शोषण के गढ़ हैं भारत के शैक्षिक संस्थान

बाबासाहेब ने कहा था कि हम किसी भी दिशा में मुड़े जातिवाद का राक्षस आगे खड़ा मिलेगा. समाज में व्याप्त जातिवाद आज एक नये रूप-रंग में हमारे सामने आ गया है. जातिवाद ने अपना चेहरा समय के साथ साथ बदल लिया है, अगर गांव देहात को एक बार के लिए छोड़ भी दिया जाये तो शहरी संस्कृति में यह एक नये रूप में हमारे सामने हैं. लगता है कि सुरसा के मुख की तरह बढते जा रहे बाजारवाद का यह भी अहम हिस्सा बन गया है. देखने में यह साफ-सुथरा नजर आता है पर अंदर से पहले से ज्यादा घिनौना और खतरनाक है. खासकर शिक्षण संस्थाओं में यह सीधे तौर पर नजर नहीं आता परंतु यह अन्दर ही अंदर इनकी गरिमा को खोखला करने पर तुला है. जब से उदारीकरण व निजीकरण के रंग में यह ढला है तब से इसने ब्राह्मणवाद का एक ओर नया चौला पहन लिया है.

अब यह संविधान के तहत दिये प्रतिनिधित्व पर हमला नहीं करता बल्कि उनको ही खत्म करने पर तुला है जो प्रतिनिधित्व लेने के योग्य बन चुके है. यह हमाला अब उन पर काम कर रहा है जो योग्य नहीं है. इनका निशाना अब सीधे योग्यता पर ही है. ना बजेगा बांस, न बजेगी बांसुरी. इसकी चिर्ताथता नजर आ रही है. चाहे वह हरियाणा में मिर्चपुर में जिन्दा जलाने वाली लड़की हो, रोहित वेमुला हो, या फ़िर अब लखनऊ विश्वविधायलय से निष्कासित छात्र हो या इन शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाने वाले दलित शिक्षक हो. अब यह ऐसा कोई भी मौका नहीं चूकना चाहता.

बार-बार छात्रों की प्रतिभा और अध्यापकों की योग्यता पर प्रश्न खड़े कर उसे इतना मजबूर किया जाता है कि वह इन शिक्षण संस्थाओं से अपने आप मुंह मोड़ ले या फिर उनकी भाषा और उनकी संस्कृति को अपना ले, उनके साथ खड़े हो जाये. अगर उनकी अपनी भाषा, अपनी अभिव्यक्ति है तो वह उनके बर्दास्त के बाहर है. यह न सिर्फ़ मेरे साथ एक शिक्षक होने के नाते हो रहा है बल्कि शायद हर उस शिक्षक के साथ है जो अपनी बात रखने का हौंसला रखते है. उन्हें इतना टोर्चर किया जाता है कि वह खुद पर ही संदेह करना शुरु कर देता है कि कहीं ये सब ही तो ठीक नहीं है, शायद मैं ही गलत होंऊ. पर इस ब्राह्मणवाद को समझना ज्यादा कठीन भी नहीं है. यह ब्राह्मणवाद उस कछुए की तरह है जो सामने खतरा देख अपने पैर और गर्दन को सिकोड़ लेता है पर जैसे ही खतरा निकल जाता है यह फिर से अपने पर निकाल लेता है, और आगे बढ़ता है. इसे हम भारतीय प्राचीन समाज के नजरिये से जांच-परख सकते है.

मेरे महाविद्यालय में जो दिल्ली विश्वविद्यालय का जाना माना महाविद्यालय है. शोषण और अपनाम करने के अलग अलग तरीके ढूंढ लेता है. पिछले वर्ष मैने अपने संस्कृत विभाग की सबजैक्ट सोसायटी की संयोजिका होने के नाते अन्तर्महाविद्यालयीय श्लोकोच्चारण और प्रश्नमंच प्रतियोगिता आयोजित की थी. संयोजिका होने के नाते वितरीत किये जाने वाले सर्टिफ़िकेट पर मेरे हस्तक्षार होने थे और साथ में ही प्रींसिपल जे.पी. मिश्र के होने थे. मैने सभी सर्टिफ़िकेट पर साइन किये थे और उसके बाद प्राचार्य के कक्ष मे साइन करने के लिए मैं खुद लेकर गयी. उन्होने कहा मैं सेमिनार कक्ष में ही साइन करके भेज दूंगा. मैं वापिस प्रोग्राम स्थल जो महाविद्यालय का सेमिनार हाल था आ गयी थी.

प्रोग्राम चल रहा था. मैं सर्टिफ़िकेट मुझ तक पंहुचने का इन्तजार कर रही थी. उस वक्त मेरे ही कुलिग श्री. वत्स माइक पर बोल रहे थे कि अचानक उनका फोन बज उठा. हम सब मंच पर थे और हमारे सामने हमारे संस्कृत के सभी छात्र-छात्राएं. उन्होने वहीं पर खड़े ही खड़े फोन उठा लिया. सबको सुन रहा था कि प्राचार्य क्या बोल रहे हैं, उन्होंने उनसे पूछा कि क्या सर्टिफ़िकेट पर साइन कर दूं. मैं सुनकर दंग रह गयी. क्या मेरे साइन देखकर उन्हे साइन नहीं करनी चाहिए. मेरा अपमान किया उन्होने. जबकि मैं ही नहीं सबने सुना. क्या इज्जत रही मेरी. पल नहीं लगा उनको मेरी औकात दिखाने में. श्री वत्स ने क्या कहा- “कर दिजिए साइन, मैडम ने तो किया हुआ है, उसमें मुझसे पूछने की क्या आवश्यकता है” ये माइक से ही बोला जा रहा था. मंच पर विभाग के सभी अध्यापक और बाहर से आये हुए तीन निर्णायक भी थे. मैं आंखे नीची करके बैठी रही. मन तो किया की प्रोग्राम छोड़कर सीधा आफिस में जाऊं और इसका जवाब मांगू. पर वे यही तो चाहते थे कि हम अपनी सारी अनर्जी जलते भुनते निकाल लें और छात्र भी ये समझे कि हम कोई प्रोग्राम ही नहीं करवा सकते. गुस्से में या तश में आकर हम विश्वविद्यालयों की जिम्मेदारी हीं न ले और इनको ये ही मौका मिलता रहे कि हम केवल आरक्षण लेकर नौकरी पा जाते है और तो हमे कुछ आता जाता नहीं. इसलिए मन मसोस कर रह गयी. क्या जब भी कोई प्रोग्राम किया जाता है तो उस पर साइन किसी ओर व्यक्ति से पूछकर वे करते है? ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है. फिर क्युं उन्हें मेरे साइन को देखकर भी किसी ओर से पूंछकर साइन किये. इसमें ब्राह्मणवाद काम कर रहा था, जातिवाद का जहर इनके दिमागों में कूट-कूट कर भरा है.  ये कभी मौका नहीं छोड़ते कि कोई बिना अपमान के छूट जाये. इसमें खास बात यह भी थी कि वे मेरे ही विभाग के भी थे.

 

ऐसी बहुत सी घटनायें शिक्षण संस्थाओं में घटती है जो उनके लिए बहुत छोटी-छोटी होती है परन्तु हमारे लिए हमारी अस्मिता का प्रश्न. मुझे एक दिन प्राचार्य ने अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि अब के एग्जाम वर्ष 2016-2017 में आपको कोरडिनेट करना है. उस समय प्राचार्य के पी.ए. दिनेशा जी भी वहीं थे और हमारे स्टाफ कॉन्सिल के अध्यापक और अध्यापकों के साथ सभी बैठे थे. मैने हां की.

आज दिनांक 9/11/2016 को स्टाफ रूम में प्राचार्य महोदय आये तो मेरी ही एक कुलिग राधिका ने उनसे एग्जाम कोरडिनेट करने के बारे में पूछा तो मैने भी उनकी बात पूरी होने के बाद पूछ लिया कि मुझे अभी तक लैटर नहीं मिला है और न हीं कोई ऑफिस से फोन आया कोरडिनेट करने के लिए. प्राचार्य ने कहा-“ तुम्हे नहीं रखा उसमें”, मैने पूछा क्यूं नहीं रखा तो उन्होंने बताया की तुम्हारे बहुत से फ्रेंड्स है इसलिए नहीं लगाया, सबने मना किया कि तुम्हे न रखा जाये”, मैने पूछा फ्रेंड्स यहां पर किसके नहीं है, सबके हैं, मैं जानती हुं कि आपने क्य़ू किया. आपको क्या लगता है कि मुझे इस तरह रोकने से मैं रुक सकती हूं. वे अच्छी तरह जानते है कि प्रमोशन में कोरडिनेट करने के प्वाईंट मिलते है. कहीं मुझे मिल न जाये इसलिए वे नहीं चाहते थे कि मैं कॉलेज मे रहते हुए कोई प्रमोशन पा लूं.

प्रमोशन रोक देने के लिए वे क्या इस स्तर पर जाकर भी सोच सकते हैं, या जो बेगारी हम दलितों से वे एग्जाम में ड्यूटी लगवा लगवाकर करवाते हैं और दूसरे सो कॉल्ड अपर कास्ट के टीचर मौज उड़ाते हैं, इस पर कहीं मेरे एग्जाम कंडक्ट करवाने से तो उनको कोई प्रोब्लम नहीं हो जायेगी, इसलिए उन्होंने मुझे हटा दिया. वे और कुछ नहीं बोले. पर मेरी लिए उनकी चुप्पी भी तीर की तह से लग रही थी, पर आज मैने अपने आपको इतना मजबूत कर लिया था कि मेरी आंख से पानी न निकले, वे इसी का इन्तजार कर रहे थे. मैं इस अपमान का घूंट पिये वही सीट पर बैठी रही. ये उन घटनाओं में एक ओर शोषण की घटना थी मेरे लिए, मेरे काम पर, मेरी जिम्मेदारी पर प्रश्नचिहन कि हम अभी भी रिलायबल नहीं है, हम पर विश्वास नहीं किया जा सकता. क्यों?

उतर साफ है, धुंधला नहीं, कोई कोहरा नहीं कि हम दलित अभी इतने उनके विश्वास से पात्र नहीं है कि हम इस जिम्मेदारी को सम्भालने के लिए तैयार हो. नौकरी तो उन्होंने देने दी क्योंकि बाबासाहेब ने आरक्षण के प्रावधान दिये है. संविधान में पर इसे व्यवहारिकता में लाना और असल जामा पहनाना अभी भी ब्राह्मणवाद के हाथ में ही है. इन सब पर सवाल उठना अब भी बाकि है. वे अब हम जैसे जागरुक शिक्षकों को भी हांकना चाहते है पर वे अब नहीं हांक पायेंगे. आज कम से कम मुझे इस बात का संतोष है कि मैने उनके सामने कभी उनके अपनों के सामने आंख में आंख मिलाकर कह दिया कि मैं सब जानती हूं कि आपने ऐसा क्यूं किया. आप मुझे रोक नहीं पायेंगे. कम से कम अपनी बात कहने के इस साहस को मैं उनके मुंह पर लगा तमाचा मानती हुं. ये शिक्षण संस्थाओं के पहले भी इसके दरवाजे हमारे लिए सदियों तक बंद रहे, और आज भी शोषण के गढ़ बन रहे हैं परंतु कब तक वे इसे स्थिर कर पायेंगे.

पिसती रहेगी मानवता, समय की धार से कब तक

अंधियारे को चीरकर, उजाला होगा कब तक.

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में संस्कृत की प्रोफेसर हैं.

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