देश का इतिहास गवाह है कि आज के दलित, आदिवासी, अतिपिछड़े, स्त्रियां और अन्य वंचित समुदाय का सदियों से व्यवस्था निर्माणकर्ताओं द्वारा शोषण किया गया. उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा गया. हमारे यहां एक वर्ग विशेष का वर्चस्व रहा जिसे सामंतवाद कहा गया. इसका उद्देश्य यही था कि एक बड़े वर्ग को संशाधनों से वंचित रखा जाए. उन्हें सशक्त न बनने दिया जाए. वर्चस्वशाली वर्ग उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर सत्ता में रहा और एक बड़े तबके का निरन्तर दमन, शोषण, उत्पीड़न करता रहा. उन्हें गुलाम बनाकर उनकी सेवाएं लेता रहा. यह वर्ग मनुस्मृति जैसे ग्रंथों से संचालित था. मनुवादी व्यवस्था की प्रणाली कुछ इस तरह रखी कि इसमें ब्राह्मण पथ प्रदर्शक रहा. राजपूत वर्ग शासन करता रहा और वैश्य व्यापार में लिप्त रहा. एक बड़ा वर्ग जिसे उन्होंने शूद्र और अछूत कहा, इन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा. और अमानवीयता की हद तक उनका शोषण, उत्पीड़न करते रहे. उनकी महिलाओं से बलात्कार करते रहे और यह सब कुछ ब्राह्मण वर्ग की सुनियोजित साजिश के तहत होता रहा. उन्होंने इसे शिक्षा से दूर रखा. और उस पर पुनर्जन्म तथा भगवान का भय दिखाकर सदियों तक शासन करते रहे.
इतिहास बताता है कि शोषण, गुलामी और अन्याय की यह परंपरा सिर्फ भारत में हो ऐसा भी नहीं था. पूरे विश्व में वर्चस्वशाली वर्ग रंगभेद, नस्लवाद और जातिवाद के नाम पर बर्बरता करता रहा. समय बदलता रहा. इस अमानवीयता के विरूद्ध आवाजें उठती रहीं. साथ ही साथ इन आवाजों का दमन भी होता रहा. पर जैसे-जैसे लोगों को यह पता चलता गया कि आपसी एकता में शक्ति है. लोग संगठित होकर संघर्ष करने लगे और यथास्थिति के विेरूद्ध विद्रोह करने लगे. क्रान्ति होने लगी. फ्रांस की क्रांति. रूस की क्रांति. नस्लवाद के खिलाफ विश्व पटल पर मार्टिन लूथर किंग जैसे नेतृत्व उभरे तो जातिवाद के खिलाफ बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर.
इससे पहले मानवता के हित में अन्य अनेक सामाजिक लोगों ने अपने-अपने स्तर पर सामाजिक कार्य किए. वे चाहे गौतमबुद्ध हों. कबीर हों. रैदास हों. ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले हों. ये नाम तो कुछ उदाहरण मात्र हैं. पर असल में सामाजिक परिवर्तन में संतों की बड़ी संख्या है जो इस अमानवीय व्यवस्था का अपने- अपने स्तर पर विरोध करते रहे.
अनेक संघर्षों के बाद, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बाबा साहेब द्वारा संविधान का निर्माण हुआ. देश के संविधान ने लोकतांत्रिक प्रणाली की व्यवस्था दी जिसके माध्यम से जिसे शोषित/पीड़ित/वंचित जनता कहा जाता था. उसके शासक का प्रादुर्भाव हुआ. लोकतंत्र की सब से सरल परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने समय में दी. उन्होने कहा ‘जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए’ नाम दिया.
आज देश की आजादी के सत्तर साल बाद इन्हीं दलितों, आदिवासियों, अतिपिछड़ों, वंचितों का जो नया नेतृत्व उभरा है- वह काबिले गौर है. आज बदलाव की जो मानवतावादी बुलंद इमारत निर्माणाधीन है उसमें अपने-अपने समय के विभिन्न क्षेत्रों के अनेकानेक संतो, समाज सुधारकों, मानवतावादियों, क्रांतिकारियों ने नींव की ईंट बनाकर एक मजबूत बुनियाद दी है. उसी मजबूत नींव के आधार पर आज मानवतावादी ईमारत का निर्माण हो रहा है. बाबा साहेब ने जब मनुस्मृति जलाई तब से यह संदेश गया कि मनुवाद ही वंचित वर्ग के शोषण का आधार है. बाद में संविधान के निर्माण से इस वर्ग को ज्ञात हुआ कि यदि संविधान का क्रियान्वयन ईमानदारी से किया जाए तो यही उनके उद्धार का आधार है.
लोगों को चेतनाशील और जागरूक बनाने के लिए उनका शिक्षित होना जरूरी था. जिस मनुस्मृति ने शूद्रों और अछूतों को शिक्षा से वंचित रखा था. उन्हें अनपढ़ और अज्ञानी बनाए रखने की साजिश कर रखी थी. महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले जैसे लोगों ने उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया और सबके लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए. हालांकि उन्हें इसके लिए अनेक संघर्षों और यातनाओं से गुजरना पड़ा. उसके बाद बाबासाहेब ने भी लोगों को ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ के मूलमंत्र दिए. इसी का असर है कि सदियों से शिक्षा से वंचित दलित, आदिवासी, पिछड़े, वंचित, स्त्रियां शिक्षा ग्रहण करने लगे. जागरूक होने लगे और कहने लगे-‘हर जोर-जुर्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है.’
बाबासाहेब ने जब शिक्षा को शेरनी का दूध कहा और राजनीति को ‘मास्टर की’ तो इन समुदायों पर बहुत प्रभाव पड़ा. मान्यवर कांशीराम जी ने डीएस फोर, बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी का गठन कर बाबा साहेब के संघर्ष को आगे बढ़ाया. इनसे प्रेरणा लेकर कई दलित नेतृत्व उभरे. उनमें से कुछ भाजपा की गोद में जा बैठे जैसे उदित राज, राम विलास पासवान, रामदास अठावले आदि. मायावती अभी भी बसपा का नेतृत्व कर रही हैं.
उदित राज की जस्टिस पार्टी, तो रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, वामन मेश्राम ‘बहुजन मुक्ति दल’ के माध्यम से तो फूल सिंह बरैया ‘बहुजन संघर्ष दल’ के नाम से इस कारवां को आगे बढ़ा रहे हैं. बाबासाहेब की विचारधारा को लेकर और उनके नाम से भी कई राजनीतिक दलों का गठन हुआ है और वे स्थानीय स्तर पर इस ‘मास्टर की’ को प्राप्त करने की जद्दोजहद में लगे हैं. हालांकि यह मास्टर की भी इतनी आसानी से नहीं मिलने वाली क्योंकि कारपोरेट जगत ने इसे हथियार लिया है. फिर भी यदि दलितों, आदिवासियों, वंचितों, पिछड़ों, स्त्रियों में जनजागरूकता है, चेतना है, एकता की भावना है तो वे अपने वोट के माध्यम से इसे प्राप्त कर सकते हैं. यह मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं.
सुखद है कि इन शोषित/पीड़ित/वंचित लोगों में से कुछ शिक्षित होकर संगठन बनाकर अपने-अपने लोगों को जागरूक करने लगे हैं. यूं तो ऐसे छोटे-बड़े अनेक संगठन है. पर कुछ तो वास्तव में बहुत ही उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं. उदाहरण के लिए ‘भारतीय समाज निर्माण संघ’, ‘भारतीय समन्वय संगठन’ (लक्ष्य) आदि को लिया जा सकता है. ये संगठन जमीनी स्तर पर लोगों को जागरूक करने में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं.
इसके अलावा दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य, बहुजन साहित्य भी अपने-अपने समुदायों को जागरूक कर रहे हैं. क्योंकि वंचित वर्ग आज शिक्षित हो रहा है. साहित्य तक उनकी पहुंच हो गई है. इसलिए इन समुदायों के विद्वान लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकें उन तक पहुंच रही है. उन्हें जागरूक कर रही हैं.
इसके अलावा दलित, आदिवासी, अतिपिछड़े, वंचित, स्त्रियों की अनेक पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है जो अपने पाठकों को जागरूक कर रही हैं. इस तरह की अनेक पत्रिकाएं और कुछ समाचार पत्र हैं जो निरन्तर इन्हें जागरूक कर रहे हैं. कुछ पत्रिकाओं के नाम उदाहरण स्वरूप दिए जा सकते हैं जैसे ‘दलित दस्तक’, ‘सम्यक भारत’, ‘दलित अस्मिता’, ‘दलित आदिवासी संवाद’, ‘महिला अधिकार अभियान’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘हाशिए की आवाज’, ‘स्त्रीकाल’ आदि. इसके अलावा ‘शिल्पकार टाइम्स’, ‘मूल निवासी टाइम्स’ जैसे अनेक समाचार पत्र भी जनजागरूकता में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. वंचित वर्गों में अनेक ऐसे लेखक-लेखिकाएं हैं जो अपने पाठकों को जागरूक करने में महती भूमिका अदा कर रहे हैं.
आज दलितों, आदिवासियों, अतिपिछड़ों, वंचित और स्त्रियों को सामाजिक न्याय, राजनीतिक संदेश के साथ-साथ आर्थिक विकास की भी बहुत जरूरत है. ऐसे में इन लोगों के आंदोलन आर्थिक समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आज इन समुदायों को एक ओर जहां समानता, स्वतंत्रता और न्याय की जरूरत है वहीं आर्थिक विकास, आर्थिक समृद्धि भी अहम है. दलितों की डिक्की जैसी संस्थाओं ने यह साबित कर दिया है कि दलित भी करोड़पति बन सकते हैं. चन्द्रभान प्रसाद और एच.एल. दुसाध डाइवर्सिटी यानी विविधता की मांग कर रहे हैं, जिससे कि सरकारी संस्थानों में दलितों, आदिवासियो, अतिपिछड़ों, वंचितों और स्त्रियों को भी अपना हिस्सा मिल सके. डिक्की दलित उद्यमियों को भी प्रोत्साहित कर रहा है.
वंचित वर्ग का नया नेतृत्व इतना सशक्त हो चुका है कि यदि आपने बराबरी का दुर्ग-द्वार इनके लिए नहीं खोला तो वो इसे तोड़ देगा. इसलिए शोषित वर्ग के नये नेतृत्व को गंभीरता से लेने की जरूरत है. क्योंकि ये नया नेतृत्व उच्च शिक्षित है. जागरूक है. चेतना संपन्न है. परिपक्व है. तर्कशील व वैज्ञानिक सोच वाला है. अपने अधिकारों के प्रति सजग है. लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता है. संविधान का अनुयायी है. इसे मूर्ख नहीं बनाया जा सकता. इसे भगवान और पुनर्जन्म का भय दिखाकर डराया नहीं जा सकता है. ये आपके सारे शास्त्रों, धर्मग्रंथों, महाभारत, रामायण, पुराणों की बखिया उधेड़ सकता है. राजा महिषासुर, राजा बाली, शम्बूक, एकलव्य के साथ अन्याय, छल-कपट और साजिश करने वाले तुम्हारे देवी-देवताओं, द्रोणाचार्याें और मर्यादा पुरुषोत्तमों की पोल खोल सकता है.
‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ के क्रान्तिकारी आंदोलन को बढ़ते देखकर अंग्रेजों को ये बात दो सौ सालों के शासन में समझ आ गई थी कि भारतवासियों पर अब और शासन नहीं किया जा सकता. वो हमें यहां से भगाएं इससे पहले समझदारी इसी में है कि हम स्वयं ही उन्हें सत्ता सौंप कर चले जाएं. उन्होने ऐसा ही किया.
आज के बदलते माहौल में वर्चस्वशाली सामंतवादी ताकतों को चाहिए कि जातिवादी, भेदभावकारी भावनाओं को, गुलाम बनाए रखने वाली मानसिकता को त्याग कर मानवतावादी बनें. क्योंकि जिस तरह शोषित वर्ग के युवाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है. उसे देखते हुए अब और इन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता. जो बात अंग्रेजों को दो सौ सालों में समझ आ गई थी. इन ताकतों को पांच हजार साल में भी समझ नहीं आ रही है. वर्तमान हालात ऐसे हैं कि शोषितों/वंचितों को उनके अधिकार देने में ही समझदारी है नहीं तो वे छीनने की स्थिति में आ चुके हैं. वे आपके दुर्ग-द्वारा पर दस्तक दे रहे हैं.
हमारी भी समझदारी इसी में है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करें. सभी इन्सानों को समान समझें. समता को अपनाएं. सबको गरिमा के साथ जीने दें. मालिक और गुलाम वाली मानसिकता को त्याग दें. भाईचारे और बंधुत्व की भावना अपनाएं. हम शोषितों/वंचितों को अपने शोषण से मुक्त करें और उनके साथ इंसानियत से पेश आएं ताकि उन्हें सामाजिक न्याय मिले. वे आर्थिक प्रगति करें. जब सभी समुदाय आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे. सशक्त होंगे. भेदभाव रहित होंगे. शोषण मुक्त होंगे. तभी देश मजबूत होगा. तरक्की करेगा और दुनिया में अपना मुकम्मल स्थान बनाएंगा.
लेखक से इस पर rajvalmiki71@gmail.com संपर्क किया जा सकता है.

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।