हिंदुत्व के सांस्कृतिक एकाधिकार से हुआ बौद्ध संस्कृति का पतन

buddhist in india

भारत बहुभाषी, बहुआयामी और विविधता वाला देश है. इस देश में कई संस्कृतियां जन्मीं और विकसित हुई हैं. दुर्भाग्य से पिछली कुछ शताब्दियों से हिंदू संस्कृति के द्वारा सांस्कृतिक एकाधिकार व आधिपत्य की नियत से भारत की सांस्कृतिक विविधता को गंभीर नुकसान पहुंचाया गया है.

हिंदू संस्कृति द्वारा चलाए गए इस सांस्कृतिक एकाधिकार और अधिग्रहण का सबसे ज्यादा हानि बौद्ध संस्कृति को हुआ है. बौद्ध संस्कृति भारत की एक उन्नत और प्रमुख संस्कृति रही है. इस संस्कृति ने भारत को तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे विश्व विख्यात विश्वविद्यालय देने का काम किया है.

बौद्ध संस्कृति ने इसके अलावा और बहुत सी वैश्विक पहचान रखने वाली ऐतिहासिक धरोहरें दी हैं. हम गौरव के साथ यह कह सकते हैं कि जो कुछ भी भारत में ऐसा दिखता है जिस पर गर्व किया जा सके, उसमें बौद्धों का बड़ा योगदान है. लेकिन हिंदू सांस्कृतिक एकाधिकार और अधिग्रहण के कुत्सित विचार और हिन्दुत्व के विषैले भाव ने भारत की इस महान सांस्कृतिक विविधता की खूबसूरती को ग्रहण लगा दिया. भारत को सांस्कृतिक महत्ता वाला देश बनाने वाले बौद्ध आज हिंदुओं के गुलाम के रूप में निरूपित हैं.

बौद्ध संस्कृति के श्लोकों के वंशज आज शूद्र, अति शूद्र, नीच, चमार, चूड़े, दास, गुलाम आदि बन कर पाश्विक जीवन जीने को मजबूर हैं. उनके साथ हिन्दू सांस्कृतिक बर्बरता का सदियों लंबा निर्मम दौर रहा है, जो कुछ रूपों में आज भी विद्यमान है. वर्तमान दलितों को मानवाधिकारों से वंचित कर सहस्र वर्षों की अंतहीन गुलामी में धकेल दिया. जहां हिन्दुत्व के झंडाबरदार उनका आसानी से शोषण करते रहें.

गुलामी से अधिक विनाशकारी स्थिति मानसिक गुलामी की होती है. आज दलित यानी कि बौद्ध केवल हिंदुत्व के गुलाम ही नहीं है बल्कि अब वह गुलाम से भी बड़े मानसिक गुलाम हैं. यह बहुत खतरनाक स्थिति है. आज बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित दलित युवा बौद्ध सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आंदोलन कर रहा है. तमाम दलित नौजवान भारत भूमि की असीम सेवा कर रहे हैं. दलित वर्ग और उनके नौजवान महान बौद्ध धर्म की संतान हैं. जब तक दलित समाज के नौजवान अपनी संस्कृति को उन्नति नहीं कर लेते तब तक उन्हें मानवीय जीवन की प्राप्ति नहीं हो सकती. दलितों के अंदर निर्भीकता का भाव अपनी संस्कृति में ही पनप सकता है.

कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर नीच कैसे हो सकता है? न व्यक्ति और न समाज. ये हिन्दुत्व के द्वारा बौद्धों पर सांस्कृतिक अतिक्रमण है. ये हिंदुओ द्वारा दलितों पर सांस्कृतिक अत्याचार है. इस अत्याचार के खिलाफ जन चेतना की नितांत आवश्यकता है. समाज को भीम चर्चा और बौद्ध चर्चा के माध्यम से जागरूक करने की आवश्यकता है.

यह लेख सूरजपाल राक्षस एडवोकेट का है

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