गरीब-दलित के लिए जब उसकी ‘पहचान’ (जातिगत) उसकी मौत का ‘आधार’ बन जाए तो अधिकार की बात करना बेईमानी लगती है. झारखंड के सिमडेगा जिले के कारीमाटी में 28 सितंबर को जब 10 वर्ष की बच्ची संतोषी ने ‘भात-भात’ कहते हुए दम तोड़ दिया. तब मां कोयली देवी ने गोद में अपनी बेटी को मरते हुए देख कर एक मुट्ठी भात के लिए कितना तड़पी होगी. इसका अंदाज़ा ‘भोजन का अधिकार’ कानून बनाने वाले नेताओं को कभी नहीं लग सकता. क्योंकि ये नियम हम जैसे मध्यवर्ग को केवल दिखाने-सुनने के लिए है, ताकि हम भर पेट खाना खाते और फैंकते हुए ये कभी न सोचें कि ये नियम केवल भूखे को और भूखा रखने के लिए हैं.
जिस ‘इंडिया’ में गरीब, आदिवासी और दलित बच्चे भूख, कुपोषण और ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं, वह शाइनिंग कैसे हो सकता है? गलती केवल सिस्टम की नहीं है, उस ग्रंथी की भी है जिसको इस समाज ने हजारों सालों से अपने में सहेजकर रखा हुआ है. भारतीय समाज के लिए किसी की भूख और ज़िंदगी से बढ़कर अपना अपना जातिगत वर्ण है. इलाके के लोगों ने भी कोयली देवी और उसके परिवार को सिर्फ इस वजह से काम नहीं दिया क्योंकि वे दलित है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि ‘मेरा देश सही में बदल रहा है’ जातिगत भेदभाव के नए-नए समीकरण गढ़ते हुए.
जहां तक प्रशासन की बात है तो प्रशासन ने बड़ी मुश्तैदी दिखाई है इस मामले की जांच में. कमेटी ने इतनी जल्दी जांच करके रिपोर्ट तक बना डाली. डी.एम. मंजूनाथ भजंत्री ने बयान दिया है कि “संतोषी की मौत 28 सितंबर को हुई लेकिन यह खबर छपी 6 अक्टूबर को. मीडिया में आया कि दुर्गा पूजा की छुट्टियों के कारण उसे स्कूल में मिलने वाला मिड डे मिल नहीं मिल पा रहा था. जबकि वह मार्च के बाद कभी स्कूल गई ही नहीं. उसकी मौत की जांच के लिए गठित तीन सदस्यीय कमिटी की रिपोर्ट के मुताबिक संतोषी की मौत की वजह मलेरिया है. इस कमेटी ने उस डॉक्टर से बातचीत की, जिसने संतोषी का इलाज किया था.”
इतनी बेशर्मी इस देश में ही हो सकती है जहां गरीबों-दलितों का जीवन सत्ता के लिए कोई मायने ही नहीं रखता. सत्ता के दलालों कितना ही झूठ बोल लो लेकिन सच्चाई यही है कि संतोषी को तुम्हारी इस ‘ब्राह्मणवादी आधार कार्ड वाली व्यवस्था’ खा गई है.
यह लेख पूजा पवार ने लिखा है.

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