
मुझे समझ में नहीं आता, उत्तर और मध्य भारत के लोग कब तक इस गुमान में रहेंगे कि देश उन्हीं की मर्जी से चलता है और चलता रहेगा! चाहे, वे देश भर में जितना कूड़ा-करकट फैलाते रहें! सोचिये, इस गुमान और बहुसंख्यकवाद के नशे में चूर हिंदी-भाषी क्षेत्र के फैसलों ने देश को आज कहां पहुंचा दिया? उनकी चुनी सरकारों का किसानों की बेहद जेनुइन मांग और प्रतिरोध को लेकर क्या रवैया रहा? क्या इस महामारी में भी इस क्षेत्र के राजनीतिक-गुनाह आपको नज़र नही आ रहे हैं?
ऐसे में क्या लोगों को अब दक्षिण की तरफ़ नहीं झाँकना चाहिए? दक्षिण के पास सोच, समझ, और संस्कृति का बड़ा मानवीय दायरा है, जो हमेशा दिखता रहा है और वह आज इस महामारी में भी दिखाई दे रहा है। दक्षिण की धारा उत्तर और मध्य भारत को जाति-वर्ण और कारपोरेट-हिंदुत्व की जकड़ से मुक्त कराने में ज़्यादा समर्थ है। संकीर्णताओं से मुक्ति के संघर्ष की उसके पास समृद्ध विरासत भी है। जानता हूं, हिंदी-भाषी क्षेत्र का सबसे प्रभावी चिंतन इतनी आसानी से खत्म नहीं होने वाला। मेरी इस छोटी सी टिप्पणी से तो हरगिज़ नहीं, पर अंतिम सांस तक यह सच कहना और लिखना जारी रखना चाहता हूं कि कारपोरेट-हिंदुत्व और मनुवाद के ज़हरीले चंगुल से मुक्ति के लिए नया विचार चाहिए। मुझे विश्वास है, एक दिन लोग जागेंगे! शायद जगाने वालों की कमी है लोगों की नहीं!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। पिछले तकरीबन चार दशक से ज्यादा समय से पत्रकार के तौर पर राजनीतिक को करीब से देख रहे हैं। राज्यसभा टीवी के फाउंडर एडिटर हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन और चिंतन करते हैं। द वायर में उनका शो, ‘मीडियो बोल’ खूब चर्चित है।