एक सम्यक संकल्प के सौ साल (23 सितंबर 1917-23 सितंबर 2017)

 

निहित स्वार्थ और विश्वासघात जीवन के वृहत शत्रु होते हैं. स्वार्थी एवं विश्वासघाती व्यक्ति जीवन में कुछ हासिल अवश्य कर लेते हैं लेकिन उसका शाश्वत मूल्य नहीं रहता. वो हमारे नैतिक मूल्य ही होते हैं जो संघर्ष के विकट क्षणों में भी हमें गलत दिशा का रूख नहीं करने देते. संघर्ष के दिनों के कुछ क्षण इतने मूल्यवान होते हैं जो न केवल व्यक्ति विशेष के जीवन के लिए मार्गदर्शक व निर्णायक हो जाते हैं बल्कि समाज की दिशा व दशा बदल देते हैं. इन्ही संघर्ष के व्यापक क्षणों के कुछ मूक गवाह भी होते हैं जो इतिहास में अंकित हो अमर हो जाते हैं. ऐसे ही संघर्षमय उपयोगी जीवन का एक गवाह गुजरात के बड़ौदा शहर के कमेटी बाग़ में मौजूद वह वट वृक्ष है. कम से कम सौ वर्ष पुराना वह वृक्ष भारत के इतिहास के एक निर्णायक घटना का मूक गवाह है. यह घटना आज के वक्त में इसलिए भी ज्यादा महत्वूपर्ण है क्योंकि साल 2017 में उस घटना के सौ साल पूरे हो गए हैं.

घटना सन 1917 की है. उस समय बड़ौदा एक रियासत हुआ करती थी और बड़ौदा नरेश सर सयाजीराव गायकवाड़ ने एक प्रतिभाशाली, होनहार गरीब नौजवान को छात्रवृति देकर कानून व अर्थशास्त्र अध्ययन करने हेतु लन्दन भेज दिया. छात्रवृति के साथ अनुबंध यह था की विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक बड़ौदा रियासत को अपनी दस वर्ष की सेवाएं देगा. अध्ययन कर उच्च शिक्षा हासिल करने के उपरान्त 28 वर्षीय वह युवक करार के मुताबिक अपनी सेवाएं देने हेतु बड़ौदा नरेश के सम्मुख उपस्थित हुआ और नरेश ने उस युवक को सैनिक सचिव के पद पर तत्काल नियुक्त कर लिया. एक सामान्य घटना आग की लपटों की तरह पुरे रियासत में फ़ैल गई. बस एक ही चर्चा चारो ओर थी कि बड़ौदा नरेश ने एक अछूत व्यक्ति को सैनिक सचिव बना दिया है. लेकिन विडम्बना ही थी की इतने महत्वपूर्ण पद पर आसीन अधिकारी को भी मातहत कर्मचारी दूर से फाइल फेंक कर देते. चपरासी पीने के लिए पानी भी नहीं देता. यहां तक की बड़ौदा नरेश के उस आदेश की भी अनदेखी कर दी गयी जिसमे उन्होंने कहा था की इस उच्च अधिकारी के रहने की उचित व्यवस्था की जाये. दीवान उनकी मदद करने से नरेश से स्पष्ट ही इंकार कर चुका था. इस उपेक्षा और तिरस्कार के बाद अब उन्हें अपने खाने व रहने की व्यवस्था स्वयं करनी थी. किसी हिन्दू लॉज या धर्मशाला में उन्हें जगह न मिली. आखिरकार वह एक पारसी धर्मशाला में अपना असली नाम छुपाकर एवं पारसी नाम एदल सरोबजी बता कर दैनिक किराये की दर पर रहने लगा. अंततः लोगों ने वह पारसी धर्मशाला भी ढूंढ लिया. हाथों में लाठियां लेकर आये लोगों ने उसे जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया और सामान निकालकर सड़क पर फेंक दिया. बहुत निवेदन करने के बाद उस युवक को धर्मशाला खाली करने के लिए आठ घंटे की मोहलत दी गयी. चूंकी उस समय बड़ौदा नरेश मैसूर जाने की जल्दी में थे, अतः उस युवक को दीवान जी से मिलने की सलाह दी परन्तु दीवान जी उदासीन रहे. विवश हो उस युवक ने दुखी मन से बड़ौदा नरेश को अपना त्याग पत्र सौंप दिया और रेलवे स्टेशन पहुंच मुंबई जाने वाली ट्रेन का इन्तेजार करने लगा. ट्रेन चार पांच घंटे विलम्ब से चल रही थी अतः वह कमेटी बाग़ के वट वृक्ष के निचे एकांत में बैठ कर फुट फुट कर रोया. रुदन सुनने वाला उस वृक्ष के सिवाय कोई न था. गहन पीड़ा की कोई सीमा न थी. लाखों लाख से योग्य, प्रतिभावान एवं सक्षम होकर भी वह उपेक्षित था. दोष केवल इतना की वह अछूत था. उसने सोचा की मै इतना उच्च शिक्षित हूं, विदेश से पढ़ा हूं, जब मेरे साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है तो देश के करोड़ों अछूत लोगों के साथ क्या हो रहा होगा? तारीख थी 23 सितम्बर 1917.

जब आंसू थमे तो उस युवक ने एक विराट संकल्प लिया – अब मैं सारा जीवन इस देश से छुआछूत निवारण और समानता के लिए कार्य करूंगा तथा ऐसा नहीं कर पाया तो स्वयं को गोली मार लूंगा. वह एक साधारण संकल्प नहीं था बल्कि सम्यक संकल्प था. हम रोज ही संकल्प लेते हैं और ‘रात गयी बात गयी’कि तरह भूल जाते हैं लेकिन न तो उस व्यक्ति के संकल्प साधारण थे और न वह व्यक्ति खुद साधारण था. कमेटी बाग़ के उस वट वृक्ष के नीचे असाधारण संकल्प लेने वाला व्यक्ति कोई और नहीं देश के महान सपूत डॉ. भीम राव अम्बेडकर थे. उनके इस संकल्प से उपजे संघर्ष ने भारत के करोड़ों लोगों के जीवन की दिशा बदल दी. कहा जाता है की दीपक राग संगीत से ज्योति जल उठती है, बुझे हुए दीपक में प्रकाश आ जाता है. बाबा साहेब की सारी जिंदगी दीपकरागमय रही. उन्होंने प्राचीन, दकियानूसी तथाकथित सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं के विरोध में कठोर संघर्ष किया. उत्पीड़ित जनता को नविन पाथेय दिया.

यह लेख अजय चन्द्रकीर्ति ने लिखा. लेखक अमेठी (यूपी) में रहते हैं. 

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