वैवाहिक रीतियों में सामाजिक बुराइयां

बुन्देलखण्ड क्षेत्र जिसे कहते है वो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश को मिला के बना हुआ है और एक ऐसा क्षेत्र है जहां पर शादी किसी यज्ञ से कम नहीं होती है. इस क्षेत्र में कन्यादान सबसे बड़ा दान माना जाता है. यहां लड़की का जन्म होना लक्ष्मी का घर आना माना जाता है. अगर पहली संतान लड़की हुए तो घर में शुभ समझा जाता है. पर ये भी जाति व्यवस्था का शिकार है. किसी जाति में लड़की का होना सिर झुकाने के बराबर माना जाता है और मां की अच्छे से देखभाल नहीं होती है. लड़की के पैदा होते ही पूरा परिवार उसकी शादी की चिंता सताने लगती है. उसकी शादी के लिए धन इकट्ठा करने में जुट जाते है. कभी कभी ये देखा गया है कि बाप सब बुराईयां छोड़ देता है बेटी के पैदा होते ही और कुछ बाप ऐसे भी मिलेंगे यहाँ जो बेटी पैदा होते ही उन्हें नींद नहीं आती और नशा करने लग जाते है यह सोंच कर कि एक आर्थिक बोझ हो गया. यानि यहां लड़की को बोझ भी समझा जाता है. ये बोझ कई तरह का होता है. इनमे से एक है लड़के वालों के सामने घुटने टेकने के बराबर, दहेज़ का दंश, रिश्तों का जाल, उल्टा सीधा रिश्तों का जाल (फसन). लड़की का रंग रूप, कद और शिक्षा, आदि. वैसे लड़की अगर रुपवती और गुणवती हो और अगर बाप धनी हो तो धनवती भी बन जाती है और लड़के वाले ऐसे लड़की वालों को खोजते है. अगर लड़की एकलौती बेटी हो तो उस लड़की का कद लोभी लोग और ऊंचा कर देते है, और अगर एकलौती संतान हो तो लोभी लड़के वाले तो उस लड़की को धरती की लक्ष्मी ही मान लेते है और फिर क्या रंग क्या रूप “सब चलता है” वाली सोंच में बदल जाता है.

विवाह दो व्यक्तियों का मिलन ही नहीं बल्कि दो परिवारों का मिलन भी होता है. इन दोनों परिवारों के रिस्तेदार, रहन-सहन, खान पान और सुख दुख में साथ बटाना भी पड़ता है. शादी के बाद रिश्ता स्थाई और सत्य बन जाता है. शादी कभी-कभी एक समझौता भी होता है और कभी-कभी बोझ भी बन जाती है. अगर दोनों पक्ष एक दूसरे के लिए अपनापन समझें और दोनों की ओर से सहानुभूति और सहायता की झलक दिखे तो ऐसी शादियां दोनों घरों को स्वर्ग बना देती है.

जहां शादियां दो घरों को जोड़ती है वही कुछ बुराईयां भी होती है, दोनों परिवार में खलबली भी मचा देती है. बुन्देलखण्ड में शादी के लिए लड़का वाला लड़की के घर कई बार आता जाता है. कभी मामा-मामी देखेंगे, कभी बुआ-फूफा देखेंगे, फिर लड़के के जीजा-जीजी देखेंगे और अब तो लड़के के दोस्त कहा पीछे है. जितनी बार जायेंगे लड़की वाले को एक से बढ़कर एक स्वागत करना पड़ता है. अगर किसी की सेवा अच्छे नहीं हुए तो रिश्ता तो दूर फिर उस लड़की का अपने किसी रिश्तेदारी में भी नहीं होने देंगे. वैसे अगर लड़का ही अपनी मर्जी से लड़की देखकर शादी करे तो रिश्तेदार और पारिवारिक लोग लड़के का जीना दूभर कर देते है. ये एक सामाजिक बुराई है जिसे लड़की वाले को झेलना पड़ता है. हालांकि, लड़की वाला भी लड़का वाला होता है और लड़की वाला भी किसी लड़की का बाप व रिश्तेदार होता है. लेकिन जब अपनी लड़की की शादी करता है तब उसको याद आता है की वो लड़की वाला है. अगर हर लड़की वाला और हर लड़का वाला ये याद रखे की वो भी ये सब करना चाहता है और नहीं करना चाहता तो सायद ये बात सामाजिक बुराई न लगे. पर जब मैं अपनी बहन बेटी की शादी के लिए दहेज़ देता हु तो उस से कहीं ज्यादा अपने लड़के की शादी में लेना चाहता हुं. या जब मैं दहेज़ देता हु तो मुझे दहेज़ बहुत भारी पड़ता है और जब मैं दहेज़ लेता हूँ तो दहेज़ कम लगता है. बहुत से ऐसे किस्से भी देखे जाते है कि लड़का वाला ये भूल जाता है की वो भी किसी लड़की की शादी करेगा या किया था. सामान्यतः हर शादी में चार मह्त्वपूर्ण रश्में हैं- फलदान या बयाना या छेंकना, तिलकोस्तव, टिका व द्वारचार, खोरवा देना जो लड़की वाला करता है और दो मुख्य रश्में है- गोद भराई या ओली करना और गहनों का चढ़ावा करना जो लड़के वाला लड़की के यहां ही करता है. ये सभी रश्में लेन-देन पर ही टिका होता है. हर बार पैसों को ऐसे गिना जाता है जैसे कोई बैंक केशियर लोन दे रहा हो और लड़का वाला कर्ज ले रहा हो.

ये हुई दहेज़ की बात. उस से भी बढ़कर शादी में सामाजिक बुराईयां और भी है – जैसे बरातियों का बन्दूक और आतिशबाजी लाना, बरातियों का स्वागत पैर धुलकर, मंडप के नीचे पयपुजी होना, कलेवा में दूल्हे का नाराज होना, दहेज़ के लिए नोकझोक होना, लड़की की बहन का दूल्हा के जूते चुराना फिर मनमाफिक मांग पूरा न होने पर लड़की वालों का लड़के वालों पर प्रतिक्रिया करना, इत्यादि. और अगर शादी में कोई गुस्सा ना हो तो मानो शादी सफल हुए नहीं. गुस्सा होने वालों में दूल्हा-दुल्हन का जीजा, फूफा और मामा होते है. कुछ वैवाहिक सामाजिक रीतियां जो कुरीतियों बन गयी है कि व्याख्या नीचे करता हूं-

बारात में बन्दूक और आतिशबाजी का खतरनाक खेल: यहाँ लड़का वाला ये दिखाने की कोशिश करता है मैं कितना पैसों से और हथियारों से शक्तिशाली हूं. अक्सर सुना जाता है कुछ लोगों की मृत्यु शादी की फायरिंग से हो गयी. आतिशबाजी का खेल तो और खतरनाक दिखता है जो कि ध्वनि प्रदुषण और वायु प्रदुषण दोनों बढ़ाता है. इसका ख्याल नहीं अंजान लोगों को और न ही किसी पर्यावरण विद्वानों को होता है. क्या ये रीति कुरीति नहीं है/ क्या अब इसकी जरुरत बुंदेलखंड के लोगों को है जहाँ शिक्षा का स्तर और महिलायों और बच्चों का स्वास्थ्य ठीक न हो और खाने को तरश जाते हो/ और सबसे बड़ी विडंबना यह कि दोनों पछ के लोग कर्ज भी लेकर ये दिखावा करते है.

खर्च और कर्ज का खेल: ये जो खर्च और कर्ज का रिश्ता है बहुत ही पेचीदा बन जाता है उन गरीबों के लिए जो ये सब नहीं कर सकते. कभी-कभी दोनों पछ इसलिए मायुस हो जाते है क्योंकि उन्होंने किसी पड़ोसी के लड़का या लड़की के बराबर खर्च नहीं कर पाए. और कुछ लोग ताना मारते है कि मैंने तो पानी की तरह पैसा बहाया अपनी लड़की या अपने लड़के की शादी में. शादी में जरुरत से ज्यादा खर्च कहां तक कारगर है और ये किनके लिए है. सोचने समझने की बात और इन सब परम्पराओं का हर साल बढ़ता ही नजर आता है.

पैर धोकर बरातियों का स्वागत करने की परम्परा: ये स्वागत लड़की के यहां पहुंचने पर बरातियों का किया जाता है. समय परिवर्तन के अनुसार अब ये सिर्फ दूल्हे के सबसे करीबी ५ रिस्तेदारों को ही धोना पड़ता है. ये काम लड़की का बाप या भाई करता है. इस कुरीति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि लड़की होना कितना बड़ा बोझ बन जाता है और शर्म लगता है. ये बात भी नहीं पचती है की लड़का वाला जिसको भेजता है पैर धुलाने के लिए वो किस चरित्र का इंसान है. कही कहीं ये देखने को मिला की पैर धुलाने वाला शराब पी रखी होती है उसको पैर धुलाने में अच्छा लगता है और बहुत सा समय एक आदमी पर लग जाता है. वैसे तो ये एक सामाजिक बुराई है पर फिर भी ये सामाजिक परंपरा को लागू रखना चाहते हो तो लड़की वाले का भी ख्याल रखो, और समझो कि हम भी किसी लड़की का बाप व रिस्तेदार हैं. एक परिवार इस कुरीति को छोड़ेगा तो दूसरे भी उसको अपनाएंगे. और धीरे-धीरे सब ख़त्म हो जायेगा. यहाँ पर लिंग भेद स्पष्ट दिखता है और इससे लड़की भी जब ससुराल जाती है तो उसको बहुत सुनना व देखना पड़ता है. अगर यही स्वागत फूल मालाओं और चन्दन व हल्दी के ठीके से किया जाए तो शायद रीति सुखदायी और सम्मानीय व बराबरी का लगे. अगर इतिहास को देखा जाये तो कही मिलता ही होगा क्यों पैर धुलने की प्रथा चली. ये प्रथा उस समय चली होगी जब लोग पैदल व घोड़े और बैल गाडी से बारात लेके आते होंगे. पैर धुलने से थकान दूर होती है, पैदल बाराती व उनके साथियों की हालत ठीक नहीं होती होगी. जैसे बाल विवाह प्रथा मुगलों और अंग्रेजों से सुन्दर लड़कियों को बचाने के लिए चलायी गयी होगी. लेकिन अब समय के साथ इस प्रथा को बदल देना चाहिए, क्योंकि ये न तो वैज्ञानिक वैध है और न ही सामाजिक प्रासंगिक है.

दूल्हा दुल्हन का पैर पूजना (पयपुजी): इनमे सबसे ज्यादा सामाजिक कुरीतियां जो लगती है वो है पैर धुलना और दूल्हा-दुल्हन का पैर पूजना मंडप के नीचे. ये सिर्फ कुछ भाग में ही होता है यूपी और एमपी के इस क्षेत्र में. यहाँ ये समझा जाता है कि शादी के दिन दूल्हा पर राम की छाया उतर आती है और दुल्हन पर सीता की, इसलिए पैर पूजन उचित मानते है. ये सिर्फ हिन्दू परंपरा के अनुसार शादियों पर लागू है. अगर ऐसा है तो हिन्दुयों की हर शादी पर ऐसा ही होना चाहिए, और हर जगह होनी चाहिए जो कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में नहीं होता है. ओडिशा, बिहार, बंगाल में भी नहीं होता तो सिर्फ उ.प्र. व म.प्र. के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में ही क्यों. ये मुझे सामाजिक कुरीति लगती है जो लड़की वालों को नीचा दिखाने के लिए कुछ स्वार्थी और असमाजिक व्यक्ति ने चलायी होगी. इसमें बुजुर्ग महिला व पुरुष दूल्हा दुल्हन कि पूजा करते है पैर छूकर. ये कौन सा सामाजिक अच्छाई है और कौन सी संस्कृति है जहाँ बुजुर्गो को भी अपने से छोटों के पैर छूने होते है. अगर ये परंपरा है तो किसके लिए है? किसलिए है? क्यों है? कहाँ कहाँ है? ये भी हमको देखना चाहिए. अगर पैर पूजना एक परंपरा है तो सिर्फ कुछ लोगों तक ही सिमित रखा जाये. वैसे इसका कोई औचित्य नहीं है समाज में शिवाय लड़की वाले को नीचा दिखाने के. बुजुर्ग जो चाहे जिस उम्र का हो वो दूल्हे के पैर पूजता है सिर्फ इसलिए की लड़की का दादा-दादी, बाबा-बाबी, चाचा-चची, मामा-मामी होते है. इनको सिर्फ झुकना पड़ता है सिर्फ लड़की वाले होने से. पैर पूजने का एक और बुरा प्रभाव पड़ता है लड़की और लड़का का सम्बन्ध खोजने में. इस क्षेत्र के लोग इस बात का ध्यान रखते है कि कौन किसका पैर पूजा हुआ है और अगर लड़का वाला किसी लड़की वाले के किसी भी रिस्तेदार का पैर पूजा हुआ होगा वहाँ अपनी लड़की नहीं देगा और न ही वहाँ से लड़की लेगा.

पयपुजी का आर्थिक सम्बन्ध भी होता है. हर लड़की वाला जो पैर पूजता है उसको कुछ रुपये, गहने, कपडे, मिठाई व बर्तन, इत्यादि देना पड़ता है. ये सब एक तरह का दहेज़ होता है जो सिर्फ लड़का वाला ही ले जा सकता है. यहाँ ये समझना होगा की पयपुजी दहेज़ की एक सीढ़ी है जो किसी भी तरीके से जितना ज्यादा ले सको जीस रूप में ले सको ले लो, और लड़की वाला इसे रीति समझकर स्वीकार करता रहता है और देता रहता है. अगर आर्थिक पहलु से देखे तो लड़की वाले का घर खाली हो सकता है और कर्ज में डूब सकता है पर लड़का वाले का घर भरता है और फिर भी उसको दहेज़ कम लगता है. शादी में एक पछ आर्थिक मजबूती को प्राप्त करता है और दूसरी तरफ एक घर आर्थिक बदहाली की तरफ चला जाता है. इसलिए हम पयपुजी को रीति नहीं बल्कि दहेज़ को लेने की कुरीति व चालाकी जानना चाहिए.

ये तो शादी के पहले और शादी होने तक का सामाजिक चक्र है. शादी के बाद लड़की वाला कितना दंश झेलता है जैसे बेटी की पहले औलाद की देखरेख लड़की वाला करता है और फिर उसके बाद कुछ उपहार और कुछ नेंग भी भेजना पड़ता है, जो सामाजिक तौर पर लड़की वाले को ही देना होता है. अगर ऐसा नहीं किया तो ससुराल वाले लड़की/ बहु का जीना दूभर कर देते है. पर्दा प्रथा कोई कम बुराई नहीं है ग्रामीण बुन्देलखण्ड में. यह एक हास्यपद और पागलपन लगता है और ऐसी बकवास और बे आधारहीन रीति है जिसका कोई मतलब नहीं बनता है. सोचो जिस लड़की को कई लोग मिलकर देखे हो, बात चीत किये हो, उसको शिर से लेकर पैर तक देखे हों, कि आँख कैसी है, नाक कैसी है, चेहरा गोल व लम्बा है, होंठ कैसे हैं, बाल घुंघराले है या नहीं, पैर सीधे पड़ते है कि नहीं, हाथ व पैर कि उँगलियाँ कैसी हैं यहाँ तक देख कर शादी करते है फिर वही लड़की शादी के बाद उन्ही लोगों को मुंह क्यों नहीं दिखा सकती. ये तो नियत में खोट दिखती है. बेटी और बहु में क्या अंतर है और ये प्रथा किसलिए चली और कब चली थी, और इसका प्रभाव क्या पड़ता है. ये तो बहु बेटियों को मुगलों, अंग्रेजों और गुंडों से बचने कि प्रथा ही रही होगी जो आज भी चल रही है. फिर ग्रामीण महिलायों पर ही क्यों, अनपढ़ और गरीबों कि महिलायों को ही क्यों? ये बुन्देलखण्ड में बहुत ही प्रचलित है यहाँ तक कि लड़की/ बहन पति के सामने अपने बड़े भाई से पर्दा करटी/घूँघट करती है. इस प्रथा का कोई औचित्य नहीं है समाज में और न ही प्रासंगिक है.  कुछ बिना शिर पैर की रीतियों को बंद होना चाहिए, और ऐसा प्रथा चलना चाहिए जिससे दोनों पछों का बराबरी का सम्मान हो. विवाहिता महिलायों को ये अधिकार और स्वतंत्रता होना चाहिए की क्या पहने और क्या नहीं.

खोरवा शौंपाना: खोरवा शौंपाना शादी की अंतिम दहेज़ की रशम होती है और इसके बाद ये घोषणा की जाती है की शादी में पूरा कितना दहेज़  मिला  यानी  शादी  कितने  में हुए है. इसी समय हर बारातियों को कुछ धन देके विदाई की जाती है. और लड़की वाला सभी बारातियों से अपनी गलतियों की माफ़ी मांगता है चाहे गलती हुए हो या नहीं. ठीक है ये अपना सामाजिक कर्तब्य है की अपने आये हुए मेहमानों की सेवा और सत्कार करना पर जजमान को भी सम्मान देना मेहमानों का कर्तब्य है.

निष्कर्ष: पैर पूजना और पैर धुलना एक वैवाहिक सामाजिक बुराई है और इसको शिक्षित समाज में सामाजिक रीतिरिवाज से चलाना होगा जिससे कि ये सामाजिक रीती एक कुरीति न बन जाये. ये कुरीति हर जगह नहीं है पर बुंदेलखंड के सभी जिलों में सामान्यतः पाया जाता है. एक ऐसा सामाजिक तंत्र बनाना चाहिए जिससे लड़की वाला को रिस्ते में नीचा नहीं देखना पड़ेगा और लड़का वाला को इतना भी ऊँचा नहीं उठाना चाहिए. इन्ही सामाजिक कुरीतियों की वजह से बहुत से रिस्ते बनते बिगड़ते है. लड़की व लड़का का पिता जी समधी कहलाते हैऔर समधी का मतलब होता है (सम =बराबरी) का धारण करने वाले वो चाहे धन दौलत से हो, सामाजिक सम्मान हो या इज्जत में बराबरी. तो फिर लड़की के पिता अपने को छोटा क्यों समझे.

इनका कुछ सामाजिक सरोकार हो सकता है पर आज इस रीति का कोई भी औचित्य दिखता नहीं है न ही सामाजिक नजरिये से और न ही आर्थिक और शैक्षिणिक नजरिये से. शिक्षित समाज में इसका कोई भी पहलु सकारात्मक नहीं दीखता है. और भी सामाजिक विज्ञानं के ज्ञाता होंगे जो अपने नजरिये से इसको अपने तरीके से व्याख्या करेंगे. मेरे हिसाब से इस कुरीति को शादी से हटा देना ही अच्छा होगा. जिस तरह जीवन में लड़का लड़की दो पहिए की तरह चलते है उसी तरह समाज में लड़की वाला और लड़का वाला को एक दूसरे की मान सम्मान का ध्यान देना चाहिए ताकि सिविल सोसाइटी की स्थापना की जा सके. ये मेरा अपना नजरिया है सायद किसीको पसंद हो न हो पर मुझे पसंद नहीं है. और मैं इसकी शुरुआत अपनी शादी से करूँगा. एक तरफ लड़की घर की लक्ष्मी है और दूसरी तरफ दहेज़ का दंश लड़की को व लड़की वालों को मानसिक और आर्थिक तनाव देता है जो न ही समाज और न ही सामाजिक प्रक्रिया के लिए अच्छा नहीं है और न ही होगा.

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोधार्थी हैं. इनसे  sardaprasadk@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

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