अभी प्रशांत भूषण के मामले में न्यायपालिका का रुख काफी चर्चा में रहा। देश की शीर्ष अदालत और प्रशांत भूषण के बीच महीने भर से ऊपर रस्सा-कस्सी चलती रही। प्रशांत भूषण पर आरोप था कि उन्होंने अदालत की अवमानना की है। अदालत ने उनसे माफी मांगने को कहा, प्रशांत भूषण ने इंकार कर दिया। आखिरकार तमाम उठापठक के बाद अदालत ने जैसे मजबूरी में प्रशांत भूषण पर एक रुपये का जुर्माना लगाया और मामले को खत्म किया गया।
इस मामले के दौरान ही दलित-बहुजन समाज की ओर से यह आवाज उठी कि इसी अदालत ने जस्टिस कर्णन के मामले में ऐसी उदारता क्यों नहीं दिखाई और अपने ही सिस्टम के भीतर के एक जज को लेकर इतनी सख्त क्यों रही। जस्टिस कर्णन को शीर्ष अदालत की अवमानना के मामले में छह महीने के जेल की सजा सुनाई गई थी। यानी एक ही तरह के दो मामले में अदालत का पक्ष अलग-अलग रहा। दोनों में अंतर सिर्फ यह था कि प्रशांत भूषण एक प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य हैं और उनके पिता शशि भूषण सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील हैं और देश के कानून मंत्री भी रहे हैं। जबकि जस्टिस सी. एस. कर्णन राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त एक शिक्षक पिता की संतान हैं और उनका जन्म एक दलित परिवार में हुआ। न तो उनके परिवार में कोई मंत्री था और न ही कोई वो ऐसे मजबूत सामाजिक परिवेश से आते थे, जैसे की प्रशांत भूषण।
जस्टिस कर्णन के मामले में चौंकाने वाली बात यह थी कि वह देश के पहले ऐसे हाईकोर्ट जज रहे हैं, जिनको सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने की सजा सुनाई। यह तब हुआ जब जस्टिस काटजू और सुप्रीम कोर्ट के दिवंगत वकील रामजेठमलानी जैसे कई लोग अदालत के खिलाफ बहुत कड़वी बातें कह कर भी बचकर निकल जाते रहे हैं। जबकि जस्टिस कर्णन ने देश की न्याय व्यवस्था को सुधारने की कोशिश की थी। देश की न्यायपालिका में बैठे कुछ करप्ट जजों की पोल खोलने को लेकर कवायद की थी। उन्होंने प्रधानमंत्री तक को इन तमाम बातों के बारे में चिट्ठी लिखी। लेकिन अदालत ने अपने भीतर झांकने और चीजों को दुरुस्त करने की बजाय जस्टिस कर्णन की कवायद को अदालत की अवमानना मानकर उनके खिलाफ मुकदमा शुरू कर दिया। जबकि जस्टिस कर्णन प्रकरण के कुछ महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने जब मीडिया के सामने आकर उन्हीं सवालों को उठाया तो सबने उनके हिम्मत की खूब सराहना की गई।
प्रशांत भूषण और जस्टिस कर्णन के मामले की तह में जाने और उसे समझने के बाद आपके जहन में यह सवाल जरूर आएगा कि क्या इस देश की अदालत अलग-अलग लोगों के बारे में अलग तरीके से सोचती है।
इस मामले के तुरंत बाद एक ऐसा आंकड़ा सामने आया है, जिसने भारतीय न्याय प्रणाली पर एक बार फिर सवाल उठा दिया है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकॉर्ड (NCRB) द्वारा जारी ताजा आंकड़ों में पता चला है कि जेलों में बंद दलितों और आदिवासियों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से अधिक है। जबकि सवर्णों की बात करें तो इस जाति के लोग उनकी आबादी की अनुपात से कम संख्या में जेलों में हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिकॉर्ड (NCRB) द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताकि 2019 के अंत में जेल में बंद कुल दोषियों में से 21.7 प्रतिशत दलित थे। वहीं विचाराधीन कैदियों में से 21 प्रतिशत अनुसूचित जातियों से संबंधित हैं। वहीं जेल में बंद दोषियों में आदिवासी समाज के 13.6 प्रतिशत कैदी हैं जबकि विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत 10.5 प्रतिशत हैं। अब हम इन दोनों समुदायों की आबादी की बात करें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल जनसंख्या में दलित समाज की आबादी 16.6 प्रतिशत है, जबकि अनुसूचित जनजाति यानि आदिवासी समाज की आबादी 8.6 प्रतिशत है।
अन्य समुदायों की बात करें तो आंकड़े बताते हैं कि मोटे तौर पर उच्च जाति के हिंदू और दूसरे समुदायों का संपन्न वर्ग आता है। आबादी में इनका हिस्सा 19.6 प्रतिशत है। वहीं दोषी कैदियों में इनकी संख्या 13 प्रतिशत है, जबकि विचाराधीन कैदी 16 प्रतिशत हैं। वहीं जेल में बंद कुल कैदियों में से 35 प्रतिशत दोषी और 34 प्रतिशत विचाराधीन कैदी OBC से संबंध रखते हैं।
इन आंकड़ों के सामने आने के बाद साफ है कि एससी-एसटी समाज को सरकार द्वारा बेहतर कानूनी मदद नहीं मिल पाती, और न ही उनके पास इतने पैसे होते हैं कि वह खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए बेहतर वकील कर सकें। ऐसे में एक बार किसी मामले में उनका नाम आने के बाद वह कानूनी जटिलताओं में उलझ कर रह जाते हैं। या तो वह दोषी करार दिये जाते हैं या फिर विचाराधीन कैदी बन कर सालों जेल की सलाखों के पीछे रहने को मजबूर होते हैं।
मई 2020 में रिटायर होने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने भी अपने रिटायरमेंट के बाद फेयरवेल स्पीच में यही सवाल उठाया था। जस्टिस गुप्ता ने कहा था कि कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है लेकिन गरीबों के मुकदमों में देरी होती है। अमीर लोग तो जल्द सुनवाई के लिए उच्च अदालतों में पहुंच जाते हैं लेकिन, गरीब ऐसा नहीं कर पाते। दूसरी ओर कोई अमीर जमानत पर है तो वह मुकदमे में देरी करवाने के लिए भी उच्च अदालतों में जाने का खर्च उठा सकता है।
साफ है कि जब शीर्ष अदालत का कोई जज इस तरह के सवाल उठाता है तो सवाल वाजिब और दमदार है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस स्थिति को सुधारने की दिशा में देश की न्याय व्यवस्था गंभीर कोशिश करना कब शुरू करेगी? या फिर क्या देश के वंचित तबके को यह मान लेना चाहिए कि देश की न्याय व्यवस्था उनको न्याय दिलाने को लेकर गंभीर नहीं है।

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
