धम्म दीक्षा विशेषः धर्मांतरण से परिवर्तन

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अशोक विजयदशमी के दिन 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धम्म ग्रहण कर भारत में तथागत बुद्ध के धम्म चक्र को पुनः गतिमान ही नहीं किया, बल्कि विश्व में नई धम्म क्रांति की. पांच लाख से अधिक दलितों को समता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय पर आधारित बौद्ध धम्म की दीक्षा दी और हिंदू धर्म के सभी बंधन तोड़कर सदियों से दलितों-अछूतों पर लादी गयी गुलामगिरी से मुक्ति दिलाई.

चक्रवर्ती सम्राट अशोक के बाद यदि किसी के कारण बड़े पैमाने पर बौद्ध धर्मांतरण हुआ तो वे बाबासाहेब अम्बेडकर ही एकमात्र महापुरुष है. उन्होंने ही भारत से लुप्तप्राय हो चुके बौद्ध धम्म को पुर्नस्थापित किया. लाखों दलितों ने बाबासाहेब पर विश्वास रखकर एक क्षण में अपने पुराने हिंदू धर्म की सभी धारणा और कुरीतियों को त्यागकर बौद्ध धम्म अपना लिया. हिंदू संस्कृति का बोझ फेंककर नयी बौद्ध संस्कृति में दीक्षा ली. डॉ. अम्बेडकर ने परंपरावादी मूल्यों से नाता तोड़कर बुद्ध के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दलितों को अवगतकर उनके जीवन में आमूल परिवर्तन का मार्ग दिखाया.

बौद्ध धर्मांतरण समारोह में बाबासाहेब ने अपने अनुयायियों को 22 प्रतिज्ञाऐं दी थी. जो की दलितों के लिऐ पथ प्रदर्शक सिद्ध हुई. इन प्रतिज्ञाओं से उन्होने अपने अनुयायियों को हिंदू धर्म की सभी मान्यताओं से मुक्त होने की शपथ दिलायी. उन्होने हिंदू देवता ब्रम्हा, विष्णू, महेश, राम, कृष्ण, गौरी, गणपती को ईश्वर नही मानने की और बुद्ध को अवतार नहीं मानने की प्रतिज्ञा दिलाकर दलितों को हिंदू परंपरा से पूरी तरह बाहर निकाला. साथ ही धर्मांतरण की प्रतिज्ञा में ‘मै यह मानता हूं कि मेरा पुनर्जन्म हो रहा है’ की शपथ दिलाकर डॉ. अम्बेडकर ने दलितों का धर्मांतरणही नही तो सामाजिक और मानसिक परिवर्तन भी किया. इस परिवर्तन के दृष्य परिणाम दलितों मे जल्द ही दिखने लगे.

डॉ. अम्बेडकर द्वारा दिखाया बौद्ध धर्मांतरण का मार्ग ही दलितो, अछूतों के मुक्ति के लिए पथ प्रदर्शक साबित हुआ. शताब्दियों की  जाति व्यवस्था से उन्हे स्वतंत्रता प्राप्त हुई. समता, बंधुता, न्याय पर आधारित बुद्ध के वैज्ञानिक विचारों को अपनाने से कतिपय दलितों के जीवन में संपूर्ण परिवर्तन कर दिया. दीक्षा भूमि पर 14 अक्तूबर 1956 को धर्मांतरण समारोह के अपने ऐतिहासिक संबोधन में बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘ 13 अक्तूबर 1936 को नाशिक जिले के येवला में हमने निर्णय लिया था कि हमे हिंदू धर्म त्याग देना चाहिए. मैंने उसी समय प्रतिज्ञा की थी. ‘मैंने हिंदू धर्म में जन्म लिया है, यह मेरे वश में नही था. लेकिन मै हिंदू रहकर मरूंगा नहीं’ मेरी यह 21 वर्ष की प्रतिज्ञा आज पूरी हुई है. मैं आज हर्ष से प्रफुल्लीत हूं. मुझे प्रतीत होता है, आज मुझे हिंदू धर्म के नरक से छुटकारा मिल गया है.

बाबासाहेब ने कहा था कि ‘बौद्ध धम्म अभ्युदय और उत्कर्ष का मार्ग है. यह कोई बाहर का धर्म नहीं है. यह इसी भारत का है. इस देशमे 2000 वर्षो तक बौद्ध धम्म रहा है. सच कहे तो हमे अफसोस है कि हम इससे पहले ही बौद्ध धर्म में शामिल क्यो नही हुए. तथागत बुद्ध के तत्व अजर-अमर है. इतनी उदारता किसी अन्य धर्म में नही है. कालानुरूप बदलाव करने की सुविधा इसमें है. तथागत बुद्ध के धम्म को ब्राम्हणों ने भी अपनाया और शूद्रों ने भी. उन सभी भिक्खुओं को आदेश देते हुए तथागत बुद्ध ने कहा था कि ‘हे भिक्खुओ! आप लोग कई देशों और जातियों से आये है, किंन्तु, यहां आप सब एक हो गये है. जिस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों में अनेक नदियां बहती हैं और उनका अलग-अलग अस्तित्व दिखाई देता है. किन्तु, सब नदियां जब सागर में मिलती है, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो देती है और सब समंदर में समा जाती है. बौद्ध संघ भी समंदर की भांति है. इस संघ में सभी एक है और सभी बराबर है. समुंदर में गंगा और यमुना के मिल जाने पर उनके पानी को पहचानना कठिन है. इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आ जाने पर आप सभी एक हैं. सभी समान हैं. यही उदाहरण देकर बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था की ‘दुखों और शोषण से मुक्ति का एकमात्र विकल्प बुद्ध का धम्म है.’  यही मार्ग अपनाकर बाबासाहेब के अनुयायियों ने भारतमे नया इतिहास रच डाला.

दलितों के बौद्ध धर्मांतरण के संदर्भ में बौद्ध विद्वान और साहित्यकार डॉ. भदंत आनंद कौशल्यायन ने कहा था कि ‘मेरे विचार में धर्मांतर से सबसे बड़ा परिवर्तन दिमागी परिवर्तन होता है. बौद्ध धम्म ग्रहण करने से पहले यह लोग अछूत बनें रहना अपना धर्म मानते थे. वे हर तरह का अत्याचार सहने के लिए ही पैदा हुए है. बौद्ध धम्म ग्रहण करने के बाद वे अछूतपन से लड़ने और अत्याचारियों से संघर्ष करने को अपना धर्म मानने लगे है.’ डॉ. कौशल्यायन की यह टिप्पणी बौद्ध धर्मांतरित दलितों पर सटीक तथा यथार्थ बयां करती है.

बौद्ध धम्म एक वैज्ञानिक जीवन पथ है. जिसका केंद्र बिंदू इन्सान है. यह धम्म मानव मात्र के कल्याण के लिए प्रारंभ से लेकर अन्त तक मानवीय भावना से ओतप्रोत है. बाबासाहेब अम्बेडकर ने तथागत बुद्ध के वैज्ञानिक ज्ञान का प्रकाश प्राप्त किया और दलितों में उसी ज्ञान प्रकाश की मानव ज्योति प्रज्ज्वलित की. जिससे उनका जीवन ही संवरा नहीं जगमगा उठा.

बौद्ध धर्मांतरण करने के बाद दलितों मे राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तरपर कई बदलाव देखे गये. हिंदू सामाजिक वर्ण-व्यवस्था से बाहर निकलने के लिए दलितों ने बौद्ध धम्म का मार्ग चुना है. सनातन हिंदू धर्म के आडम्बर और कर्मकांडो को त्यागकर जिन दलितों ने धर्मांतरण किया उनका जीवनस्तर हिंदू दलितों से कहीं अधिक सुधरा है. बौद्ध धर्मांतरण करनेवाले दलितों में जागरूकता भी अधिक है. उन्होंने सामाजिक-आर्थिक रूप से भी अधिक तरक्की की है. वे ही राजनीतिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से अन्यों से आगे हैं.

बौद्ध धर्मांतरण से दलितों में आत्मविश्वास जगा. उनमें आशावान और संभावनात्मक परिवर्तन हुआ है. बाबासाहेब अम्बेडकर इनके धर्मांतरण के पीछे समता, स्वतंत्रता, बंधुता और सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि है. उन्होंने एक नये समतामूलक समाज निर्माण की परिकल्पना की थी. जो नवबौद्ध समाज के रूप में आज दिखता है. प्रस्थापित वर्ण-व्यवस्था की परंपराओं, रूढ़ी, विषमता को त्यागकर इस समाज ने नवीन मूल्यों, परम्परा और आधुनिक मान्यताओं को स्वीकार किया है. डॉ. अम्बेडकर का अनुकरण कर रहे दलितों ने जाति की जंजीरो से मुक्ति ही नहीं पायी, जिस देश में शताब्दियों से अछूत का दंश झेला है, उसी भारत के हर क्षेत्र में अव्वल रहकर अपना लोहा मनवाया है.

डॉ. अम्बेडकर का आंदोलन भारत से जातिव्यवस्था, चातुर्वण्य व्यवस्था, अछूतपन के विनाश का था. यह आंदोलन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दृष्टि से प्रताड़ित अछूत, दलितों के स्वतंत्रता का था. ब्राह्मणवाद, हिंदुत्ववाद, ब्राह्मणी धर्म के खिलाफ यह परिवर्तन का संघर्ष था. अस्पृश्यता, दासता से मुक्ति और मूलभूत अधिकारों से वंचित दलितों को एक मानव के नाते उनके मूलभूत अधिकारों को दिलाकर उनमें अस्मिता जगाने के कार्य अम्बेडकरी आंदोलन ने ही किया. डॉ. अम्बेडकर इनके विचार और जीवन-संघर्ष ने ही दलितों में नई चेतना जगाई. अस्मिता और आत्म सन्मान से दलित जाग उठा. उनकी ही प्रेरणा से दलित आंदोलन सशक्त हुआ है.

बाबासाहेब ने सामाजिक परिवर्तन के साथ ही धार्मिक क्रांति की भी बात कही थी. इसी लिए उन्होंने समतावादी बौद्ध धम्म को चुना. डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म पर कड़े प्रहार किये हैं. उन्होंने हिंदू धर्म को शोषण पर आधारित धर्म कहा है. इस धर्म में एक वर्ग या वर्णद्वारा दूसरे वर्ग का शोषण होता है. इस शोषण व्यवस्था से मुक्ति के लिए धर्म परिवर्तन का रास्ता उन्होंने अपने अनुयायियों को दिखाया. दलितों को मुक्ति के लिए उन्होने परम्परागत-जातिगत धन्धों को छोड़ने का आवाह्न किया. गावों से शहरों में आकर बसने का आवाह्न किया. दलितों को शिक्षित होने की सीख दी. शिक्षा से स्वाभिमान, स्व-सम्मान, आधुनिकता अपनाने को कहा. हिंदुत्व को पूरी तरह नकार कर धर्म-परिवर्तन की बात की. जाति-व्यवस्था से मुक्ति के लिए धर्मांतरण का मार्ग दिखाया.

धर्मांतरण घोषणा पर चर्चा हेतू डॉ. अम्बेडकर ने 30 और 31 मई 1936 को मुंबई में महार जाति का सम्मेलन बुलाया था. इस सम्मेलन में उन्होंने हिंदू धर्मपर कड़े प्रहार कर धर्मांतरण के कारण भी गिनाये थे. उन्होंने कहा था ‘‘ जब तक अस्पृश्य वर्ग हिंदू समाज का हिस्सा रहेंगा, तब तक उनकी जुल्मों से मुक्ति और उन्नति नहीं हो सकती. स्वतंत्रता पाने के लिये उनको हिंदू धर्म छोड़ना होगा. जब तक वे हिंदू बने रहेंगे, तब तक उन्हें अच्छे कपड़े, अच्छा भोजन, नौकरी, शिक्षा के अधिकार से वंचित ही रहना होगा. हिंदू धर्म में अधूतों के विकास के लिए विद्या, वित्त, और शस्त्र का अधिकार,  वैयक्तिक स्वतंत्रता नकारी गयी है. जो धर्म इसलिए अनुकूल परिस्थिति निर्माण करेगा, उसे हमे अपनाना होगा.

अस्पृश्यता की वजह से तुम्हें सही जीवन, सम्मान और प्रतिष्ठा से वंचित किया है. तुम्हारे पास गंवाने के लिए कुछ नहीं, सिर्फ बेड़ियों के. हिंदुस्तान को जितनी स्वराज की आवश्यकता है, उतनी ही अस्पृश्योंको धर्मांतरण की. धर्मांतरण और स्वराज का अंतिम लक्ष्य स्वातंत्रता प्राप्ती ही है. धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं. तुम्हें यदि उन्नति करना है, तो हिंदू धर्म का त्याग करो. जो धर्म तुम्हे मनुष्य नहीं समझता, जो तुम्हे पानी नहीं देता. वह धर्म संज्ञा के लिए भी अपात्र है.  जो धर्म तुम्हे शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नकारता है. तुम्हारी प्रगती के मार्ग में बाधा डालता है. वह धर्म संज्ञा के लिए पात्र नहीं है. जो धर्म अपने अनुयायियों को अपने ही धर्म बांधवों के साथ इन्सानियत से बर्ताव करना नहीं सिखाता, मनुष्य का स्पर्श अमंगल मानता है. वह धर्म न होकर रोग है. जिस धर्म में जानवरों का स्पर्श सहज है, जनावरों ने छुआ पानी भी चलता हो, लेकिन अस्पृश्य मनुष्य का स्पर्श होने से पानी अपवित्र हो जाता हो. वह धर्म नहीं, पागलपन है. जो धर्म कुछ वर्गों को शिक्षा से दूर रखता है, उन्हें धन संचय नहीं करने देता. शस्त्र हाथ में लेने से मना करता है, वह धर्म न होकर मनुष्य जीवन की विडम्बना मात्र है. जो धर्म अज्ञानियों को अज्ञानी, निर्धनों को निर्धन रहने को बाध्य करता है, वह धर्म नहीं सजा है.’’ डॉ. अम्बेडकर ने इसी सम्मेलन में अपने धर्मांतरण की संकल्पना स्पष्ट की थी.

इसी सम्मेलन मे उन्होंने दलितों से मरे हुए जानवर ना उठाने, उनकी खाल उधड़ने जैसे घृणित काम त्यागने की तथा अन्य काम करने की अपील की थी. बच्चों को शिक्षित करने की, साफ-सुथरे-धुले हुए अच्छे कपड़े पहनने की अपील की थी. हिंदू देवी-देवताओं की पूजा ना करने की, हिंदू धर्म स्थलों की तीर्थ यात्रा ना करने की और हिंदू त्यौहार ना मनाने की भी अपील उन्होंने की थी. डॉ. अम्बेडकर के इसी अपील के बाद हजारों दलितों ने महाराष्ट्र में मरे जानवर उठाना और उनकी खाल उधेड़ने जैसे परम्परागत- जातिगत काम छोड़ दिये थे.

 

14 अक्तूबर 1956 के धर्मांतरण के बाद डॉ. अम्बेडकर के अनुयायियों ने पूरी तौर पर हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धम्म पथ पर मार्गक्रमण किया. हिंदू देवी-देवताओं की मूर्ती, प्रतिमा और प्रतीकों को लाखों दलितों ने अपने घर से बहार निकालकर हिंदू धर्म को अपने जीवन और मन से भी बाहर कर दिया था. बौद्ध धर्मांतरण के बाद विगत 60 वर्षों में दलितों के जीवन और स्थिती में आमूल परिवर्तन हुआ है. जिन दलितों ने बौद्ध धम्म अपनाया वे बहुत हद तक हिंदू धर्म के अछूतपन से मुक्त हो चुके हैं. उनकी आज अलग पहचान है.

अम्बेडकरवादी दलितों के एक बहुत बड़े वर्ग ने बौद्ध धर्म अपनाया है. वो अपने आपको बौद्ध होने से सम्मानित और गौरवान्वित महसूस करते है. विश्व के बौद्ध अनुयायियों मे से एक समझते है. उन्होंने विश्व के बौद्धों से अपने आपको जोड़ लिया है. अब उनकी नई बौद्ध संस्कृति है. धम्म पद से लेकर ‘बुद्ध और उनका धम्म’ जैसे धम्म ग्रंथ है. वे ही नये धम्म ग्रंथों के रचियता है. सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक क्षेत्र में अग्रणी है.

दलितों ने जातिव्यवस्था को ही नहीं नकारा बल्कि जातिवाचक नाम भी छोड़ दिये है. उत्तर और मध्य भारत में अनेक बौद्ध धर्मांतरित दलित अपने नाम के साथ बौद्ध या गौतम शब्द जोड़ृकर आत्मसम्मान से जी रहे है. हिंदू धर्म के अवतारवाद, आत्मा, परमात्मा, पुरोहितवाद को उन्होंने खारिज कर दिया है. उन्होंने सभी देवी- देवताओं को नकार दिया है. उनको जीवन में अब हिंदू देवी-देवताओं का आज कोई महत्व नहीं है. तथागत बुद्ध और बाबासाहेब अम्बेडकर ही उनके लिए महापुरुष है.

जिन दलितों को मंदिरो में प्रवेश की अनुमति नहीं थी. भगवान का बहार से ही दर्शन करना पडता था. उनके स्पर्श मात्र से मंदिर के देवता अपवित्र हो जाते थे. उन्हीं दलितों ने बौद्ध धर्मांतरण के बाद अपने अलग प्रार्थना स्थल बना डाले. बुद्ध विहार यह उनके लिए प्रेरणा स्थल है. जहां भी नव बौद्ध रहते है, उस शहर, कस्बो, गावों में उन्होंने विहार बनाये है.  विहारों में तथागत बुद्ध के साथ ही प्रेरणास्त्रोत बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर भी विराजमान है. हिंदू मंदिरो से कही अधिक और विशाल बुद्ध विहार देश में जगह-जगह दिखते है. हर गांव में विहार बौद्ध अस्मिता के प्रतीक है. नवबौद्धों के लिए दीक्षा भूमी, चैत्य भूमी तीर्थस्थल है. बुद्धगया, सारनाथ, कुशीनगर, लुंबिनी परम पूजनीय धार्मिक स्थल है. हजारों नव बौद्ध म्यांमार, थाईलेंड, श्रीलंका, हॉंगकॉंग, सिंगापुर के बौद्ध स्थलों के दर्शन और पर्यटन के लिए जाते है. युवा इन देशों के साथ ही जपान, कोरिया, अमरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, युरोप में पढ़ते हैं, नौकरी के लिए जाते है. आज पूरे विश्व में नवबौद्ध संचार करते हैं. एकदम नयी सोच और संस्कृति को उन्होंने अपना लिया है.

यह परिवर्तन यकायक नहीं हुआ. महाराष्ट्र में दलितों को धर्मांतरण करने के बाद भी अनेक जगहों पर हिंदुओं के जुल्मों सितम सहने पड़े थे. धर्मांतरित दलितों की बस्तियों का बहिष्कार कर दिया गया. सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की मनाई की गयी. आटे की चक्की पर गेंहूं नहीं पीसकर दिया जाता था. किराना दुकानदार सामान देने से मना करते थे. डॉ. अम्बेडकरके साथ बौद्ध धर्मांतरण करने की सजा उन्हें दी जा रही थी. लेकिन धर्मांतरित दलितों के हौसले बुलंद थे. पूरे आत्मविश्वास के साथ वे सभी संकटों का सामना करने के लिए तैयार थे.  आत्मस्वाभिमान की ज्योत प्रज्वलित हो गयी थी.

उन्होंने परम्परागत सभी धु्रणास्पद काम करना बंद कर दिया था. मरे हुए जनावर उठाना, उनकी खाल निकालने का काम छोड़ दिया. अछूतपन के सभी कामों से उन्होंने मना कर दिया था. धर्मांतरण के बाद पहला परिवर्तन यह था. गांवो-कस्बों में दलितों ने घर की देवी-देवताओं की मूर्ती, प्रतिमाओं को नदी मे प्रवाहित कर दिया. दलित बस्ती में हिंदू मंदिरों को या तो ताले लग गये या वहां की हिंदू देवता की मूर्ती हटाकर बुद्ध विहार बना दिये गये. बस्ती के मैदानों में पंचशील झेंडे लहराने लगे. जगह-जगह बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमायें खड़ी की गयी. तथागत बुद्ध की मूर्ती बैठायी गयी. दलित बस्तियों में बुद्ध वंदना के स्वर गुंजने लगे.

कुछ दलित बस्तियों में व्यायाम शाला, अखाडों को बुद्ध विहार में परिवर्तित किया गया. हजारों दलितों ने जाति त्यागकर धर्म बौद्ध लिखना प्रारंभ किया. अनेकों ने पुराने नाम बदल डाले. बच्चों के, घरों के, बस्ती के, रास्ते के, संस्था के नाम परिवर्तित कर डाले. हिंदू धर्म के सभी प्रतीक त्याग दिये गये, गुलामी के सभी अवशेष नष्ट किए गये. बुद्ध कालीन इतिहास, संस्कृति और नाम स्वीकार किए गये. बस्तियों में डॉ. अम्बेडकर और बुद्ध जयंती हर्षोल्हास से त्योंहार के तौर पर मनाई जाने लगी. लोगों ने स्वयं स्फूर्तता से शराबबंदी-नशाबंदी को अपनाया. अलग बौद्ध विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार स्वीकार किए गये. शादी-ब्याह और अंतिम संस्कार के समय डफली बजाने की प्रथा बंद हुई. सभी जगह परिवर्तन प्रारंभ हुआ. नयी अस्मिता के संचार से धर्मांतरित दलितों ने नया इतिहास गढ़ा.

बाबासाहेब ने दलितों को गावों को छोड़कर शहरों में आकर बसने का आवाहन किया था. उनका अनुकरण करके हजारो लोक शहरों में आकर बसे. ‘शिक्षित बनो, संघटित हो, संघर्ष करो’ का मूलमंत्र धर्मांतरित दलितों ने आत्मसात किया. बच्चों को पढ़ाने का पहला लक्ष्य हर दलित ने रखा. मजदूरी करेंगे, सड़क पर काम करेंगे, रिक्शा चलायेंगे लेकिन बच्चों को उच्च शिक्षित करने का संकल्प लिया. यही कारण है, कि आज धर्मांतरित दलितों में साक्षरता का प्रमाण सर्वाधिक है. इस समाज के हजारों डॉक्टर, इंजिनियर, आर्किटेक्ट, अधिकारी है. कलेक्टर, कमीश्नर, पुलिस अधिकारी, प्रोफेसर, कुलपति, आई.ए.एस., आई.पी.एस., सचिव, अधिकारी है. आई.ए.एस., आई.पी.एस., यू.पी.एस.सी., एम.पी.एस.सी, की प्रतियोगी परीक्षाओं में अब तक प्रथम स्थान पर ब्राम्हण तो दूसरे स्थान पर धर्मांतरित बौद्ध, दलित रहते. अब तो यू.पी.एस.सी. में प्रथम स्थान भी इसी समाज की छात्रा ने हासिल कर लिया है. अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र इसी समाज से आगे आ रहे है. विद्वत्ता में, प्रतियोगीता में ब्राम्हणों की बराबरी बौद्ध, दलित कर रहे है. एक बड़ा उच्च और मध्यवर्ग का इस समाज में निर्माण हुआ है. हर क्षेत्र में इस समाज ने अपना लोहा मनवाया है.

व्यापार-उद्योग में भी कुछ लोगों ने अपना स्थान बनाया है. साहित्य-लेखन में दलित, बौद्ध अग्रणी है. दलित साहित्य ने समूची भारतीय साहित्य विश्व को झकझोरकर रख दिया. पत्रकारिता में, मीडिया में भी यह समाज सक्रिय है. मासिक, साप्ताहिक पत्र ही नहीं दैनिक अखबार और इलेक्ट्रॉनिक चैनल की भी मालकियत है. गायक, कलाकार समाज की आवाज बनकर उभरे है. धर्मांतरीत दलितों ने प्रगती के हर क्षेत्र को छुआ है .डॉ. अम्बेडकर के धर्मांतरण के साथ जुड़े दलितों ने अपनी अलग पहचान नहीं बनाई बल्कि नया इतिहास भी रचा है.

महाराष्ट्र में हिंदू धर्म आस्था रखकर बने रहने वाले दलित इस विकास प्रक्रिया काफी पिछे छूट गये है. उनके लिए दलित मुक्ति के कोई मायने नहीं है. हिंदू होने के बावजूद उच्चवर्णियों के अत्याचार और शोषण के वे ही अधिक शिकार हो रहे है. महार समाज ने डॉ.आंबेडकर का अनुकरण कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली. लेकिन जिन अन्य अनुसूचित जातियों ने इससे बाहर रहकर हिंदुत्व में आस्था रखी वे जातियां पिछड़ गयी है. महारों ने धर्मांतरण के बाद जो घृणीत काम-धंधे छोड़ दिये उन्हें अन्य जातियों पर थोप दिया गया. उन्होंने नियती समझकर इसे स्वीकार कर लिया. मातंग, चमार, ढोर इन जातियों में शिक्षा का प्रतिशत आज भी कम है. वे हिंदू देव -देवताओं को पूजते और बैन्ड-डफली बजाने को ही कर्तव्य समझते है. इसके बावजूद अनेक हिंदू मंदिरों में उनका प्रवेश वर्जित है. सार्वजनिक कुंओं पर पानी भरने की मनाही है. गांव के बाहर रहने को वे बाध्य है. हिंदुत्व में उन्हें सबसे निचले पायदान पर समझा जाता है. हिंदू दलित जातियों में कुछ डॉक्टर, वकील, इंजिनियर, वकील, प्रोफेसर जरूर है, किंतु उनकी संख्या बहुत ही कम है. गावों में अत्याचार की शिकार भी अधिकतर यही जातियों होती है. मातंग समाज का डफली बजाने का परम्परागत काम है. हिंदू के त्यौहार, शादी, ब्याह समारोह में वे ही वाद्य बजाते है. मंदिर के सामने वाद्य बजाने के बावजूद अनेक मंदिरों में उनके प्रवेश पर आज भी पाबंदी है. शिक्षा और प्रशासन में उनकी कोई पूछ नहीं. हिंदू धर्म की जातिव्यवस्था में वे अभिशिप्त है.

महाराष्ट्र के साथ ही देश के जिन भागों में दलितों ने बौद्ध धम्म अपनाया, धर्मांतरण किया. उनकी स्थिती में विगत 60 बरसों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है. बौद्धों की सबसे अधिक आबादी महाराष्ट्र में हैं. इस राज्य में 52 लाख से अधिक बौद्ध है. उत्तर प्रदेश में भी तीन लाख से अधिक नवबौद्ध है. उनमें से अधिकतर लोगों ने हिंदू कर्मकांड छोड़ दिये है. पूरे देश में 1991 से 2001 के बीच बौद्धों की आबादी में 24 प्रतिशत की वृद्धी हुई थी. 2011 में भी बौद्धों की आबादी बढ़ी है, लेकिन वह एक करोड़ से थोड़ी कम है.

नवबौद्धों में स्त्री-पुरुष अनुपात 943 प्रति हजार है. जबकी हिंदू दलितों में यह 936 है. दूसरे अल्पसंख्यक मुसलमान, सिक्ख और जैनियों की तुलना में यह अनुपात काफी ज्यादा है. छह वर्ष तक के बच्चो में लड़कियों और लडकों का लिंग अनुपात 952 है. हिंदू से धर्म बदलकर बौद्ध हुए दलितों मे शिक्षा का दर 72.7 प्रतिशत है. जबकी हिंदू दलितों मे सिर्फ 55 प्रतिशत है. महिलाओं की शिक्षा दर क्रमशः 62 और 52 प्रतिशत है. एक अध्ययन के मुताबिक नवबौद्धों में अपार जागरुकता और शिक्षा के कारण रोजगार का प्रतिशत भी बेहतर हुआ है और वे अपेक्षाकृत संपन्न हुए है. यह उपलब्धि धर्मांतरण के 60 बरसों की है.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, नागपुर में रहते हैं. संपर्क- 09823286373

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