वेदान्त या किसी भी अन्य आस्तिक दर्शन के अंधभक्तों से बात करते हुए बड़ा मजा आता है। कहते हैं ध्यान एक अनुभव है, इन्द्रियातीत अनुभव है। इसकी चर्चा नहीं की जा सकती इसे अनिर्वचनीय और अगम्य अनकहा ही रहने दो। अभी कल से एक प्रौढ़ और सुशिक्षित बुजुर्ग सज्जन से चर्चा चल रही थी। अंत में वे अपने सारे कमेंट्स डिलीट करके विदा हो गये और कह गये कि मैं कहता आंखन देखि, तुम शब्दों को संभालते रहो। कितनी ऊँची लगती है न उनकी बात ? लेकिन कितनी षड्यंत्रपूर्ण और बचकानी है असल में इसे देखिये। पहली बात तो वे कहते हैं कि इन्द्रियातीत अनुभव की चर्चा हो ही नहीं सकती,
अब यहाँ गौर से देखिये अनुभव का मतलब ही इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान है, इन्द्रियातीत अनुभव नाम का वेदांती शब्द स्वयं वेदान्त की तरह असंभव शब्द है। वेदांत का अर्थ होता है ज्ञान का अंत – यह अर्थ है तो अनर्थ कि क्या परिभाषा हो सकती है? विज्ञान सिद्ध कर चुका है कि ज्ञान या इन्फोर्मेशन या अनुभव या समझ (इस अर्थ में इन्फोर्मेशन) का कोई नाश नहीं होता। वेदान्त का अर्थ ही वेद (ज्ञान) का अंत है, इस तरह ज्ञान को नष्ट करने वाले दर्शन के रूप में वेदान्त का पूरे भारत पर क्या असर हुआ है वह समझ में आता है। हजारों साल तक अज्ञानी अन्धविश्वासी और गुलाम भारत तभी संभव है जब ज्ञान का सच ही में अंत कर दिया गया हो। तो, वे सज्जन कह गए कि इन्द्रियातीत अनुभव या ज्ञान की चर्चा असंभव है। यह रसगुला चखने जैसा है कोई व्याख्या नहीं हो सकती। कुछ हद तक ये ठीक है लेकिन रसगुल्ले और मिठास के अनुभव को आधार बनाकर बहुत ठोस तर्क और तर्कपूर्ण अनुमान से बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसी पर कोमन सेन्स और विवेक सहित कल्पनाशीलता टिकी हुई है जो कि किसी भी तथाकथित अध्यात्मिक ज्ञान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है।
कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान या अनुभव कामन सेन्स से बड़ा नहीं होता। हो ही नहीं सकता। कामन सेन्स ने ही वह विज्ञान तकनीक, सभ्यता, नैतिकता और सौन्दर्यबोध दिया है जिसने हमें इंसान बनाया है। अब इन इंसानों को गुलाम और अन्धविश्वासी बनाकर उलझाए रखने के लिए सबसे जरुरी काम क्या होगा? निश्चित ही तब सबसे जरुरी काम होगा कि ज्ञान के आधार और उसकी संभावना पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाए। सभी आस्तिक दर्शन और खासकर हिन्दू वेदान्त यही करता है। आजकल के बाबाओं को ओशो रजनीश, जग्गी वासुदेव, श्री श्री या मोरारी बापू जी या आसाराम बापूजी को देखिये। वे इन्द्रियों से हासिल ज्ञान को नाकाफी बताते हुए किसी अदृश्य अश्रव्य और अगम्य को अत्यधिक महत्व देते हैं और इस एक मास्टर स्ट्रोक से वे उस तथा कथित अध्यात्मिक ज्ञान, ध्यान, समाधी और निर्विचार सहित आनंद और अनुभव मात्र की व्याख्या का अधिकार अपने पास सुरक्षित रख लेते हैं।
इस तरह ज्ञान अनुभव और इनपर खडी सभी संभावनाओं की चाबी वे अपने पास रख लेते हैं और न सिर्फ अपना रोजगार बल्कि इस देश की जड़ता को भी सदियों सदियों तक बनाये रखते हैं। क्या आपको ताज्जुब नहीं होता कि भारत में षड्दर्शन के बाद सातवाँ दर्शन क्यों पैदा नहीं हुआ? क्या दिक्कत है? यूरोप में तो हर दार्शनिक अपना नया स्कूल आफ थॉट आरंभ कर सकता है लेकिन यहाँ अरबिंदो, विवेकानन्द, शिवानन्द, योगानन्द सहित ओशो जैसे बाजीगरों को भी इन छः डब्बों में से कोई एक डब्बा पकड़ना होता है वरना वे भारतीय ज्ञान और दर्शन की छोटी सी और उधार ट्रेन से बाहर निकाल दिए जायेंगे।
लेकिन यूरोप में यह ट्रेन बहुत लंबी है। जितना चाहे उतना डब्बे जोड़ते जाइए। इसी से वहां नये ज्ञान विज्ञान तकनीक और सौंदर्यशास्त्र जन्म लेते ही रहते हैं। भारत की पूरी कहानी चार वर्ण और छः दर्शनों पर खत्म हो जाती है। यहाँ हाथ के पंजों की दस उँगलियों के परे कोई गिनती जाती ही नहीं। दस पर बस आ जाता है। यह अगम्य और अनुभवातीत क्या है? अगर यह है तो आप या मैं या कोई और इसकी चर्चा कैसे कर रहा है? अगर यह इतना ही दूर और अगम्य है तो इसकी चर्चा क्यों करते हैं? ये आत्मा परमात्मा और समाधि की रात दिन की बकवास क्यों पिलाई जाती है? फिर जब कोई इनके बारे में सच में ही जिज्ञासा करे तो घबराकर कहेंगे कि ये सब अगम्य अगोचर है। अरे भाई जब ये अगम्य अगोचर अनिर्वचनीय है तो उसकी रात दिन मार्केटिंग और बकवास करते ही क्यों हो? और ध्यान रखियेगा उसकी मार्केटिंग इस तरह की जाती है जैसे अभी ये बाबाजी आपके हाथ में निकालकर रख देंगे “अभी और यहीं”की भाषा में बात करेंगे और हजारों जन्म की साधना की बात भी करेंगे, गुरु की महिमा, शरणागती और गुरु शिष्य परम्परा की बात भी करेंगे।
ये ओशो रजनीश का सबसे मजेदार खेल रहा है। अमन और अनात्मा की संभावना पर जो ध्यान का अनुभव खड़ा है उसे आत्मा की बकवास के साथ सिखाते हैं। जब व्यक्ति सनातन आत्मा की चर्चा सुनकर “मैं” को मजबूत बना लेता है तब कहते हैं कि मैं से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ति है। अब यहाँ खेल देखिये एक तरफ आत्मा की सनातनता का सिद्धांत देकर आत्मा (मैं, मेरे होने के भाव) को मजबूत कर रहे हैं। फिर साधना सिखा रहे हैं कि इस मैं को विलीन कर दो, ये वेदान्त की जलेबी है। दूसरी तरफ बुद्ध को देखिये वे कहते हैं कि यह मैं होता ही नहीं इसे जान लो। तब इस मैं से मोह और आत्मभाव पैदा ही नहीं होगा। तब ध्यान समाधि या तादात्म्य हीनता एकदम आसान हो जाती है। लेकिन वेदान्त यह नहीं होने देता। वह सनातन आत्मा या मैं के भाव को ठोस खूंटे की तरफ गाड़ देता है फिर इसे विलीन करने का इलाज भी बता है। मतलब पहले कीचड में पाँव डलवाता है फिर स्नान भी करवाता है। इस प्रकार वेदांती हमाम और इसके ठेकेदारों का रोजगार बना रहता है।
अब ध्यान दीजिये मैं को विलीन करने की टेक्नोलोजी असल में बुद्ध की अनत्ता की या अनात्मा की टेक्नोलोजी हैं जिसे ये चुराकर आत्मा की टेक्नोलोजी के नाम से मार्केटिंग कर रहे हैं। ऊपर से तुर्रा ये कि अनत्ता या मैं के विलीन होने पर जो शून्य बच रहता है उसे ये “आत्मज्ञान” कहते हैं। हद्द है मूढ़ता की। मतलब समझे आप? आत्मा को मिटाने पर जो ज्ञान हुआ उसे बुद्ध की तरह अनात्मा का ज्ञान कहने में ये डरते हैं कि कहीं चोरी न पकड़ी जाए। उसे ये अनात्मा न कहके आत्मा का ज्ञान कहते हैं। हालाँकि ये भली भाँती जानते हैं कि आत्मा या स्व के विलीन होने पर ही इनका मोक्ष या बुद्ध का निर्वाण घटित होता है और इसीलिये तथा कथित अध्यात्म या धर्म की सारी सफलताएं असल में अनात्मा की सफलता हैं। फिर भी इनका षड्यंत्र देखिये कि इसके बावजूद भी आत्मा और उसकी सनातनता का ढोल बजाना बंद नहीं करते। यह कितना शातिर और गहरा खेल है आप अनुमान लगाइए।
इतना स्पष्ट सा विरोधाभास क्या इन्हें नजर नहीं आता? बिलकुल नजर आता है। लेकिन दिक्कत ये है कि अगर ये समाधि या ध्यान के अनुभव को अनात्मा के अनुभव या स्व (मैं/मेरा) के निलंबित हो जाने के अनुभव की तरह प्रचारित करने लगें तो इनमे और बुद्ध में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। तब पूरे हिन्दू धर्म और वेदान्त को चोरी पकड़ी जायेगी। इस खेल को गौर से देखिये और समझिये मित्रों। इस देश के शोषक धर्म पर इस स्तर से हमला करेंगे तो यह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगा और बहुत प्रकार से हम शोषण और अंधविश्वासों को चुनौती दे सकेंगे। तब भारत में नैतिकता, विज्ञान, न्यायबोध और धम्म का मार्ग आसान हो सकेगा।

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