संस्मरण माता प्रसाद: जनता के राज्यपाल का जाना

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 वरिष्ठ साहित्यकार और अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद जी का दिनांक 19 जनवरी, 2021 को रात में 12 बजे लखनऊ में निधन हो गया। 20 जनवरी की सुबह लखनऊ से माता प्रसाद जी के पुत्र एस.पी. भास्कर जी ने फोन पर यह दुःखद सूचना दी। ख़बर अप्रत्याशित नहीं थी इसलिए आश्चर्य नहीं हुआ। लगभग पन्द्रह दिन से वह कोमा में थे। कुछ दिन पहले ही भास्कर जी से फ़ोन पर बात हुई थी तो उन्होंने बताया था कि उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा है और शरीर के अंगों ने भी काम करना बंद कर दिया है। कई वर्ष पहले से उनकी श्रवण शक्ति काफ़ी कम हो गयी थी और आवाज़ भी बैठने लगी थी। पिछले साल इलाहाबाद में एक कार्यक्रम में हम मिले थे तो बहुत मुश्किल से वह कुछ शब्द ही माइक के सामने बोल पाए थे। कुछ माह से उनकी आवाज़ लगभग बंद हो गयी थी। लेकिन उनका मस्तिष्क चेतन और सक्रिय था। हाथ भी काम करते थे। और वह लिख-पढ़ रहे थे।

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 एक स्कूल अध्यापक से राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले माता प्रसाद जी का राजनीतिक जीवन बहुत उज्जवल रहा। अपनी कार्यकुशलता के बल पर 1955 में ज़िला कांग्रेस कमेटी के सचिव बने। शाहगंज (सुरक्षित) विधानसभा क्षेत्र से 1957 से 1974 तक लगातार पांच बार विधान सभा सदस्य तथा 1980 से 1992 तक दो बार विधान परिषद के सदस्य रहे। 1988 से 1989 तक वह मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार में राजस्व मंत्री रहे। तत्पश्चात 1993 से 1999 तक वह अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल और पूर्वोत्तर परिषद के अध्यक्ष रहे। इसी दौरान जब्बार पटेल के निर्देशन में डॉ. अंबेडकर के जीवन पर बनी चर्चित फिल्म की स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन माता प्रसाद थे। सूरीनाम में हुए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व भी उन्होंने किया था। अपनी उपलब्धियों से जौनपुर की ज़मीन को गौरव प्रदान करने वाले माता प्रसाद जी को वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, जौनपुर द्वारा मानद डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया गया।

माता प्रसाद जी की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा को देखते हुए कहा जा सकता है कि उन्होंने झोंपड़ी से राजमहल तक की यात्रा अत्यंत सादगी, सहजता और सम्मान के साथ सफलतापूर्वक पूरी की। मामूली से मामूली व्यक्ति से भी वह खुलकर मिलते थे और उनकी बात सुनते थे। जिस तरह उन्होंने राजभवन के दरवाज़े आम आदमी के लिए खोल दिए थे, वह जनता के राज्यपाल बन गए थे। माता प्रसाद जी से पहले अनेक राज्यपाल हुए और भविष्य में भी अनेक राज्यपाल होंगे। लेकिन हर कोई उनकी तरह जनता का राज्यपाल नहीं हो सकता। माता प्रसाद जी भले कांग्रेस में रहें, बाबासाहब अम्बेडकर जिस तरह की भ्रष्टाचार मुक्त, मूल्य-आधारित राजनीति के पक्षधर थे और जैसी राजनीति और राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा हमारा संविधान करता है, माता प्रसाद जी उस पर पूरी तरह खरे उतरने वाले राजनेता थे। स्वच्छ, नैतिक और मूल्य-आधारित राजनीति का वह सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण थे। 1999 में राज्यपाल के पद पर उनका कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही तत्कालीन गृहमंत्री द्वारा उनसे पद छोड़ने को कहा गया तो माता प्रसाद जी ने विनम्रतापूर्वक त्याग-पत्र देने से इंकार कर दिया था। माता प्रसाद जी ने मुझे फ़ोन पर बताया था कि गृह मंत्रालय के एडिशनल सेक्रेटरी ने गृह मंत्री के निर्देश पर उनसे फ़ोन पर स्वास्थ्य आधार पर त्याग पत्र देने को कहा था। माता प्रसाद जी का अपना विवेक होगा और उनके अपने सलाहकार भी रहे होंगे, लेकिन उन्होंने इस बात का ज़िक्र करते हुए मुझसे परामर्श माँगा तो मैंने भी उनको यह सुझाव दिया था कि स्वास्थ्य आधार पर त्याग-पत्र नहीं देना चाहिए, यह राजनीतिक आत्महत्या होगी। बेहतर है कि गृह मंत्रालय को संदेश दे दिया जाए कि नए राज्यपाल की नियुक्ति कर दें, उनके आते ही मैं तत्काल राजभवन छोड़ दूँगा। माता प्रसाद जी ने यही स्टेण्ड अपनाया और दृढतापूर्वक इस स्टेण्ड के साथ रहे। नतीजा यह हुआ कि गृह मंत्रालय बैकफ़ुट पर आ गया और माता प्रसाद जी ने सम्माजनक रूप से अपना कार्यकाल पूरा किया।

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माता प्रसाद जी से परिचय तो 1990 के आसपास ही हो गया था। भारतीय दलित साहित्य अकादमी के एक आयोजन में दिल्ली में उनसे पहली मुलाकात हुई थी। उनको लोगों से अत्यंत सहजता से मिलते और बात करते हुए देखकर बहुत अच्छा लगा था। उम्र, अनुभव और पद, हर तरह से वह मुझसे बहुत बड़े थे, इसलिए उनके निकट जाने में मुझे संकोच हुआ था। लेकिन उनकी सहजता और मिलनसार प्रवृत्ति मुझे उनके समीप ले गयी। उनसे घनिष्ठता हुई 1995 के आसपास। और इतनी अधिक हुई कि उसके पश्चात उनकी जब भी कोई पुस्तक प्रकाशन के लिए तैयार होती, उसकी पांडुलिपि वह मुझे अवश्य दिखाते थे। यदि वह दिल्ली आ रहे होते तो ख़ुद ले आते थे और दिल्ली नहीं आ रहे होते थे तो पांडुलिपि डाक से भिजवा देते थे। उनकी कई पुस्तकें मैंने अतिश प्रकाशन से प्रकाशित करवायीं तथा बाद में सम्यक प्रकाशन के स्वामी शांतिस्वरूप बौद्ध जी से उनका परिचय कराया। सम्यक प्रकाशन से सम्पर्क होने के पश्चात उनकी लगभग समस्त पुस्तकें सम्यक प्रकाशन से ही प्रकाशित हुईं। वह जब भी दिल्ली आते थे, अपने आने की सूचना फ़ोन या पत्र से देते थे, और हम अवश्य मिलते थे। कोमा में जाने से सप्ताह भर पहले ही उन्होंने अपनी एक पुस्तक की पांडुलिपि मेरे पास प्रकाशित कराने हेतु भिजवायी थी, जिसे देखकर मैं शीघ्र ही प्रकाशक को भेजूँगा।

उनकी सहजता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन, 2000 में चंडीगढ़ में दलित साहित्यकार सम्मेलन में भाग लेने के लिए माता प्रसाद जी ने आयोजकों द्वारा प्रदान की गयी सुविधा न लेकर मेरे साथ मेरी कार से चंडीगढ़ जाने को प्राथमिकता दी। अपरिचितों के लिए भी परिचित से, परायों के भी अपने, और हर उम्र के लोगों के साथ चलने और ढल जाने वाले माता प्रसाद जी अपने आप में सज्जनता, सहजता और विनम्रता की एक मिसाल थे। एक युग थे। बिहारीलाल हरित उनके हम उम्र और जीवित दलित रचनाकारों में सबसे वरिष्ठ थे, माता प्रसाद जी उनका सम्मान करते थे। हरित जी द्वारा लिखित महाकाव्य ‘भीमायण’, ’जगजीवन ज्योति’ और ‘वीरांगना झलकारीबाई’ से, विशेष रूप से उनकी कवित्त शैली से वह बहुत प्रभावित थे।
माता प्रसाद जी के लेखन को लेकर कई लोगों को शिकायत रहीं। लेखन के अलावा राजनीति को लेकर भी बहुत से लोगों ने उनकी आलोचना की। कारण यह था बसपा सुप्रीमो मायावती जी के ख़िलाफ़ घोसी (उत्तर प्रदेश) चुनाव क्षेत्र से लोक सभा का उनका चुनाव लड़ना। कुछ लोगों को इस बात को लेकर शिकायत रही कि वह मायावती के ख़िलाफ़ चुनाव क्यों लड़े। भूलना नहीं चाहिए कि माताप्रसाद जी कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे और स्वेच्छा से चुनाव क्षेत्र का चयन करने की हैसियत उनकी नहीं थी। हर राजनीतिक व्यक्ति लोकसभा का सदस्य बनना चाहता है, और जहाँ, जिस चुनाव क्षेत्र से पार्टी द्वारा टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा जाता है, वह वहीं से चुनाव लड़ता है। माता प्रसाद भी इसका अपवाद नहीं थे। उनको पार्टी ने ‘घोसी’ चुनाव क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया तो उनके लिए वहाँ से चुनाव लड़ने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था। लेकिन उनके लिए मायावती के विरुद्ध चुनाव लड़ने का तात्पर्य मायावती का विरोधी होना नहीं था। अन्य मुद्दों के साथ-साथ इस मुद्दे पर भी मेरी उनसे व्यापक चर्चा हुई थी। उनका यही कहना था-‘हम नहीं चाहते थे बहन जी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ना, लेकिन पार्टी ने कहा तो लड़ना पड़ा।’ उनके ये शब्द उनकी राजनीतिक विवशता को दर्शाते हैं। निजी स्तर पर वह मायावती को पसंद करते थे और उनका सम्मान करते थे।

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कांग्रेस की राजनीति में होने के कारण माता प्रसाद जी पर गांधीवाद का प्रभाव था, जो बहुत स्वाभाविक था। किंतु गांधीवाद को उन्होंने सामाजिक सद्भाव के लिए उपयोगी पाया और उस रूप में ही अपनाया। न तो उन्होंने गांधी द्वारा वर्ण-व्यवस्था की पक्षधरता को स्वीकार किया और न रामराज्य के समर्थक रहे। बाद में, विशेष रूप से जब से वह दलित साहित्य से जुड़े, उन पर गांधीवाद का प्रभाव कम हो गया था और वह आम्बेडकरवाद की ओर झुक गए थे।

उनकी चेतना में आए परिवर्तन का ही परिणाम था कि जहाँ उन्होंने ‘दिग्विजयी रावण’, ‘एकलव्य’ और ‘भीमशतक’ जैसी काव्यकृति, ‘उदादेवी’, ‘धर्म का काँटा’, ‘तड़प मुक्ति की’, ‘अछूत का बेटा’, ‘धर्म के नाम पर धोखा’, ’वीरांगना झलकारीबाई’, ‘धर्म परिवर्तन’, ‘अंतहीन बेड़ियां’ और ‘खुसरो भंगी’ जैसे नाटक लिखे, जो उनके इतिहास-बोध को प्रतिबिम्बित करते हैं। कवि और नाटककार होने के अलावा माता प्रसाद जी अच्छे गद्यकार भी थे। उन्होंने गद्य में भी कई पुस्तकें लिखीं। ‘जातियों का जंजाल’, ‘उत्तर प्रदेश की दलित जातियों का दस्तावेज़’, ’लोक-काव्य में वेदना और विद्रोह के स्वर’, ‘मनोरम भूमि अरुणाचल’ और पूर्वोत्तर भारत की लोक संस्कृति पर लिखित उनकी प्रमुख गद्य पुस्तकें हैं। ‘झोंपड़ी से राजमहल’ माता प्रसाद जी की सर्वाधिक चर्चित कृति उनकी आत्मकथा है।

राजनीतिक रूप से दलित प्रश्नों के प्रति कांग्रेस की उदासीनता अथवा निष्क्रियता के कारण वह कांग्रेस की दलित संबंधी नीतियों से अप्रसन्न रहते थे, लेकिन कांग्रेस से उनका मोह भंग नहीं हुआ था। इस बिंदु पर आकर वह बहुजन विचारधारा की राजनीति के समर्थक हो गए थे। राजनीति में शिखर तक पहुँचने के उपरांत माता प्रसाद जी की विशेष पहचान और प्रतिष्ठा साहित्यकार के रूप में थी। भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा डॉ अम्बेडकर राष्ट्रीय सम्मान और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनाऊ द्वारा साहित्य भूषण सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार/सम्मानों से सम्मानित माता प्रसाद जी ने लगभग पचास पुस्तकों का लेखन किया। वह स्वामी अछूतानंद, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु और बिहारीलाल हरित की परम्परा के महत्वपूर्ण कवि और नाटककार थे। उन्होंने अछूतानंद, जिज्ञासु और हरित जी की परम्परा को आगे बढ़ाया।

विवादों और प्रतिवादों से मीलों दूर रहने वाले माता प्रसाद जी सदैव संवाद के पक्षधर रहे। न किसी लेखक संघ के साथ जुड़े और न किसी के प्रति दूरी बनायी। जब, जहाँ भी उनको आमंत्रित किया गया, जहाँ तक भी सम्भव हो सका, वह सभी आयोजनों में गए और अपनी तरह से ही अपनी बात रखी, इसीलिए वह सबके ‘अपने’ थे।

(फोटो क्रेडिट- सम्यक प्रकाशन)

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