारवर्ड प्रेस में छपा है। जिस में बताया गया है, ‘बाबू मंगूराम और स्वामी अछूतानन्द के समर्थन के चलते ही बाबा साहेब डा. अम्बेडकर को भारत के दलित आंदोलन का नेतृत्व प्राप्त हुआ था।’
यह एकदम अकाट्य सत्य है। बताया जाए, स्वामी अछूतानन्द ने 1922 में दलितों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र सहित 17 सूत्री मांग का एक ज्ञापन दिल्ली में आये प्रिंस आफ वेल्स को सौंपा था। पंजाब में भी बाबू मंगूराम जी दलितों के लिए स्कूल खोल रहे थे। वे सरकारी नौकरियों में दलितों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे। पंजाब में दलितों के भूमि अधिकार के लिए मंगूराम जी संघर्ष कर रहे थे। इन तमाम दलित मुद्दों को ले कर दलितों के प्रतिनिधि के रूप में बाबा साहेब डा. अम्बेडकर लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने गए थे। गोलमेज सम्मेलन में दलित नेतृत्व को लेकर बाबा साहेब को गांधी के खास चुनौती का सामना करना पड़ा था। तब भारत से स्वामी अछूतानन्द और बाबू मंगूराम जी ने बाबा साहेब के समर्थन में तार भेजवाये थे। हमारे आदि आंदोलन के महापुरुषों के समर्थन के कारण ही डा. अम्बेडकर गोलमेज सम्मेलन में दलित नेतृत्व को गांधी से बचाने में सफल हो पाए थे। यह सारा इतिहास अब हमारे सामने आ चुका है जिसे महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर जी ने अपने महान ग्रंथ ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ में लिपिबद्ध किया है।
वक्ताओं के व्याख्यान के बाद श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित किये गये। श्रोताओं में से रोहित कुमार ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया – ‘स्वामी अछूतानन्द और बाबू मंगूराम की तरह आज के समय में हम किसे अपना नेतृत्वकर्ता मानें?’
बताया जाए, दलितों की समस्या धार्मिक रही है। ढाई हजार साल से दलित कौम धर्महीनता की स्थिति में रहती चली आयी है। धर्महीनता के चलते दलित कौम विरोधी धर्म की गुलाम बनी हुई है। धर्महीनता के कारण ही दलित घरों में जारकर्म ने पांव पसारे। धर्महीनता के कारण ही दलितों के सारे हक अधिकार उन से छिनते गए। धर्महीनता की मूल समस्या की पहचान डाॅ. धर्मवीर ने की। इस के समाधान में दलित कौम के धर्म ‘आजीवक’ की मुकम्मल खोज डाॅ. धर्मवीर ने की। प्राचीन काल में आजीवक धर्म की स्थापना करने वाले महान मक्खलि गोसाल और उन के दर्शन ‘नियतिवाद’ को डाॅ. धर्मवीर सामने ले कर आये। आजीवक महापुरुषों कबीर, रैदास के आंदोलन को भी डाॅ. साहब ही सामने ले कर आये। इस के साथ ही आजीवक धर्म का पर्सनल कानून ‘आजीवक सिविल संहिता’ भी डाॅ. साहब ने ही तैयार की। इस तरह डाॅ. धर्मवीर कम्प्लीट दलित चिंतन ले कर चलते हैं। इसलिए एकदम मजबूती के साथ पूरे अभिमान और गर्व के साथ कहा जा रहा है कि दलित कौम के पथ प्रदर्शक, दार्शनिक और चिंतक डाॅ. धर्मवीर हैं।
वक्ताओं के व्याख्यान के बाद गोष्ठी के अध्यक्ष डा. भूरेलाल जी ने बहुत ही विस्तृत और सारगर्भित वक्तव्य दिया। उन्होंने बताया कि, ‘1920 के दशक में पूरे भारत में आदि आंदोलन पांच शाखाओं में चल रहे थे। उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूतानन्द के नेतृत्व में अखिल भारतीय स्तर का आदि हिन्दू आंदोलन, पंजाब में आदि धर्मी आन्दोलन तथा दक्षिण में आदि आंध्रा, आदि कर्नाटका तथा आदि द्रविड़ आंदोलन।’ उन्होंने बताया कि, ‘दलितों की तरफ से चलाये जा रहे ये सभी आंदोलन धार्मिक थे। धार्मिक आंदोलन के साथ साथ इन में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे भी समाहित होते गए। इस तरह ये सम्पूर्ण दलित आंदोलन बन गए थे।’ उन्होंने बताया कि,’ आदि आंदोलन कबीर-रैदास के आंदोलन की पृष्ठभूमि में चले थे और संत आंदोलन की पृष्ठभूमि में मक्खलि गोसाल का आजीवक आंदोलन था।’ इस तरह से प्राचीन से आधुनिक काल में चले दलित आंदोलनों की एक रूपरेखा सामने आ जाती है।
यहां बताया जाय कि, इतिहास में दलितों द्वारा लगातार आंदोलन किये जाते रहे हैं। उन आंदोलनों का इतिहास महान आजीवक चिंतक डाॅ. धर्मवीर ने उजागर कर दिया है। यह भी सामने आ चुका है कि दलित आंदोलन को दबाने के लिए द्विज किस तरह प्रक्षिप्त और किवदंती रचते रहे हैं। आधुनिक काल में भी द्विजों द्वारा आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया जा रहा था। इस बारे में डाॅ. भूरेलाल जी ने बताया – ‘आदि हिन्दू आंदोलन एक व्यापक आंदोलन था। इस का विरोध कांग्रेस के कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने’ उत्तर प्रदेश स्वाधीनता संग्राम की झांकी’ किताब के माध्यम से किया था। चांद पत्रिका के मई 1927 के अछूत अंक द्वारा भी आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया गया था। श्रीधर पाठक ने अपनी एक कविता के माध्यम से आदि हिन्दू आंदोलन का विरोध किया था। इस के अलावा लाहौर के अमीचंद शर्मा ने स्वामी अछूतानन्द के विरोध में’ श्रीवाल्मीकि प्रकाश’ नाम से एक पुस्तक लिखी थी।’
इस के अतिरिक्त, बताया जाय कि आदि हिन्दू आंदोलन के विरोध में द्विजों में जो सब से अग्रणी थे वह थे सामंत का मुंशी अर्थात प्रेमचंद। हिन्दू धर्म को सब से अधिक चुनौती स्वामी अछूतानन्द ने दी थी। इस के साथ ही स्वामी जी ने द्विजों के स्वाधीनता आंदोलन के पीछे छुपे षड्यंत्र को भी पहचाना था। चूंकि आदि आंदोलनों के पथ प्रदर्शक स्वामी अछूतानन्द जी थे इसलिए उन के विरोध में सामंत के मुंशी को उतरना पड़ा था। स्वामी जी के आंदोलन के विरोध में सामंत के मुंशी ने अपना उपन्यास ‘रंगभूमि’ लिखा था। इस उपन्यास की खोल-बांध डाॅ. धर्मवीर जी ने अपने महाग्रंथ “प्रेमचन्द की नीली आंखें” में की है।
दलित आंदोलन के विरोध में द्विज तो रहे ही हैं लेकिन दलित आंदोलन को नुकसान खुद दलितों द्वारा ही हुआ है। जी हाँ, आधुनिक काल में दलित आंदोलन के विरोध में खुद डाॅ. अम्बेडकर ही खड़े थे। इस बारे में डाॅ. भूरेलाल जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात बतायी- ‘बाबू मंगूराम डा. अम्बेडकर के धर्मांतरण के पक्ष में नहीं थे। धर्म को ले कर पंजाब में डा. अम्बेडकर ने बाबू मंगूराम से भेंट की थी। धर्मांतरण की बात पर बाबू मंगूराम जी ने डा. अम्बेडकर से कड़े शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त की थी।’
अपने व्याख्यान में डाॅ. भूरेलाल जी ने आगे बताया कि,’ आदि धर्म आंदोलन का अप्रोच बहुत मौलिक, बुनियादी और बहुत स्पष्ट था, लेकिन डा. अम्बेडकर ने इस आदि धर्मी आन्दोलन का समर्थन नहीं किया था। डा. अम्बेडकर अछूतों के इतिहास को वर्ण व्यवस्था के अंदर खोज रहे थे।’
तो, बाबू मंगूराम और डा. अम्बेडकर के आंदोलनों के अन्तर को यहाँ साफ साफ देखा जा सकता है। मंगूराम जी आदि धर्म के रूप में दलित कौम को स्वतंत्र ऐतिहासिक धर्म की तरफ ले जा रहे थे जबकि डा. अम्बेडकर धर्मांतरण के माध्यम से कौम को पराधीनता की तरफ ले जाने के पक्षधर थे। यह पूरा का पूरा विजन का अन्तर था। बाबू मंगूराम समेत आदि आंदोलन के समस्त महापुरुषों ने दलित कौम को एक स्वतंत्र कौम के रूप में देखा था। वे पूरी गहराई के साथ यह जान रहे थे कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, सिख आदि कौमों की तरह दलित कौम भी एक पृथक ऐतिहासिक कौम है जिस का खुद धर्म है। वहीं डा. अम्बेडकर दलित कौम को अलग कौम के रूप में देख ही नहीं सके थे। वे दलित कौम का इतिहास हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था के भीतर तलाश रहे थे।
अपने अध्यक्षीय व्याख्यान के अाखिर में डाॅ. भूरेलाल जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही- “यह आंदोलन (आदि धर्मी) बहुत मूल्यवान और अनिवार्य विरासत है। हमारी ऐतिहासिकता और सांस्कृतिकता की अनिवार्य कड़ी है। कोई भी कौम आगे तभी बढ़ती है जब वह अपनी ऐतिहासिक परम्परा से सम्बद्ध रहती है, घनिष्ठ रूप से जुड़ी रहती है। दुनिया के किसी महापुरुष ने धर्मांतरण की बात नहीं की है। लेकिन यह बिडम्बना की बात है कि दलित कौम के महापुरुष डा. अम्बेडकर धर्मांतरण की अवधारणा ले कर आते हैं। जिस समय द्विज लोग हिन्दू के नाम पर अपने को बहुसंख्यक बना रहे थे उस समय धर्मांतरण की अवधारणा के चलते दलित कौम विभिन्न धर्मों में जा छिन्न भिन्न हो रही थी।”
गोष्ठी का संचालन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोधाथी सुभाष गौतम ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन दिनेश पाल ने किया।
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रिपोर्ट – अरुण आजीवक

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