Tuesday, July 1, 2025
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बसपा की राजनीतिक चुनौतियां और समाधान

पिछले दिनों आए उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों के परिणामों ने बहुजन समाज पार्टी की मुश्किलों को और बढ़ा दिया. बसपा इस बार दलित मुस्लिम समीकरणों को साधने का सीधा प्रयास कर रही थी लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुकूल नहीं रहे. भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में 17 बटा 17 का परिणाम हासिल किया और नगर पालिका परिषद अध्यक्ष और नगर पंचायतों के चेयरमैन पद पर भी भाजपा का ही दबदबा रहा. सीधे तौर पर कहे तो बसपा विधानसभा चुनाव के खराब परिणामों के बाद उभरने के अपने प्रयासों में एक बार फिर चूक गई.

उत्तर प्रदेश में बसपा को मिल रही लगातार हार और घट रहा जनाधार बहुजन राजनीति और बहुजन आंदोलन के लिए चिंता का विषय है. दलित आंदोलन आज हाशिए पर पहुंच चुका है और राजनीतिक दलों ने अब वर्गों को साधने की बजाए एक नया वर्ग पैदा कर दिया है जिसका नाम है लाभार्थी. कांग्रेस पार्टी आम आदमी पार्टी की तर्ज पर चल चुकी है और मुफ्त सुविधाएं अपने मेनिफेस्टो में घोषित करके लोगों को आकर्षित करने में कामयाब हो रही है. ऐसे में बहुजन समाज पार्टी के सामने कई चुनौतियां खड़ी होने वाली है. इन सब परिणामों के बीच यह तथ्य रेखांकित करना जरूरी है कि विधानसभा चुनाव में अब भी बसपा को 1 करोड़ से अधिक वोट प्राप्त हुए थे.

बसपा के अब तक के विभिन्न राज्य के परिणामों और बसपा की राजनीतिक कवायद को गहनता से समझते हैं. राजनीतिक आंकड़ों के लिहाज से, 2007 से 2012 के बीच 5 सालों की पूर्ण बहुमत की सरकार बहुजन समाज पार्टी का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है. भारत के सबसे बड़े और राजनीतिक रूप से सबसे जटिल राज्य में अपने बूते पर सरकार बनाकर उसे सफलतापूर्वक चलाना बसपा के लिए किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं था. उससे पहले भी बहुजन समाज पार्टी यूपी में तीन बार सत्ता पर काबिज हो चुकी थी. यूपी के बाहर बहुजन समाज पार्टी किसी भी राज्य में अब तक सत्ता के आसपास भी नहीं पहुंची है. केवल कर्नाटक ही ऐसा राज्य है जहां बसपा के एकमात्र विधायक एन महेश को देवेगौड़ा के पुत्र एचडी कुमार स्वामी की सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हालांकि यह उपलब्धि थोड़े दिनों तक ही रह सकी. कई राज्यों में विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में भी बसपा का प्रदर्शन शानदार रहा है. 2014 उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव में भी बसपा को 19.77 प्रतिशत यानी लगभग एक करोड़ 59 लाख 14 हजार वोट पड़ा लेकिन सीट एक भी हाथ नहीं लग पाई. लोकसभा में पूरी तरह से शून्य हो जाना बहुजन विश्लेषकों और बसपा के लिए चिंता का विषय रहा होगा. कहा गया कि 2014 में मोदी लहर में यूपी के सभी विरोधियों के मजबूत किले ढह गए. 2019 लोकसभा चुनाव बसपा ने सपा और रालोद के साथ मिलकर लड़ा जिसमें बसपा को 10 जबकि समाजवादी पार्टी को पांच सीटों पर जीत मिली. 2017 में उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव हुए जिसमें बसपा ने 2 नगर निगमों के मेयर – अलीगढ़ से मोहम्मद फुरकान और मेरठ से सुनीता वर्मा को जिताने में कामयाबी हासिल की. इस दौरान कई विधानसभा चुनावों के भी चुनाव हुए जिसमें बसपा ने अपने ढर्रे की राजनीति करते हुए औसत प्रदर्शन किया. बसपा के समर्थक और कई राजनैतिक विश्लेषक भी मान के चल रहे थे की 2007 से तीनों पार्टियों की पूर्ण बहुमत की सरकार के बाद 2022 विधानसभा चुनाव में बसपा जरूर वापसी करेगी, लेकिन परिणाम केवल बसपा के लिए नहीं सबके लिए चौंकाने वाले रहे. बसपा ने 2022 में लगभग 13% वोट के साथ केवल एक विधानसभा सीट जीत पाई.

2022 के यूपी विधानसभा चुनाव परिणाम बसपा के लिए अब तक की सबसे बड़ी राजनीतिक हार कही जा सकती है. ऐसा इसलिए भी कि सरकार बनाना या ना बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण था कि बसपा का 19-20% का वोट हमेशा इंटैक्ट रहता था जिसमें इस बार भारी गिरावट आई. व्यापक राजनीतिक परिदृश्य और देश में व्याप्त राजनैतिक माहौल के मद्देनजर बसपा के लगातार घट रहे जनाधार का विश्लेषण करें तो इसमें भारतीय जनता पार्टी द्वारा की जा रही एग्रेसिव, धर्म आधारित राजनीति और ध्रुवीकरण को एक बड़ा कारण माना जा सकता है. लेकिन इस विवेचना के मध्य में अगर बसपा की राजनीति और उनके क्रियाकलापों को रख दिया जाए तो ऐसे में बहुजन समाज पार्टी की राजनीति, उनके संगठनात्मक ढांचे की खामियां और उनकी नीतियों और चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों पर से ध्यान हट जाएगा जो कि बसपा की आज इस राजनैतिक सामाजिक दुर्दशा के मूल कारण है. बसपा ने इन सब चुनाव परिणामों के बाद कभी अपने अंदर झांक कर आंतरिक कारणों को तलाशने की बजाय हमेशा किसी राजनैतिक परिस्थिति या षड्यंत्र को अपनी हार की वजह बताया. आज बसपा एक ऐसे राजनीतिक मोड़ पर खड़ी है जहां से आगे की राजनीति धुंधली नजर आ रही है. आज बसपा सबसे निष्क्रिय पार्टी के रूप में नजर आ रही है जिसकी सोशल मीडिया पर कुछ खास पकड़ नहीं है, राजनीति के तौर तरीके लगभग दो दशक पुराने और बसपा के पुराने वोटरों से बसपा का भावनात्मक लगाव खत्म सा हो गया है. बहुत हद तक बसपा अब अपने कद्दावर और रसूखदार प्रत्याशियों पर निर्भर हो गई है. इससे बसपा की राजनैतिक और सामाजिक ताकत निश्चित ही कम हुई है. आज बसपा यूपी विधानसभा में एक सीट पर, लोकसभा में 10 सीट पर, डॉ अशोक सिद्धार्थ और सतीश चंद्र मिश्रा के कार्यकाल समाप्ति के बाद राज्यसभा में एक सीट पर और कुछ राज्यों में एक-दो विधानसभा सीटों पर काबिज है.

वैसे कई राज्यों में बसपा ने मजबूत राजनीतिक पकड़ बनाई हुई थी. कुछ जगह तो ऐसे परिणाम आए कि सबको चौंका दिया. विधानसभा चुनावों से इतर कई राज्यों में बसपा ने लोकसभा की सीटों पर भी परचम लहराए हैं. इनमें पंजाब और मध्य प्रदेश मुख्य रूप से शामिल हैं. एक सीट बसपा ने हरियाणा से भी जीती थी जब अमन कुमार नागरा ने अंबाला लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के कद्दावर नेता सूरजभान को हराया था. मध्यप्रदेश के सतना लोकसभा में भी बसपा के 32 वर्षीय प्रत्याशी सुखलाल कुशवाहा ने एक समय कांग्रेस-भाजपा के दो पूर्व मुख्यमंत्री को एक साथ हराकर राजनीतिक भूचाल ला दिया था. पंजाब में भी बसपा और अकाली दल के पिछले गठबंधन में दोनों पार्टियों ने विरोधियों को मिट्टी में मिला दिया था. यूपी और इन तीन राज्यों के अलावा किसी अन्य राज्य में बसपा आज तक लोकसभा की सीट नहीं जीत पाई है. कुल मिलाकर आज तक बसपा लगभग 13 राज्यों की विधानसभाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई है. महाराष्ट्र और केरल में बसपा का आज तक खाता नहीं खुला. पूर्वोत्तर के राज्य में बसपा चुनाव नहीं लड़ती है. हालांकि बसपा पुदुचेरी वेस्ट बंगाल में भी विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है. लोकसभा चुनाव में तो बसपा ने अंडमान निकोबार तक में प्रत्याशी उतार दिए थे. विधायकों की संख्या की बात करें तो मध्य प्रदेश में बसपा सबसे बेहतर 11 विधायक तक जिता चुकी है 11 वीं विधानसभा चुनाव में. वोट प्रतिशत के लिहाज से बसपा को सर्वाधिक वोट उत्तर प्रदेश के बाहर पंजाब में मिला है जो कि 16.35% रहा. पंजाब के अलावा वोट प्रतिशत में बसपा ने दिल्ली, मध्य प्रदेश में भी दहाई का आंकड़ा पार किया हुआ है. बहरहाल बसपा के विभिन्न राज्यों के यह आंकड़े अब इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं और बसपा में अब पहले जैसी राजनीतिक क्षमता नजर नहीं आ रही है. उत्तर प्रदेश से ताकत लेने वाले बसपा की विभिन्न राज्यों की प्रदेश इकाई भी अब अकेले ही जद्दोजहद कर रही हैं.

इस बारे में कोई दो राय नहीं की उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकारों के दौरान और विशेषकर 2007 से 2012 के बीच पूर्ण बहुमत की सरकार में उत्तर प्रदेश का चहुंमुखी विकास हुआ और विशेषकर दबे कुचले दलित समाज को स्वाभिमान से जीने की संभावना नजर आई. मुख्यमंत्री के रूप में मायावती की एक सख्त प्रशासक के रूप में भूरी भूरी तारीफ हुई. एक साधारण परिवार से संबंध रखने वाली दलित महिला का चौथी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना भारतीय राजनीति की एक बड़ी घटना थी. बसपा कार्यकाल में दलित, कमजोर तबका और अल्पसंख्यक समुदाय खुलकर शिक्षा और व्यवसाय के जरिए अपनी प्रगति के मार्ग कर रहा था. फार्मूला वन रेस, यमुना एक्सप्रेसवे और लखनऊ का कायाकल्प जैसे कई बड़े प्रोजेक्ट बसपा ने सफलतापूर्वक पूरे किए. विश्वविद्यालय, स्कूल और अस्पतालों का सिलसिलेवार तरीके से निर्माण कराया गया. विभिन्न विभागों का बैकलॉग भरा गया और पुलिस एवं अन्य विभागों की भर्तियों को ईमानदारी से कराया गया. हालांकि जब मूर्तियों को लेकर मीडिया ने बसपा पर हमले बोले तो बसपा उसे संभाल नहीं पाई.एनआरएचएम का मामला भी बसपा के लिए गले की हड्डी बन गया था. उधर भट्टा पारसौल में किसान धरने पर बैठ गए और राहुल गांधी मोटरसाइकिल पर बैठकर उनसे मिलने पहुंचे. सरकार में रहते हुए भी बसपा का प्रचार तंत्र कुछ खास मजबूत नहीं था जिस तरह आजकल आम आदमी पार्टी ने मजबूत प्रचार तंत्र विकसित कर लिया है. चुनाव आते-आते आखरी 6 महीनों में बसपा पर चौतरफा हमले होने शुरू हो गए और बसपा उनकी काट नहीं कर पाई और अंततः सत्ता हाथ से चली गई. यूपी का दलित समुदाय आज भी मायावती के कार्यकाल को याद करता है लेकिन वोट देने में पहले जैसा उत्साह नजर नहीं आता.

बसपा के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2027 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सबसे महत्वपूर्ण चुनाव साबित होने वाले हैं. चुनाव दर चुनाव बसपा का वोटर और बसपा का समर्थक उम्मीद लगाए बैठा होता है कि इस बार परिणाम कुछ बेहतर आएंगे और समूचे बसपा समर्थकों का मनोबल बढ़ेगा. 2023 के आखिर में होने वाले चार राज्यों के चुनाव भी बसपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. राजस्थान में बसपा 2008 और 2018 में छह विधायक जिताने में कामयाब रही लेकिन यह सभी छह विधायक कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. कांग्रेस शासन में भी राजस्थान में भी जाति अत्याचार और उत्पीड़न में रुकने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ में अमूमन बसपा इस बार अपने दम पर अकेले चुनाव लड़ने वाली है. मध्यप्रदेश में भी बसपा की किसी पार्टी से गठबंधन की कोई संभावना नहीं और बसपा चाहेगी कि पिछली बार की दो सीटों के परिणाम को इस बार बेहतर किया जा सके. तेलंगाना में बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पूर्व आईपीएस डॉ आर एस प्रवीण कुमार ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है और बहुजन राजनीतिक विश्लेषकों की नजर तेलंगाना पर इस चुनाव में जरूर होगी.

बसपा को एक राजनीतिक दल के रूप में अपना महत्व समझना होगा. बसपा आज भी करोड़ों लोगों की आशा और उम्मीद बनी हुई है. जिन लोगों ने बसपा के पूर्ण बहुमत के कार्यकाल को देखा है वह आज भी इंतजार कर रहे हैं कि कब बसपा दोबारा सत्ता पर काबिज होगी. वर्तमान समय के डायनामिक राजनीति के हिसाब से बसपा को अपने आप को रिइन्वेंट करना होगा. जमाना इंटरनेट और गूगल से भी आगे बढ़कर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक पहुंच चुका है. बसपा प्रचार प्रसार की तकनीक और आईटी के उपायों के इस्तेमाल में दो दशक पीछे हैं. जबकि बाकी पार्टियों ने अपना एक बड़ा इन्वेस्टमेंट अपने सोशल मीडिया मीडिया मैनेजमेंट और इंफॉर्मेशन चैनल बनाने के लिए किया है बसपा ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है. देशभर में चाहे बसपा के विभिन्न राज्यों में कितने भी गतिविधि चल रही हो लेकिन बसपा का आम वोटर कहता है कि बसपा कुछ कर नहीं रही. बसपा ने चेहरे और नेता पैदा करना भी बंद कर दिया जिसका सीधा नुकसान बसपा को होता दिख रहा. बसपा के खिलाफ चौतरफा षड्यंत्र और रणनीति तैयार हो रही है क्योंकि एक दलित नेतृत्व की राजनीतिक पार्टी को कोई भी अस्तित्व में नहीं देखना चाहता और बसपा आज भी कई दलों की आंखों की किरकिरी है. लेकिन यह दल बहुत ही महीन और व्यापक राजनीति करते हैं जिसकी काट बसपा के पास कतई नहीं. बसपा को अगर अपनी ताकत को फिर से जिंदा करना है तो बसपा को वह हर काम करना होगा जो दूसरे राजनीतिक दल कर रहे हैं और जो राजनीतिक सफलता के लिए आज के दौर की राजनीति में किया जाना चाहिए.


नोटः यह लेखक के अपने विचार हैं।

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