दलित पैंथर, एक विश्लेषण

जब से मुझे दलित पैंथर आन्दोलन के विषय में पता चला। इसके बारे में और अधिक जानने की इच्छा मन में बढ़ती गई। मैंने इन्टरनेट, पत्रिकाओं, किताबों और कभी-कभी समाचार पत्रों में छपने वाले दलित लेखकों के लेखों में यह नाम पढ़ा था और यह भी कि कैसे इस आन्दोलन ने महाराष्ट्र में दलित समाज के विषयों को लेकर सरकार में खलबली मचा दी थी।

इस आन्दोलन के विषय में अध्ययन सामग्री खोजते-खोजते मुझे अचानक इसके संस्थापकों में से एक रहे जे०वी० पवार द्वारा लिखी पुस्तक ‘दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास’ (मूलत: यह पुस्तक मराठी में लिखी गई है। बाद में जिसका अनुवाद मराठी से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिन्दी में अमरीश हरदेनिया ने किया है) मिली। जिसे मैंने बिना देर किये ऑनलाइन ऑर्डर कर लिया।

किताब की भूमिका में जे०वी० पवार लिखते हैं कि उन्हें बहुत से लोगों ने अपनी आत्मकथा लिखने के लिये कहा। लेकिन उन्होंने अपनी आत्मकथा न लिखकर ‘दलित पैंथर’ की आत्मकथा लिखने को तरजीह दी। जिसका जुड़ाव उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।

अमेरिकी निग्रो द्वारा नस्लभेद को लेकर 70 के दशक में चले ‘ब्लैक पैंथर’ आन्दोलन से प्रेरणा लेकर अपने एक सहयोगी नामदेव ढसाल (प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार) के साथ मिलकर पवार ने सन् 1972 में दलित पैंथर की स्थापना की। (स्त्रोत- दलित पेंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 19)

दलित पैंथर आन्दोलन को लेकर दलित समाज खासकर दलित शब्द सुनकर नांक-भौं सिकोड़ने वाले हिन्दू दलितों में बहुत सी भ्रान्तियाँ है। जिसे दूर करने की आवश्यकता है। कुछ लोग इसे एक दलित साहित्यिक आन्दोलन के तौर पर देखते हैं जबकि ऐसा नहीं है। इस आन्दोलन से पूर्व भी दलित साहित्य का सृजन हो रहा था। कुछ इसे जातीय आन्दोलन के रूप में देखते हैं जबकि ऐसा नहीं है। यह आन्दोलन को शुरू करने वाले युवा हिन्दू धर्म का कोढ़ झेल रहे हिन्दू दलित नहीं अपितु उन्हें जाति के दलदल से बाहर निकालने वाले बौद्ध युवक थे। यह आन्दोलन महाराष्ट्र के बौद्ध युवाओं ने मिलकर शुरू किया था। जिससे धीरे-धीरे दलित हिन्दू भी जुड़ते चले गये। कुछ लोग दलित पैंथर आन्दोलन को प्रतिक्रियात्मक आन्दोलन कहते हैं परन्तु यह भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं। अवश्य यह आन्दोलन भारतीय संसद में 1970 में पेश इल्यापेरूमल समिति की रिपोर्ट जिसमें देश में हर दिन बढ़ते दलितों पर अत्याचार का वर्णन था तथा इस विषय में बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा छोड़ी उनकी राजनीतिक विरासत रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया का कुछ न कर पाने के बाद खड़ा हुआ (जो आपसी राजनीति की शिकार हुई क्योंकि इसमें कोई ईमानदार नेतृत्व नहीं था) आन्दोलन था। लेकिन इस आन्दोलन ने महाराष्ट्र राज्य में दलितों की सामाजिक स्थिति में बहुत परिवर्तन किया। दलितों को उनके ज़मीन पर हक़ दिलाने से लेकर महिलाओं की सुरक्षा तक के कार्य दलित पैंथर के एजेंडे में थे। कुछ लोग इसे राजनीतिक आन्दोलन भी कहते हैं। लेकिन यह आन्दोलन किसी भी प्रकार से राजनीति से प्रेरित नहीं था। यह आन्दोलन पूर्णरूप से सामाजिक व अम्बेडकरवादी आन्दोलन था।

दलित पैंथर के विषय में फैली भ्रान्तियों का मुख्य कारण था 80 के दशक में चल रहे इस अम्बेडकरवादी आन्दोलन का मुख्यधारा के मनुवादी मीडिया द्वारा नकारात्मक प्रचार करना। संसाधनों की कमी के चलते दलित पैंथर स्वयं भी अपना किसी प्रकार का मीडिया खड़ा नहीं कर सका। क्योंकि इसके कार्यकर्ता बहुत ही गरीब पृष्ठभूमि से आते थे। दूसरी जगह इसी के समकालीन महाराष्ट्र में ऊभर रहे नये हिन्दुवादी संगठन शिवसेना अपनी उत्तेजक कार्यशैली के चलते भी हमेशा ऐसे नकारात्मक प्रचार से बचा रहा। क्योंकि इसका मुख्यधारा के मीडिया पर प्रभाव था। इसका अपना मीडिया भी स्थापित हुआ।

अपितु इस प्रकार से मीडिया द्वारा नकारात्मक प्रचार करने के बावजूद भी इसे महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादी युवाओं का अच्छा ख़ासा समर्थन मिला। एक रैली में जे०वी० पवार अपने कार्यकर्ताओं की संख्या 40000 बताते हैं, जिसे देखकर यह लगता है कि मीडिया का नकारात्मक प्रचार भी इस आन्दोलन का कुछ नहीं बिगाड़ सका था।

दलित पैंथर की मीडिया में नकारात्मक छवि बनाये जाने के बावजूद भी यह अम्बेडकरवादी संगठन युवाओं में ख़ासा लोकप्रिय रहा। इसने देश के साथ-साथ विदेशो में भी ख्याति अर्जित की। भारत में गुजरात, मध्यप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में अपनी पैठ बनाने के साथ-साथ लंदन में भी दलित पैंथर्स ऑफ़ इण्डिया के नाम से एक संगठन बना। वर्ष 2016 में जे०वी० पवार की ‘ब्लैक पैंथर्स’ की नायिका रही ऐंजिला डेविस से मुलाक़ात हुई और उन्होंने अपनी कृति ‘दलित पैंथर्स-एक अधिकारिक इतिहास’ का अंग्रेज़ी रूप उन्हें भेंट किया। पवार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं कि ब्लैक पैंथर की इस नायिका के नाम पर ही उन्होनें अपनी एक सुपुत्री का नाम रखा।

कुछ ही वर्षों में साधारण से दिखने वाले इस अम्बेडकरवादी संगठन ने कुछ असाधारण काम किये। जिसमें पहला काम था दलितों पर होने वाले अत्याचारों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाना। अधिकारिक रूप से इसकी स्थापना होने पर प्रेस विज्ञप्ति में हस्ताक्षर करने वालों में से एक पैंथर राजा ढाले थे, जिन्हें आगे चलकर बहुत प्रसिद्धि मिली। राजा ढाले के लेख जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के अपमान पर मिलने वाले दण्ड और एक दलित महिला को निर्वस्त्र घुमाये जाने पर मिलने वाले दण्ड पर तुलनाकर एक उत्तेजक लेख लिखा था। (स्त्रोत- दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 33)

दलित पैंथर के साथ ही नामदेव ढसाल भी एक प्रखर वक्ता और एक ओजस्वी कवि के रूप में ऊभर रहे थे। महाराष्ट्र के दलित युवाओं में ढसाल का काफी प्रभाव था। परन्तु शुरू से ही उनका झुकाव साम्यवादी विचारों और कम्युनिस्टों की ओर था। ढसाल का उठना-बैठना कम्युनिस्टों के साथ होने से कई बार ‘पैंथर’ को अजीब सी स्थिति में भी डाल देता था।

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि दलित पैंथर एक अम्बेडकरवादी आन्दोलन था। इसलिये यह आन्दोलन बाबा साहब के नक़्शेक़दम पर चला और इसने धर्मग्रन्थों का विरोध शुरू किया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में ऊभरे रहे कट्टर हिन्दुवादी संगठन शिवसेना ने घोषणा की कि वह हिन्दुओं के धार्मिक ग्रन्थों का अपमान बर्दाश्त नहीं केरगी। इसके चलते जातिगत अत्याचारों के स्त्रोत रहे एक ग्रन्थ को सार्वजनिक रूप से जलाने के चलते पैंथर कुछ कट्टरवादी संगठनों के निशाने पर आ गया। (स्त्रोत-दलित पैंथर- एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 86)

वरली की एक आमसभा को मंच से संबोधित कर रहे ‘राजा ढाले’ पर पत्थरबाज़ी होने से अफ़रातफ़री का माहौल हो गया और उस अफ़रातफ़री ने दंगे का रूप ले लिया। इस दंगे में ‘पवार’ ने अपने एक पैंथर ‘भागवत’, जिनके सिर पर आटा पीसने वाला पत्थर आकर लगा, को खो दिया। दंगे के बाद इस दंगे का मुख्य आरोपी पैंथर्स को ही बताया गया और पवार और उनके कई साथियों पर पुलिस द्वारा मुक़दमे चलाये गये। पवार अपनी इस पुस्तक में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के दंगे अपने राजनीतिक हित साधने के लिये न रोकने का संदेह भी व्यक्त करते है। (देखे- पृ्ष्ठ 133, दलित पैंथर्स- एक अधिकारिक इतिहास)

दलित एकता के नाम पर समाज को छलावा देता रिपब्लिकन दल स्वंय ही गुटों में बंट गया था। पैंथर्स अक्सर इसके नेताओं की सार्वजनिक मंचों से आलोचना करते थे। क्योंकि ये लोग न तो पार्टी और न समाज के लिये कुछ कर रहे थे। पार्टी से जुड़े रहने का इनका अर्थ केवल अपने निजी स्वार्थों की सिद्धि ही था।

पवार अपनी इस पुस्तक में लिखते हैं कि कई बार कई वामपंथी लीडर उनसे मिलना चाहते थे और दलित पेैंथर को लेकर अपनी चिंता उनसे व्यक्त करते थे। पवार लिखते हैं कि ऐसा केवल इसी वजह से था कि वे लोग गरीब और सर्वहारा वर्ग में इसकी बढ़ती लोकप्रियता से चिंतीत थे और इस आन्दोलन को हथियाने का प्रयास समय-समय पर करते रहते थे। पवार स्वयं भी साम्यवादी विचारधारा के समर्थक नहीं थे। इसलिये वामपंथी दलित पैंथर के इस आन्दोलन को हथिया नहीं पाये।

पवार अपनी इस पुस्तक में ‘गवई बंधुओं’ की आँखें निकालने के घटना के बारे में बताते है। जब उन्होंने गवई बंधुओं को न्याय दिलाने हेतु प्रधानमंत्री से मुलाक़ात की। इसके लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री के महाराष्ट्र दौरे के समय उनके क़ाफ़िले को रोकने की योजना बनाई गई। परन्तु यह सूचना जैसे ही प्रशासन के पास पहुँची उनके हाथ-पैर फूल गये और प्रशासन ने गवई बंधुओं को एयरपोर्ट लांज में प्रधानमंत्री से मिलवाया। पवार द्वार प्रधानमंत्री से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की शिकायत करने पर मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी गवानी पड़ी।

दलित पैंथर ने न केवल मनुवाद का विरोध किया अपितु इसने अम्बेडकरी विचारधारा की विरोधी विचारधारा गांधीवाद का भी विरोध किया। हरिजन शब्द पर आपत्ति जताते हुए इसके प्रयोग पर रोक की माँग की और महात्मा गांधी द्वारा लिखे गये ग्रन्थों का भी दहन किया। (देखे- पृष्ठ 205, दलित पेंथर-एक अधिकारिक इतिहास)

इस सबके बावजूद बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर के सालों से बक्सों में बंद पड़े साहित्य को छपवाने को लेकर भी आन्दोलन चलाया। माईसाहब (बाबा साहब की दूसरी पत्नी) और भैय्यासाहब (बाबा साहब के पुत्र) को मनवाकर उन्हें बाबा साहब को छपवाने की अनुमति माँग सरकार से बाबा साहब के साहित्य को छपवाने में आने वाले खर्च को वहन करने के लिये भी प्रयास किया। पवार बताते हैं कि बाबा साहब द्वारा लिखा साहित्य प्रिंटिंग प्रेस से निकलते ही हाथो-हाथ बिक जाता था जिससे बाद में महाराष्ट्र सरकार को अच्छी आमदनी होने लगी।

दलित पैंथर के समाज में बढ़ते प्रभाव ने इसके कुछ कार्यकर्ताओं को पहचान के साथ-साथ ताक़त भी दी। जिसका कुछ कार्यकर्ताओं ने नज़ायज फ़ायदा उठाना शुरू कर दिया। कुछ कार्यकर्ता धन अर्जन करने लगे। कुछ अन्य दलों में समाज के दलित वर्ग के ठेकेदार बन बैठे और कुछ ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से पैंथर के नाम का इस्तेमाल अपने निजी स्वार्थ के लिये करने लगे। बस यहीं से इस आन्दोलन का पतन शुरू हो गया। (दलित पेंथर-एक अधिकारिक इतिहास, पृष्ठ सं० 231)

तेज़ी से सफलता की ऊँचाई छूता यह आन्दोलन भी तेज़ी सी ही ख़त्म हुआ। सन् 1972 में शुरू हुआ यह आन्दोलन अपनी शैशवावस्था के पाँच साल ही जीवित रह पाया और 1977 में इस समाजिक संगठन को विघटित कर दिया गया। इसके विघटन का मूल कारण था, इसके नेतृत्व के कुछ लोगों का अति महत्वाकांक्षी होना। ढसाल का साम्यवाद की ओर झुकाव होना पैंथर में फूट का एक कारण था। क्योंकि ढाले और पवार साम्यवाद की विचारधारा में क़तई विश्वास नहीं करते थे। पवार लिखते हैं कि कुछ समय कम्युनिस्टों के साथ रहने बाद ढसाल फिर कांग्रेस में शामिल हो गये। जिस प्रकार से ब्लैक पैंथर्स अपने जन्म के बाद (1966-1969) केवल तीन वर्ष ही रह पाया। उसी प्रकार से दलित पैंथर्स भी अपने जन्म पाँच साल के बाद ही विघटित हो गया। इसका एक कारण यह भी है कि ऐसे विस्फोटक आन्दोलनों को अधिक समय तक जारी रखने के लिये बड़ी ताक़त की आवश्यकता होती है।

पवार, ढाले और ढसाल के अलावा अनेक पैन्थर्स ऐसे भी थे, जिन्होंने इस आन्दोलन के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था और वे भी इस आन्दोलन की तरह दुनिया में अमर हो गये। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई इतने से छोटे समय में ही ऐसे कारनामे कर जाये कि वह इतिहास बन जाये। परन्तु भारत में दलित पैंथर ने यह कारनामा कर दिया। वह अपने छोटे से जीवनकाल में अपने अम्बेडकवादी आन्दोलन के चलते अमर हो गया। आज भी जब कभी दलितों, असहायों और वंचितो पर अत्याचार होते हैं और व्यवस्था उन अत्याचारों से उन्हें छुटकारा दिलाने में नाकाम होती है। तब इसी प्रकार की आन्दोलन की शुरुआत होती है।


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  • इस आलेख के लेखक पंकज टम्टा हैं। पंकज उत्तराखंड के अल्मोरा में रहते हैं। उनसे संपर्क- 7895906705 पर किया जा सकता है। 

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