
दिल्ली धुंआ-धुंआ है. लोग नाक और मुंह ढक कर घूम रहे हैं. बावजूद इसके अंदर जहर ही घोट रहे हैं. आखिर हम कैसे समाज में रह रहे हैं, जहां न साफ पानी है और न साफ हवा. आप सड़कों पर निकल जाइए, हवा में उड़ती प्लास्टिक जरूर दिख जाएगी. गायों का पेट चीरा जाता है तो उसमें से पांच और दस किलो प्लास्टिक निकल रहा है. आप सब्जी खरीदने चले जाइए, एक बार में आपको कम से कम दस प्लास्टिक मिलेगा. थैला लेकर जाने के बावजूद.
एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण की जो स्थिति है, उसके कारण पच्चीस से तीस हजार लोग मर सकते हैं. तो क्या हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं जहां हम राह चलते दम घुटने से मरेंगे और हमारी पीढ़ियां सड़कों पर तड़प-तड़प कर मरेंगी?
देश की आजादी को सिर्फ सात दशक हुए. आप सरकारों से पुछिए कि उन्होंने इन सत्तर सालों में क्या किया, तो वो इतनी योजनाएं गिनवाएंगे कि आप माथा पकड़ कर बैठ जाएंगे. सरकारें कहेंगी कि उन्होंने सैकड़ों कॉलेज बनवा दिए, बड़े-बड़े अस्पतालें खड़े कर दिए, फ्लाईओवर, मेट्रो बन गए. देश भर में बिजली पहुंच गई, कच्ची सड़कें पक्की हो गई. मॉल खुल गए, पूरा देश चकाचक हो गया. देश की सेना चाक चौबंद हो गई, विदेशों से हमारे रिश्ते सुधर गए. सच है, ऐसा हुआ भी है. लेकिन…… लेकिन साफ हवा का क्या? साफ पानी का क्या? गुणवत्ता शिक्षा का क्या, एक आम मरीज को इंसान समझने वाले अस्पताल का क्या? ये सब कहां है?
इंसान को जीने के लिए सबसे पहले स्वच्छ हवा और साफ पानी चाहिए, इनका क्या? यह ठीक है कि हमारी सरकारों ने बहुत काम किया लेकिन ये चीजें क्यों नहीं दे पाईं. यह सच है कि पर्यावरण को सुधारने की जिम्मेदारी हर इंसान की है, लेकिन जब कोई इंसान खुद की जिम्मेदारी को समझ कर कोई काम न करे तो फिर आखिर उससे वो काम जबरन ही करवाया जा सकता है. जैसे चोरी के लिए कानून न हो तो चोरी बढ़ती रहे. इसके खिलाफ कानून इसीलिए बने हैं क्योंकि यह नहीं होना चाहिए. इसी तरह बेहतर समाज को बनाने के लिए कई और भी बाते हैं जो कानून बनाकर सुधारे गए हैं. कानून न बने होते तो आज भी विधवाएं पति के साथ ही जला दी जाती लेकिन यह रुका क्योंकि इसके खिलाफ कानून बनें.
इसी तरह प्रदूषण का मामला है. दिल्ली की हवा सांस लेने लायक नहीं है, नोएडा का पानी पीने लायक नहीं है. यानि अगर आपको दिल्ली-एनसीआर में रहना हो तो आपको साफ हवा या स्वच्छ पानी में से किसी एक को चुनना होगा. यह समझने की जरूरत है कि यह इतना भयानक है कि इसको रोकने के लिए जो कानून जरूरी हो वह बनाया जाना चाहिए था, जो सख्ती बरतनी जरूरी थी, वह बरतनी चाहिए थी. लेकिन तमाम सच्चाईयों के बीच एक सच्चाई यह भी है कि हमारी सरकारें तो एक पॉलिथीन तक पर बैन लगाने का माद्दा नहीं दिखा सकी, वो आखिर पर्यावरण को सुधारने के लिए दूसरे उपाय क्या करेगी?

अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-आदिवासी समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले देश के चर्चित पत्रकार हैं। वह ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ के संस्थापक और संपादक हैं। उनकी पत्रकारिता को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई जैसे देशों में सराहा जा चुका है। वह इन देशों की यात्रा भी कर चुके हैं। अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने, जिनमें DW (जर्मनी), The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspaper (जापान), द वीक मैगजीन (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं। अशोक, दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में फरवरी, 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता के दुनिया के सबसे बड़े संगठन Global Investigation Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग मे आयोजिक कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है।