कोलकाता हाईकोर्ट के जज जस्टिस एस.सी. कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाया है. 8 फरवरी, 2016 को अवमानना नोटिस जारी होने के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को लिखे गए पत्र में जस्टिस कर्णन ने कहा कि मुझे सिर्फ इसलिए प्रताड़ित किया जा रहा है क्योंकि मैं दलित हूं. अपने आरोप के समर्थन में उन्होंने कई प्रक्रियागत तकनीकी पहलुओं का साक्ष्य दिया है. जैसे-अवमानना की कार्रवाई हाईकोर्ट के कार्यरत जज के खिलाफ नहीं की जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट को इसका अधिकार ही नहीं है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट का 8 फरवरी का आदेश कानून सम्मत नहीं है. अगर सुप्रीम कोर्ट को कोई शिकायत है तो वह मामला संसद में भेज सकता है. जस्टिस कर्णन ने यह भी कहा है कि सारी कार्रवाई से सुप्रीम कोर्ट की दलित विरोधी मानसिकता का पता लगता है. उन्होंने यह भी कहा है कि अपरकास्ट जज कानून हाथ में ले रहे हैं और अपनी न्यायिक शक्ति का प्रयोग Mala fide Intension से कर रहे हैं.
वैसे यह पहली बार नहीं है जब भारतीय राजव्यवस्था के किसी उच्च पदस्थ दलित अधिकारी ने अपने से उच्च सवर्ण अधिकारी पर दलित विरोधी मानसिकता से ग्रस्त होने या दलित होने के कारण प्रताड़ित किये जाने का आरोप लगाया हो. हां, हाईकोर्ट के किसी दलित जज ने सुप्रीम कोर्ट पर दलित विरोधी मानसिकता से ग्रस्त होकर कार्रवाई करने का आरोप पहली बार अवश्य लगाया है. चूंकि आरोप स्वयं सुप्रीम कोर्ट पर है जिसे संविधान ने नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी है, इसलिए आम आदमी की नजर में यह मामला महत्वपूर्ण अवश्य हैं, लेकिन एक समाज-वैज्ञानिक के लिए यह मामला उसी तरह का है, जैसे किसी दलित चपरासी का अपने से उच्च सवर्ण अधिकारी पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाना या किसी दलित नौकरशाह का अपने प्रमुख सचिव या मुख्यमंत्री पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाना. क्योंकि सवर्णों के अन्दर दलितों के प्रति घृणा व बहिष्कार का स्थाई भाव समान रूप से व्याप्त है.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सवर्ण उच्च शिक्षा प्राप्त है या अनपढ़ है. अमीर है या गरीब है. प्राइमरी स्कूल में है या विश्वविद्यालय में, लोअर कोर्ट में है या सुप्रीम कोर्ट में. इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं है. कुछ घटनाएं जो सामान्य तौर पर अखबारों की सुर्खियां बनती हैं, केवल उन पर नज़र डालने से मामला समझ में आ सकता है. अनपढ़ सवर्ण द्वारा दलितों को मंदिर या सार्वजनिक कुओं पर जाने से रोका जाना, पढ़े-लिखे सवर्णों द्वारा शिक्षण संस्थाओं व नौकरियों में दलितों के प्रवेश को रोकने हेतु आन्दोलन चलाना व आत्महत्या जैसी चरमपंथी कार्रवाई करना, जैसी घटनाएं स्वतः प्रमाण हैं. खैरलांजी, झज्जर, लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला जैसी दलित जनसंहार की घटनाएं, पिछले वर्ष गुजरात में दलितों की बर्बर पिटाई, रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या आदि सैकड़ों घटनाएं सवर्णों के दिल में दलितों के प्रति घृणा व बहिष्कार के भाव को ही व्यक्त करती है.
कुछ भद्र सवर्ण मेरी उपरोक्त प्रस्थापना को अति सरलीकरण कह सकते हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि न्यापालिका में कार्यरत सवर्णों की मानसिकता साधारण सवर्णों के समान नहीं हो सकती है. लेकिन यह सच नहीं है. इसे प्रमाणित करने के लिए महज कुछ आंकड़े ही काफी हैं. मसलन, 2010 में न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन की सेवानिवृत्ति के पश्चात वर्तमान तक अर्थात पिछले 6 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में कोई जज दलित समुदाय से नियुक्त नहीं किया गया. उच्च न्यायालयों में भी दलित जजों की संख्या गिनती की ही है, जबकि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास ही है. इससे स्पष्ट है कि उच्च न्यायपालिका में दलितों का प्रवेश वर्जित है. प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई भी जज अन्य पिछड़े वर्ग या आदिवासी समुदाय से भी नहीं है. प्रश्न उठता है कि क्या संविधान लागू होने के 67 वर्षों बाद भी दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़े वर्गों में से ऐसे लोग नहीं मिल रहे हैं जिसे उच्च न्यायपालिका में जज बनाया जा सके.
आइये अब कुछ ऐसे मुकदमों का उल्लेख करते हैं जो दलितों पर अत्याचार से सम्बन्धित थे तथा जिसमें न्यायालयों ने दलितों के विरोध में निर्णय दिया. बथानी टोला नरसंहार के अभियुक्तों को पटना उच्च न्यायालय ने इसलिए छोड़ दिया कि एफ.आई.आर 24 घण्टे के बाद दर्ज कराई गई थी. राजस्थान की भंवरी देवी सामूहिक बलात्कार में सभी अभियुक्तों को जयपुर उच्च न्यायालय ने यह कहकर मुक्त कर दिया कि अभियुक्त सवर्ण हैं, जो दलितों को छूते तक नहीं, तो वे अछूत महिला का बलात्कार कैसे कर सकते हैं.
आरक्षण नीति पर न्यायालय सदैव हमलावर रहा है. ‘मेरिट’ की रक्षा के नाम पर समानता व सामाजिक न्याय जैसे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अवमानना करता रहा है. संविधान लागू होने के तुरन्त बाद उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया था. जिसे 1951 में बाबा साहेब अम्बेडकर के कानून मंत्री रहते ही प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा पुनर्स्थापित किया गया. 1992 में मण्डल कमीशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दलितों व आदिवासियों के आरक्षण पर भी दिशा-निर्देश जारी किया, जिससे दलितों, आदिवासियों को मिलने वाली फीस से छूट, प्राप्तांक में छूट आदि समाप्त हो गयी थी. संविधान संशोधन द्वारा इसे पुनर्स्थापित किया गया. रोस्टर प्रणाली, जिसके आधार पर भर्ती योग्य रिक्त पदों की गणना होती है उसे 1997 में परिवर्तित कर दिया गया.
विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में रोस्टर प्रणाली जो अभी हाल ही में लागू की गयी है उससे दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए रिक्त पदों की संख्या शून्य हो गयी है. सिद्धार्थ विश्वविद्यालय कपिलवस्तु, सिद्धार्थनगर (उत्तर प्रदेश) में विज्ञापित शिक्षकों के 84 पदों में से मात्र एक पद अन्य पिछड़े वर्ग को मिलेगा. 84 पदों में से अनुसूचित जाति/जनजाति के खाते में शून्य पद आया है, जबकि उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के लिए 21 प्रतिशत व अन्य पिछड़े वर्ग लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. यह रोस्टर प्रणाली सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संवैधानिक घोषित की गयी है जिसमें दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शून्य पद प्राप्त हो रहे हैं.
प्रोन्नति में आरक्षण पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की भावना के विरूद्ध निर्णय दिया, जिसके कारण उत्तर प्रदेश के हजारों दलित और आदिवासी कर्मचारी-अधिकारी पदावनत किये गये. रिजनल फूड कार्पोरेशन में कार्यरत एक महिला दलित कर्मचारी को पांच स्टेप पदावनत करके बड़ा बाबू बना दिया गया. दो से तीन स्टेप तो हजारों दलित कर्मचारियों-अधिकारियों को पदावनत किया गया. इस तरह किसी समुदाय के सामूहिक अपमान का उदाहरण विश्व में शायद ही कहीं मिले. जस्टिस कर्णन का सुप्रीम कोर्ट पर लगाया गया आरोप मात्र एक दलित जज का आरोप नहीं है बल्कि सम्पूर्ण दलित समुदाय की भावना की अभिव्यक्ति है. दलित समुदाय न्यायपालिका द्वारा ठगा हुआ महसूस कर रहा है. इस अनुभव को जितनी जल्दी सवर्ण समुदाय स्वीकार लेगा, भारतीय लोकतन्त्र के लिए उतना ही अच्छा होगा.
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