गरीब पर भारी कोरोना की आर्थिक सुनामी

– प्रमोद मीणा
किसी भी प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा की तरह कोरोना वायरस के हमले से उत्पन्न स्वास्थ संकट की सबसे ज्यादा मार गरीब तबके पर पड़ने वाली है। कोरोना के संचरण और संक्रमण पर रोक लगाने के लिए जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने 25 मार्च से देश भर में 21 दिनों के लिए घरबंदी की घोषणा की है, उससे कोरोना वायरस की कमर टूटे या न टूटे गरीब की कमर जरूर टूटने वाली है। वैसे इस घोषणा से पहले ही देशभर में विभिन्न राज्य सरकारें पहले ही अपने-अपने यहाँ आंशिक या पूर्ण नाकेबंदी कर चुकी हैं, यातायात और परिवहन साधनों पर रोक लगाई जा चुकी है, कारखानों-कार्यालयों और दुकानों को बंद कर दिया गया है। अत: आर्थिक संकट के जो बादल पहले से ही मंडरा रहे थे, प्रधानमंत्री की इस घोषणा के उपरांत वे और ज्याादा गहरा गये हैं। इस आर्थिक संकट का सबसे ज्यादा असर पड़ने वाला है – अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगाररत कामगार वर्ग के ऊपर। अपने घरों से सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर की दूरी पर मेहनत-मजदूरी कर रहे दलित-आदिवासी-पिछड़े लोग आर्थिक गतिविधियों के थम जाने से खुद को असहाय पा रहे हैं। गलियों-कॉलोनियों और सड़कों पर ठेले-खुमचे लगा अपना जीवन-यापन करने वाले छोटे-छोटे विक्रेताओं के घरों में मातम सा पसर गया है।

महानगरों और दूसरे बड़े शहरों में कामबंदी होने के कारण आप्रवासी कामगार तबका बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड-छत्तीसगढ़ सरीखे निर्धन राज्योंं में अपने घरों की ओर वापस लौटने को मजबूर हुआ है किंतु रेल-सड़क का चक्का जाम कर दिए जाने के कारण ये लोग आसमान से गिरे खजूर पर अटके की स्थिति में बीच में ही फंसकर रह गए हैं। विडम्बना देखिए कि जो आप्रवासी कामगार अपनी कर्मभूमि बन चुके दूसरे राज्यों से अपनी जन्मभूमि रहे राज्योंं में जैसे-तैसे वापस भी लौटे हैं, तो उनके साथ सामाजिक अस्पृश्यता का व्यवहार किया जा रहा है। कोरोना के डर से वे अपने ही घर-समाज में अछूत बन जाने को अभिशप्त हैं। इन आप्रवासी कामगारों के प्रति सरकार और समाज का रुख जिस प्रकार वर्गीय पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है, वह भी ध्यातव्य है। एक ओर इन आप्रवासी कामगारों को वायरस के संभावित संचरण-संक्रमण का वाहक मानकर घोषित-अघोषित रूप से उनकी घर वापसी पर रोक लगाई जा रही है, वहीं दूसरी ओर विदेश में अटके हुए भारतीयों की घर वापसी के लिए विशेष कदम तक उठाये गए हैं। बेहतर जीवन संभावनाओं की तलाश में विदेश जाने वाला अमीर वर्ग जब कोरोना ग्रसित देशों में फंसने लगता है, तो केंद्र की बुर्जुआ सरकार वर्गीय हितों से संचालित हो देशभक्ति की आड़ में इन लोगों की देश वापसी सुनिश्चित करने में जुट जाती है। यह जानते-बूझते हुए भी कि चीन से लौटने वाले हवाई यात्रियों के साथ-साथ यूरोप से लौटने वाले लोग भी कोरोना वायरस अपने साथ ला सकते हैं, उन्हें लगभग पूरे फरवरी माह में बेरोक-टोक आने दिया गया, कई मामलों में तो समुचित स्वास्थ जाँच प्रक्रिया से भी नहीं गुजारा गया। यूरोप से आने वाले इन लोगों की आवाजाही पर यथोचित निगरानी और प्रतिबंध नहीं लगाने के कारण ही संभवत: आज कोरोना का संक्रमण आपदा का रूप लेता जा रहा है।

प्रधानमंत्री कोरोना से लड़ने के लिए जनता कर्फ्यू और थाली-कटोरा बजाने का राष्ट्री के नाम संदेश देकर कोरोना योद्धाओं (स्वास्थ कर्मियों, सफाईकर्मियों और पुलिसवालों आदि) के उत्साहवर्धन की मुहिम चलाते हैं और इस मुहिम को कोरोना के खिलाफ जनजागरुकता का नाम भी देते हैं। लेकिन जुबानी जमा खर्च के अलावा वे इस स्वास्थ्य आपदा के साथ नाभिनाल जुड़े आर्थिक संकट में अपने अस्तित्वु के लिए जूझते असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए एक भी ठोस घोषणा नहीं करते। कोरोना और उससे संबद्ध कोविड-19 जैसी महामारी पर रोक लगाने के लिए जो कामबंदी की गई है, उससे गरीबों की आर्थिक नब्ज रुक सी गई है। इस वैश्विक हो चुके इंडिया में भी देश का एक बड़ा तबका ऐसा है जो रोज कुँआ खोदता है और पानी पीता है। कोरोना अपने साथ जो आर्थिक सुनामी लेकर आया है, उसने इस तबके को बेरोजगार बना इसकी रोजी-रोटी छीन ली है। इस बेरोजगार गरीब भारत के लिए कोरोना जैसे वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है भूख का वायरस और गरीबी की मार। फणीश्वर नाथ रेणु आजादी के तुरंत बाद ही ‘मैला आँचल’में भूख के इस वायरस को, गरीबी की इस बीमारी को भांप चुके थे।

किंतु आजादी के इतने सालों बाद भी भूख और गरीबी के वायरसों पर हम विजय नहीं पा सके हैं। वस्तुभस्थिति तो यह है कि उदारीकरण के वर्तमान दौर में विशेषत: एनडीए सरकार के पिछले और वर्तमान शासनकाल भूख और गरीबी के इन वायरसों के लिए हनीमून पीरियड रहे हैं। जनकल्याण से जुड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को पूँजीवादी मीडिया के माध्यूम से करदाताओं के ऊपर अनावश्यक बोझ बता जिस प्रकार लगातार समाप्त किया गया है, उनका बजट आवंटन घटा उन्हें मृतप्राय: बना दिया गया है, उस सबके चलते कोरोना की महामारी के बीच आर्थिक संकट में गरीब भारत वेंटिलेटर पर जाने वाला है और यह लेख लिखे जाने तक केंद्र सरकार के पास इसे बचाने के लिए कोई विशेष आर्थिक पैकेज भी नज़र नहीं आ रहा है। केरल और दिल्ली जैसे कुछ गैर भाजपाई शासन वाले राज्यों ने जरूर कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं लेकिन राज्यन सरकारों की अपनी बजटगत और संसाधनगत सीमाएँ हैं।

देश भर में की जा रही समग्र नाकेबंदी के कारण शायद कोरोना के संचरण-संक्रमण पर कुछ हद तक लगाम लग भी जाए लेकिन इस नाकेबंदी की सफलता के लिए जरूरी है कि अमीर इंडिया की तरह गरीब भारत भी अपने घरों में बंद रहे। लेकिन अमीरों के इंडिया की तरह गरीबों के इस भारत के पास अपने घर में निठल्ला बैठने की क्षमता है ही कहाँ! पूँजीवादी मीडियाई खुमार में आपादमस्तिक डूबे हुए हम आत्मरमुग्ध भारतीय चाहे इस मुगालते में रहते रहें कि हम विश्व की आर्थिक शक्तियों में शुमार हो चुके हैं, लेकिन जमीनी सच्चामई तो यही बताती है कि दुनिया के समृद्ध देशों की तुलना में हमारा सामाजिक सुरक्षा तंत्र बहुत ही ज्यारदा लचर है। अमेरिका और यूरोप के देशों में सुदृढ़ सामाजिक सुरक्षा तंत्रों के बलबूते कम से कम कुछ समय के लिए तो समग्र नाकेबंदी को व्यावहारिक धरातल पर उतारा जा सकता है किंतु समग्र नाकेबंदी की हमारे पास वैसी क्षमता है ही नहीं विशेषत: वर्तमान आर्थिक संकट में रोजी-रोटी के लिए जूझते गरीब बेरोजगार भारत के लिए निठल्ला बैठना अपने आप में आत्महत्या करने सरीखा है। इसे कानून व्यवस्था का सवाल बता घर से बाहर निकलने वालों पर पुलिसिया कार्रवाई से भी कुछ नहीं होने वाला है।

अस्तुे, देश के गरीबों को समग्र नाकेबंदी का नैतिक राष्ट्रवादी उपदेश देने के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को इस समग्र नाकेबंदी को सफल बनाने के लिए सामाजिक सुरक्षा तंत्र को भी दुरुस्त करना होगा। देश में कोरोना वायरस संक्रमण की आपात स्थिति को देखते हुए सामने खड़ी आर्थिक सुनामी से लड़ने के लिए तुरंत प्रभाव से बड़े पैमाने पर आर्थिक राहत के कदम उठाने होंगे। समय की कमी को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी जो कुछ भी योजनाएँ और कार्यक्रम इस उदार‍ीकरण के दौर में शेष बचे हुए है, उन्हें युद्ध स्तर पर चलाना होगा। गरीब, बेरोजगार और असहाय भारत को ध्यान में रखते हुए विशेष कोरोना भत्ता दिया जा सकता है। राशन वितरण के सार्वजनिक तंत्र के माध्य‍म से जरूरतमंदों को एकाध महीने का एकमुश्त राशन मुहैया कराना और मनरेगा की बकाया मजदूरी के साथ पेंशन की त्वरित अदायगी जरूरी है। निजी और सरकारी क्षेत्र में कामबंदी के दौरान भी वेतन का नियमित भुगतान अपेक्षित है। पेंशन और राहत का अग्रिम भुगतान एक बड़ी राहत ला सकता है।

सार्वजनिक सेवाओं और सरकारी कार्यालयों को एक सिरे से पूरी तरह बंद करना भी आर्थिक संकट को और गहरा सकता है। इस प्रकार की नाकेबंदी में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को अपने विवेक से काम लेना चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ सेवाओं, परिवहन सेवाओं समेत स्थानीय प्रशासनिक कार्यालयों के कामकाज पर पूरी तरह से रोक लगाने से पहले यह देखना होगा कि ऐसे कदमों से गरीब भारत की रोजी-रोटी और स्वास्थ पर कम से कम प्रतिकूल असर पड़े। सबसे ज्यादा जरूरत के समय गरीबों के अस्तित्व रक्षा में काम आने वाली सेवाओं को जरूरी एहतियातों के साथ चालू रखा जाना नितांत आवश्यक है। रबी की फसलों की कटाई का मौसम भी अब सिर पर आ गया है अत: रबी उत्पादों की सरकारी खरीद और निजी क्षेत्र की मंडियों-दुकानों पर समुचित कीमतों पर उनकी बिक्री भी सरकार को सुनिश्चित करनी होगी।

स्पष्टत: गरीब भारत को बचाने के लिए इस संकट की घड़ी में आवश्यक सेवाओं को चालू रखना और उनका विस्तार करना जरूरी है। सामाजिक सुरक्षा तंत्र की सेहत सुधारकर इन सेवाओं को हर हाल में चलाए रखना आवश्यक है। इस सबके लिए केंद्र सरकार से जहाँ एक बड़ी धनराशि अपेक्षित है, वहीं जुगाड़ करने की रचनात्माक सोच भी जरूरी है। उदाहरण हेतु सार्वजनिक वितरण तंत्र का विस्तार करते हुए इससे संबद्ध संग्रहण और वितरण के साथ-साथ विशेष कोरोना वार्ड बनाने के लिए भी बंद कर दिए गए स्कू्ल-कॉलेजों का इस्तेतमाल किया जा सकता है। ध्यानतव्य है कि आईआईटी बॉम्बे के खाली कराए जा चुके छात्रावासों और बंद पड़ी कक्षाओं समेत अन्य भवनों का इस्तेमाल कोरोना संक्रमित लोगों को अलग-थलग रख उनका उपचार करने हेतु किया जाना तय हो चुका है। आँगनबाड़‍ियों को भी राशन के सार्वजनिक वितरण और कोरोना के खिलाफ जागरुकता फैलाने के लिए काम में लिया जा सकता है। आने वाली गर्मियों को देखते हुए पेयजल की माकूल व्यवस्था भी घर-घर तक करने की जरूरत है अन्यथा पेयजल के लिए हम लोगों के सामाजिक जुटान को नहीं रोक पाएंगे।

अस्तु, सिर्फ स्वास्थ्य विषयक जागरुकता फैलाने और कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए समग्र नाकेबंदी करने मात्र से कोरोना के खिलाफ हिंदुस्‍तान जंग नहीं जीत पाएगा और इस जंग की भारी कीमत भी गरीब भारत को ही चुकानी पड़ेगी। प्रधानमंत्री ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अंतत: 15 हजार करोड़ के बजट की जो घोषणा की है, वह संसाधनों की कमी से जूझ रहे चिकित्साच क्षेत्र के लिए किंचित राहत की बात हो सकती है किंतु कोरोना संकट को अर्थव्यवस्था के संकट के साथ जोड़े बिना हम संकट की इस घड़ी में गरीब भारत को नहीं बचा पाएंगे। हमें याद रखना चाहिए कि कोरोना वायरस तो वर्ग के स्तर पर भेदभाव नहीं करता किंतु इससे संबद्ध आर्थिक सुनामी की सबसे ज्यादा मार गरीबों पर ही पड़ने जा रही है। नोटबंदी से अभी तक उबर न पाई भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना की इस सुनामी को झेलने के लिए भी अभिशप्त नज़र आती है।

(लेखक डॉ. प्रमोद मीणा, आचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वतविद्यालय, जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार सं संबद्ध हैं। संपर्क 7320920958 )

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.