कोरोना की भगदड़ में ठहर कर इनकी तकलीफ भी देखिए

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आज लॉकडाउन का तीसरा दिन था। उसके पहले भी मैग्जीन की तैयारियों के कारण तीन दिन ऑफिस नहीं जा पाया था। इसी बीच प्रधानमंत्री ने 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा कर दी। दो दिनों तक मैं भी परेशान रहा। इंसान हूं, डर तो सबको लगता है। लेकिन लगा कि निकलना चाहिए। देखना चाहिए कि शहर में क्या हो रहा है। वैसे भी लॉक डाउन के बाद से ही जिस तरह अपने गांव की ओर पैदल चल दिए लोगों की तस्वीरें और वीडियो वायरल हो रहे थे, वह परेशान करने वाले थे, सो मैं निकल पड़ा।

नोएडा से दिल्ली की ओर चला। पहले यूपी की सीमा पर पुलिस ने रोका। फिर मीडिया पर गाड़ी लिखी देख जाने दिया। थोड़ा आगे बढ़ते ही दिल्ली की सीमा आ गई। पुलिस ने फिर रोका। फिर वही प्रक्रिया। इस बीच नोएडा की सीमा पर एक चीज ने ध्यान खींचा। एक के बाद एक तीन बैरिकेटिंग थी। उस पर बारी-बारी से डॉक्टर, एंबुलेंस और मीडिया लिखा था। यानी कि इन्हीं तीनों की गाड़ियों को जाने की इजाजत दी जाएगी।

यहां से निकल कर मयूर विहार, त्रिलोकपुरी और फिर पटपड़गंज से गुजरना हुआ। जैसा कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की थी, बसें चल रही थी। छिटपुट ऑटो भी चल रहे थे, लेकिन ज्यादातर सड़क किनारे खड़े थे। जरूरी दुकाने जैसे किराना, फल, सब्जी और दवा की दुकाने खुली थी। सड़क पर लोग भी थे। बहुत ज्यादा नहीं, लेकिन बहुत कम भी नहीं। कह सकते हैं कि सड़कों पर चहल-पहल थी, सड़कें सुनसान नहीं थी।

कोरोना के भय से गांवों से पलायन करते लोग

मदर डेयरी पहुंचने के बाद मैं एन.एच 24 पर चढ़ गया। दिल्ली का एक प्रमुख हाईवे, जो दिल्ली को उत्तर प्रदेश से जोड़ता है। कुछ साल पहले ही प्रधानमंत्री ने दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे का उद्घाटन किया था, तब से इस सड़क की किस्मत बदल गई है। आज के पहले जब भी इस सड़क से गुजरा दर्जनों गाड़ियां एक साथ सरपट भागती दिखीं। आज यह सुनसान थी। थोड़ी दूर आगे बढ़ते ही चौंकाने वाला नजारा दिखने लगा। सर और पीठ पर बैग टांगे लोग पैदल चल दिए थे। गाड़ी रोककर एक लड़के से पूछा कि कहां जा रहे हो। बोला- बलीरामपुर। आप सोचिए कि उत्तर प्रदेश का बलीरामपुर जो दिल्ली से 700 किलोमीटर है, वहां वह युवक पैदल जाएगा। उसने बताया कि वह 10 दिनों में पहुंच पाएगा।

उसकी बातों को सुनकर मैं परेशान था। एक बार उसकी जगह खुद को रखकर उसका दर्द महसूस किया। वहां से मैं आनंद विहार की ओर चल पड़ा। लोगों का रेला लगा था। जत्थे के जत्थे लोग पैदल चल पड़े थे। गाजीपुर के पास हिन्दुस्तान पेट्रोलियम के पेट्रोल पंप पर रुक कर वहां के स्टॉफ से बात की। उन्होंने बताया कि हर रोज 4-5 हजार लोग यहां से गुजरते हैं। चौबीसो घंटे। कोई पानीपत से आ रहा है, तो कोई पंजाब बार्डर से आ रहा है।

उनसे बात ही कर रहा था कि सामने से तकरीबन दो सौ लोगों का रेला आता दिखा। मैंने उनके साथ चलते हुए पूछा- क्यों जा रहे हैं घर? सरकार ने तो रुकने को बोला है। उन्होंने कहा- यहां बिना रोटी के कैसे रहें? मैंने पूछा कि सरकार खाने को तो दे रही है। उनका जवाब था कि हमें तो तीन दिनों में नहीं मिला। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।

ये उनका दर्द था, जो जुबान से निकल रहा था और उनके चेहरे पर भी साफ दिख रहा था। वो दर्द मुझ तक भी पहुंचा। लेकिन यहीं इंसान लाचार हो जाता है और सरकार की ओर ताकने लगता है। क्योंकि एक दिन में हजारों लोगों को सुविधा मुहैया कराना किसी अकेले इंसान के बस की बात नहीं होती। और यहीं सरकार बड़ी हो जाती है और इंसान बौना। लेकिन लोगों का हाल देख कर लगता है कि बड़ी सरकार अभी तक सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित है, उसकी घोषणाएं जमीन पर पूरी तरह नहीं उतरी है।

 

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