महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से निकल कर कुलपति पद तक के अपने सफर को आप कैसे देखते हैं?
– जब इस सफर को याद करता हूं तो सबसे पहले अपनी गरीबी याद आती है. आप तो जानते हैं कि गांव से निकलने वाले लोग कितने गरीब होते हैं. इस गरीबी में भी जो जाति है वो ज्यादा मायने रखती है. बहुत छोटा सा गांव था. मां-बाप मजदूर थे. खेती-बाड़ी कुछ नहीं थी. तो गुजारा बस जैसे-तैसे होता था. मराठी में एक कहावत कहते हैं कि ‘हाथ पे पेट’ होना. यानि की जब कमाना है, तभी खाना है. कुछ ऐसा ही हाल था. महाराष्ट्रा मे शिक्षा के प्रसार का दौर था. बाबा साहेब के कारण यह पूरे प्रदेश में खूब फैल रहा था. लेकिन बीड जिले का मेरा जो इलाका था, वो काफी पिछड़ा था. वहां अंबेडकर के शिक्षा का संदेश देर से पहुंचा. मेरे नाना कारपेंटर थे जिस कारण उनका लोगों में उठना-बैठना था. वहां एक पुलिस स्टेशन था. वहां पर निजाम के मुसलमान आया करते थे. उनसे मेरे नाना का संपर्क होता था. उनसे बातचीत से उनको पता चला कि शिक्षा का बहुत महत्व है. हालांकि वो बहुत ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहें लेकिन उन्होंने मेरी नानी से कहा था कि हमें हमारे बच्चों को पढ़ाना है. नानी ने मेरी मां को पढ़ाया. फिर मुझे शिक्षा का मैसेज मेरी मां के माध्यम से मिला. तब तक बाबा साहब का भी प्रचार-प्रसार काफी फैलने लगा था.
जब मैं तीसरी में था तो हमारे गांव के टीचर गुजर गए. कई दिनों तक उनके बदले में कोई दूसरा टीचर नहीं आया. हमारे स्कूल का प्रशासन जरा दूरी पर मौजूद एक स्कूल के अंडर में आता था. हम कुछ दोस्त हर सप्ताह वहां जाकर अपने स्कूल में शिक्षक को भेजने के लिए कहने लगे. हमने उन्हें बताया कि हमें पढ़ने मे दिक्कत हो रही है. समय बर्बाद हो रहा है. तब पढ़ाई में मेरा मन लगने लगा था. तीन-चार सप्ताह लगातार जाने के बाद जब मैं फिर दूसरे स्कूल के शिक्षक के पास पहुंचा तो उन्होंने पूछा कि क्या तुम पढ़ने के लिए इस स्कूल में नहीं आ सकते. मुझे पढ़ना था तो फिर मैने हामी भर दी. मैने घर आकर मां से कहा कि मुझे दूसरे गांव जाना है. टीचर ने बुलाया है. वहीं पढ़ना है. कुछ दिन बाद मैं उन शिक्षक के पास पहुंच गया. हालांकि कहां रहना है, क्या खाना है, मुझे इसकी तनिक भी जानकारी नहीं थी. मैं सीधे स्कूल मे उन शिक्षक के पास धमक गया. शाम को स्कूल खत्म हुआ तो वह मुझे अपने घर ले आएं. उनका नाम श्रीरंग सावले था. वो भी दलित थे. उन्होंने मुझे दो साल तक अपने पास रखा. जब मैं चौथी में पास हो गया तो उन्होंने मुझे जिले में जाकर पढ़ने की सलाह दी. तब हरिजन शिक्षा सेवा संघ वाले अपना हॉस्टल चलाते थे. सरकारी ग्रांट पर. मैं वहां चला गया. दो साल तक रहा. तीसरे साल मुझे हॉस्टल से निकाल दिया गया. कहा गया कि मैं गुंडा हूं, पढ़ाई नहीं करता. जबकि मैं पढ़ाई में बहुत आगे था और क्लास का मॉनीटर भी था. लेकिन हर कदम पर संघर्ष करते हुए मैने अपनी पढ़ाई जारी रखी. एक-एक कदम बढ़ाते हुए जेएनयू पहुंचा. दो दशक तक यहां विभिन्न रूपों में सक्रिय रहा. फिर सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात की जिम्मेदारी मिली. तो इस तरह जिंदगी काफी संघर्ष भरी रही.
आपको हॉस्टल से क्यों निकाल दिया गया. इसके बाद की आपकी पढ़ाई कैसे जारी रह पाई?
असल में मामला यह था कि वहां के वार्डन बहुत बदमाश थे. वे साल में एक-दो महीने के लिए हॉस्टल बंद कर देते थे. तब सबको हॉस्टल छोड़कर जाना पड़ता था. इस तरह वह दो महीने में खर्च होने वाले पैसे बचा लेते थे. ऐसे ही एक बार हॉस्टल बंद हुआ तो हम तमाम लड़के कलेक्टर के घर शिकायत लेकर पहुंचे. हमने बताया कि वार्डन करप्ट है. इसके बाद कलेक्टर ने एक दिन हमारे स्कूल में औचक निरीक्षण (surprise visit) किया. इत्तेफाक से मैं उस दिन स्कूल नहीं गया था. हालांकि मैने प्रिंसिपल से छुट्टी ले रखी थी. लेकिन बावजूद इसके, वार्डन ने पांच और लड़कों के साथ मुझे हॉस्टल से निकाल दिया. मैं हैरान रह गया कि आखिर मुझे कैसे निकाला जा सकता है. क्योंकि मेरी हाजिरी भी पूरी होती थी और मैं पढ़ने में भी काफी बेहतर था. यह मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. मुझे हॉस्टल छोड़ना पड़ा. यहां तक कि मेरा बस्ता भी वहां किसी के पास नहीं रखने दिया गया. तब मैने बस्ते से अपना नाम हटाकर एक दोस्त के पास रखा.
रहने का कोई ठिकाना नहीं था. जान-पहचान का कोई था नहीं, जिससे मदद मांगू. जेब में पैसे भी नहीं थे. तब मैने एक हनुमान मंदिर में शरण ली. तब मैं सातवीं में था. कोई 13-14 साल उम्र थी मेरी. मंदिर में बैठे-बैठे मैं सोच रहा था कि अब क्या किया जाए. मेरे पास कुछ भी नहीं था. दिन तो स्कूल में कट जाता, दिक्कत रात की थी. तकरीबन तीन-चार महीने तक मैं कभी बस स्टैंड, कभी हॉस्पिटल तो कभी मंदिर में सोता रहा. पुलिस वाले रात को परेशान करते तो कोई बहाना बनाना पड़ता. मैं बहुत परेशान था लेकिन मैने मन ही मन तय कर लिया था कि मैं इन लोगों से लड़ूंगा. वार्डन साल के बीस रुपये लेते थे. हॉस्टल एडमिशन चार्ज जो नियमानुसार वापस होना चाहिए था. मेरे तीन साल के 60 रुपये हो गए थे. मैने इसी मुद्दे को लेकर लड़ने का फैसला किया. हमने वार्डन से कहा कि हमारे पैसे लौटा दो. इसी दौरान मैने अंदर-अंदर यह भी मन बना लिया था कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए औरंगाबाद जाऊंगा. इसी बीच वार्डन से हम छात्रों की लड़ाई हो गई. खिंचतान में हमारे कपड़े फट गए. हम सभी छात्र इसी हालत में सीईओ के पास चले गए. सीईओ ने हमें ही डांटना शुरू कर दिया कि तुम लोग पढ़ते नहीं हो हंगामा करते हो. मैने विरोध किया. तब मेरे पास मेरी मार्क्स शीट थी. मैने उन्हें दिखाया. मेरे नंबर देखकर वो भौचक रह गए. उन्होंने हमें भेज दिया और मामले को देखने का आश्वासन दिया. कुछ दिनों बाद वार्डन को सस्पेंड कर दिया गया. फिर मैंने अपने एक दोस्त से पांच रुपये उधार लिया और आगे की पढ़ाई के लिए औरंगाबाद चला आया.
मराठवाड़ा विश्वविद्यायल के नामांतरण को लेकर काफी आंदोलन हुआ था. क्या उस आंदोलन में आपकी कोई भूमिका थी?
नहीं, तब मैं दिल्ली में था. मैने 1976 में औरंगाबाद छोड़ दिया था. तो मैने प्रत्यक्ष संघर्ष को तो नहीं देखा लेकिन मुझे हर बात की खबर मिलती रहती थी कि वहां किस तरह आंदोलन को दबाने के लिए लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है.
विज्ञान की दुनिया एक अलग दुनिया होती है, आप उसी से जुड़े रहे हैं. वहां से निकल कर एक विश्वविद्यालय के प्रशासन को संभालने में दिक्कत नहीं हुई?
-ऐसा नहीं है कि साइंस की दुनिया लोगों से अलग है. बल्कि विज्ञान की दुनिया तो लोगों के और करीब है. हमलोग सोशल मूवमेंट से आए हुए लोग हैं. हमेशा सोसाइटी में रहे हैं. महाराष्ट्र में जितने भी सोशल मूवमेंट हुए हैं, प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से मैं हमेशा उसका हिस्सा रहा हूं.
आपके जीवन में सबसे ज्यादा निराशा का वक्त कौन सा रहा?
– देखिए, वैसे तो पूरा जीवन ही निराशा भरा रहा है. दलित समुदाय से जुड़े होने के कारण जीवन में तमाम वक्त पर निराशा का सामना करना पड़ता है. आपको हर स्टेज पर अग्नि परीक्षा देनी होती है. ऐसा कोई दिन नहीं होता है, जब सिस्टम आपको अग्निपरीक्षा देने के लिए मजबूर नहीं करता.
मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि आपको हर मौके पर भेदभाव का सामना करना पड़ा. जेएनयू में भी आपके साथ भेदभाव हुआ?
– बिल्कुल. जेएनयू कोई अलग थोड़े ही है. ऐसा थोड़े ही है कि जेएनयू में दलितों को दबाया नहीं जाता. बस हर जगह का अपना तरीका होता है. आप आईएएस में देख लिजिए. आप राजनीति में देख लिजिए. दलितों को हमेशा सोशल जस्टिस मिनिस्ट्री ही क्यों दी जाती है. उनको होम मिनिस्ट्री क्यों नहीं दी जाती है. कोई अपवाद आ गया तो बात अलग है. जहां तक जेएनयू की बात है तो यह अन्य जगहों से ठीक है. लेकिन यहां भी दिक्कते हैं. जैसे जेएनयू के एडमिशन टेस्ट में मुझे अच्छे नंबर मिले थे लेकिन मुझे आखिरी में रखा गया. मेरा स्कोर अच्छा रहा लेकिन मुझे जितना अच्छा सुपरवाइजर मिलना चाहिए, नहीं मिला. जब हम टीचर बने तो हमें जल्दी लैब नहीं मिली. तो ऐसा नहीं है कि यहां भेदभाव नहीं होता. जैसे मैं आपको जेएनयू की एक घटना बताता हूं. तब 77 के बाद चर्चा हो रही थी कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. तीन नाम थे. जगजीवन राम और मोरार जी के साथ एक-दो और लोगों का नाम आ रहा था. ज्यादातर लोगों का मानना था कि जगजीवन राम सबसे बेहतर हैं लेकिन वहीं जेएनयू के एक तेजतर्रात स्टूडेंट का कहना था कि जगजीवन राम को हम प्रधानमंत्री के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं, वो ‘चमार’ हैं. यह पेरियार के सामने रात के वक्त की चर्चा थी. तो लोगों का मेंटल सेटअप हरेक जगह आ जाता है. तो किसी न किसी रूप में लोगों का यह एटिट्यूड सामने आ जाता है. जैसे अगर आप आईएएस बनेंगे तो आपको कहीं दूर फेंक देंगे. पॉलिटिक्स में हैं तो अच्छी मिनिस्ट्री नहीं देंगे. तो यह हर क्षेत्र में है.
आपने अभी जातिवाद की बात की थी हर जगह ऐसा होता है. लेकिन जेएनयू के बारे में माना जाता है कि अच्छी जगह है, बड़ी जगह है, लोग पढ़े-लिखे समझदार हैं. लेकिन जब आपको यहां भी भेदभाव का सामना करना पड़ा तो वह आपके लिए कैसी स्थिति थी?
– मैं इसको लेकर कभी निराश नहीं हुआ. मुझे पता था कि यह समाज की सच्चाई है और मुझे इसका सामना करना है. हालांकि जेएनयू में अच्छे लोग भी बहुत हैं जो चीजों को समझते हैं. जैसे रमेश राव (लाइफ साइंस) जी मेरे सुपरवाइजर थे. वो बहुत अच्छे व्यक्ति थे. वाइस चांसलर मिस्टर नायडूमा, वो भी बहुत अच्छे थे. तो जो मैं राव साहब की बात कर रहा था, वो हमेशा हौंसला बढ़ाते थे. कहते थे कि पढ़ना चाहिए. अच्छा करना है. तो मेरे कहने का मतलब है कि दोनों तरह के लोग हैं.
अपने संघर्ष के दिनों को आप कैसे याद करते हैं?
– संघर्ष से मुझे कभी परहेज नहीं रहा. ना ही शिकायत रही. बल्कि मैने हमेशा सोचा कि मुझे खुद को साबित करना है. मुझे लोगों को दिखाना है कि जैसा वो हमारे बारे में सोचते हैं कि हम कुछ कर नहीं सकते, तो उनकी सोच गलत है.
हर किसी की जिंदगी में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो उनकी मदद करते हैं, उन्हें प्रभावित करते हैं. आपकी जिंदगी में यह रोल किसका था?
– सबसे पहले बाबा साहेब, फिर मां-बाप, प्रो. रमेश राव, इसके बाद मेरी पत्नी रेखा हैं. वो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में साइंटिस्ट हैं. वो हमेशा मेरे पीछे रही हैं. मेरे बचपन के शिक्षक सावले साहब हैं, जिन्होंने मुझे दो साल तक अपने साथ रखा. जेएनयू के वातावरण का भी अपना अहम रोल है. मैने जो पहले कहा वह एक अलग पहलू है लेकिन जेएनयू एक ऐसी जगह है जहां आदमी खुद भी सीख सकता है और प्रेरणा ले सकता है. दूसरे लोगों की सफलता और असफलता से भी सीखने की कोशिश करता हूं.
आप जेएनयू में वार्डन भी रहे, चीफ प्राक्टर रहे, डीन रहे, कुलपति की अनुपस्थिति में यह पद भी संभाला. तकरीबन दो दशक में आपने युवा वर्ग को करीब से देखा है. इस वक्त में आपने युवा को कितना बदलते देखा है?
– मैं 76 से यूथ के साथ हूं. उन्हें देख रहा हूं. तब उनमें सोशल वैल्यू था. उनमें अपने लिए करते-करते सोसाइटी के लिए भी काम करने की इच्छा रहती थी. वो समाज का दुख समझते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. उनमें बदलाव आ रहा है. वह खुद में केंद्रित होते जा रहे हैं. ज्ञान को भी बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं. वह तेज भागना चाहते हैं लेकिन खुद का रास्ता नहीं बना रहे हैं. तो ऐसा है. बाकी सोसाइटी बदलती है तो हर जगह बदलाव आता है. अब आप जेएनयू को ही देखिए. कितनी प्रोग्रेसिव यूनिवर्सिटी है लेकिन रिजर्वेशन पर यहां भी हंगामा हुआ. तो सोशल कमिटमेंट कम हो गया है.
कैंसर एंड रेडिएशन बॉयलोजी पर आपका काफी रिसर्च रहा है. अपनी प्रतिभा से आपने समाज को बहुत कुछ दिया है. आपका काम किस तरह का था?
– मेरा एमएससी न्यूक्लियर कमेस्ट्री में था. इसके चलते मुझे रेडिएशन की केमेस्ट्री के बारे में पता था. लेकिन बायलोजिकल इफेक्ट पता नहीं था. मुझे इसमें इंट्रेस्ट था कि बायलोजिकल इफेक्ट देखना चाहिए. बाद में नागाशाकी का देखा जो काफी विध्वंसक था. तो बायलोजिकल इफेक्ट देखने की इच्छा थी. इसलिए मैं यहां आया. हमने इस पर काम किया कि रेडिएशन से जो डैमेज होता है, वह किस तरह का होता है. इसको कैसे कम किया जा सकता है या फिर इससे कैसे बचा जा सकता है. जिस रेडिएशन से कैंसर पैदा होता है, उसका ट्रिटमेंट भी उसी से होता है. जैसे नार्मल सेल कैंसर बन जाती है. फिर कैंसर को रेडिएशन देकर kill (खत्म) भी किया जा सकता है. ये दोनों अलग-अलग हैं. मुझे इसके बारे में जानने में काफी दिलचस्पी थी. तो मैने दोनों चीजें देखी कि रेडिएशन का बॉयलोजिकल इफेक्ट क्या है और रेडिएशन से क्या किया जा सकता है. उसमें कुछ बहुत नुकसान है. इसे कम कर के कैसे फायदेमंद किया जा सकता है. इसके बारे में मैने नया सुझाव दिया था जिसके लिए मुझे नेशनल अवार्ड मिला था. 96 में आईसीएमआर अवार्ड था. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च. तो मैने रेडिएशन का मैकेनिज्म जानने की कोशिश की थी कि कैसे यह रेडिएशन कैंसर पैदा भी करता है और खत्म भी करता है.
आपने जो काम किया क्या उसका लोगों को कोई फायदा मिल पाया. क्या वो आगे बढ़ पाया?
– हमारा काम तो लेबोरेटरी वर्क होता है. हर चीज के बारे में विश्व स्तर पर रिसर्च होता है. जैसे कैंसर में जितना एक महीने में शोधपत्र छपता है, अगर बैठ कर पढ़ा जाए तो तीन महीने लग जाएंगे. तो ये बहुत बड़े पैमाने पर होता है. उसी में थोड़ा योगदान मेरा भी है. इसमें ऐसा होता है कि जो रिसर्च हो चुकी होती है, उससे आगे की चीजें ढ़ूंढ़ी जाती है. अभी कैंसर के इलाज में मरीज को काफी खर्च आता है. लेकिन रेडिएशन थेरेपी के तहत कम खर्च में कैंसर का इलाज किया जा सकता है.
अब तक आपके कितने शोध पत्र (रिसर्च पेपर) प्रकाशित हो चुके हैं?
– सौ पेपर प्रकाशित हो चुके हैं. केमेस्ट्री, कैंसर और रेडिएशन बॉयोलाजी पर.
जब भी किसी के हाथ में प्रशासन की बागडौर आती है. वो उसे अपने हिसाब से ढ़ालना चाहता है. आप सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात के पहले वाइस चांसलर (कुलपति) हैं. आप इसे किस तरीके से स्थापित करना चाहते हैं?
– कोई भी यूनिवर्सिटी सामाजिक बदलाव का हथियार है. मैं इसे ऐसे ही देखता हूं. यूनिवर्सिटी नेशनल डेवलपमेंट में अपना योगदान देते हैं. यहां अच्छे स्टूडेंट तैयार करना हमारी जिम्मेदारी है. उन्हें सोशल इक्वैलिटी की बात सिखाना. एक नए कल के लिए तैयार करने का काम होता है. एक नया कल्चर डेवलप करने की कोशिश कर रहे हैं. और इस मिशन के दौरान कोई छोटा-बड़ा नहीं है. मैं टीमवर्क के तहत काम करने पर भरोसा करता हूं. टीम में हर मेंबर का अपना रोल होता है. अगर हर कोई अपना काम नहीं करेगा तो टीम हार भी सकती है. चाहे वो चपरासी ही क्यों न हो, उसका भी एक रोल होता है.
आपने 3 मार्च 2009 को कुलपति का पद संभाला था. अब दो साल हो गए हैं. इन दो सालों में आपने क्या किया है. अभी वहां कितने स्टूडेंट हैं?
– मैने इसे तीन विषयों के साथ शुरू किया था. पहले साल में 25 विद्यार्थी थे. दूसरे साल सात और विषयों को शुरु किया. इस तरह फिलहाल दस कोर्स में 150 स्टूडेंट हो गए हैं. हम जल्दी ही 8-10 नए विषय शुरू करने जा रहे है. तो सारी संख्या मिलाकर तकरीबन 400 स्टूडेंट हो जाएंगे. मेरे लिए खुद कहना तो अच्छा नहीं होगा लेकिन हम अपने स्टूडेंट को क्वालिटी एजूकेशन दे रहे हैं. हमारा जोर रिसर्च पर काफी अधिक है. मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि हमारी यूनिवर्सिटी देश की ऐसी पहली यूनिवर्सिटी है, जहां मैने ‘एम.ए इन सोशल मैनेजमेंट’ नाम का कोर्स शुरू किया है. अभी तक यह कोर्स किसी विश्वविद्यालय में नहीं है. जबकि आज के वक्त में इसकी बहुत जरूरत है. सरकार जो डीजीपी ग्रोथ की बात कह रही है और सोशल सेक्टर में इतना पैसा डाल रही है. लेकिन उसके पास इसके लिए प्लानिंग करना, पॉलिसी डिजायन करना और विश्लेषण के लिए उतने लोग नहीं है. इसको ध्यान में रखते हुए हमने एम.ए इन सोशल मैनेजमेंट का यह कोर्स शुरू किया है. यह पांच साल का कोर्स है. इसके कोर्स के लिए हम बारहवीं क्लास में दाखिला देते हैं. इसमें 40 फीसदी फील्ड वर्क है. जैसे नरेगा है, तो स्टूडेंट गांव में जाकर हर चीज को देखते हैं कि कैसे, क्या काम हो रहा है. इस दौरान वह गांव वालों के साथ ही रहते हैं. खाते-पीते हैं. यह कोर्स काफी पॉपुलर हो रहा है.
विश्वविद्यालय को लेकर आपकी भविष्य की क्या योजना है?
– सोशल कमिटमेंट के साथ मैं इसे सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बनाना चाहता हूं. सामाजिक बराबरी के साथ मैं बेहतर शिक्षा में विश्वास करता हूं. हमें Quality Education देना है. Equity and Equality सिखाना है. ये चार-पांच बातें मैने तय की है.
आप शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. आप अपने स्टूडेंट को क्या मैसेज देते हैं?
– मैं अपने स्टूडेंट से बहुत खुलकर बात करता हूं. मैं उन्हें कहता हूं कि पढ़ाई के बाद नौकरी तो ठीक है. अपने ग्रोथ के लिए यह जरूरी भी है. लेकिन मैं उन्हें हमेशा कहता हूं कि वो सोसाइटी के पार्ट हैं और उन्हें सोसाइटी से जो मिला है, उन्हें उसे वापस करना चाहिए. आप जहां रहो, जिस स्थिति में रहो, आपको चार लोगों का भला करना है. जैसे कोई शिक्षक है तो वह अच्छे स्टूडेंट तैयार करे. तो हमेशा जोर देता हूं कि सोसाइटी को पे-बैक करना जरूरी है.
सपना क्या है आपका?
– (पहले मना करते हैं कि कोई सपना नहीं है. दुबारा पूछने पर उनके चेहरे पर पीड़ा झलक जाती है) मैने ज्यादा सपने टूटते हुए देखे हैं. मैं अपने स्टूडेंट से भी कहता हूं कि आप सपने देखिए लेकिन यह भी याद रखिए की उसके टूटने की संभावना भी बहुत है. वैसे अपनी सोसाइटी के लिए ज्यादा से ज्यादा काम कर सकूं यही सपना है.
आप इतने गरीब परिवार से निकले. फिर कुलपति बनें. तो इतनी सारी सफलताओं के बावजूद वो कौन सी चीज है जो आपको आज भी बहुत परेशान करती है?
– कॉस्ट सिस्टम। लोगों का माइंटसेट अब भी चेंज नहीं रहा है. लोग कॉपीराइट समझते हैं. खुद को विशिष्ट समझते हैं. हमेशा रिजर्वेशन की बात कर के यह साबित करना चाहते हैं कि हमारे में मेरिट नहीं है. ये बातें मुझे बहुत परेशान करती हैं.
सदियों के संघर्ष के बाद आज दलित समाज आगे बढ़ना शुरू हुआ है. लोग अच्छे पदों पर पहुंचने लगे हैं. लेकिन इसके पीछे समाज के सालों का संघर्ष है. तो समाज के इस कर्ज को आप कैसे चुकाएंगे?
– सोसाइटी के कर्ज उतारने की बात है तो आप प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए काम करते हैं. जैसे अगर आप पढ़-लिख कर आगे बढ़ते हैं तो सोसाइटी के अन्य लोग भी यह सोचते हैं कि उन्हें भी आगे बढ़ना है. आप जिस पद पर हैं, अगर आप अपनी ड्यूटी ठीक ढ़ंग से करते हैं तो कई लोगों को अपने आप फायदा हो जाता है. अगर कोई हमारे पास आकर सीधे मदद मांगता है तो भी हम उसका सही मार्गदर्शन करते हैं. तो हम तीन तरीके से समाज का कर्ज चुका सकते हैं. इनडायरेक्ट, पार्ट ऑफ द ड्यूटी और डिफरेंस ऑफ द ड्यूटी ये तीनों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है.
आपका अतीत बहुत गरीबी का रहा है. मजदूर परिवार का रहा हैं. आप भूखे रहें, बिना छत रातें गुजारी. फिर जब आपको सफलता मिली तो क्या आपके मां-बाप आपकी सफलता देख पाएं?
– दुर्भाग्य से जैसे ही सुख के दिन शुरू हुए, मां चल बसी. मां यह सब नहीं देख पाईं. पिताजी ने देखा लेकिन वो हमेशा गांव रहते थे. अपनी दुनिया में रहते थे. तो मैं कितना सफल हूं इस बात को वह समझ नहीं पाते थे लेकिन उन्हें इतना पता था कि मैं पढ़ा-लिखा हूं. उन्हें ये काफी अच्छा लगता था. वो खुश थे. (मां-बाप को याद करते हुए कहते हैं) उन्होंने मेरी पढ़ाई में कभी भी अपनी गरीबी आड़े नहीं आने दी. मुझसे कभी नहीं कहा कि पढ़ाई छोड़ दो और कोई काम पकड़ लो. तो उन्हें हमेशा अच्छा लगता था कि मैं पढ़ा-लिखा हूं. वो हमेशा दूसरों की मदद करने को कहते रहें.
आपने काफी विदेश दौरे भी किए हैं. घोर गरीबी से निकल कर विदेशों तक पहुंचने का अनुभव कैसा था?
– इसके दो-तीन तरह के अनुभव हैं. पहली बार ब्रिटेन गया. फिर कनाडा गया. जापान में भी गया. अमेरिका गया तो वहां देखा की वहां कि सोसाइटी में कोई छोटा-बड़ा नहीं है. हमारे यहां जब भी कोई एक आदमी दूसरे को देखता है तो यह सोचता है कि सामने वाला मुझसे बड़ा आदमी है या फिर छोटा आदमी है. हम एक-दूसरे से बातें नहीं करते. वहां ये सब नहीं होता. जर्मनी यात्रा की एक घटना याद आती है. मैं अकेले खड़ा था. बिना जान-पहचान के लोग खुद आकर गुड मार्निंग कहते थे. मुझे कहीं जाना था, तो कार स्टार्ट नहीं हो रही थी. वहां के प्रोफेसर लोगों ने खुद कार को धक्का दिया. तो मुझे वहां की मानवीयता बहुत पसंद आई थी. कोई इंसान छोटा-बड़ा नहीं था.
एक जगह कॉकटेल पार्टी में गया. वहां तमाम देशों के साइंटिस्ट थे. मैं अकेले खड़ा था. तभी एक साइंटिस्ट ने महसूस किया कि मैं अकेला हूं तो वो मेरे पास आ गया. जहां और लोग बैठे थे, वो मुझे वहां लेकर गया और फिर सबने मुझसे बातचीत शुरू कर दी. कनाडा का अनुभव अलग था. वहां के लोग सबके साथ घुलते-मिलते थे लेकिन वहां जो इंडियन लोग थे, जो बस गए थे. वो अपनी जाति के साथ गए हैं, अपनी भाषा के साथ गए हैं. जब तक उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती वो साथ नहीं आते. उदाहरण के लिए कई बार विदेशों में बसे लोगों को जब उनके बच्चों की शादियां करनी थी तो लोगों ने मुझसे कहा कि सर आप टीचर हैं, कोई अच्छा सा लड़का देख लिजिए. मैं पूछता था कि कैसा लड़का चाहिए तो उनकी सबसे पहली मांग होती थी कि लड़का या लड़की उनकी जाति का होना चाहिए. मतलब देश छोड़ने के बाद भी उनकी मानसिकता नहीं बदली. जहां तक भेदभाव की बात है तो अगर सवर्ण समुदाय का कोई व्यक्ति किसी दलित के साथ एक टेबल पर खाना खाता है, तो जातीय भेदभाव खत्म हो गया, ऐसा नहीं है. क्योंकि उनके दिमाग से यह बात नहीं निकलती. विदेशों में भी दलितों का गुरुद्वारा अलग है.
आपकी जिंदगी में सबसे खुशी का वक्त कौन सा था. सबसे ज्यादा दुख कब हुआ?
– मेरे लिए इसका जवाब देना मुश्किल होगा. फिर भी जहां तक दुख की बात है तो मैने पहले ही कहा कि दलितों को हर वक्त अग्निपरीक्षा देनी होती है. सामने वाले को जैसे ही आपकी जाति का पता चलेगा, वो आपकी प्रतिभा और योग्यता पर शक करना शुरू कर देगा. सबसे अधिक खुशी तब हुई थी जब मेरी बड़ी बेटी अमेरिका गई थी और उसने मुझे वहां से फोन किया. मुझे याद है, उसने फोन पर कहा था ‘’पापा मैं इस वक्त दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से बोल रही हूं’’. ऐसे में गुजरा हुआ वक्त याद आ जाता है. कहां से शुरुआत की थी. बच्चे कहां पहुंच गए. तो मेरी जिंदगी ऐसी ही खट्टी-मिठ्ठी है.
अगर आपको यह अधिकार दे दिया जाए कि आपको कोई एक काम करने की पूरी छूट है, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?
– तब मैं कॉस्ट सिस्टम को खत्म करना चाहूंगा. दलित समाज के लोगों के लिए तो यह अभिशाप है हीं, यह हमारे देश को भी पीछे ले जा रहा है. जब मैं उच्च शिक्षा की बात करता हूं तो मैं तीन देशों के उदाहरण देता हूं. अमेरिका, चीन और जापान. अमेरिका जब स्वतंत्र हो गया तो उसे आगे बढ़ने में कई साल लगें. लेकिन वो नंबर वन हो गया. इसमें उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है. पीएचडी की डिग्री लेने वाले पहले अमेरिकी नागरिक ने अमेरिकन यूनिवर्सिटी से डिग्री नहीं ली थी बल्कि उसने जर्मन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री ली थी. अमेरिका ने पढ़ाई के मामले में जर्मनी का खूब फायदा लिया. अमेरिकी ने अपने कई विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए जर्मनी भेजा. हम और जापान साथ-साथ चलें. 1945 में वहां लड़ाई खत्म हो गई. हम 1947 में आजाद हुए. दोनों ने साथ-साथ अपने विकास की यात्रा शुरू की. हम कई मामलों में उनसे आगे थे. हमारे पास जमीन थी, उनके पास नहीं थी. हमारे पास प्रकृति का सहारा था, उनके पास वो भी नहीं था. जनसंख्या के मामले में भी हम साथ थे लेकिन जापान आज विकसित देश है. हम अभी यह सोच रहे हैं कि हम 2030 में बनेंगे तो 2040 में बनेंगे.
लेकिन आप यह सोचिए की भारत विकसित देश क्यों नहीं बना? जब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि जापान ने अपनी जनसंख्या को अपनी संपत्ति के रूप में इस्तेमाल किया. भारत ने यह नहीं किया. भारत में पूरी जनसंख्या के केवल 10-11 फीसदी लोगों को ही उच्च शिक्षा हासिल है. जापान में यह प्रतिशत 70-80 है. यूरोप में उच्च शिक्षा का प्रतिशत 45-50 है. केनेडा और अमेरिका में 80-90 फीसदी लोग उच्च शिक्षा लेते हैं. एक तथ्य यह भी है कि भारत में जो 10-11 फीसदी लोग उच्च शिक्षा हासिल करते हैं, उनमें दलितों की संख्या कितनी है? देश की पूरी आबादी का 25 फीसदी एससी/एसटी है. इनका विकास नहीं हो रहा है. देश तभी आगे बढ़ेगा जब दलितों को भी शिक्षा दी जाएगी. उन्हें आगे बढ़ाया जाएगा. 16 से 24 साल की उम्र कॉलेज की होती है. हमारे देश में इस उम्र वर्ग के केवल 10.4 फीसदी बच्चे ही कॉलेज में हैं. अगर आईआईटी जैसी जगहों पर एससी/एसटी के छात्र चले भी जाते हैं तो लोग उन्हें बर्दास्त नहीं कर पातें और डुबा देते हैं.
एजूकेशन सिस्टम में दलितों के पीछे छूट जाने से देश को क्या नुकसान हो रहा है?
– कभी दुनिया भर में होने वाले रिसर्च में भारत 9 फीसदी योगदान करता था. आज यह घटकर 2.3 फीसदी रह गया है. सबसे मजेदार बात यह है कि CSIR और DST जैसी जगहों पर कोई रिजर्वेशन नहीं है. अब अगर देश मे यूज होने वाली टेक्नोलाजी की बात करें तो तकरीबन सभी टेक्नोलॉजी इंपोर्टेड (आयात) है. इनमें 50 फीसदी टेक्नोलॉजी ऐसी है, जिसमें कोई बदलाव किए बगैर ज्यों का त्यों इस्तेमाल किया जाता है. बाकी 45 फीसदी टेक्नोलॉजी थोड़े से बदलाव (कॉस्मेटिक चेंज) के साथ इस्तेमाल होती है. तो इस तरह 95 फीसदी तकनीक, जिसका हम इस्तेमाल करते हैं वो इंपोर्टेड है. यानि की हम सिर्फ पांच फीसदी टेक्नोलाजी प्रोड्यूस करते हैं. (सवाल उठाते हुए कहते हैं कि) आखिर हमारे देश की प्रतिभा क्या पैदा कर रही है? आईआईटी वाले skill labour हैं. ये सब अमेरिका चले जाते हैं और फिर वहीं बस जाते हैं. इससे दोहरा नुकसान हो रहा है. इनसे अच्छे तो भारत से मजदूरी करने के लिए मिडिल ईस्ट की ओर जाने वाले मजदूर हैं. वो जितना कमाते हैं, उसका 80 फीसदी डालर देश को भेजते हैं. यूरोप में एक मीलियन पर 5-6 हजार वैज्ञानिक हैं. भारत में यह आंकड़ा 140 का है. और यह हैं कौन? (सवाल उठा कर थोड़ा रुकते हैं, फिर कहते हैं) देश आगे कैसे बढ़ेगा. देश का हित और भविष्य दलितों के हित और भविष्य में है. जब तक दलितों का विकास नहीं होगा, भारत विकसित देश नहीं बन पाएगा.
प्रो. आर.के काले ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात’ के कुलपति हैं. इस इंटरव्यूह पर प्रतिक्रिया देने के लिए आप उन्हें raosahebkale@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. ‘दलित मत’ के जरिए भी आप उन्हें कोई संदेश भेज सकते हैं. ‘दलित मत’ से संपर्क के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
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