बस्तर। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग वैसे तो नक्सली घटनाओं के लिए ही चर्चा में रहता है, लेकिन वनाच्छादित यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति की तमाम खूबियां के लिए भी जाना जाता है. प्राकृतिक सौंदर्य से लदा बस्तर अपनी परंपराओं, खान-पान, कला, सांस्कृतिक गतिवधियों, तीज-त्योहार और उत्सवधर्मिता के लिए विशिष्ट पहचान रखता है. इनमें से कई तो काफी विचित्रता लिए हैं, जैसे चापड़ा चटनी. पेड़ों पर पाए जाने वाले लाल चींटे-चींटियों से यहां के आदिवासी चापड़ा चटनी बनाते हैं.
औषधीय गुणों से युक्त यह चटनी विदेशी सैलानियों को भी दीवाना बना चुकी है. इस कारोबार में लिप्त आदिवासी समाज का दावा है कि चापड़ा चटनी अनेक बीमारियों तक को हर लेती है जबकि स्वाद के कहने ही क्या. यह चटनी रोजगार का बहुत बड़ा जरिया बन चुकी है. हालांकि यह शाकाहारियों के लिए नहीं है. कोलावल के सुदन कहते हैं कि वह और उनके साथी तड़के पांच-छह बजे जंगल जाकर चापड़ा एकत्र करते हैं और सुबह नौ बजे वाली
बस से जगदलपुर आ जाते हैं. यहां चापड़ा बेचने वाली महिलाएं उसे खरीद लेती हैं. ऐसा कर वे प्रतिमाह पांचसात हजार रुपये कमा लेते हैं. इसे दस रुपये दोनी (छोटा दोना) के भाव से बेचा जाता है. बाजार में दशापाल, सरगीपाल, नानगूर, मेटगुड़ा, दरभा, बड़े बोदल आदि गांवों की महिलाएं भी चापड़ा बेचने पहुंचती हैं.
संजय बाजार में पिछले 10-12 साल से चापड़ा बेच रहीं राताखंडी की फूलो कश्यप, दशापाल की नंदना भातरा, कोष्टागुड़ा सोनपुर की सोमारी कश्यप व मेटगुड़ा की चिंगरी कश्यप बताती हैं कि चापड़ा कच्चा धंधा है. लोग जीवित चापड़ा चींटी खरीदना पसंद करते हैं इसलिए इन्हें सहेजने में बड़ी परेशानी होती है.
ऐसे पकड़ते हैं
कोलावल के सुदन ने बताया कि पेड़ों में पत्तों से बनाए छत्तानुमा घरोंदों में लाल चींटे या चींटियां झुंड में रहते हैं. इन्हें एकत्र करने के लिए आदिवासी हाथ में राख लगाकर पेड़ पर चढ़ते हैं. इससे चींटियों के काटने पर जलन कम होती है. इन छत्तों को झटके से थैलीनुमा टोकरी में झाड़ने से चींटियां उसमें भर जाती हैं. उन्होंने बताया कि लोग जिंदा चींटों की चटनी बनाना ही पसंद करते हैं क्योंकि मरने के कुछ देर बाद उसके अम्लीय तत्व खराब होने लगते हैं.
औषधीय गुणों से युक्त है चापड़ चटनी
आमतौर पर आम, जामुन, अमरूद, साल, काजू, अर्जुन आदि वृक्षों में लाल चींटों का छत्ता होता है. बस्तर संभाग में इन लाल चींटों के छत्ते को चापड़ा कहा जाता है. इसी से यहां के आदिवासी चटनी बनाते हैं. औषधीय गुणों से युक्त यह चटनी स्वादिष्ट भी खूब होती है. इसकी बढ़ती मांग के चलते बस्तर के हजारों ग्रामीणों के लिए चापड़ा चटनी रोजगार का स्थायी माध्यम बन चुकी है. बुखार, पित्त, सिरदर्द व बदन दर्द में आदिवासी इसी का प्रयोग करते हैं. हालांकि, संपन्न् वर्ग में इसका इस्तेमाल खान-पान के साथ होता है.
हेमंत कश्यप की रिपोर्ट नई दुनिया से साभार है
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।