दलित राजनीति के तीन संकट

दुनिया भर में प्रतिरोध आंदोलनों का विकास अगर देखें, तो पता चलता है कि ये आंदोलन जिनके विरुद्ध प्रतिरोध कर रहे होते हैं, कुछ समय बाद उन्हीं के गुण-अवगुण अपने में शामिल कर लेते हैं। इसका कारण यह माना जाता है कि वे कोई वैकल्पिक संस्कृति नहीं बना पाते। और यहीं से उनका संकट शुरू हो जाता है। श्रमिक आंदोलन का नेतृत्व जिस मैनेजमेंट के खिलाफ लड़ रहा होता है, उसी की संस्कृति से उपजे प्रलोभनों का शिकार हो जाता है। राज्य के खिलाफ उभरे अनेक आंदोलन धीरे-धीरे राज्यसत्ता की संस्कृति में ही तिरोहित होते गए हैं। यही हश्र देश में दलित आंदोलनों का हुआ। दलित आंदोलन जिस वर्चस्व रखने वाली सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति के खिलाफ शुरू हुआ था, धीरे-धीरे उसी में तिरोहित होता गया है। वर्चस्व रखने वाले राजनीतिक समूहों के गुण-अवगुण उसमें भी आते गए हैं।

भारत में विभिन्न राज्यों में दलित आंदोलन के कई रूप सक्रिय हैं, अत: इनकी संभावनाओं, समस्याओं और संकट के रूप भी भिन्न होंगे। बिहार में दलित उभार का एक बड़ा धड़ा जहां उग्र वामपंथी संस्थाओं से प्रभावित रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में स्वायत्त दलित राजनीतिक आंदोलनों का उभार हुआ है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कनार्टक जैसे दक्षिणी राज्यों में दलित उभार का नेतृत्व काफी कुछ कांग्रेस के प्रभाव में विकसित होता रहा है। लेकिन सबमें एक आकांक्षा समान रही- वह है शिक्षा व राजनीति के माध्यम से राज्यसत्ता की योजनाओं में हिस्सेदारी व सामाजिक सम्मान की चाह। राज्यसत्ता और लोकतांत्रिक संस्कृति से उन्हें सामाजिक बंधनों से मुक्ति व विकास की दिशा में बढ़ने में मदद भी मिली है।

देश में 90 का दशक दलित राजनीति के उभार का दशक था। तब उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान में प्रभावी ढंग से कांशीराम और मायावती के नेतृत्व में बहुजन राजनीति ने अपनी जगह बनाई। मगर पिछले दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति कमजोर हुई और यह कई तरह से संकटग्रस्त दिखने लगी। अवसरवाद, धनाकांक्षा, स्वार्थों की टकराहट ने इसकी दूसरी पांत के नेतृत्व को काफी कमजोर किया। महाराष्ट्र में तो अंबेडकर की बनाई आरपीआई दो दशक पहले ही कई धड़ों में बंट गई थी। हालांकि इन विभाजनों का मानचित्र वैचारिक टकराहटों ने गढ़ा था, फिर भी इनके अनेक नेता कांग्रेस के गहरे प्रभाव में थे। कांग्रेस-आरपीआई गठबंधन की प्रक्रिया में धीरे-धीरे आरपीआई कांग्रेस में तिरोहित होती गई, फिर उसका एक बड़ा धड़ा शिवसेना से जुड़ा और फिर उस रास्ते कुछ धड़े भाजपा से जुड़ गए। रामदास अठावले आज भाजपा की केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं।

कांशीराम ने दलित नेतृत्व की इस प्रवृत्ति को ‘चमचा एज’ के रूप में समझा था और दलितों की एक स्वायत्त राजनीति विकसित करने का प्रण लिया था, जिसमें उन्होंने दलितों को ‘देने वाली राजनीतिक शक्ति’ के रूप में परिकल्पित किया था, न कि ‘लेने वाले’ समूह के रूप में। बहुजन राजनीति में उनका यह स्वप्न पूरा हो भी रहा था। दलित नेतृत्व के बैनर तले गैर-दलित तबकों को आकर सत्ता में भागीदारी स्वीकार करनी पड़ी। पर बहुजन राजनीति भी जिनके विरुद्ध वैकल्पिक राजनीति देने के एजेंडे पर काम कर रही थी, उसी के अवगुणों का शिकार हो गई। सीमांत से मुख्यधारा में आने की लड़ाई लड़ते-लड़ते वह खुद मुख्यधारा की सीमाओं में उलझ गई।

दलित राजनीति के संकट का दूसरा कारण दलित समूहों में राजनीतिक और सत्ता सुविधाओं के लिए स्पद्र्धा से बना टकराव है। पंजाब में बड़ी दलित आबादी रहती है, जिनकी संख्या लगभग 31 प्रतिशत है, किंतु वहां दो बड़े दलित समूहों- जाटव (चर्मकार) और वाल्मीकि में गहरा विभाजन है। एक समूह कांग्रेस के साथ जाता है, तो दूसरा अकाली दल की तरफ। उसी तरह, उत्तर प्रदेश में जाटव-पासी, बिहार में पासवान-हरिजन (चर्मकार) अलग-अलग राजनीतिक पक्ष तय करते हैं। आंध्र प्रदेश में माला-मादिगा, महाराष्ट्र में महार-मातंग अपने-अपने राजनीतिक हितों के लिए आपस में टकराते हैं। इससे एक संगठित दलित सामाजिक समूह का उभार नहीं हो पाता। यूं भी दलित समूह एक ‘होमोजेनियस’ समूह नहीं है, उसमें कई स्तर व टकराहटों से भरे जातीय, उप-जातीय चरित्र भी काम करते हैं। दलित संख्या के स्तर पर बड़े समुदायों के साथ कई छोटे-छोटे समुदाय भी हैं, जिन्हें अब भी राजनीतिक पहचान नहीं मिली है। दलित राजनीति की एक चुनौती ऐसे छोटे-छोटे समुदायों कोे राजनीति और विकास में भागीदारी दिलाना भी है।

तीसरा संकट भाषा का है। मायावती अपना ‘मनुवाद विरोधी’ पोस्चर कब का खो चुकी हैं, उनकी सर्वजन की भाषा प्रभावी तो रही, किंतु उस पर उन्हें नई धार देनी है। पिछले दिनों दलित समूहों में भी एक नया मध्यवर्ग उभरा है। उससे संवाद के लिए मायावती को भी जाति, सर्वजन के प्रतीकों के साथ नई भाषा गढ़नी होगी। इस बीच दलितों में एक युवा नेतृत्व भी उभरा है, जो टेक्नोसेवी, सिविल सोसायटी आंदोलन की भाषा के साथ एक आक्रामक रुख वाला नेतृत्व है। गुजरात में जिग्नेश मेवाणी, उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर रावण को इसी कोटि में रखा जा सकता है। मायावती के लिए यह भी समस्या है कि कैसे इस नए उभरे नेतृत्व के साथ संवाद स्थापित कर या तो उन्हें अपने में समाहित करें या उनके साथ गठजोड़ करें। दलितों में उभर रहे इस युवा नेतृत्व के लिए एक समस्या यह है कि यह महाराष्ट्र में 70 में उभरे दलित पैंथर की भाषा को पुन: गढ़ने की कोशिश कर रहा है। दलित आकांक्षा और वामपंथी शब्दावलियों का मिला-जुला रूप जो प्रकाश अंबेडकर, नामदेव ढासाल में देखा गया था, उसी भाषा को फिर से इस युवा नेतृत्व ने गढ़ा है। यह भाषा प्रारंभ में तो आकर्षक लगती है, स्ट्रीट फाइट के लिए उत्तेजित भी करती है, पर इसमें बड़े सामाजिक परिवर्तन की कोई योजना अभी तो नहीं दिखती। जिग्नेश स्वयं कांग्रेस के समर्थन से गुजरात का चुनाव जीते हैं। कांग्रेस ने एक तरह से उन्हें अपनी सीट गुजरात में दी है।

जिस लोकतंत्र ने दलित राजनीति के विकास के लिए कैनवास प्रदान किया है, जिस चुनावी लोकतंत्र ने उन्हें उड़ने को आकाश दिया है, उसी तंत्र ने ऐसी काजल की कोठरी भी बना दी है, जिसमें उन्हें बच-बचकर यात्रा करनी पडे़गी। एक वैकल्पिक राजनीति का स्वप्न बनाए रखना है, जो भले पूरी तरह सच न हो, किंतु उसका आभास भी दलित राजनीति में नई जान फूंक सकता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

साभारः हिन्दुस्तान

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