लखनऊ। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में दलितों से भेदभाव चरम पर है. आमतौर पर या तो दलितों के मामले दर्ज नहीं किए जा रहे हैं या फिर उन्हें कमजोर करने की कोशिश की जा रही है. यूपी में एक के बाद एक हो रहे एनकाउंटर को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं. दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों का कहना है कि इन एनकाउंटर में मारे जाने वाले ज्यादातर लोग दलित, पिछड़े या फिर अल्पसंख्यक समाज के हैं.
यूपी पुलिस दलितों के मामले को किस तरह दबाने की कोशिश कर रही है, उसकी बानगी आप खुद देखिए. बीते 17 फरवरी को बांदा के अतर्रा थाना के महुटा गांव में एक 14 साल की दलित लड़की से गैंगरेप का आरोप लगाते हुए उसकी मां थाने पहुंची. उसने गांव के ही दो सवर्ण गुंडों पर बेटी के साथ गैंगरेप का आरोप लगाया. दूसरे दिन बेटी बेहोशी की हालत में बरामद हुई थी. इस मामले में होना यह चाहिए था कि पुलिस तुरंत पीड़ित युवती का मेडिकल कराती और मामला दर्ज कर आरोपियों को पकड़ती, लेकिन हुआ इसका उल्टा.
आरोप है कि पुलिस ने गैंगरेप जैसे संगीन मामले को रफादफा करने की कोशिश की और FIR दर्ज करने की बजाय NCR दर्ज कर दिया. बता दें कि एनसीआर पुलिस तब दर्ज करती है जब कोई मामला पुलिस के हस्तक्षेप करने योग्य नहीं होता. अमूमन मामूली झगड़े या छोटी-मोटी चोरी के मामले में पुलिस NCR दर्ज करती है. पुलिस ने पीड़ित महिला का मेडिकल भी नहीं कराया और कहा कि अगर आरोपी यह स्वीकार करेगा कि उसने रेप किया है, तब पीड़िता का मेडिकल कराया जाएगा.
इसी तरह बीते 10 महीनों में 1200 से अधिक पुलिस एनकाउंटर और उनमें 40 के करीब कथित अपराधियों की मौत को लेकर भी सवाल उठने लगा है. पुलिसिया एनकाउंटर की एक तस्वीर यह भी है कि मथुरा में 18 जनवरी को एक बच्चे की गोली लगने से मौत हुई थी तो वहीं 15 सितंबर को नोएडा में हुई एक कथित मुठभेड़ में भी एक मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति को गोली लगी थी. नोएडा में ही एक जिम ट्रेनर और अम्बेडकरनगर क्षेत्र में राजभर समाज के एक आम युवक का एनकाउंटर किए जाने पर भी पुलिस पर सवाल उठ रहे हैं.
रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर और उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व आईजी एस.आर. दारापुरी का बयान गौर करने लायक है. दारापुरी कहते हैं-
“पुलिस एनकाउंटर अधिकतर राज्य प्रायोजित होते हैं और 90 फ़ीसदी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं. जब राजनीतिक रूप से प्रायोजित एनकाउंटर होते हैं तो उनमें उस तबके के लोग होते हैं जो सत्ताधारी दल के लिए किसी काम के नहीं हैं या जिन्हें वो दबाना चाहते हैं. उत्तर प्रदेश में सरकार को यहां आंकड़ा जारी करना चाहिए कि एनकाउंटर में मारे गए लोग किस समुदाय के थे और जिन लोगों के सिर्फ़ पैर में गोली मारकर छोड़ दी गई है, वे किस समुदाय के थे. मेरी जानकारी के अनुसार एनकाउंटर में जितने लोग मारे गए हैं, उनमें अधिकतर संख्या मुसलमानों, अति पिछड़ों और दलितों की है,सवर्णों में शायद ही कोई हो.”
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का यह बयान यूपी पुलिस के रवैये को लेकर गंभीर सवाल खड़े करता है. सवाल उठता है कि आखिर यूपी पुलिस के निशाने पर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज के लोग ही क्यों हैं?
अखिलेश कृष्ण मोहन

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