मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों ने छीनी बहुजन भारत की खुशियां

1034

वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट -2018 में भारत की करुणतर स्थिति

सबका साथ-सबका विकास का ढोल पीटने वाली मोदी सरकार की नीतियों के चलते खुशियों के मामले में बहुसंख्य लोगों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, यह बात वर्ल्ड हैपिनेस की ताज़ी रिपोर्ट से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है. पिछले दिनों जारी वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट -2018 में यह तथ्य उभरकर आया है कि खुशहाली के मानकों पर आज भी फिनलैंड जैसा छोटा देश पहले तथा नार्वे और डेनमार्क क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर काबिज हैं जबकि अमेरिका के बाद ब्रिटेन 19 वें स्थान पर है. रिपोर्ट में यह भी उभर कर आया है कि खुशहाली के मानकों पर शीर्ष दस देशों में आठ देश यूरोप से हैं. शीर्ष 20 में एशिया का एक भी देश शामिल नहीं है. जहाँ तक भारत का सवाल है खुशहाली के मानकों पर भारत 156 देशों में 133 वें पायदान पर है और यह पिछले साल के 122वें स्थान के मुकाबले 11 स्थान नीचे आ गया है. काबिले गौर है कि वर्ल्ड हैपिनेस की रिपोर्ट -2017 में भारत 122 वें पायदान पर रहा. ताज़ी रिपोर्ट में चीन 86 वें और पकिस्तान 75 वें स्थान पर है. खुशहाली के मामले में हमारे पडोसी देश पाकिस्तान,बांग्लादेश, नेपाल और भूटान हमसे बहुत बेहतर स्थिति में, यह बात संयुक्त राष्ट्र की संस्था सस्टेनेबल डेवलपमेंट साफ़ल्यूशंस नेटवर्क द्वारा हर वर्ष तैयार की जाने वाली वर्ल्ड हैपिनेस की नयी रिपोर्ट ने एक बार फिर साबित कर दिया है.

काबिलेगौर है कि खुशहाली के इस सूचकांक को मापने के लिए कई कसौटियां रखी गयी हैं, जिनमे जीडीपी, सामाजिक सहयोग, उदारता, भ्रष्टाचार का स्तर, सामाजिक स्वतंत्रता, सामाजिक सुरक्षा तथा जीवन स्तर के बदलाव जैसे मुद्दों को इसके पैमाने का आधार बनाया गया है. इन मोर्चों पर बदतर परिणाम देने के कारण ही भारत जहां अपने पड़ोसियों से बहुत पीछे रह गया है, वहीं पिछले वर्ष के मुकाबले इस बार 11 स्थान नीचे भी फिसल गया है. खुशियों के मामले में भारत की करुण स्थिति के लिए प्रधानतः जिम्मेवार है मोदी सरकार . मोदी-राज में इस मामले में भारत पहुत तेजी से नीचे की और फिसलते गया है. इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस सरकार के चार सालों के कार्यकाल में चार बार खुशहाली वाली रिपोर्ट प्रकाशित हुई. इनमे मार्च 2015 में जारी रिपोर्ट में भारत 117 वें, 2016 में 118 वें जबकि 2017 में फिसल कर 122 वें स्थान पर आ गया और आज 122 से फिसल कर 133 पर आ गया है. रुझान साफ़ बता रहे है कि मोदी सरकार का कार्यकाल बढ़ने के साथ-साथ स्थिति बदतर हुए जा रही है.

बहरहाल भारत के विश्व आर्थिक महाशक्ति बनाने के दावों के बीच अगर यह अपने से कमजोर पडोसी देशों से भी लगातार पिछड़ते जा रहा है : अगर खुशियों की जगह दुखों के दलदल में फंसते जा रहा है तो उसका ठीकरा अधिकांश बुद्धिजीवी 24 जुलाई ,1991 से लागू नवउदारवादी नीतियों पर फोड़ रहे हैं. उनका मानना है कि देश में उदारीकरण के बाद से अमीरी और गरीबी के बीच फासला बहुत बढ़ा है. सरकारी स्तर पर आम आदमी के लिए न तो अच्छी शिक्षा और न ही स्वास्थ्य सेवाएँ सुलभ हो पा रही हैं. तथा विनिर्माण क्षेत्र से जुड़ीं चीजों की लगातार बढती कीमतों ने आम आदमी सामान्य जीवन स्तर तक को प्रभावित करना शुरू कर दिया है. लिहाजा लोग अपनी अपनी रोजाना तक की न्यूनतम जरूरतों तक को पूरी करने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं. इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि परिवार आज सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक खुशहाली से वंचित होते जा रहे हैं. परिवारों में बढती हताशा और निराशा का माहौल लोगों को शारीरिक के साथ-साथ मानसिक खुशहाली से भी दूर करते जा रहा है.

खैर ! इसमें कोई शक नहीं कि आज भारत खुशहाली के मामले में दुनिया के दरिद्रतम देशों में शामिल हो चुका है, तो इसके लिए जिम्मेवार नव उदारवादी अर्थनीति ही है . किन्तु यदि हम यह जानने का प्रयास करें कि इस नीति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला तबका कौन है तो उसका उत्तर होगा सिर्फ और दलित,आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान! दरअसल 7 अगत, 1990 को मंडल की रिपोर्ट के बाद आरक्षण का जो विस्तार हुआ, उससे कुपित होकर ही आरक्षण को बेअसर करने की परिकल्पना के तहत ही 24 जुलाई, 1991 को सवर्ण वर्ग के पंडित नरसिंह राव ने नव उदारवादी अर्थनीति ग्रहण की. जिसका चरम लक्ष्य था भारत के जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त तबकों अर्थात सवर्णों को पूरी तरह खुशहाल और गैर-सवर्णों दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम समुदाय को बदहाल बनाकर खुशियों से महरूम करना. मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही सवर्णों के नेता, बुद्धिजीवी, साधू-संत, मीडिया और पूंजीपति वर्ग शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए आरक्षित वर्गों के खिलाफ मुस्तैद हो गया.मंडलवादी आरक्षण के विरोध के घोड़े पर सवार होकर भाजपा एकाधिक बार सत्ता में आई और देखते ही देखते अप्रतिरोध्य बन गयी.

बहरहाल मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद शासकों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण,उदारीकरण,विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने के साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप आज भारत का बहुजन समाज एक ऐसे बदहाल व वंचित समुदाय में तब्दील होते जा रहा है,जिसकी मिसाल वर्तमान विश्व में दुर्लभ है.मंडल के बाद बहुजनों को गुलाम बनाने के लिए जो विभिन्न साजिशें हुईं,उसका परिणाम इस रूप में आया है कि आज भी हजारों साल पूर्व की भांति उद्योग—व्यापार पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा वर्ण-व्यवस्था के विशेषाधिकारयुक्त तबकों का ही है.पूरे देश में आज जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हुए हैं,उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स उन्ही के हैं.पॉश कालोनियों में आज भी किसी दलित-आदिवासी-पिछड़े –मुस्लिम को वास करते देखना अचम्भे जैसा लगता है.

मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स में 80-90 प्रतिशत से ज्यादा दुकानें इन्ही की हैं.चार से लेकर आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है ,उनमें प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियाँ उन्हीं की ही होती हैं.देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल उन्हीं के हैं.फिल्म और मनोरंजन उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा उन्हीं का है .संसद-विधानसभाओं में बहुजनों के जन प्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो,पर मत्रिमंडलों में दबदबा उन्हीं का है.मंत्रिमंडलों के लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले प्रायः 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं.

शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि में जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेहिसाब वर्चस्व के फलस्वरूप आज दलित, आदिवासी,पिछड़ों और मुस्लिम समुदाय में निराशा और हताशा की कोई सीमा नहीं रह गयी है. और जब किसी देश की प्रायः 80-90 प्रतिशत आबादी हताशा और निराशा में घिरी हो तो वैसा देश खुशहाली की रैंकिंग में निम्नतर पायदान पर आयेगा ही आएगा, जो आज भारत के साथ हो रहा है. लेकिन 24जुलाई ,1991 से नरसिंह राव ने बहुजनों की खुशिया छीनने की निर्भूल परिकल्पना के तहत भूमंडलीकरण की जिस अर्थनीति का आगाज किया उसे उनके बाद सत्ता में आये कांग्रेस और भाजपा के सभी प्रधानमंत्रियों ने योगदान किया. चूँकि संघ सबसे बड़ा सवर्णवादी दल है इसलिए संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और विशेषकर नरेंद्र मोदी ने इस मामले में अतिरिक्त योगदान दिया. लेकिन इस मामले में किसी व्यक्ति विशेष को खासतौर से चिन्हित करना हो तो नरेंद्र मोदी से भिन्न और कोई नहीं हो सकता .

24 जुलाई ,1991 के बाद नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ.मनमोहन सिंह ने सवर्णों को खुशहाल और बहुजनों को बदहाल बनाने के लिए दो दशक से ज्यादा समय तक काम किया. किन्तु मोदी ने अपने सिर्फ चार साल के कार्यकाल में इन तीनों को पूरी तरह बौना बना दिया . मोदी की नीतियों के फलस्वरूप सवर्णों का जहाँ धनार्जन के स्रोतों पर बहुत तेजी से एकाधिकार कायम हुआ, उसी अनुपात में बहुजनों की गुलामी भी बढ़ी. मोदी की अतिसवर्णपरस्त नीतियों, जिसे प्रग्रतिशील बुद्धिजीवी कार्पोरेटपरस्त नीतियां कहकर भ्रमित करते रहते हैं, के करण 2016-17के मध्य 1 प्रतिशत टॉप की आबादी अर्थात सवा करोड़ से अधिक सवर्णों की दौलत में एक साल में 15 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी. स्मरण रहे सन 2000 में टॉप की एक प्रतिशत आबादी के हाथ में 37 प्रतिशत दौलत थी, जो 2016 में 58.5 प्रतिशत हो गयी. लेकिन मोदी की नीतियों के फलस्वरूप 2016 की उनकी 58.5प्रतिशत दौलत साल भर में 73 प्रतिशत तक पहुँच गयी. मोदी की नीतियों के फलस्वरूप 2017में अरबपतियों, जो प्रायः सवर्ण ही है, की संख्या में 13 प्रतिशत वृद्धि हो गयी.

इस बीच धनार्जन के एकमात्र स्रोत नौकरियों पर निर्भर आरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के विशुद्ध गुलाम में तब्दील करने का काम मोदी राज में अंजाम दे दिया गया. मोदीराज में शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी चाकचौबंद व्यवस्था कर दी गयी है कि एक ओर जहाँ बहुजन समाज के युवाओं के लिए उच्च शिक्षा का द्वार रुद्ध हो गया है, वहीँ इस वर्ग के किसी व्यक्ति को यूनिवर्सिटियों में प्रोफ़ेसर बनते देखना अब दुष्कर हो जायेगा. मोदीराज में शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का इतना जबरदस्त दबदबा कायम हो गया है कि दलित और मुस्लिम समुदाय के लोग अभूतपूर्व असुरक्षाबोध से घिर गए हैं. यदि देश की 80-85 प्रतिशत आबादी धनार्जन के स्रोतों से कट जाय ; यदि देश की 30-35 प्रतिशत आबादी अपनी सुरक्षा को लेकर दुश्चिंता से घिर जाय, तो खुशहाली की रैंकिंग में अभागे भारत को निम्नतर पायदान पर आने के लिए अभिशप्त होना ही पड़ेगा. इस स्थिति में तबतक कोई बदलाव नहीं आएगा , जबतक धनार्जन के समस्त स्रोतों का सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के संख्यानुपात में पुनर्वितरण नहीं हो जाता. और मोदी सर्कार के रहते इसकी कोई सम्भावना नहीं दिखती .

इसे भी पढ़ें-मुंबई के आजाद मैदान में ओबीसी समाज करेगा भुजबल का सम्मान

  • दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये दिए गए लिंक पर क्लिक करें https://yt.orcsnet.com/#dalit-dastak 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.