कोरोना, सत्ता और बेरोजगारी

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वो तस्वीरें आपके सामने भी घूम रही होंगी, जो पिछले तीन दिनों से खबरों और खासकर सोशल मीडिया के जरिए देश भर में फैल चुका है। जी हां, बेतहाशा अपने घरों की ओर भागते लोगों के झुण्ड की तस्वीरें। इन्हें आप गरीब कह लिजिए, मजबूर कह लिजिए, लाचार कह लिजिए, या फिर आप थोड़ा सोचने-समझने की ताकत रखते हैं तो इन्हें ‘इंसान’ मान लिजिए। आज जब ये सड़क पर हैं तो कई तरह की बहसें चल रही हैं।

बहस दो तरह की है। एक वर्ग इस पक्ष का है कि इन्हें घरों में रहना चाहिए, जैसा कि सरकार ने कहा था। जबकि दूसरा वर्ग वह है, जो इन्हें सड़कों पर देख कर चिंतित है और अपने गांव की सरहद पर लट्ठ लेकर बैठा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही पुलिस सक्रिय हो गई थी, तो आखिर इतने सारे लोग सड़कों पर कैसे आ गए। क्या यह अचानक हो गया कि लाखों लोग दिल्ली-यूपी की सीमा पर दिखने लगे। क्या ये एकदम से अपने घरों से निकल कर सीधे बार्डर पर पहुंच गए? अगर सरकार इतनी सचेत थी तो आखिर इन लोगों को सड़कों पर आने से रोका क्यों नहीं गया?

आनंद विहार पर उमड़ा लोगों का हुजूम

इस भगदड़ की एक गुनहगार बिहार और उत्तर प्रदेेश की सरकारें भी है। क्योंकि दिल्ली-यूपी बार्डर पर सड़कों पर जिनका हुजूम दिख रहा है, वह इसी दोनों राज्यों के हैं। जी हां, ये वही पूर्वांचली हैं, जो दिल्ली की सियासत चलाते हैं। ये दिल्ली में जब जिसे चाहें गद्दी पर बैठा दें, जब चाहें कान पकड़ कर उठा दें। दिल्ली में हर चौथा-पांचवा वोटर पूर्वांचल का है। दिल्ली में पूर्वांचल के 35 फीसदी वोटर हैं। दिल्ली के 70 विधानसभा सीटों पर पूर्वांचल के मतदाता 20-60 प्रतिशत तक हैं।

पूर्वांचल के लोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में सबसे ज्यादा विस्थापित होकर पहुंचते हैं। आज सड़कों पर भी वही हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर उनका राज्य उन्हें आज तक कोई रोजगार क्यों नहीं दे पाया। या फिर बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने अपने राज्य के लोगों का पलायन रोकने के लिए अब तक कोई उपाय क्यों नहीं किया। और इसका कसूर किसी एक नेता या एक पार्टी का नहीं है, बल्कि इसकी जिम्मेदार सभी पार्टियां और सभी नेता हैं।

बिहार में कांग्रेस से लेकर गरीबों का मसीहा कहे जाने वाले लालू यादव की भी सरकार रही, तो झारखंड में भी कई बार आदिवासी मुख्यमंत्री रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता पर मायावती, मुलायम और अखिलेश यादव भी बैठें। इसलिए सिर्फ कांग्रेस या भाजपा को कोसने भर से काम नहीं चलेगा। सवाल इन लोगों पर भी उठते हैं। और उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती थी, क्योंकि शहरों से गांवों की ओर पलायन सबसे ज्याद पलायन कमजोर वर्गों के लोग ही करते हैं। लेकिन आज जिस तरह गरीब अपने गांव और शहर के बीच बिना छत और रोटी के सड़कों पर मौजूद है, उसमें इन तमाम बहुजन नेताओं पर भी उंगली उठती है।

एनएसओर के आंकड़े के मुताबिक बिहार में बेरोजगारी दर 8.3 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सारे रिकार्ड ही तोड़ दिए। योगी के सीएम बनने के बाद पिछले दो सालों में यहां 12.5 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं। प्रदेश के लेबर डिपार्टमेंट की ओर से संचालित ऑनलाइन पोर्टल के मुताबिक 7 फरवरी 2020 तक करीब 33.93 लाख लोग बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए हैं। और झारखंड में हर पांच युवा में से एक युवा बेरोजगार है।

लोगों के सामने यह आपदा भले ही आचनक आई है। लेकिन केंद्र सरकार को पता था कि वह लॉक डाउन करने जा रही है।ऐसे में उसे सारे इंतजाम पहले से करने चाहिए थे। ताकि लोग घरों से न निकले। तो राज्य सरकारों को भी सोचना चाहिए कि आखिर वह आज भी अपने लोगों को स्थानीय तौर पर अपने राज्यों में ही रोजगार दिलाने में क्यों विफल रही है। सवाल के घेरे में केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक हैं। कांग्रेस से लेकर भाजपा तक है। तो सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता भी। पिस रहा है तो सिर्फ गरीब।

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