रामचरितमानस मध्ययुग की रचना है. कथा का तानाबाना तुलसीबाबा ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया. हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है. रावण के पतन का मूल कारण सीताहरण है. पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें. कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष उठाते रहे हैं. बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं. कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे. विचार करें. यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा. आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा. फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता. संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी.
अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है. रावण ने बलात्कार नहीं किया. सीता की गरिमा का ध्यान रखा. उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-ससुर के बचनों का पालन कर रही है. इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा. सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया. लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की. दरअसल मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है. इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं. निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए. रावण ने भी तो यहीं किया. सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है. ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी.
रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे. उनका कार्य तो तप का है. जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं. उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं. मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है. सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं. छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं. सत्ता की हमेशा जय होती रही है. राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला. लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया. तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं. वह भी उस सीता को जो गर्भवती थी. यह विवाद पारिवारिक मसला था.
आज भी ऐसा हो रहा है. आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है. फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखा जाता है. जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाओं को सुरक्षा दे दी गई है. बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है. लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था. फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता. विभीषण सदाचारी थे. रामभक्त थे. पर उसे कोई सम्मान कहां देता है. सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली. सत्ता के प्रभाव में चाहे जैसा भी साहित्य रचा जाए, इतिहास लिखा जाए, हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है. तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभीषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरस रहे हैं.
सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए. पिता की आज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं. लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहित में नहीं थी. राम राजा थे. मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे. पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया. हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है. पर देवताओं के छल-प्रपंच के किस्से कम नहीं हैं.
काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते. बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते. उसकी रक्षा करते. परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते. ऐसी सीख नई पीढ़ी को देते. समाज बदलता. मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है. संभवत: यहीं कारण है कि आज धूं-धूं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है. क्योंकि वह जानता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है.

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