बेंगलुरु। कर्नाटक सरकार ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए ‘रोहित वेमुला विधेयक’ (Rohith Vemula Anti-Discrimination Bill) पेश करने की घोषणा की है। इस विधेयक का उद्देश्य उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों के खिलाफ हो रहे जातिगत भेदभाव को अपराध घोषित करना है। राज्य सरकार द्वारा घोषित इस विधेयक का नाम 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की स्मृति में रखा गया है, जिनकी आत्महत्या ने देशभर में जातीय भेदभाव के खिलाफ गहरी बहस को जन्म दिया था।
इस विधेयक पर पिछले कुछ महीनों से चर्चा चल रही थी। अब यह ड्राफ्ट रूप में तैयार होने के साथ ही राज्य मंत्रिमंडल के सामने लाया जा चुका है। खबर है कि जून के बाद अगली कैबिनेट मीटिंग में इसे आगे बढ़ाने की तैयारी है और विधेयक को अगले सप्ताह राज्य विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा।
विधेयक की प्रमुख बातें:
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जातिगत भेदभाव को अपराध मान्यता: अगर किसी छात्र के साथ जाति या सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर भेदभाव होता है, तो संबंधित शिक्षण संस्थान, शिक्षक या प्रशासनिक अधिकारी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया जा सकेगा।
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सजा और मुआवजा: दोषी पाए जाने पर आरोपी को 1 साल की सजा और ₹10,000 तक का जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। पुनरावृत्ति की स्थिति में यह सजा बढ़ाई जा सकती है। साथ ही पीड़ित छात्र को ₹1 लाख तक मुआवजा देने का प्रावधान है।
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संस्थागत जवाबदेही: अगर किसी संस्थान में लगातार भेदभाव के मामले सामने आते हैं, तो उसे मिलने वाले राज्य अनुदानों पर रोक लगाई जा सकती है।
राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अप्रैल 2025 में बेंगलुरु विश्वविद्यालय में भाषण के दौरान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से इस विधेयक को लागू करने की अपील की थी। उन्होंने सरकार के नए कदम को लेकर सराहना की है। दूसरी ओर, संयुक्त राष्ट्र के दो मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भी इस विधेयक का स्वागत किया है, लेकिन साथ ही सुझाव दिया है कि इसमें मानसिक स्वास्थ्य सहायता, हॉस्टल सुरक्षा, और आर्थिक मदद की गारंटी जैसे प्रावधान जोड़े जाएं, ताकि छात्रों को हर स्तर पर संरक्षित किया जा सके।
रोहित वेमुला का मामला क्यों है केंद्र में?
रोहित वेमुला, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर थे, जिन्होंने जनवरी 2016 में जातीय भेदभाव से तंग आकर आत्महत्या की थी। उनकी सुसाइड नोट और उसके बाद उठे सवालों ने पूरे देश में शिक्षा संस्थानों में व्याप्त जातिवादी व्यवहार को बेनकाब किया। यही कारण है कि यह विधेयक न केवल प्रतीकात्मक है, बल्कि संस्थागत सुधार की दिशा में ठोस पहल के रूप में देखा जा रहा है। UN मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भी इस विधेयक को स्वागत योग्य कदम बताते हुए सुझाव दिया है कि इसमें मनोवैज्ञानिक समर्थन, हॉस्टल सुरक्षा, आर्थिक सहायता जैसे व्यापक प्रावधान होने चाहिए ।
साफ है कि अगर यह विधेयक पारित होता है और सही तरीके से लागू किया जाता है, तो यह देश के अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण बन सकता है।

पत्रकारिता और लेखन में रुचि रखने वाले सिद्धार्थ गौतम दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वहां वह विश्वविद्यायल स्तर के कई लेखन प्रतियोगिताओं के विजेता रहे हैं। पिछले दो साल से दलित दस्तक से जुड़े हैं और सब-एडिटर के पद पर कार्यरत हैं।