कैसा समाज चाहते थे डॉ. आंबेडकर

14 अप्रैल 2020 को बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की 129वी जयंती थी,जो एक अवसर था उनके विचारों, योगदान, दर्शन और आदर्शों को पुनः स्मरण कर अपनी आज की समकालीन चुनौतियों के समक्ष रख कर समझने का और कम से कम इस यक्ष प्रश्न का उत्तर लेने का कि आखिर कैसा समाज चाहते थे डॉ आंबेडकर?

मूल रूप से डॉ. आंबेडकर की प्रेरणा के कई स्रोत रहे है, उसमें से सबसे मुख्य है, 1789 की फ़्रेंच क्रांति जिसके फलस्वरूप “उदारता, समानता और बंधुत्व” जैसे विचार संसार के सामने आये। डॉ. आंबेडकर के “आदर्श समाज” की अवधारणा को अगर हम टटोले तो उनके अनुसार किसी भी समाज की आधारशिला या संरचना इन तीन स्तंभों पर टिकी होनी चाहिए। क्योंकि उनके दर्शन में मानव कल्याण मुक्ति और उत्थान की विशेष प्रधानता थी, और उसके लिए यह बेहद आवश्यक है कि वह इतना स्वतंत्र हो की वो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके, उसे समाजिक क्षेत्र में बराबर का अधिकार मिले और बिना किसी भेदभाव के तो साथ ही किसी भी समाजिक सौहार्द और सहयोग के बिना किसी मानव का कल्याण नहीं हो सकता, अतः बंधुत्व/ भाईचारा भी उस समाजिक संरचना की आधारशिला होनी चाहिए।

डॉ. आंबेडकर के समूल जीवन दर्शन के भी ये तीन शब्द अभिन्न अंग बन गए और फिर किसी भी साहित्य, समाजिक परंपरा, प्रक्रिया या व्यवस्था या विचार के मूल्यांकन करते वक्त किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व उन्होंने उसको इन तीन शब्दों की कसौटी पर रख कर ही अपना विश्लेषण दिया। नेहरू के शब्दों में संविधान की आत्मा कही जाने वाली प्रस्तावना में भी यह तीन शब्द अपनी संवैधानिक और सार्वभौमिक महत्व के साथ विद्यमान है।

डॉं. आंबेडकर अपने आदर्श समाज में जाति के जंजाल से मुक्ति चाहते थे क्योंकि जाति व्यवस्था के समाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभाव उन तीन प्रमुख विचारों के खिलाफ जाते है। जाति व्यवस्था ने स्वतंत्रता की जगह गुलामी, दासता और कदम कदम पर व्यवस्था के नाम पर बंधन ही बांधे, समानता की जगह भेदभाव और कुछ जातियों की वरीयता ने ले ली और सामाजिक बंधुत्व तो दूर दूर तक नहीं था बल्कि छुआछूत और जातीय वैमनस्य हावी था। इस व्यवस्था के चलते समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग केवल जन्म के आधार पर युग युगांतर से आर्थिक उपेक्षा, समाजिक बहिष्करण, शैक्षणिक अयोग्यता के शिकार होने के साथ साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित रखा गया जिसके परिणामस्वरूप वह वर्ग एक आभावग्रस्त जीवन जीने के अलावा आजीवन एक हेयदृष्टि से समाज की अगड़ी जातियों के द्वारा देखा जाता रहा, जिसने उसको हतोत्साहित कर उसके सोचने समझने निर्णय लेने की शक्ति को क्षीण करता गया।

अतः डॉ. आंबेडकर ने अपने विभिन्न भाषणों और लेखों में जाति विनाश की बात तार्किक रूप से की और इसको समाप्त करने हेतु अंतरजातीय विवाह और सामूहिक भोजन को प्रोत्साहन देने के अलावा, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने की वकालत भी की। उनके मत से समाज का संचालन किसी वेद पुराण ग्रन्थ शास्त्र के अनुसार नहीं बल्कि तर्क के आधार पर होनी चाहिए, क्योंकि बहुमत की कुप्रथाएं और जाति समर्थक रीतियाँ ये सब समाजिक वैधता इन ग्रंथो से ही प्राप्त करते है। उन्होंने ही जाति के इस दंश से निकलने के लिए पहले ‘मूकनायक’ फिर ‘बहिष्कृत भारत’ जैसी पत्रिकाएं निकाली, 20 मार्च 1927 में महाड़ सत्याग्रह करते हुए अछूतों को एक सार्वजनिक जलाशय से जल पीने के प्रतिबंध को तोड़ने का आव्हान करते है, इसी कारण 20 मार्च को भारत मे समाजिक सशक्तिकरण दिवस भी मनाया जाता है। तो दलितों के लंदन की गोलमेज सम्मेलन में न केवल दलितों का प्रतिनिधित्व किया बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने हेतु अलग निर्वाचक मंडल बनाने का प्रस्ताव भी रखा। तो साथ ही बाद के शैक्षणिक और रोजगार के अवसर में आरक्षण की व्यवस्था में एक बड़ा योगदान डॉ. आंबेडकर का ही था।

डॉ. आंबेडकर को केवल जाति के आयाम पर मानव कल्याण के रूप में आरेखित कर समझना उनके योगदान और विचारों को सीमित करना होगा। डॉ. आंबेडकर के वंचित की परिभाषा में दलितों के साथ-साथ महिलाएं भी आती थी। उनके अनुसार भारतीय समाज में महिलाओं के साथ कुछ कम भेदभाव और अत्यचार नहीं हुआ है। डॉ आंबेडकर का ही कहना था कि मैं किसी भी समाज की प्रगति का मूल्यांकन उस समाज की महिलाओं की प्रगति के आधार पर करूँगा। वह डॉ. आंबेडकर ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम मातृत्व लाभ बिल को बॉम्बे विधान परिषद में वर्ष 1928 में पेश किया, और यह तर्क रखा कि एक महिला को संतान के जनन के पूर्व और उसके उपरांत आराम की आवश्यकता होती है, अतः उसे उसकी छूट मिलनी चाहिए। डॉ आंबेडकर ने ही वायसराय के कार्यपालिका परिषद के श्रम मंत्री रहते हुए पुरुष और स्त्री दोंनो को समान कार्य समान वेतन का प्रस्ताव रखा। वह डॉ. आंबेडकर ही थे जिन्होंने महिला के सशक्तिकरण और स्वतंत्रता के मार्ग को प्रशस्त करने वाले हिन्दू कोड बिल को पेश किया और (जिसमें महिलाओं को संपत्ति के अधिकार, अंतरजातीय विवाह को कानूनी वैधता, तलाक का अधिकार, पुरुषों की बहुविवाह समाप्ति आदि शामिल था। सदन में इसके लगातार विरोध के चलते निराश होकर उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक दे दिया।

ग्रन्विल ऑस्टिन के शब्दों में भारत के प्रथम समाजिक दस्तावेज कहें जाने वाले संविधान को बनाने वाली संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष पद बनने का अवसर बाबासाहब आंबेडकर के हाथों लगा तो उन्होंने एक ऐसे संविधान के प्रारूप का शिल्प तैयार किया जो यक़ीनन स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व के स्तम्भों पर टिका हुआ था। हर तरह के भेदभाव से मुक्ति, छुआछूत पर प्रतिबंध, धार्मिक व वैयक्तिक स्वतंत्रता, महिलाओं व समाज के पिछड़े तबकों के लिए विशेष प्रावधान की व्यवस्था, दासता और शोषण युक्त मजदूरी से मुक्ति आदि की बात करने वाले प्रावधान शामिल थे। तो जीवन के अपने अंतिम वर्ष में डॉ आंबेडकर ने बौध्द धर्म अपना कर के यह भी स्पष्ट किया कि जिस आदर्श समाज की संकल्पना की बात वह करते हैं, वह उन्हें हिन्दू धर्म के बजाय बुद्ध के धर्म में दिखता है वह निजी जीवन में भी धर्म परिवर्तन से पूर्व भी गौतम बुद्ध से और उनके दर्शन से काफी प्रेरित थे, और उनके इस धर्म परिवर्तन के चलते भारी मात्रा में उनके अनुनायिनो ने भी पहले उनके साथ फिर बाद में धर्म परिवर्तन किया। यह सिलसिला आज भी जारी है।

आज समकालीन दौर में भी जब हम मानव की प्रगति के बड़े-बड़े उदाहरण पेश करते हैं तो वहाँ आज भी कभी गुजरात के लिम्बोदरा गांव में मूंछ रखने पर दो दलित युवकों को पीटा जाता है, तो अपने विवाह में घोड़ी चढ़ने पर रतलाम मध्यप्रदेश के दलित युवक पर पत्थर फेंके जाते है। ऊपरी जात वालो के सामने खाना खा लेने पर गुजरात में जितेंद्र की हत्या कर दी जाती है, तो दलित घर की लड़कियों को अगवा कर ले जाना, उनका बलात्कर करना आज भी एक आम और साधारण घटना है।

2010 में NHRC के अनुसार हर 18 मिनट में एक दलित पर अपराध किया जाता है। महिलाओं की स्थिति भी कोई कम बदतर नहीं है। जहां संसद में महिलाओं के एक तिहाई आरक्षण का बिल आज भी लटका हुआ है तो वही महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार और शोषण एक नया तरह का “नॉर्मल” बन कर उभरा है, जहाँ NCRB के 2018 का आंकड़ा बताता है कि हर 15 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है, तो थॉमस रेउटर्स संस्थान ने भारत को दुनिया में महिलाओं के लिए चौथी सबसे असुरक्षित जगह बताई है। ऐसे भयावह विभत्स दौर में डॉ. आंबेडकर अत्यंत प्रासंगिक हो जाते हैं और उनकी बात बार-बार जहन में आती है जो उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि हम राजनीतिक रूप से तो अब एक व्यक्ति एक मत के अधिकार के दृष्टि से तो समान है, लेकिन समाजिक और आर्थिक असमानता अभी भी विद्यमान है, जिसकी खाई को हमें पाटना है और एक समतामूलक स्वतंत्र समाज का निर्माण करना है।

  • लेखक सौरभ दूबे जवाहर लाल नेहरू विवि में एम.ए. राजनीतिक विज्ञान के छात्र हैं। संपर्क- Saurabh.aishwary@gmail.com

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